पुण्यतिथि : 30 नवंबर पर विशेष पंडित मालिकराम भोगहा का साहित्यिक अवदान प्रो. अश्विनी केशरवानी छत्तीसगढ़ प्रदेश अनेक अर्थों में अपनी विशे...
पुण्यतिथि : 30 नवंबर पर विशेष
पंडित मालिकराम भोगहा का साहित्यिक अवदान
प्रो. अश्विनी केशरवानी
छत्तीसगढ़ प्रदेश अनेक अर्थों में अपनी विशेषता रखता है। यहां ऐतिहासिक और पुरातात्विक अवशेषों का बाहुल्य है जो अपनी प्राचीनता और वैभव सम्पन्नता की गाथाओं को मौन रहकर बताता है लेकिन इसके प्रेरणाास्रोत और विद्वतजन गुमनामी के अंधेरे में खो गये। उन दिनों आत्मकथा लिखने की पिपासा नहीं होने से कुछ लिख छोड़ने की परम्परा नहीं रही। दूसरी ओर उनकी कृतियां और पांडुलिपियां पर्याप्त सुरक्षा के अभाव में चूहे और दीमक का भोजन या तो बन गये हैं या बनते जा रहे हैं। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद इस ओर देशोद्धार के सम्पोषकों ने ध्यान नहीं दिया। उनकी उपेक्षा नीति के कारण अंचल के अनेक मेघावी कवि, लेखक और कला मर्मज्ञ गुमनामी के अंधेरे में खो गये। इसी अज्ञात परम्परा के महान कवि-लेखकों में पंडित मालिकराम भोगहा भी थे जिन्हें प्रदेश के प्रथम नाटककार होने का गौरव प्राप्त होना चाहिए था, मगर आज उन्हें जानने वाले गिने चुने लोग ही हैं। छत्तीसगढ़ ऐसे अनेक स्वनामधन्य कवि-लेखकों से सुसम्पन्न था। देखिये पंडित शुकलाल पांडेय की एक बानगी :-
रेवाराम गुपाल अउ माखन, कवि प्रहलाद दुबे, नारायन।
बड़े बड़े कवि रहिन हे लाखन, गुनवंता, बलवंता अउ धनवंता के अय ठौर॥
राजा रहिन प्रतापी भारी, पालिन सुत सम परजा सारी।
जतके रहिन बड़े अधिकारी, अपन जस के सुरूज के बल मा जग ला करिन अंजोर॥
पंडित मालिकराम भोगहा इनमें से एक थे। छत्तीसगढ़ गौरव में पंडित शुकलाल पांडेय लिखते हैं :-
नारायण, गोपाल मिश्र, माखन, दलगंजन।
बख्तावर, प्रहलाद दुबे, रेवा, जगमोहन।
हीरा, गोविंद, उमराव, विज्ञपति, भोरा रघुवर।
विष्णुपुरी, दृगपाल, साव गोविंद ब्रज गिरधर।
विश्वनाथ, बिसाहू, उमर, नृप लक्ष्मण छत्तीस कोट कवि।
हो चुके दिवंगत ये सभी प्रेम, मीर, मालिक सुकवि॥
महानदी के तट पर स्थित प्राचीन, प्राकृतिक छटा से परिपूर्ण और छत्तीसगढ़ की संस्कारधानी शिवरीनारायण नवगठित जांजगीर-चांपा जिलान्तर्गत जांजगीर से 60 कि.मी.,बिलासपुर से 64 कि.मी.,रायपुर से 120 कि.मी. बलौदाबाजार होकर और रायगढ़ से 110 कि.मी. सारंगढ़ होकर स्थित है। यहां वैष्णव परम्परा के मठ और मंदिर स्थित है। कलिंग भूमि के निकट होने के कारण वहां की सांस्कृतिक परम्पराओं से पूरी तरह प्रभावित यह नगर भगवान जगन्नाथ का मूल स्थान माना गया है। उड़िया कवि सरलादास ने 14 वीं शताब्दी में लिखा था कि भगवान जगन्नाथ को शबरीनारायण से पुरी ले जाया गया है। यहां भगवान नारायण गुप्त रूप से विराजमान हैं और प्रतिवर्ष माघ पूर्णिमा को सशरीर विराजते हैं। इस दिन उनका दर्शन मोक्षदायी होता है। कदाचित् इसी कारण इसे ''गुप्तधाम'' माना गया है। यहां भगवान नारायण के अलावा केशव नारायण, लक्ष्मीनारायण, जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा, राम लक्ष्मण जानकी, राधाकृष्ण, अन्नपूर्णा, चंद्रचूढ़ और महेश्वर महादेव, बजरंगबली, काली, शीतला और महिषासुरमर्दिनी आदि देवी-देवता विराजमान हैं। प्राचीन साहित्य में यहां मतंग ऋषि का गुरूकुल आश्रम होने का उल्लेख मिलता है। यहीं श्रीराम और लक्ष्मण शबरी के जूठे बेर खाकर उन्हें मोक्ष प्रदान किये थे। यहीं भगवान श्रीराम ने आर्य समाज का सूत्रपात किया था। शबरी से भेंट को चिरस्थायी बनाने के लिए ''शबरी-नारायण'' नगर बसा है। यहां की महत्ता कवि गाते नहीं अघाते। देखिए कवि की एक बानगी :-
रत्नपुरी में बसे रामजी सारंगपाणी
हैहयवंशी नराधियों की थी राजधानी।
प्रियतमपुर है शंकर प्रियतम का अति प्रियतम,
है खरौद में बसे लक्ष्मणेश्वर सुर सत्तम
शिवरीनारायण में प्रकट शैरि-राम युत हैं लसे
जो इन सबका दर्शन करे वह सब दुख में नहिं फंसे।
प्राचीन काल में यहां के मंदिरों में नाथ सम्प्रदाय के तांत्रिकों का कब्जा था। उनके गुरू ''कनफड़ा बाबा और नगफड़ा बाबा'' कहलाते थे और जिसकी मूर्ति यहां आज भी देखी जा सकती है। नवीं शताब्दी के आरंभ में रामानुज वैष्णव सम्प्रदाय के स्वामी दयाराम दास तीर्थाटन करते रतनपुर आये। उनकी विद्वता और चमत्कार से हैहयवंशी राजा प्रसन्न होकर उन्हें अपना गुरू बना लिए। उनके निवेदन पर स्वामी जी शबरीनारायण में वैष्णव मठ स्थापित करना स्वीकार कर लिए। जब वे शबरीनारायण पहुंचे तब उनका सामना तांत्रिकों से हुआ। उनसे शास्त्रार्थ करके उन्हें यहां से जाने को बाध्य किये। इस प्रकार यहां वे वैष्णव मठ स्थापित किये और वे इस मठ के प्रथम महंत हुए। आज मठ के 14 महंत हो चुके हैं जो एक से बढ़कर एक ईश्वर भक्त और चमत्कारी थे। वर्तमान में राजेश्री रामसुन्दरदास जी यहां के महंत हैं। यहां के मंदिरों की पूजा-अर्चना करने वाले पुजारी ''भोगहा'' उपनाम से अभिसिक्त हुए। यहां की महिमा श्री मालिकराम भोगहा के मुख से सुनिए :-
आठों गण सुर मुनि सदा आश्रय करत सधीर
जानि नारायण क्षेत्र शुभ चित्रोत्पल नदि तीर
देश कलिंगहि आइके धर्मरूप थिर पाई
दरसन परसन बास अरू सुमिरन तें दुख जाई।
सन् 1861 में जब बिलासपुर जिला पृथक अस्तित्व में आया तब उसमें तीन तहसील क्रमश: बिलासपुर, शिवरीनारायण और मुंगेली बनाये गये। सुप्रसिद्ध साहित्यकार ठाकुर जगमोहनसिंह सन् 1882 में तहसीलदार होकर शिवरीनारायण आये। उनका यहां आना इस क्षेत्र के साहित्यकारों के लिए एक सुखद घटना थी। यहां का प्राकृतिक सौंदर्य उन्हें इतना भाया कि उन्होंने इसे अपनी रचनाओं में समेटने का भरपूर प्रयास किया। बनारस में ''भारतेन्दु मंडल'' की तर्ज पर उन्होंने यहां ''जगमोहन मंडल'' की स्थापना कर यहां के बिखरे साहित्यकारों को एक सूत्र में पिरोकर उन्हें लेखन की एक नई दिशा प्रदान की। उनकी रचनाओं में कई स्थानों पर 'जगन्मोहन मंडल' का उल्लेख है। यहां के आनरेरी मजिस्ट्रेट पं. यदुनाथ भोगहा के अनुरोध पर उनके चिरंजीव मालिकराम भोगहा को उन्होंने अपने शागिर्दी में साहित्य लेखन करना सिखाया। पं. मालिकराम जी ने उन्हें अपना गुरू माना है। वे लिखते हैं :-
प्रेमी परम रसिक गुणखान।
नरपति विजयसुराघवगढ़ के, कवि पंडित सुखदान॥
जय जन वंदित श्री जगमोहन, तासम अब नहिं आन।
जग प्रसिद्ध अति शुद्ध मनोहर, रचे ग्रंथ विविधान॥
सोई उपदेश्यो काव्य कोष अरू, नाटक को निरमान।
ताकि परम शिष्य ''मालिक'' को, को न करे सनमान॥
तब इस अंचल के अनेक स्वनामधन्य साहित्यकार यहां आकर साहित्य साधना किया करते थे। उनमें पं. अनंतराम पांडेय(रायगढ़), पं. पुरूषोत्तम प्रसाद पांडेय (बालपुर), पं. मेदिनीप्रसाद पांडेय (परसापाली), श्री वेदनाथ शर्मा (बलौदा), पं. हीराराम त्रिपाठी (कसडोल), पं. मालिकराम भोगहा, श्री गोविंद साव, (सभी शिवरीनारायण), श्री बटुकसिंह चौहान (कुथुर-पामगढ़), जन्मांध कवि नरसिंहदास वैष्णव (तुलसी), शुकलाल पांडेय और पं. लोचनप्रसाद पांडेय भी यहां सु जुड़े रहे। तब यह नगर धार्मिक, सांस्कृतिक तीर्थ के साथ साहित्यिक तीर्थ भी कहलाने लगा। कौन हैं ये मालिकराम भोगहा ? छत्तीसगढ़ में उनका साहित्यिक अवदान क्या था ?
शिवरीनारायण मंदिर के पुजारी और भोगहापारा के मालगुजार पंडित यदुनाथ भोगहा का उल्लेख एक सज्जन व्यक्ति के रूप में ठाकुर जगमोहनसिंह ने सन् 1884 में प्रकाशित अपने सज्जनाष्टक में किया है :-
बन्दो आदि अनन्त शयन करि शबरनारायण रामा।
बैठे अधिक मनोहर मंदिर कोटि काम छबिधामा॥
जिनको राग भोग करि निसुदिन सुख पावत दिन रैनू।
भोगहा श्री यदुनाथ जू सेवक राम राम रत चैनू॥
है यदुनाथ नाथ यह सांचों यदुपति कला पसारी।
चतुर सुजन सज्जन सत संगत सेवत जनक दुलारी॥
दिन दिन दीन लीन मुइ रहतो कृषि कर्म परवीना।
रहत परोस जोस तजि मेरे हैं द्विज निपट कुलीना॥
भोगहा जी बड़े सुहृदय, भक्त वत्सल और प्रजा वत्सल थे। सन् 1885 में यहां बड़ा पूरा (बाढ़) आया था जिसमें जन धन की बड़ी हानि हुई थी। इस समय भोगहा जी ने बड़ी मद्द की थी। शिवरीनारायण तहसील के तहसीलदार और कवि ठाकुर जगमोहनसिंह ने तब ''प्रलय'' नाम की एक पुस्तक लिखी थी। इस पुस्तक के 'समर्पण' में वे भोगहा जी के बारे में लिखते हैं :-''भोगहा जी आप वहां के प्रधान पुरूष हो। आपकी सहायता और प्रजा पर स्नेह, जिसके वश आपने टिकरीपारा की प्रजा का प्राणोद्धार ऐसे समय में जब चारों ओर त्राहि त्राहि मची थी, किया था-इसमें सविस्तार वर्णित है। यह कुछ केवल कविता ही नहीं वरन सब ठीक ठाक लिखा है।'' देखिये उनका पद्य :-
पुरवासी व्याकुल भए तजी प्राण की आस
त्राहि त्राहि चहुँ मचि रह्यो छिन छिन जल की त्रास
छिन छिन जल की त्रास आस नहिं प्रानन केरी
काल कवल जल हाल देखि बिसरी सुधि हेरी
तजि तजि निज निज गेह देहलै मठहिं निरासी
धाए भोगहा और कोऊ आरत पुरवासी॥ 52 ॥
कोऊ मंदिर तकि रहे कोऊ मेरे गेह
कोऊ भोगहा यदुनाथ के शरन गए लै देह
शरन गए लै देह मरन तिन छिन में टारयौ
भंडारो सो खोलि अन्न दैदिन उबारयौ
रोवत कोऊ चिल्लात आउ हनि छाती सोऊ
कोउ निज धन घर बार नास लखि बिलपति कोऊ॥ 53 ॥
श्री यदुनाथ भोगहा को मालगुजार, माफीदार और पुजारी बताया गया है। बाढ़ के समय उन्होंने बड़ी मद्द की थी। टिकरीपारा (तब एक उनकी मालगुजारी गांव) में स्वयं जाकर वहां के लोगों की सहायता की थी। ठाकुर साहब ने लिखा है :-''ऐसे जल के समय में जब पृथ्वी एकार्णव हो रही थी, सिवाय वृक्षों की फुनगियों के और कुछ दिखाई नहीं देता था और जिस समय सब मल्लाहों का टिकरीपारा तक नौका ले जाने में साहस टूट गया था, आपका वहां स्वयं इन लोगों को उत्साह देकर लिवा जाना कुछ सहज काम नहीं था। यों तो जो चाहे तर्क वितर्क करें पर जिसने उस काल के हाल को देखा था वही जान सकता है।'' एक दोहा में इसका उन्होंने वर्णन किया है :-
पै भुगहा हिय प्रजा दुख खटक्यौं ताछिन आय।
अटक्यों सो नहिं रंचहू टिकरी पारा जाय॥ 63 ॥
बूड़त सो बिन आस गुनि लै केवट दस बीस।
गयो पार भुज बल प्रबल प्रजन उबारयौ ईश॥ 64 ॥
इस सद्कार्य से प्रभावित होकर ठाकुर जगमोहनसिंह ने इनकी प्रशंसा अंग्रेज सरकार से की थी और उन्हें पुरस्कार भी देने की सिफारिश की थी मगर अंग्रेज सरकार ने ध्यान नहीं दिया था। उन्होंने लिखा है :- ''आपका इस समय हमारी सरकार ने कुछ भी सत्कार न किया-यद्यपि मैंने यथावत् आपकी प्रशंसा अपने अधिकार के सम्बंध में श्रीयुत् डिप्टी कमिश्नर बिलासपुर को लिखी थी तथा सोच का स्थान है कि उस पर भी अद्यापि ध्यान न हुआ-'नगार खाने में तूती की आवाज कौन सुनता है ?' आदि आपकी सहायता, प्रजागण पर स्नेह और उनका उपकार जगत ने स्वीकार किया और उनकी भी प्रीति आप पर निष्कपटता के साथ है तो इससे बढ़ के और पारितोषिक नहीं। क्यों कि 'धनांनि जीवितन्नजैव परार्थे प्राज्ञ उत्सृजेत तन्निमित्ते वरं त्यागि विनाशे नियते सति' और भी 'विभाति काय: करूणा पराणाम्परोपकारैर्नतु चन्दनेन' ऐसा प्राचीन लोग कह आये हैं।' इस प्रकार उनकी प्रशंसा कर ठाकुर साहब ने उनके सुखी रहने की कामना की है :-
सुखी रहैं ये सब पुरवासी खलगन सुजन सुभाए।
श्री यदुनाथ जियै दिन कोटिन यह मन सदा कहाए॥ 109 ॥
पंडित मालिकराम भोगहा का जन्म बिलासपुर जिले (वर्तमान जांजगीर-चांपा जिला) के शिवरीनारायण में संवत् 1927 में हुआ। वे सरयूपारी ब्राह्मण थे। उनके पिता पं. यदुनाथ भोगहा यहां के नारायण मंदिर के प्रमुख पुजारी, मालगुजार और आनरेरी मजिस्ट्रेट थे। जब मालिकराम बहुत छोटे थे तभी उनकी माता का देहावसान हो गया। मातृहीन पुत्र को पिता से माता और पिता दोनों का प्यार और दुलार मिला। उनकी सम्पूर्ण शिक्षा दीक्षा तहसीलदार ठाकुर जगमोहनसिंह के संरक्षण में हुई। संस्कृत, अंग्रेजी और उर्दू के अलावा उन्होंने संगीत, गायकी की शिक्षा ग्रहण की। आगे चलकर मराठी और उड़िया भाषा सीखी। उन्होंने कम समय में ही अलौकिक योग्यता हासिल कर ली। मालिकराम जी धीरे धीरे काव्य साधना करने लगे। पहले उनकी कविता अवस्थानुरूप श्रृंगार रस में हुआ करती थी। बाद में उनकी कविताएं अलंकारिक थी। उनकी कविताएं सरस और प्रसाद गुण युक्त थी। उनकी कुछ कविताओं को ठाकुर जगमोहनसिंह ने अपनी पुस्तकों में सम्मिलित किया है। देखिए उनकी एक कविता : -
लखौं है री मैंने रयन भयै सोवै सुख करी।
छकी लीनी बीनी मधुर गीत गावै सुर भरी।
मिटावै तू मेरे सकल दुख चाहे छनिक में।
न लावै ज्यों बेरी अधर रस सोचे तनिक में॥
मालिकराम जी अपना उपनाम ''द्विजराज'' लिखा करते थे। उनकी अलंकारी भाषा होने के कारण लोग उन्हें ''अलंकारी'' भी कहा करते थे। शिवरीनारायण के मंदिर के पुजारी होने के कारण ''भोगहा'' उपनाम मिला। उनके वंशज आज भी यहां मंदिर के पुजारी हैं।
मालिकराम जी, ठाकुर जगमोहनसिंह के प्रिय शिष्य थे। उसने भोगहा जी को अपने साथ मध्य प्रांत, मध्य भारत, संयुक्त प्रांत और पंजाब के प्रसिद्ध स्थानों की यात्रा करायी जिससे उन्हें यात्रा अनुभव के साथ विद्यालाभ भी हुआ। बाल्यकाल से ही मालिकराम जी धार्मिक प्रवृत्ति के थे। वे हमेशा धार्मिक ग्रंथों का पठन और मनन किया करते थे। किशोरावस्था में उन्होंने वेद, उपनिषद और दर्शनशास्त्र का अध्ययन किया। ब्रह्यचर्य रहकर चतुर्मास का पालन करना, पयमान को जीवन का आधार समझना, नित्य एक हजार गायत्री मंत्र का जाप करना, योग धर्म में पथिक होकर भी सांसारिकर् कत्तव्यों से जूझना और अपनी सुशिक्षा तथा सच्चरित्र के द्वारा लोगों में धर्मानुराग उत्पन्न कर परमार्थ में रत रहना वे परम श्रेष्ठ समझते थे। इन्हीं गुणों के कारण मालिकराम जी आदर्श गृहस्थ के पावन पद के अधिकारी हुये। वे अक्सर कहा करते थे-'' ब्रह्यचर्य व्रत और गायत्री मंत्र में ऐसी शक्ति है जिससे मनुष्य देवतुल्य बन सकता है।'' वे स्त्री शिक्षा और पत्नीव्रत पर लाोगें को उपदेश दिया करते थे। उनके इस उनदेश का लोगों पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ता था। बैसाख पूर्णिमा संवत् 1964 को उनकी पत्नी का स्वर्गवास हो गया। इससे उन्हें बहुत धक्का लगा। वे अक्सर कहा करते थे-'' मेरी आध्यात्मिक उन्नति का एक कारण मेरी पत्नी है। उनके सतीत्व और मनोदमन को देखकर मैं मुग्ध हो जाता हूं। उनका वियोग असहनीय होता है :-
मेरे जीवन की महास्थली में तू थी स्निग्ध सलिल स्रोत।
इस भवसागर के तरने में तेरा मन था मुझको पोत॥
कहीं पत्नीव्रत में विघ्न उपस्थित न हो और चित्त की एकाग्रता जो दृढ़ अध्यावसाय से प्राप्त हुई है, कहीं विचलित न हो जाये, कुछ तो इस आशंका से और कुछ अपने पिता की आज्ञा का पालन करने के लिये उन्होंने दूसरा विवाह कर लिया। समय आने पर उन्हें पुत्ररत्न की प्राप्ति हुई लेकिन जन्मते ही वह मृत्यु को प्राप्त हो गया। नवजात पुत्र की मृत्यु से वे बहुत व्यथित हुये। वे अस्वस्थ रहने लगे और सूखकर कांटा हो गये। उपचार से उन्हें कोई विशेष लाभ नहीं हुआ और अंतत: वे 38 वर्ष की अल्पायु में 30 नवंबर सन् 1909 को स्वर्गवासी हुए। यह जानते हुये भी कि शरीर नश्वर है, न अतीव वेदना से भर उठा। उन्हीं के शब्दों में :-
जो जन जन्म लियो है जग में सो न सदा इत रैहैं।
जग बजार से क्रय विक्रय कर अंत कूच कर जैहैं।
तद्यपि जे सज्जन विद्वज्जन असमय ही उठ जावै।
तिनके हेतु जगत रोवत है गुनि गुनि गुण पछतावै।
पंडित लोचनप्रसाद पांडेय उन्हें शोकांजलि देते हुए लिखते हैं :-
हे प्राणियों की प्रकृति जग में मरण यह सब जानते।
यह देह है भंगुर इसे भी लोग हैं सब मानते।
पर मृत्यु प्रियजन की जलाती हा ! न किसके प्राण है ?
किसका न होता प्रिय विरह से भ्रष्ट सारा ज्ञान है ?
भवताप तापित प्राण को चिरशांति का जो स्रोत है।
भवसिंधु तरने हेतु जिसका हृदय पावन पोत है।
चिर विरह ऐसे मित्र का हो सह्य किसको लोक में ?
छाती नहीं फटेगी किसकी हाय ! उसके शोक में ?
शोकाश्रुप्लावित नेत्र होते हैं रूक जाता गला।
कर कांपता है फिर लिखें हम इस दशा में क्या भला ?
इस समय तो रोदन बिना हमसे नहीं जाता रहा।
हा हन्त मालिकराम ! धार्मिक भक्त ! हा द्विजराज ! हा !
पं. मालिकराम जी एक उत्कृष्ट कवि और नाटककार थे। उन्होंने रामराज्यवियोग, सती सुलोचना और प्रबोध चंद्रोदय (तीनों नाटक), स्वप्न सम्पत्ति (नवन्यास), मालती, सुर सुन्दरी (दोनों काव्य), पद्यबद्ध शबरीनारायण महात्म्य आदि ग्रंथों की रचना की। उनका एक मात्र प्रकाशित पुस्तक रामराज्यवियोग है, शेष सभी अप्रकाशित है। यह नाटक प्रदेश का प्रथम हिन्दी नाटक है। इसे यहां मंचित भी किया जा चुका है। इस नाटक को भोगहा जी ने ठाकुर जगमोहनसिंह को समर्पित किया है। वे लिखते हैं :-'' इस व्यवहार की न कोई लिखमत, न कोई साक्षी और न वे ऋणदाता ही रहे, केवल सत्य धर्म ही हमारे उस सम्बंध का एक माध्यम था और अब भी वही है। उसी की उत्तेजना से मैं आपको इसे समर्पण करने की ढिठाई करता हूं। क्योंकि पिता की सम्पत्ति का अधिकारी पुत्र होता है, विशेष यह कि पिता, गुरू आदि उपमाओं से अलंकृत महाराज के स्थान पर मैं आपको ही जानता हूं। जिस तरह मैंने अपना सत्य धर्म स्थिर रख, प्राचीन ऋण से उद्धार का मार्ग देखा, उसी तरह यदि आप भी ऋणदाता के धर्म को अवलम्ब कर इसे स्वीकार करेंगे तो मैं अपना अहोभाग्य समझूंगा..।''
भोगहा जी के बारे में पं. लोचनप्रसाद पांडेय लिखते हैं :-'' पूज्य मालिकराम मेरे अग्रज पं. पुरूषोत्तम प्रसाद पांडेय के बड़े स्नेही मित्र थे। उनमें बड़ी घनिष्ठता थी। मालिकराम जी हमारे प्रदेश के एक सुप्रसिद्ध और दर्शनीय पुरुष थे। उनकी सच्चरित्रता और धार्मिकता की प्रशंसा हम क्या अंग्रेज अधिकारी और पादरी तक किया करते थे। कई पादरी उनकी आध्यात्मिक उन्नति से मुग्ध होकर उनका मान करते थे। मालिकराम जी का हृदय बालकों के समान कोमल और पवित्र था। वे बालकों के साथ बातचीत करके खुश होते थे। ग्रामीण किसानों और उन आदमियों से जिन्हें हम असभ्य कहकर घिनाते थे, उनसे बड़े प्रेम और आदर के साथ मिला करते थे। वे ग्रामीण भाषा में गीत गाकर और हावभाव के साथ बोला करते थे जिससे हजारों नर नारियां मोहित उठ उठते थे। उनकी साहित्य सेवा और मातृ भाषानुराग आदर्श था। स्वदेश भक्ति तो उनके नस नस में भरी हुई थी। उनकी विद्वता और काव्य शक्ति की प्रशंसा अनेक विद्वानों ने की है। ऐसे आदर्श और गुणवान पुरूष का अल्प अवस्था में उठ जाना हमारे देश का दुर्भाग्य है। उनकी मृत्यु से छत्तीसगढ़ का एक सपूत हमसे छिन गया।'' अस्तु :-
जिसका पवित्र चरित्र औरों के लिये आदर्श है।
वह वीर मर कर भी न क्या जीवित सहस्रों वर्ष है॥
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रचना, लेखन, फोटो और प्रस्तुति,
प्रो. अश्विनी केशरवानी
राघव, डागा कालोनी,
चांपा-495671 (छत्तीसगढ़)
अश्विनी जी का ज़बरदस्त प्रशंसक हूं में। पत्रिकाओं से लेकर ब्लॉग्स तक पर उनकी रचनायें पढ़ता हूं, उनमें भाषा के शिल्प के साथ ही जो अनुसंधान और मेहनत नज़र आते हैं उनको मेरा सलाम।
जवाब देंहटाएंअजय शर्मा, नई दिल्ली
अश्विनी जी का ज़बरदस्त प्रशंसक हूं में।
जवाब देंहटाएंपत्रिकाओं से लेकर ब्लॉग्स तक पर उनकी रचनायें पढ़ता हूं, उनमें भाषा के शिल्प के साथ ही जो अनुसंधान और मेहनत नज़र आते हैं उनको मेरा सलाम। हाल ही में जशपुर पर उनका लेख कहीं देखा, पर पूरी तरह पढ़ नहीं सका, क्या मालूम हो सकेगा कि वो लेख कहां से मिल सकता है।
ajay sharma ke comment ke liye dhanyawad.
जवाब देंहटाएंprof. ashwini kesharwani