बाल कहानी दोस्तों का कर्ज -ज़ाकिर अली `रजनीश´ शाम का समय था। असलम उस समय कमरे में अकेला था। वह अभी-अभी खेल के मैदान से लौटा था। उसने कनख...
बाल कहानी
दोस्तों का कर्ज
-ज़ाकिर अली `रजनीश´
शाम का समय था। असलम उस समय कमरे में अकेला था। वह अभी-अभी खेल के मैदान से लौटा था। उसने कनखियों से देखा- माँ किचन में खाना बनाने में व्यस्त थीं। बहन भी किचन में ही मॉं का हाथ बंटा रही थी। पिताजी अभी-अभी बाथरूम के अंदर गये थे। उसने सोचा कि यही सबसे अच्छा मौका है। किसी ने उसे देखा भी नहीं था। चुपचाप अपना काम करे और फिर से खेलने चला जाए। किसी को पता ही नहीं चलेगा कि वह कब आया और कब चला गया।
शिकारी बिल्ली की तरह इधर-उधर देखते हुए असलम दरवाजे के पास लगी खूटियों के पास पहुंचा। वहॉं पर तमाम कपड़े टंगे हुए थे। उसने पिताजी की पैंट की जेब में हाथ डाला। उसका दिल जोर-जोर से धड़-धड़ कर रहा था।
अगले ही पल पिताजी का मोटा सा पर्स असलम के हाथ में आ गया। उसका दिल बेहद घबराया। लगा पिताजी पीछे खड़े उसे देख रहे हैं। उसकी सिट्टी-पिट्टी गुम हो गयी। उसने पीछे देखा। वहॉं तो कोई नहीं था। वह उसका वहम था। वह सोच रहा था कि अगर यह काम अभी नहीं हो पाया, तो फिर वह कभी नहीं कर पाएगा।
असलम ने झटके से पर्स खोला। पर्स के अंदर तमाम नोट रखे हुए थे। असलम ने जल्दी से एक नोट पकड़ कर बाहर खींच लिया। वह 100 रूपये का नोट था। बस इसी की तो उसे जरूरत थी। उसने पर्स को वापस पैंट की जेब में रख दिया। सामने मेज पर उसका बैग पड़ा हुआ था। उसने इतिहास की किताब निकाल कर नोट उसके बीच में रखा और बैग को बंद दिया। उसके बाद वह पुन: चुपके से बाहर निकल गया।
मैदान में बहुत से लड़के क्रिकेट खेल रहे थे। असलम को देखते ही एक लड़के ने आवाज दी, ``असलम, तुम कहॉं चले गये थे? जल्दी आओ।´´
``नहीं, मेरा मन नहीं है।´´ असलम ने खेलने से साफ इनकार कर दिया।
लड़के पुन: खेल में मगन हो गये। असलम पार्क के कोने में बनी बेन्च पर बैठ गया। उसका दिल अभी तक जोर-जोर से धड़क रहा था। लग रहा था जैसे वह सीना चीर कर बाहर आ जाएगा। वह सोचने लगा कि कल स्कूल जाकर वह अपने दोस्तों का कर्ज चुका देगा और फिर उनके रोज-रोज के तानों से मुक्ति पा जाएगा।
अगले ही क्षण असलम का ध्यान 100 की नोट पर चला गया। वह सोचने लगा- उसे नोट को बैग में नहीं रखना चाहिए था। कहीं किसी ने बैग खोला और नोट दिख गया तो? अगर उसकी चोरी पकड़ ली गयी तो? तब क्या होगा? पिताजी तो उसकी खूब पिटाई करेंगे। मॉं भी डांटेंगी। और दोनों को कितना दु:ख होगा। मुझ पर से उनका विश्वास उठ जाएगा। और फिर क्या मैं कभी उनकी नजरों में विष्वासपात्र बन सकूंगा? शायद कभी नहीं।
असलम का मन आत्मग्लानि से भर उठा। उसे अपने आप पर शर्म आने लगी। क्यों उसने चटोरेपने की आदत डाली? क्यों उसने दोस्तों से पैसे मांग कर चाट-पकौड़ी खाई? वे लोग पैसे मांगते थे तो मांगने देते। बहुत होता तो वे घर में शिकायत कर देते। हो सकता है कि पिताजी नाराज होते, डांटते-डपटते। पर मैं उनकी नजरों से गिरता तो नहीं। यह तो मैंने बहुत गलत काम किया। मुझे ऐसा नहीं करना चाहिए था।
अगले ही क्षण असलम ने फैसला कर लिया- मैं इस चोरी का प्रायश्चित करूंगा। मैं पिताजी से सब कुछ सच-सच बता दूंगा। इस प्रकार उनका विश्वास भी टूटने से बच जाएगा और मैं अपना सिर उठाकर भी चल सकूंगा। यह निश्चय करके असलम उठ खडा हुआ और अपने घर की ओर चल पड़ा।
असलम जब अपने कमरे में पहुंचा, तो वहॉं का माजरा देखकर दंग रह गया। उसके पिताजी उसकी कोई किताब लिये बैठे थे। उसे लगा कि पिताजी को सारी बात मालूम हो गयी है। अब? अब वह क्या करे? असलम ने सोचा कि चाहे पिताजी को यह बात मालूम हो या नहीं, वह उन्हें उसे सारी बात सच-सच बता देगा।
अपना दिल कड़ा करके असलम पिताजी के पास पहुंचा और धीरे से बोला, ``मुझे सजा दीजिए पिताजी, मैं आपका गुनहगार हूं।´´
पिताजी आश्चर्यचकित रह गये। उन्हें समझ में नहीं आया कि बात क्या है। दरअसल उन्हें अभी तक अपने पर्स से पैसे गायब होने की बात पता ही नहीं चली थी। इसलिए वे असलम की बात का मर्म नहीं समझ पाए। उन्होंने अचरजपूर्वक पूछा, ``किस बात की सजा बेटे? तुमने कौन सा गुनाह किया है?´´
``मैंने आपके विश्वास को तोड़ा है पिताजी। मैंने आपके रूपये चुराए हैं।´´ कहते हुए उसने इतिहास की किताब के अन्दर से रूपये निकालकर पिताजी के सामने रख दिये।´´
यह देखकर पिताजी हतप्रभ रह गये। उनकी समझ में ही नहीं आया कि वे क्या कहें। असलम कह रहा था, ``यह चोरी मैंने इन्हीं हाथों से की है पिताजी, इन्हें सजा मिलनी ही चाहिए।´´ कहते हुए असलम अपने हाथों को जोर-जोर से दीवार पर पटकने लगा।
अब सारी बात असलम के पिताजी को समझ में आ गयी। वे बोले, ``ठहरो असलम, इतनी सजा तुम्हारे लिए काफी है।´´
पिताजी की बात सुनकर असलम के हाथ जहां के तहां रूक गये। वह आश्चर्यचकित होकर पिताजी की ओर देखने लगा।
``देखो बेटा, किसी भी अपराध की सबसे बड़ी सजा होती है प्रायश्चित। यदि व्यक्ति स्वयं ही सच्चे मन से प्रायश्चित कर ले, तो फिर उसे किसी सजा की जरूरत नहीं होती। क्योंकि सजा तो दी ही इसीलिए जाती है कि उस व्यक्ति को अपनी गल्ती का एहसास हो।´´ पिताजी ने असलम को समझाया, ``मुझे इस बात का अफसोस नहीं है कि तुमने यह चोरी की। जरूर कोई ऐसी बात रही होगी, जिसने तुम्हें मजबूर कर दिया होगा। पर मुझे इस बात की खुशी है कि तुमने सजा पाने से पहले ही प्रायश्चित कर लिया।´´
पिताजी की बातें सुनकर असलम को कुछ हौसला बंधा। उसने चोरी की वजह बताते हुए कहा, ``जी, वो दरअसल मैंने अपने कुछ दोस्तों से उधार लेकर चाट-पकौड़े खाए थे। अब वे लोग मुझसे बार-बार पैसे मांग रहे थे और कह रहे थे कि हम लोग तुम्हारे घर में शिकायत कर देंगे। इसलिए मैंने आपकी डांट से बचने के लिए...।´´
``जो हुआ उसे भूल जाओ बेटा।´´ पिताजी ने असलम के सिर पर हाथ फेरते हुए समझाया, ``लेकिन कोशिश करना कि फिर ऐसी गल्ती न हो।´´
``मैं आपसे वादा करता हूं कि फिर कभी मैं आपके विश्वास को ठेस नहीं लगने दूंगा।´´ असलम ने दृढतापूर्वक अपनी बात कही, ``आगे से मैं ऐसा कोई भी काम नहीं करूंगा, जिससे आपको दु:ख हो और मैं आपकी नजरों में गिर जाऊं।´´
``ये हुई न बात। अच्छा, तो ये रूपये रख लो और इनसे अपने तथाकथित दोस्तों का कर्ज चुका देना।`` कहते हुए पिताजी ने वापस 100 का नोट असलम की ओर बढ़ाया।
``जी, मैं...।´´
असलम को हिचकिचाता देखकर वे बोले, ``हॉं, रख लो। लेकिन भविष्य में उन लड़कों से जरा दूर ही रहना।´´
``जी, मैं समझ गया।´´ कहते हुए असलम ने सौ रूपये का नोट ले लिया और उसे संभाल कर इतिहास की किताब के बीच में ही रख दिया।
इस बार रूपये रखते हुए न तो उसे डर लगा और न ही कोई घबराहट हुई। क्योंकि यह रूपये उसे चुरा कर नहीं, ससम्मान प्राप्त हुए थे।
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रचनाकार परिचय:
ज़ाकिर अली ‘रजनीश’ : एक परिचय
जन्मतिथि
:
एक जनवरी उन्नीस सौ पिचहत्तर.
शिक्षा
:
एम0ए0 (हिन्दी), बी0सी0जे0, सृजनात्मक लेखन (डिप्लोमा).
लेखन
:
कहानी, उपन्यास, नाटक एवं कविता विधाओं में वर्ष 1991 से सतत लेखन। राष्ट्रीय स्तर की पत्र-पत्रिकाओं में एक हजार से अधिक रचनाएं प्रकाशित। अंग्रेजी एवं बंग्ला भाषा में अनेक रचनाओं का अनुवाद.
मीडिया लेखन
:
उ0प्र0 हिन्दी संस्थान, लखनऊ से “हिन्दी का बदलता स्वरूप एवं पटकथा लेखन” फेलोशिप (2005), दूरदर्शन से अनेक धारावाहिक प्रसारित, आकाशवाणी तथा दूरदर्शन से रचनाओं का प्रसारण.
पुस्तक प्रकाशन
:
गिनीपिग (वैज्ञानिक उपन्यास, 1998), विज्ञान कथाएं (कथा संग्रह, 2000).
बाल उपन्यास
:
सात सवाल (यमन के राजकुमार हातिम पर केन्द्रित, 1996), हम होंगे कामयाब/मिशन आजादी (बाल अधिकारों पर केन्द्रित, 2000/2003), समय के पार (पर्यावरण पर केन्द्रित वैज्ञानिक उपन्यास- 8 अन्य विज्ञान कथाओं के साथ प्रकाशित, 2000).
बाल कहानी
:
मैं स्कूल जाऊंगी (मनोवैज्ञानिक कहानियां, 1996), सपनों का गांव (पर्यावरण पर आधारित कहानियां, 1999), चमत्कार (विज्ञान कथाएं, 1999), हाजिर जवाब (हास्य कहानियां, 2000), कुर्बानी का कर्ज (साहस की कहानियां, 2000), ऐतिहासिक गाथाएं (ऐतिहासिक कहानियां, 2000), सराय का भूत (लोक कथा, 2000), अग्गन-भग्गन (लोक कथा, 2000), सोने की घाटी (रोमांचक कहानियां, 2000), सुनहरा पंख (उक्रेन की लोक कथाएं, 2000), सितारों की भाषा (अरब की लोक कथाएं, 2005), विज्ञान की कथाएं (वैज्ञानिक कहानियां, 2006), ऐतिहासिक कथाएं (ऐतिहासिक कहानियां, 2006), Best of Hi-tech Tales (वैज्ञानिक कहानियां, 2006), Best of Historical Tales (ऐतिहासिक कहानियां, 2006).
ऐतिहासिक लेखन
:
विविध विषयों पर बीस पुस्तकें प्रकाशित (2000).
नवसाक्षर साहित्य
:
भय का भूत (अंधविश्वास पर केन्द्रित, 2000), मेरी अच्छी बहू (पारिवारिक सामंजस्य पर केन्द्रित, 2000), थोडी सी मुस्कान (परिवार नियोजन पर केन्द्रित, 2000) असंयम का फल (एड्स पर केन्द्रित, 2000).
सम्पादन
:
इक्कीसवीं सदी की बाल कहानियां (दो खण्डों में 107 कहानियां, 1998), एक सौ इक्यावन बाल कविताएं (2003), तीस बाल नाटक (2003), प्रतिनिधि बाल विज्ञान कथाएं (2003), ग्यारह बाल उपन्यास (2006).
पुरस्कार / सम्मान
:
भारतेन्दु पुरस्कार (सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय, भारत सरकार, 1997), श्रीमती रतन शर्मा स्मृति बालसाहित्य पुरस्कार (रतन शर्मा स्मृति न्यास, दिल्ली, 2001), सहस्राब्दि हिन्दी सेवी सम्मान (यूनेस्को एवं केन्द्रीय हिन्दी सचिवालय, दिल्ली, 2000), डा0 सी0वी0 रमन तकनीकी लेखन पुरस्कार (आईसेक्ट, भोपाल, 2006), विज्ञान कथा भूषण सम्मान (विज्ञान कथा लेखक समिति, फैजाबाद, उ0प्र0, 1997), सर्जना पुरस्कार (उ0प्र0 हिन्दी संस्थान, लखनऊ, 1999, 2000) सहित डेढ दर्जन संस्थाओं से सम्मानित एवं पुरस्कृत।
‘डिक्शनरी ऑफ इंटेलेक्चुअल’, कैम्ब्रिज, इंग्लैण्ड सहित अनेक संदर्भ ग्रन्थ में ससम्मान उदधृत।
‘बाल साहित्य समीक्षा’ (मा0, कानपुर, उ0प्र0) मई 2007 अंक विशेषांक के रूप में प्रकाशित।
विशेष
:
भारतीय विज्ञान लेखक संघ (इस्वा, दिल्ली) भारतीय विज्ञान कथा लेखक समिति (फैजाबाद, उ0प्र0) आदि के विज्ञान लेखन प्रशिक्षण शिविरों में सक्रिय योगदान।
‘तस्लीम’ (टीम फॉर साइंटिफिक अवेयरनेस ऑन लोकल इश्यूज़ इन इंडियन मॉसेस) के सचिव के रूप में वैज्ञानिक चेतना का प्रचार/प्रसार।
‘बच्चों के चरित्र निर्माण में बाल कथाओं का योगदान’ लघु शोध कार्य।
अनेक पत्रिकाओं के विशेषांकों का सम्पादन।
सम्प्रति
:
राज्य कृषि उत्पादन मण्डी परिषद, उ0प्र0 में कार्यरत।
निवास
:
नौशाद मंजिल, तेलीबाग बाजार, रायबरेली रोड, लखनऊ-226005
सम्पर्क सूत्र
:
(साधारण डाक) पोस्ट बॉक्स नं0- 4, दिलकुशा, लखनऊ-226002
मोबाईल- 09935923334
E-mail: zakirlko@gmail
वेब पेज- http://alizakir.blogspot.com
बहुत बढ़िया कहानी ।
जवाब देंहटाएंघुघूती बासूती
Doston ka karz man par ek amit chap chod gayi.achi rachnakar ki ek bahut hi achi rachna.
जवाब देंहटाएंDevi
रोचक कहानी।
जवाब देंहटाएंरोचक है कहानी
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