- सीताराम गुप्ता ''असतो मा सद्-गमय'' वेदों से उद्भृत की गई ये पंक्ति क्या है? क्या ये एक प्रार्थना है, याचना है अथवा हमार...
- सीताराम गुप्ता
''असतो मा सद्-गमय'' वेदों से उद्भृत की गई ये पंक्ति क्या है? क्या ये एक प्रार्थना है, याचना है अथवा हमारे मन की इच्छा है? यदि ये एक प्रार्थना है तो प्रार्थना क्या है और प्रार्थना का प्रयोजन क्या होता है? क्या ये एक सम्पूर्ण प्रार्थना और प्रार्थना का एक आदर्श स्वरूप है? क्या ''असतो मा सद्-गमय'' में मनुष्य की तामसिक वृत्तियों का परिष्कार करने की याचना निहित है? और एक सबसे बड़ा प्रश्न कि ''असतो मा सद्-गमय'' की बार-बार व्याख्या करने की आवश्यकता क्यों पड़ती है?
एक घटना याद आ रही है। एक बच्चा बड़े ध्यान से एक पुस्तक पढ़ रहा था। पुस्तक का शीर्षक था ''बच्चों का सही लालन-पालन कैसे करें?'' किसी व्यक्ति ने ये देखा तो उस बच्चे से पूछा कि भई तुम ये पुस्तक क्यों पढ़ रहे हो? ये पुस्तक तो तुम्हारे माता-पिता को पढ़नी चाहिए। बच्चे ने उत्तर दिया कि मैं यह जानना चाहता हूँ कि मेरा लालन-पालन ठीक से हो रहा है अथवा नहीं। वस्तुत: इस चर्चा का उद्देश्य भी कहीं न कहीं मूल्यांकन तथा पुनर्व्याख्या के बहाने प्रार्थना तथा ''असतो मा सद्-गमय'' के औचित्य तथा प्रासंगिकता को सिद्ध करना ही है।
हम बार-बार प्रार्थना करते हैं कि ''असतो मा सद्-गमय'' अर्थात् मुझे असत्य से सत्य की ओर ले चल। इसका एक अर्थ ये भी हुआ कि हम असत्य में जी रहे हैं इसलिए सत्य की ओर उन्मुख होने की जरूरत है। हाँ, स्थिति कुछ ऐसी ही है। हम चाहे असत्य में न भी जी रहे हों लेकिन सत्य से कोसों दूर अवश्य हैं। उसी सत्य की ओर ले जाने की प्रार्थना उपरोक्त पंक्ति में की गई है। क्या है वह सत्य?
सत्य का स्वरूप:
एक सत्य होता है चर्मचक्षुओं द्वारा जाना जाने वाला सत्य। इस मायाजन्य संसार अथवा भौतिक जगत का सत्य। एक अगरबत्ती सुलगाइये और गोल-मोल घुमाइये। एक सुंदर वलयाकार आकृति दृष्टिगोचर होती है लेकिन ये आलातचक्र है नहीं, मालूम होता है। ये पंखा देखिये गोल-मोल घूम रहा है। इसके घूमने से जिस आकृति का आभास हो रहा है वह वृत्तनुमा आकृति है। लेकिन क्या वास्तव में पंखे की पंखुड़ियाँ एक वृत्त है? नहीं, मात्र वृत्त का आभास कराती हैं ये घूमती हुई पंखुड़ियाँ। यह बाह्य सत्य है। आभासी सत्य है ये वास्तविक सत्य नहीं। वास्तविक सत्य है पंखे को अंदर से जानना। उस ऊर्जा को जानना जिससे पंखा संचालित होता है। उस धातु को जानना जिससे पंखे के अवयवों का निर्माण हुआ है। पंखे की पंखुड़ियों का विश्लेषण करें तो पाएँगे कि इनकी धातु में अणुओं की एक निश्चित व्यवस्था है जो निरंतर परिवर्तनशील है। हर एक अणु में परमाणु भी एक निश्चित पथ में निरंतर गतिशील हैं। जिन्हें हम जड़ पदार्थ समझ रहे हैं वो भी गतिशील हैं यही आंतरिक या वास्तविक सत्य है।
व्यक्ति की देह का सत्य:
एक और सत्य देखिये, आदमी की देह का सत्य। आदमी कहता है देखो मैं कितना ठोस हूँ। आदमी की हड्डियाँ स्टील से भी तीन गुना मजबूत लेकिन वजन में कई गुना हल्की। लेकिन इसकी वास्तविकता इसका सत्य देखिये। आदमी का शरीर कितनी तेजी से बदल रहा है कभी सोचा है, देखा है अथवा अनुभव किया है? मनुष्य के शरीर की अरबों-खरबों कोशिकाएँ अलग-अलग एक सैकेण्ड के हजारवें हिस्से में करोड़ों बार बदलती हैं। हर कोशिका बढ़ती है, एक से दो बनती है तथा अपने साथ वाली कोशिका के साथ प्रतिक्रिया करती है। और ये सब प्रतिक्रियाएँ घड़ी के घंटे की आवाज की तरह एक-एक घंटे के अंतराल से नहीं, हर क्षण ही नहीं अपितु क्षण के सहस्रांश के भी सहस्रांश में घटित होती हैं।
सत्य है क्षण मात्र के परिवर्तन की करोड़ों सोपानों में अनुभूति:
बीज से पौधा बनने, पौधे से कली विकसित होने तथा कली से फूल बनने की प्रतिक्रिया में केवल तीन सोपान नहीं हैं अपितु करोड़ों सोपान आते हैं। मात्र तीन सोपानों को देखना अज्ञान है, असत्य है और करोड़ों सोपानों को अनुभव करना अज्ञान से ज्ञान की ओर तथा असत्य से सत्य की ओर पदार्पण करना है। इस निरंतर परिवर्तनशील संसार को हम जितने भी कम सोपानों में देखने-समझने का प्रयास करते हैं हम उतने ही जड़ होते हैं और जड़ता का कारण है अज्ञान। जैसे ही ज्ञान का उदय प्रारंभ होता है जड़ता कम होती जाती है तथा सत्य का अन्वेषण प्रारंभ हो जाता है। ज्ञान की प्राप्ति ही सत्य है तथा अज्ञान असत्य है। ज्ञान द्वारा प्राप्त इसी सत्य की ओर अग्रसर होने की कामना ''असतो मा सद्-गमय'' में निहित है।
आत्मस्वरूप की जिज्ञासा ही है उत्तम प्रार्थना:
सभी धर्मों में स्वयं को जानने की प्रतिक्रिया पर बल दिया गया है। तुम कौन हो? कहाँ से आए हो? तुम्हारे आगमन का क्या प्रयोजन है? इस प्रकार की जिज्ञासाएँ सभी धर्मों, मतों तथा संप्रदायों में व्याप्त हैं और अपने-अपने तरीके से इनके समाधान के प्रयास भी किये जाते रहे हैं और जो इन प्रश्नों का उत्तर पा सके या इन प्रश्नों का उत्तर खोजने में दूसरों की मदद कर सके उनकी एक पूरी परंपरा हमारे सामने उपलब्ध हैं। सुकरात कहते हैं, ''मैंने अपनी सारी जिन्दगी अपने आपको ही जानने का प्रयत्न किया है। अपनी आत्मा की पूर्णता के लिए सर्वाधिक प्रयत्न किया और ईश्वर से प्रार्थना करता रहा कि प्रभो! तुम मेरी अंतरात्मा को सौंदर्य से भर दो, मेरे बाह्य और अंतर को एक कर दो, मन और वाणी का भेद मिटा दो।'' उन्होंने लोगों को कोई नया ज्ञान नहीं दिया बल्कि प्रत्येक मनुष्य में निहित उनके ज्ञान को अनुभव करने में उनकी मदद की। उन्होंने कहा कि सबसे बड़ी बुराई है ईश्वर की बात न मानना, उस ईश्वर की जो हम सभी के अंदर विद्यमान है। अंदर के ईश्वर को कैसे जानें? कैसे समझें? इसी के लिए तो स्वयं को जानना है। स्वयं को जानना अथवा सेल्फ रियलाइजेशन ही वास्तविक ज्ञान है, सत्य है। इस प्रकार स्वयं को जानने की इच्छा ही ''असतो मा सद्-गमय'' के मूल में निहित है जो एक अच्छी प्रार्थना का मूल तत्व है।
हम चाहे अमृत की इच्छा करें अथवा प्रकाश की मृत्योर्मा अमृतंगमय/तमसो मा ज्योतिर्गमय ये सभी एकमात्र सत्य को जानने की इच्छा है और स्वयं को जानने के प्रयास के बिना अथवा आत्मावलोकन के अभाव में यह संभव ही नहीं है। असत्य के रूप में मृत्यु, अंधकार अथवा अज्ञान से मुक्ति के लिए स्वयं को पूर्ण रूप से जानना अनिवार्य है। पंक्तियों के मात्र उच्चारण से भी हम ज्ञान को प्राप्त नहीं हो सकते। इसको मन के स्तर पर स्वीकार करना और परिवर्तन के लिए इच्छा भी अनिवार्य है। बिना भावना के उद्देश्य प्राप्ति संभव नहीं। अत: हमारी भावना भी शब्दों के अनुरूप हो। जो बोलें वही चाहें। यदि न बोलें तो भी कोई बात नहीं क्योंकि भावना मात्र से उद्देश्य पूर्ति संभव है। अपने मन के भावों को प्रार्थना के अनुरूप रखें। भावना का पोषण करना आ गया तो प्रार्थना के शब्दों की भी आवश्यकता नहीं। यही प्रार्थना की सफलता का मूल है।
'असतो मा सद्-गमय' ही क्यों?
कई बार हम नहीं जानते कि क्या प्रार्थना करें। हम शब्दों के जाल से भ्रमित हो जाते हैं। भाव शब्दों का साथ नहीं दे पाते। भाव और शब्दों में साम्य बना रहे इसके लिए सरल से सरल प्रार्थना का चयन करना अनिवार्य हैं। सरल से सरल प्रार्थना और उसके भाव मन में लाने के लिए ''असतो मा सद्-गमय'' से सरल, आदर्श और उत्तम प्रार्थना क्या होगी?
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संपर्क:
सीताराम गुप्ता,
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पफोन नं. 011-27313954
बहुत प्रेरक लेख है...पढ़ कर ज्ञानवर्धन हुआ।धन्यवाद।
जवाब देंहटाएंअत्यन्त सम्यक विचार!!
जवाब देंहटाएंएक और प्रार्थना इसी तरह की है
हे जीवन प्रकाश के स्वानी, जब सब जग दमका देना।
मेरे भी जीवन के पथ पर, कुछ किरणें चमका देना।।
असतो मा सद्गमय तमसो मा ज्योतिर्गमय मृत्योरमां अमृतंगमयं
जवाब देंहटाएंदीपक भारतदीप
प्रार्थना का भाव हमेशा ही आपको सन्मार्ग पर ले जाता है पर कभी कभी ये बात उद्वेलित सी करती है की लोग अति गूढ़ संस्कृत मे लिखी हुई जिस प्रार्थना को ठीक से उच्चारित भी नहीं कर सकते उसके भाव को कैसे आत्मसात करते होंगे?
जवाब देंहटाएंये कविता पूरी मिल सकती है क्या? जी मेरा अनुरोध है। कृपया मिल जाए तो दे दें।
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