बाल-साहित्य हँस-हँस गाने गाएँ हम ! कवि - डॉ. महेंद्रभटनागर ...
बाल-साहित्य
हँस-हँस गाने गाएँ हम !
कवि - डॉ. महेंद्रभटनागर
वर्षा
सर-सर करती चले हवा
पानी बरसे झम-झम-झम !
आगे-आगे
गरमी भागे
हँस-हँस गाने गाएँ हम !
सर-सर करती चले हवा
पानी बरसे झम-झम-झम
मेंढ़क बोलें
पंछी डोलें
बादल गरजें; जैसे बम !
सर-सर करती चले हवा
पानी बरसे झम-झम-झम !
नाव चलाएँ
खू़ब नहाएँ
आओ कूदें धम्मक - धम !
सर-सर करती चले हवा
पानी बरसे झम-झम-झम !
खेलें खेल
छुक-छुक करती आयी रेल
आओ, हिल-मिल खेलें खेल !
आँख-मिचौनी, खो-खो और
दौड़ा-भागी सब-सब ठौर !
टिन्नू मिन्नू पिन्नू साथ
हँस-हँस और मिला कर हाथ !
कूदें - फादें घर दीवार
चाहें जीतें, चाहें हार !
कसरत करना हमको रोज़
ताक़तवर हो अपनी फ़ौज !
सब कुछ करने को तैयार;
नहीं कभी भी हों बीमार !
आपस में हम रक्खें मेल !
छुक-छुक करती आयी रेल
आओ, हिल-मिल खेलें खेल !
अच्छे लड़के
हम बालक हैं, हम बन्दर हैं,
हम भोले-भाले सुन्दर हैं !
हर रोज़ सुबह उठ जाते हैं,
मुँह धोकर बिस्कुट खाते हैं !
दो कप चाय गरम जब मिलती
तब यह सूरत जाकर खिलती !
फिर, पंडितजी से पढ़ते हैं,
हम नहीं किसी से लड़ते हैं !
माँ के कहने पर चलते हैं,
ना रोते और मचलते हैं !
दिन भर हँसते-गाते रहते,
भारत-माता की जय कहते !
हम रहते भाई मिल-जुल कर
हो भला हमें फिर किसका डर ?
जागो
चहक रहीं है चिड़ियाँ चीं-चीं
तुमने अब क्यों आँखें मीचीं ?
हुआ सबेरा जागो भैया
जागा तोता, जागी गैया !
यदि जल्दी उठ जाओगे,
तो खूब मिठाई पाओगे !
अम्मा ने चाय बनायी है,
मीठा हलुआ भी लायी है !
खाना है तो बिस्तर छोड़ो,
फ़ौरन मुँह को धोने दौड़ो !
माँ
माँ ! तू हमको प्राणों से भी प्यारी है !
मीठा दूध पिलाती है
रोटी रोज़ खिलाती है
हँस-हँस पास बुलाती है
गा-गा गीत सुलाती है
दुनिया की सब चीज़ों से तू न्यारी है !
माँ ! तू हमको प्राणों से भी प्यारी है !
कहती हर रात कहानी,
बातें अपनी पहचानी,
सुन जिनको हम खुश होते
सुख सपनों में जा सोते,
हे माँ तुझ पर सब वैभव बलिहारी है !
माँ ! तू हमको प्राणों से भी प्यारी है !
हम ....
हम छोटे - छोटे भोले - भाले सारे बाल
पढ़-लिख पर जल्द बनेंगे वीर जवाहरलाल !
अच्छे-अच्छे काम करेंगे
नहीं किसी से ज़रा डरेंगे
दुनिया में कुछ नाम करेंगे
भारत-माता को कर देंगे हम मालामाल !
पढ़-लिख कर जल्द बनेंगे वीर जवाहरलाल! हम छोटे - छोटे भोले - भाले सारे बाल !
जन-जन का दुख दूर करेंगे
सेवा हम भरपूर करेंगे
बाधा चकनाचूर करेंगे
झूठे धोखेबाजों की नहीं गलेगी दाल !
पढ़-लिख कर जल्द बनेंगे वीर जवाहरलाल !
हम छोटे - छोटे भोले - भाल सारे बाल !
काम हमारा
भारत की आशा हैं हम, बलवान,
साहसी, वीर बनेंगे,
इसकी सीमा-रक्षा को हँस-
हँस, सैनिक रणधीर बनेंगे,
हमको आगे बढ़ते जाना,
हर पर्वत पर चढ़ते जाना,
भूल न पीछे पैर हटाना,
इतना केवल काम हमारा !
कितना सुन्दर, कितना प्यारा !
भारत के दिल की धड़कन हम
थक कर बैठ नहीं जाएंगे,
भूख-गऱीबी का युग जब-तक
है, चैन न किंचित पाएंगे,
घर-घर में जा दीप जलाना,
रोते हैं जो उन्हें हँसाना,
आज़ादी के गाने गाना,
इतना केवल काम हमारा !
कितना सुन्दर, कितना प्यारा !
हमारा देश
आज हमारा देश नया है !
ये खेत हज़ारों मीलों तक
फैले हैं कितने हरे- हरे,
गेहूँ-मक्का-दाल-चने-जौ
चावल से सारे भरे - भरे !
धरती-माँ का वेश नया है !
आज हमारा देश नया है !
इसमें चिड़ियाँ नीली-पीली
सित-लाल-गुलाबी गाती हैं,
उषा अपने गालों पर प्रति-
दिन नूतन रंग सजाती है !
बुरा अँधेरा बीत गया है !
आज हमारा देश नया है !
हिमालय
भारत-माँ का ताज हिमालय !
ऊँचा-ऊँचा नभ को छूता,
युग-युग जगने वाला प्रहरी,
जगमग-जगमग करता जिसमें
किरनों से मिल बऱ्फ-सुनहरी,
तूफ़ानों का या हमलों का
जिसको न कभी भी लगता भय !
भारत-माँ का ताज हिमालय !
बहती जिसमें माला-सी दो
गंगा - यमुना की धाराएँ,
टकरा-टकरा कर छाती से
जिसके जाती बरस घटाएँ,
हरी-भरी की धरती जिसने
किया हमारा जीवन सुखमय !
भारत-माँ का ताज हिमालय !
दीपावली
जगमग-जगमग करते दीपक
लगते कितने मनहर प्यारे,
मानों आज उतर आये हैं
अम्बर से धरती पर तारे !
दीपों का त्योहार मनुज के
अतंर-तम को दूर करेगा,
दीपों का त्योहार मनुज के
नयनों में फिर स्नेह भरेगा !
धन आपस में बाँट-बूट कर
एक नया नाता जोडेंगे,
और उमंगों की फुलझड़ियाँ
घर-घर में सुख से छोड़ेंगे !
दीपावली का स्वागत करने
आओ हम भी दीप जलाएँ,
दीपावली का स्वागत करने
आओ हम भी नाचे गाएँ !
सबेरा
हर रोज़ सबेरा होता है !
ज्यों ही दूर गगन में उड़कर
यह काली-काली रात गयी-
झट सूरज पूरब से आकर
बिखरा देता है धूप नयी !
जग जाता है 'जिम्मी` मेरा
फिर और न पलभर सोता है !
हर रोज़ सबेरा होता है !
चिड़ियाँ घर-घर में चीं-चीं
शोर मचातीं, गाती आतीं,
सोई 'जीजी` को शरमातीं
और जगाकर उड़-उड़ जातीं,
सब अपने कामों में लगते
आराम सभी का खोता है !
हर रोज़ सबेरा होता है !
टन-टन बजती घंटी चलते
धरती पर जब दो बैल बड़े
देखो हल लेकर जाने को
हैं, कितने पथ पर कृषक खड़े,
खेतों में जाकर इसी समय
'होरी` फसलें बोता है !
हर रोज़ सबेरा होता है !
बादल
ये घनघोर बरसते श्यामल-बादल !
निर्भय नभ में उमड़-घुमड़ कर छाए,
देख धरा ने नाना रूप सजाए,
स्वागत करने नव-वृक्ष उमग आए,
पल्लव-पल्लव में आज मची हलचल !
ये घनघोर बरसते श्यामल-बादल !
नदियाँ जल से पूर गयीं मटमैली,
गिट्टक-टिल्लू ने मिल होली खेली,
हाथों में कागज़ की नावें ले लीं,
सड़कों पर पानी, गलियों में दलदल !
ये घनघोर बरसते श्यामल-बादल !
तालों पर मेंढ़क करते टर-टर-टर,
दीपक पर दीमक़ उड़ती फर-फर-फर,
आओ झूला झूलें जी भर-भर कर,
सुख पाएँ वर्षा का सब बाल-सरल !
ये घनघोर बरसते श्यामल-बादल !
चाँद
चाँद आसमान में निकल रहा,
श्याम रूप रात का बदल रहा !
मुँह पुनीत प्यार से भरा हुआ,
मन सरल दुलार से भरा हुआ,
आ रहा किसी सुदेश से अभी,
मंद - मंद मुसकरा रहा तभी !
साथ रोशनी नयी लिए हुए,
वेश मौन साधु-सा किए हुए ;
नींद का संदेश भेजता हुआ ,
स्वप्न भूमि पर बिखेरता हुआ,
दूर के पहाड़ से सरक-सरक,
झूल पेड़-पेड़ में, झलक-झलक,
और है न ध्यान, खेल में मगन,
सिऱ्फ एक दौड़ की लगी लगन !
आसमान चढ़ रहा बिना रुके,
ढाल औ' चढ़ाव पर बिना झुके !
चाँद का बड़ा दुरूह काज है,
व्योम का तभी न चाँद ताज है !
किशोर
शेर-से दहाड़ते चलो,
आसमान फाड़ते चलो !
वीर हो महान देश हिंद के विजय करो,
मातृभूमि की व्यथा-जलन समस्त तुम हरो,
देख मौत सामने नहीं डरो, नहीं डरो !
तुम स्वतंत्र-स्वर्ण नव-प्रभात के हरेक
शत्रु को पछाड़ते चलो !
शेर से दहाड़ते चलो,
आसमान फाड़ते चलो !
देख आँधियाँ डरावनी नहीं, कभी रुको,
साहसी किशोर शक्तिमान हो, नहीं झुको,
भूख-प्यास झेलते बढ़ो, नहीं कभी थको !
राह रोकता मिले अगर कहीं पहाड़ तो
उसे उखाड़ते चलो !
शेर-से दहाड़ते चलो,
आसमान फाड़ते चलो !
हम मुसकराएंगे
संकटों में भी सदा हम मुसकराएंगे !
हम करेंगे सामना तूफ़ान का
डर नहीं हमको तनिक भी प्राण का
ध्यान केवल मातृ - भू के मान का
देश की स्वाधीनता के गीत गाएंगे !
संकटों में भी सदा हम मुसकराएंगे !
हो भले ही राह में बाधा प्रबल
हम रहेंगे निज भरोसे पर अटल,
एकता हमको बनाएगी सबल,
हम कड़े श्रम से, धरा पर स्वर्ग लाएंगे !
संकटों में भी सदा हम मुसकराएंगे !
जगमगाते दीपकों से प्यार है,
पास फूलों का मधुर उपहार है,
लक्ष्य में हँसता हुआ संसार है,
एक दिन दुनिया सुनहरी कर दिखाएंगे !
संकटों में भी सदा हम मुसकराएंगे !
महान् ध्रुव
सुनीति और सुरुचि थीं
राजा उत्तानपाद की दो रानी,
थी प्रिय अधिक सुरुचि राजा को
इससे वह करती रहती थी मनमानी।
ध्रुव की माँ थीं सुनीति
और सुरुचि-पुत्र थे उत्तम,
दोनों शिशु खेला करते
थे राजा को प्रिय-सम !
एक दिवस शिशु उत्तम को
गोद लिए खेलाते थे राजा,
और अचानक तभी वहाँ आये ध्रुव
देख, लगे चढ़ने अंक पिता के
उत्तम बोले-
'आ जा !`
पर, रानी सुरुचि वहीं बैठी थीं,
जिनके भय से
ले न सके वे ध्रुव को
गोद सदय से !
सोत-पुत्र ध्रुव से
ईर्ष्या से बोली गर्वीली रानी-
'हे ध्रुव !
तुमने इतनी-सी बात न जानी
हो तुम राजा के पुत्र सही
पर, हो न योग्य राज्यासन के
यदि पाना हो राजा की गोद तुम्हें,
तो जन्मो फिर से मेरे कोखासन से।`
खा चोट हृदय पर
रानी के कटु वचनों की,
बालक ध्रुव
तत्काल लगे रोने
सासें भर-भर !
राजा मौन रहे
मानों ध्रुव हो पुत्र न उनका,
इतने अधिक सुरुचि के थे वश में
इतना अधिक उन्हें था उनका डर।
आहत ध्रुव रोते-रोते
अपनी माँ के पास गये फिर,
माँ ने बेटे को
दुलराया, सहलाया,
रोने का पूछा करण,
पर, ध्रुव ने नहीं बताया कुछ
केवल रोते रहे
झुकाए सिर !
इस पर
समझायी सारी बात दासियों ने,
सुन
ध्रुव-माँ भी धीरज छोड़ लगी रोने !
फिर दुख से बोली-
'बेटा !
यह दुर्भाग्य हमारा है,
होनहार के आगे
अरे, न चलता कोई चारा है !
पर, तुम हिम्मत मत हारो,
कुछ ऐसी युक्ति विचारो
जिससे पाओ ऊँचा पद
अचल-अटल
ऐसा कि जहाँ से
हिला-हटा न तनिक भी पाये
देव दनुज मानव बल।`
फिर माँ ने ध्रुव को युक्ति बतायी
'बेटा ! मेरे मत में
सब से ऊँचा-सत्य जगत में।
जिसने सत को पाया
उसका ही यश
सब लोकों ने गाया!
तुम भी सत्य उपासक बन
पा सकते हो वह पद
जिसके आगे तुच्छ
महत् राज्यासन!
सुन चल पडे तभी बालक ध्रुव
करने पूरी माँ की बात,
भाग्य बदलने अपना
मधुवन में किया उन्होंने
तप दिन-रात
पाना सत्य-
यही थी बस एक लगन,
सदा इसी में
डूबा रहता उनका मन !
सत्य ज्ञान की ज्योति जगाना,
अज्ञान-तिमिर को दूर भगाना।
बना हुआ था लक्ष्य यही,
पाना था उनको तथ्य यही।
पढ-लिख कर,
गुरुओं से सुनकर,
औ' जीवन में अनुभव कर
बुद्धि परिश्रम से
जिसको पाकर छोडा,
ध्रुव ने बचपन से ही
जीवन की सुख सुविधाओं से
मुँह मोड़ा !
तभी जगत में
ध्रुव का नाम हुआ,
ज्ञान-ज्योति से ज्योतित
उनका धाम हुआ,
ज्ञानी बनकर दुर्लभ पद पाया
जो जग में ध्रुवपद कहलाया !
पूर्ण ज्ञान पाकर
ध्रुव लौटे अपने घर !
राजा ने पहचानी अपनी भूल बड़ी,
आशीष-स्नेह देने
सुनीति-सुरुचि खडीं,
स्वागत करने जनता उमड पडी !
देख प्रजा का प्रेम तोष,
उत्तानपाद ने ध्रुव को
सौप दिया साम्राज्य कोष।
पर, ध्रुव
कोरे ज्ञानी बनकर नहीं रहे
जनहित अगणित काम किये
औ कष्ट सहे।
माँ की आज्ञा से
आदर्श गृहस्थ बने।
जन-पीड़क यक्षों को
दंडित करने
भीषण युद्ध किये।
विजयी
जन-प्रिय ध्रुव ने
वर्षों तक राज्य किया ,
जग से जो कुछ पाया
वह सब जगे हित
कर दान दिया!
माना
नहीं आज हैं ध्रुव-ज्ञानी,
पर है
उनके यश की शेष कहानी
जिसको
घर-घर में कहती
माँ या नानी !
उत्तर नभ में
जो सबसे चमकीला स्थिर
तारा है,
लगता जो हम सबको
बेहद प्यारा है-
वह
अद्भुत बाल-तपस्वी
ध्रुव का घर है !
वह
जन-रंजक सम्राट
तरुण-ध्रुव का घर है !
वह अनुपम ज्ञानी और विरागी
ध्रुव का घर है !
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रचनाकार संपर्क:
डा. महेंद्रभटनागर, ११० बलवन्तनगर, गांधी रोड,
ग्वालियर ४७४ ००२ (म, प्र.) भारत
फ़ोन : ०७५१.४०९२९०८ / मो- ९८९३४०९७९३
डॉ. महेंद्र भटनागर जी की बाल कविताएं पढ कर अच्छा लगा। बहुत-बहुत बधाई।
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