पाब्लो नेरुदाः एंडीज़ से उपजा सौंदर्य और क्रांति का स्वर

SHARE:

-विजय शर्मा साहित्य का अंतिम फैसला काल करता है. अपनी मृत्यु के तीन दशकों के पश्चात भी नेरुदा की ख्याति तथा प्रतिष्ठा बिलकुल कम नहीं हुई है ...

-विजय शर्मा

साहित्य का अंतिम फैसला काल करता है. अपनी मृत्यु के तीन दशकों के पश्चात भी नेरुदा की ख्याति तथा प्रतिष्ठा बिलकुल कम नहीं हुई है बल्कि उनकी जन्मशति विश्व भर में मनाई जा रही है, यह इस बात का सबूत है कि उनके साहित्य में काल के पार जाने की क्षमता है.

पाब्लो नेरुदा की एक छवि बड़े प्यार से गैब्रियल गार्शा मार्केस ने अपनी एक कहानी 'सपनों की सौदागर' में उकेरी है और पाब्लो नेरुदा ने स्वयं अपनी छवि अपनी एक कहानी 'तीन विधवाओं का घर' में प्रस्तुत की है. दोनों छवियाँ काफी मिलती-जुलती हैं. पाब्लो नेरुदा की एक और छवि उभरती है उस भाषण के दौरान जो उन्होंने नोबेल पुरस्कार प्राप्ति के अवसर पर दिया था. इसके साथ ही उनकी छवि बनती है उनकी कविताओं से, उनकी जीवनी से. और इन सब से मिलकर उनकी एक बहु आयामी तस्वीर तैयार होती है. इसमें कोई शक नहीं कि नेरुदा का व्यक्तित्व कई रंगों से मिल कर बना है.

मार्केस ने अपनी एक कहानी 'सपनों की सौदागर' में लिखा है वाल्पराएसो जाते हुए पहली बार स्पेन की धरती पर पाब्लो नेरुदा ने कदम रखा था. लेखक और पाब्लो नेरुदा मिल कर उस पूरी सुबह सैकेंड हैंड किताबों की दुकानों की खाक छानते रहे और पोर्टर की दुकान से पाब्लो नेरुदा ने एक पुरानी किताब जिसकी जिल्द बुरी तरह खराब हो चुकी थी बहुत मंहगे दामों में खरीदी. जिस पर मार्केस का कमेंट था कि यह पाब्लो की रंगून में कौंसुलेट के रूप में मिलने वाले दो महीने के वेतन के बराबर था. इससे पाब्लो का पुस्तक प्रेम पता चलता है. पुस्तक प्रेमी किताब खरीदते समय उसके मूल्य पर नहीं जाता है खास कर पुरानी विरल पुस्तक के सन्दर्भ में. वे भीड़ में असक्त हाथी की भाँति बच्चों की-सी उत्सुकता के साथ बाजार में घूम रहे थे. जो भी दीखता उसकी आंतरिक प्रक्रिया जानने का कौतुक लिए हुए, क्योंकि उन्हें संसार एक चाभी वाला खिलौना लगता था. खिलौना जिसे जीवन ने स्वयं अन्वेषित किया है.

पुनरुत्थान के पोप से नेरुदा के खाने की प्रवृति और परिष्कृत रूचि की तुलना करते हुए लेखक कहता है कि नेरुदा सदैव टेबल के सिरे पर बैठते. उनकी पत्नी मटिल्डा उनके गले में बिब लगाती जो नाई वाला ज्यादा लगता बनिस्बत खाने के कमरे वाले बिब से. परंतु यह आवश्यक था क्योंकि खाते समय वे सॉस से नहा लेते थे. यह भी उनके बालसुलभ रूप की एक झाँकी है.

नेरुदा ने युनिवर्सिटी ऑफ चिली, सेंटीयागो में फ्रेंच का अध्ययन किया था. फ्रेंच शिक्षक बनने का प्रशिक्षण लिया था हालांकि यह पेशा उन्होंने कभी अपनाया नहीं. पर फ्रांस की सभ्यता एवं संस्कृति से भली भाँति परिचित थे. उन्हें फ्रांसिसी संस्कृति से लगाव था और उन्हें उसकी अच्छी समझ थी. यह उनकी कहानी 'तीन विधवाओं का घर' में भी परिलक्षित होता है. एक बार वे पहाड़ी इलाके में एकाकी यात्रा करते हुए राह भटक गए और उन्हें तीन फ्रांसिसी महिलाओं के यहाँ शरण लेनी पड़ी. हालाँकि वे कबाड़ का धंधा करती थीं और तीस साल से वहाँ रह रहीं थीं परंतु वे लेखक की अच्छी मेजबानी करती हैं. बातचीत के सिलसिले में पता चलता है कि तीनों महिलाएँ पढ़ने के बारे में उत्सुक हैं. जब लेखक बोद्लैअर की कविताओं की बात चलाता है तो उन महिलाओं को मानों करंट लगता है, उनके सख्त एवं नीरस चेहरे जो एक मुखौटा थे, गिर पड़ते हैं और वे सजीव हो जाती हैं. वे बताती हैं कि उनके पास अभी भी बोद्लैअर का उपन्यास 'फ्लर डयु माल' है और उस पूरे वीराने में कोई भी फ्रेंच पढ़ना नहीं जानता है. पूरे पाँच सौ किलोमीटर के इलाके में केवल वे ही बोद्लैअर के लिखे अद्भुत पृष्ठों को पढ़ सकतीं थीं. फिर वे दस्तरखान पर बैठते हैं लेखक चकित रह जाता है क्योंकि वहाँ एक गोल मेज पर सफेद मेजपोश था जिस पर चाँदी के दो मोमबत्तीदान थे. ऐसा लगता था मानो किसी राजकुमार के लिए मेज सजी हो. उन लोगों ने अपनी पाक विद्या के नमूने प्रस्तुत किए थे. एक-से-एक लजीज और लिज्जतदार फ्रांसीसी पकवान बनाए थे, साथ ही तहखाने में रखी वाइन भी थी. उन बहनों को अपनी कीमती क्रॉकरी पर गर्व था. लेखक को लगा वे अपने पूर्वजों की संस्कृति को सम्हाल कर रख रहीं थीं. कहानी के अंत में लेखक कहता है अभी भी वे मेरी स्मृतियों में जिन्दा हैं जैसे सपनों की झील की चीजें होती हैं. मैं उस वीराने से लड़ती हुई उन तीनों उदास महिलाओं की इज्जत करता हूँ, जो उस जंगल में इस मकसद से रह रहीं थीं, ताकि पुरानी दुनिया का लब्बो-लुबाब बचा रहे. उन महिलाओं ने उस शय को बचाने की कोशिश की जिसे उनके पूर्वज खो चुके थे. उन्होंने तहजीब की सारी उम्दा चीजों को बचाने की कोशिश की, वह भी ठेठ वीराने में रहकर.

उन्हें पुरानी चीजों, पुरानी संस्कृति, पुरानी तहजीब से लगाव था. आज भी संग्रहालय बने उनके घर में उनके द्वारा संचित अनोखी चीजें देखी जा सकती हैं. वे उम्दा चीजों के कायल थे. चाहे वह पुस्तक हो या लजीज खाना. उन्हें मनुष्य की पहचान थी, वे उसकी इज्जत करना जानते थे, भले ही वे बूढ़ी फ्रांसीसी महिलाएँ हों अथवा उन्हें राह दिखाने वाले अनपढ़ देहाती किसान या अन्य सामान्य जन.

उन्हें अपने देश की धरती, उसके लोगों से बहुत प्यार था. वे अपने देश के भूगोल से परिचित थे. वे चिली के चप्पे-चप्पे से प्यार करते थे. 'तीन विधवाओं' में वे लिखते हैं - 'चलते हुए मैं बांज़ो इम्पीरियल नदी के पास पहुँचा, जहाँ रेतीला संकरा रास्ता पार करना था. उस जगह प्रशांत महासागर की बाँहें खुलती हैं. चट्टानों और माऊले पर्वत के झाड़-झंखाड़ से आकर लहरें बार-बार टकराती थीं. इसे देखते हुए मैं चलता रहा. आगे बूढ़ी झील के साथ लगे मोड़ से मुझे पलटना था. वहाँ हिंसक लहरों के थपेड़े पहाड़ के पैरों पर तड़ातड़ पड़ रहे थे. उस रास्ते से गुजरने के लिए वहाँ रुकना जरूरी था. लहरें जब पूरा जोर आजमाते हुए कोड़े की तरह हवा में लहराती हुई उठती थी, तो पहाड़ और पानी के बीच के रास्ते से हमें तुरंत निकल जाना था. इसलिए, घोड़े और मेरे पास केवल उतने ही क्षण थे जितने में लहर उठे और हमें लील जाए.'

पाब्लो नेरुदा को प्रकृति से असीम प्रेम था, यह उनकी रचनाओं में स्पष्ट रूप से दीखता है. 'जंगल की तरफ से धुंध भरे पेड़, उनकी हरी-हरी पत्तिओं ने मेरा अभिवादन किया. उन पेड़ों में कुछ फलों से लदी डालियाँ थीं. उनमें कुछ बादाम थे, जो सिन्दूरी रंग के थे. ये जंगली बादाम गर्मी के इन दिनों में भी लालचुट थे. उस रास्ते पर आगे ऊँचे-ऊँचे सरकंडे थे. इतने ऊँचे कि घुड़सवार उनमें से अनछुआ न निकल सके. सरकंडों से निकलते वक्त उनकी लम्बी कोरे माथे को छू जातीं और उन पर जमी शबनम की बूँदें हम पर हल्की फुहार कर देती थीं. बाई तरफ बूढ़ी झील का विस्तर था. वह झील खामोश और नीले रंग की थी. उसके चारों तरफ चौड़े आकार के जंगल की झालर लगी थी.'

यहाँ तक कि जब वे भूमिगत हो कर देश छोड़ कर जा रहे थे तब भी खतरों और परेशानियों के बीच उनका ध्यान प्रकृति के सौंदर्य को नजर अन्दाज नहीं कर सका. अपनी रहस्यमयी और निषिद्घ यात्रा के दौरान भी वे अपने देश की प्राकृतिक सुषमा से अभिभूत हुए बिना नहीं रहते हैं.

यात्रा का आनन्द उठाना उन्हें खूब आता था. नोबेल पुरस्कार लेते हुए वे अपने भाषण की शुरुआत ही करते हैं - 'मेरा भाषण एक लम्बी यात्रा होने जा रहा है, ऐसी यात्रा जो मैंने सुदूर विपरीत क्षेत्रों की की - क्षेत्र जो दूर और विपरीत होते हुए भी स्कैंडिनेवियन की भौगोलिक बनावट एवं एकांतता में कम समान नहीं है. मेरा मतलब है जिस तरह मेरा देश धुर दक्षिण को छूता है उससे है. हम चिली के लोग इतना सुदूर हैं कि हमारी सीमाएं दक्षिण ध्रुव को छूती हैं -जो याद दिलातीं हैं स्वीडन के भूगोल की, जिसका सिर इस ग्रह के हिमाच्छादित उत्तरी प्रांतों तक पहुँचता है.'

उन्हें भूमिगत होने के दौरान इन इलाकों को पार करना पड़ा. अपने देश की सीमा पार कर अर्जेनटीना जाने के लिए एंडीज पर्वतमाला पार करनी पड़ी. जहाँ सुरंग की भाँति घने जंगल हैं, उनकी यात्रा निषिद्घ और रहस्यमयी थी. देसी कबीले के चार लोग उनके मार्गदर्शक थे. मुक्ति के जुनून में घोड़े पर सवार उन्होंने टेढ़े-मेढ़े घुमावदार पहाड़ी रास्ते, उन्मादी नदियाँ, बर्फीली वीरान घाटियाँ, दुर्गम जंगल पार किए. अदम्य साहस के साथ वे आगे बढ़ते रहे. रास्ते में एक बार वे नदी की तीव्र धारा में बह गए, बाद में जब उनके साथियों ने पूछा 'क्या डर लगा?' तो उन्होंने बड़ी ईमानदारी से स्वीकार किया, 'बहुत ज्यादा. मुझे लगा मेरा अंत आ गया.' यह भी उनकी सरलता, नैसर्गिकता का उदाहरण है.

इस उद्यमशील कठिन यात्रा के दौरान उन्हें प्रकृति की अदभुत भव्यता के दर्शन हुए. विशाल चारागाह, निर्बाध झरते स्वच्छ झरने, जंगली फूल कुछ भी उनकी दृष्टि से न बचा. साढ़े तीन सौ वर्षों से युद्घ, शोषण झेलते हुए भी इतिहास और भूगोल की कृपा से चिली रचनाकारों के लिए उर्वर भूमि है. इसके सदाहरित वन, पर्वत, ग्लैशियर, रेगिस्तान सब किसी भी सम्वेदनशील व्यक्ति को कवि बनाने के लिए काफी हैं. अपने देश की संस्कृति के दर्शन भी उन्हें इस यात्रा के दौरान हुए जब इन बीहड़ राहों पर अचानक एक साढ़ का कंकाल मिलता है तो कबीले के रिवाज के अनुसार उनके साथी रुक कर साढ़ के मुंड की कोटरों में भोजन और सिक्के रखते हैं जो किसी भटके हुए यात्री के काम आएँगे, तो वे भी श्रद्घापूर्वक उनका अनुसरण करते हैं. वे दूसरों की भावनाओं का सम्मान करते थे. इतना ही नहीं जब उनके साथी अपने हैट उतार कर उस परित्य्क्त सिर की परिक्रमा करते हुए नृत्य प्रारम्भ करते हैं तो नेरुदा भी उनके संग हो लेते हैं.

वे अपने भाषण में बड़ी संवेदना के साथ वर्णन करते हैं कि जब वे इस यात्रा के समय थके हुए सीमा पर पहुँच रहे थे तब कुछ अनजान लोगों ने उनका स्वागत किया. नहाने को पानी, खाने को भोजन दिया, उनके संग गाना गाया और नाचा. नेरुदा कहते हैं कि इन लोगों ने मेरा नाम भी नहीं सुना था. न उन्होंने नेरुदा की कविताएं सुनी-जानी थीं. फिर भी उनके निस्वार्थ प्रेम ने नेरुदा का मन मोह लिया, उनकी यात्रा में नई जान फूँक दी और अगली भोर जब वे अपने देश से एक लम्बे समय के लिए जुदा हो रहे थे तो आगे के संघर्ष के लिए तरोताजा थे, एक नए जोश एक नए उत्साह से गाते हुए आगे बढ़ रहे थे. ये पूँजी थी उनके लेखन की. ये जीवंत अनुभव थे जो उनके साहित्य की सामग्री बने. वे जीवन को पूर्णरूपेण जीने में विश्वास करते थे. उन्होंने जीवन को उसकी समग्रता में जीया था.

आगे वे अपने इसी भाषण में कहते हैं, इस लम्बी यात्रा से उन्हें कविता के गुर मिले. धरती और आत्मा के अवदान को उन्होंने ग्रहण किया. उनके अनुसार कविता एक क्रिया है, क्षणिक या औपचारिक (रस्मी). वे कहते हैं, जिसमें निःसंगता, एकाकीपन और एकात्मकता, परस्पर निर्भरता बराबर के हिस्सेदार हैं, संवेग और क्रिया, स्व से निकटता, मानवता से निकटता और प्रकृति का गुह्य प्रकाशन कविता लिखने के गुर हैं. और वे बहुत विश्वास के साथ सोचते थे कि यही सब मनुष्य और उसकी छाया को थामे हुए है, मनुष्य और उसके व्यवहार, मनुष्य और उसकी कविता एक सदैव विस्तृत होने वाले समुदाय की भावना, एक प्रयास जो हमेशा यथार्थ और स्वप्न को करीब लाता है क्योंकि कविता इसी सटीक रूप में उन्हें जोड़ती है. उनमें घुलती-मिलती है.

और आगे अपने इसी भाषण में वे कहते हैं कि इन सब से एक सूझ उत्पन्न होती है. दूसरे लोगों से कवि को अवश्य सीखना चाहिए. कोई भी निःसंगता अपराजेय नहीं है. सारे पथ एक ही लक्ष्य को जाते हैं: जो हम हैं वह दूसरों तक हमें प्रेषित करना है. हमें एकांत और कठिनाएयों से अवश्य गुजरना चाहिए, एकाकी पृथक और नीरव होना चाहिए ताकि हम जादुई स्थानों तक पहुँचे और अपना बेतुका नाच नाच सकें और अपना दारुण गान गा सकें - परंतु इस नृत्य और इस गान में हमारी चेतना के अति प्राचीन रीति-रिवाज, मनुष्य होने का भान भी होता है और एक सह-नियति, भवितव्यता की पूर्ति होती है. उन्होंने एक बहुत मार्के की बात कही है. वे विश्वास करते हैं कि न तो दोषारोपण और न ही स्वयं का बचाव कवि कर्म है.

नेरुदा का मानना है कि कवि कोई अनोखा प्राणी नहीं है. न ही वह ईश्वर है. न ही कवि को किसी रहस्यमय प्रारब्ध ने दूसरे पेशे के लोगों की तरजीह में विशिष्ट रूप से चुना है. वह भी समाज का अंग है. वह भी रोटी, सत्य, सुरा और स्वप्न पर निर्भर है. अगर कवि इस कभी न समाप्त होने वाले संघर्ष से जुड़ता है तो वह सामान्य कार्यों को करते हुए मानवता के स्वप्न को पूरा करने के लिए प्रयासरत होता है और उसे होना भी चाहिए. वे जन समुदाय को एकजुट करना चाहते थे. वे जीवन और आत्मा से जुड़ना चाहते थे, यातना और आशाओं से एकजुट होना चाहते थे. क्योंकि यही एक मात्र वह रास्ता है जिससे लेखक और राष्ट्र में आवश्यक परिवर्तन लाया जा सकता है, इसी महान लोक धारा के द्वारा.

इस बात के मद्दे नजर निःसंकोच कहा जा सकता है कि नेरुदा का गान व्यर्थ नहीं गया. १२ जुलाई १९०४ को नेफ्ताली रिकार्डो रेयेस बासोल्टा नाम से चिली के परेल नामक स्थान में जन्में नेरुदा के पिता एक रेलवे कर्मचारी थे और माता स्कूल टीचर. माता का प्यार उन्हें न मिल सका क्योंकि उनकी बाल्यावस्था में ही उनकी माता चल बसी. पिता ने दूसरी शादी कर ली. मातृविहीन बालक अक्सर प्रकृति की गोद में ममता की खोज में जाता है, नेरुदा के विषय में भी ऐसा ही हुआ. उन्हें प्रकृति से असीम लगाव था. उनके काव्य में प्रकृति सर्वत्र बिखरी पड़ी है. संयोगवश गर्ल्स स्कूल की हेड गैब्रियल मिस्ट्रल के सम्पर्क में आकर उनसे प्रेरित हो कर नेरुदा १३ वर्ष की उम्र से लिखने की ओर प्रवृत हो गए. गैब्रियल मिस्ट्रल (१८८९-१९५७) लैटिन अमेरिका की पहली नोबेल पुरस्कार विजेता (१९४५) थी. कुछ प्रारम्भिक कविताएँ दैनिक पत्र में छपीं. १९२० से उन्होंने साहित्यिक पत्रिका 'सेल्वा ऑस्ट्रल' में चेक जन कवि नेरुदा (१८३४-१८९१) के नाम को अपनाते हुए लेखन किया जो १९२३ में सर्वप्रथम संग्रह 'क्रिपसकुलारिओ' के रूप में निकला. १९२४ में उनका सर्वाधिक चर्चित और अनुवादित कार्य 'बीस प्रेम कविताएँ और एक हताशा गीत' प्रकाशित हुआ. १९४६ में उन्होंने पाब्लो नेरुदा नाम कानूनी तौर पर रख लिया.

प्रारम्भ में वे युवा प्रेमी के रूप में प्रेम काव्य रच रहे थे पर शीघ्र ही उनके जीवन ने एक नया मोड़ लिया. हड़ताल कर रहे खनिकों को कुचलने की राष्ट्रपति गोंज़लेज़ विडेला की नीति के विरुद्घ विद्रोह करने के कारण नेरुदा को १९४७ में अपने ही देश में दो साल के लिए भूमिगत होना पड़ा.१९४९ में वे किसी प्रकार छिपते-छिपाते हुए देश से बाहर जा पाए. विभिन्न यूरोपियन देशों में भटकने के बाद १९५२ में ही वे अपने देश लौट सके. इस बीच अपनी राजनैतिक गतिविधियों के साथ उनका लेखन पूर्णरूपेण चलता रहा. जाहिर है कि इस लेखन पर उनके राजनैतिक विचारों की स्पष्ट छाप देखी जा सकती है. १९५४ का उनका संग्रह 'लास उवास इ ऐल विएंटो' उनके जलावतन के अनुभवों का सजीव चित्रण है.

जब वे १९४३ में माचु पीचु गये तो उन्होंने वहाँ की परिस्थितियों से प्रेरित होकर १९४५ में 'हाइट्स ऑफ माचु पीचु' लिखा जिसमें संसार के प्रति मार्क्सवाद के पक्ष में उनके विचार हैं इसे उनके 'पोयटिक टेस्टमेंट' का दर्जा दिया जाता है. असल में उनकी मार्क्सवादी विचारधारा का विकास उनकी 'कैंटो जनरल' में होता है. यह रचना न केवल विशद है वरन स्वीडिश नोबल एकेडमी के कार्ल रैग्नर जियरो के अनुसार सरल और स्पष्ट भी. इसमें नेरुदा अमेरिका के आदिवासी नेताओं, राजनैतिक नायकों, लैटिन अमेरिका के ऐतिहासिक, प्राकृतिक युद्घों, राजनैतिक एवं सामाजिक इतिहासों को अपनी श्रद्घांजलि देते हैं.

प्रेसीडेंट गैब्रियल गोंज़ालेज़ विडेला स्वयं एक उग्र सुधारवादी था, कम्युनिस्ट और रैडिकल पार्टीज के एक घटक फ्रेंटे पोपूलर का सदस्य था, उसने अपनी कैबीनेट में कम्युनिस्टों को तीन सीट दे रखी थी. परंतु जब १९४६ में खदान की हड़ताल ने सामाजिक संघर्ष का उग्र रूप ले लिया तो उसे दबाने के लिए राष्ट्रपति ने घेराबन्दी कर दी. लैटिन अमेरिका में मार्क्सवाद को समाप्त करने की अमेरिकी सरकार की मुहिम के दबाव में आ कर चिली कॉग्रेस ने अपने देश में कम्युनिस्ट पार्टी को अवैध घोषित कर दिया और खुले आम मजदूर संगठनों का सफाया किया जाने लगा. गिरफ्तारियाँ होने लगीं खासतौर पर नेरुदा के पीछे सरकार लग गई. फलतः नेरुदा को भूमिगत होना पड़ा बाद में काफी समय के लिए देश भी छोड़ना पड़ा.

इस दौरान वे फ्रांस, मैक्सिको, गौटेमाला और यूरोप के कई अन्य देशों में वे रहे. इसी स्वयं आरोपित देश निकाले के समय में उन्होंने अपना महाकाव्यात्मक 'केंटो जनरल' का अधिकाँश भाग रचा. १९५४-१९५९ के मध्य अक्षरक्रम में संयोजित उनकी रचना 'ओड्स एलिमेंटेल्स' उनके संदेश का रोजनामचा है, जिसमें उन्होंने वस्तुओं, घटनाओं, संबंधों के विषय में लिखा है.

उन्होंने अपने साथियों की सरे आम हत्या होते देखी. वे सम्वेदनशील थे. इन घटनाओं ने उनके जीवन को बहुत प्रभावित किया. वे अपने देश में हुए नरसंहार से हिल गए थे. उनके मन में क्रोध था. वे हत्यारों को अच्छी तरह पहचानते थे. हत्यारे इतने हिंसक और तानाशाह हो गए थे कि उन्होंने अपने अपराध को छिपाने का कोई प्रयास नहीं किया. पर नेरुदा को पूरा विश्वास है कि लोगों का बलिदान व्यर्थ नहीं जाएगा. यह 'कैंटो जनरल' में संग्रहित उनकी कविताओं 'लास मसाकर्स' खंड की इस एक कविता 'द सैंड बिट्रेड' में परिलक्षित होता है, वे कहते हैं -

'कोई नहीं जानता कहाँ है वह जल्लाद

दफन हैं ये शरीर

पर उठेंगे मृत्यु से

अपने रक्त मोचन को

प्लाज़ा के बीच यह पाप किया गया

काँटे की झाड़ियों ने लोगों के विशुद्घ रक्त को नहीं छिपाया

न ही पाम्पा की बालुका राशि ने इसे सोखा

इस अपराध को किसी ने नहीं छिपाया

यह अपराध प्लाज़ा के चौराहे पर घटा.'

व्यवस्था और सत्ता के विरुद्घ उनमें एक आक्रोश नजर आता है. महान नाटककार और कवि ब्रतोल्त ब्रेष्ट ने कहा है कि कठिन चीजें रास्ता दिखातीं हैं. और इससे एक कदम आगे बढ़कर वाल्टर बेंजामिन कहते हैं कठिन चीजें रास्ता दिखाएँ, इसके लिए अवसर से मित्रता करनी होगी. एक कवि के लिए अवसर से मित्रता का अर्थ और कुछ नहीं ं, जीवन के अधिकाधिक पक्षों से सम्पर्क करने, टकराने और उनके प्रति आलोचकीय दृष्टि विकसित करने से है. कवि का लिखना ही एक सक्रिय कर्म है. और नेरुदा अपनी राजनैतिक सरगर्मियों, व्यस्तताओं के बीच भी निरंतर लिखते रहे, कुछ लोगों के अनुसार वे इतिहास में सर्वाधिक पढ़े गए कवि हैं.

रैल्फ फॉक्स का कहना है ''जो सचमुच महान लेखक है, उसके राजनीतिक विचार चाहे कुछ भी क्यों न हों वह वास्तविकता के साथ भयानक तथा क्रांतिकारी युद्घ में जूझे बिना कभी नहीं रह सकता है.'' नेरुदा स्वयं को राजनीति से दूर न रख सके. उन्होंने अत्याचार, शोषण के खिलाफ ताजिन्दगी आवाज उठाई. पर कवि को मालूम है विजय ऐसे ही नहीं मिलती है. वह 'एनिग्मा विथ फ्लावर' में लिखता है 'विजय, यह देर से आती है, मैंने नहीं सीखा कैसे आया जाता है, लिली की तरह इच्छा से'.

नेरुदा के एक आलोचक ने एक बार टिप्पणी की कि नेरुदा की कविता की ऊर्जा को उनकी खुशी ने ग्रस लिया. यानि कि यदि उन पर दुःख का रंग गाढ़ा होता तो नेरुदा बड़े कवि होते. इस आलोचक को नेरुदा ने बड़ा विनोदपूर्ण जवाब दिया था कि 'अगर ऐसा नुस्खा चले तो एक रोग से अच्छा गद्य बनना चाहिए और दूसरे रोग से बड़ी या उदात्त कविता - जबकि ऐसा होता नहीं है.'

नेरुदा का रचना संसार विपुल है. १९५१ में अगर उन्होंने ४५९ पन्ने प्रकाशित किए थे तो दस साल बाद १९६२ में यह संख्या १,९२५ पहुँच गई थी और १९६८ में यह बढ़ कर ३,२३७ हो गई थी. अपने साठवें जन्मदिन पर उन्होंने पाँच खंडों में आत्मकथानक शैली में 'मेमोरिअल डे इसला नेग्रा' प्रस्तुत किया जिसे उन्होंने अपनी तीसरी पत्नी मटिल्डा को समर्पित किया है. इसके बाद १९७० तक हर वर्ष एक दो वृहद रचना संसार को देते रहे. जिनमें 'ला बार्कारोला', 'लॉस मनोस डेल डिया', 'फिन डेल मुंडो', 'लास पेयड्रस डेल सियलो' और 'ला एसपाडा एंसेंडिडा', 'लास पिद्रेस डेल सियेलो' (१९७१), 'एक मार इलास कैम्पानास' (१९७३), 'लिब्रो डेला प्रिगेंटस' (१९७४), 'एल कोराजोन एमारिला' (१९७४) आदि प्रमुख हैं. इस बीच 'फुल्गोर ये मुनेर्ट डे जोआक्यून' नामक एक प्ले भी उन्होंने रचा. उनके जाने के बाद भी उनकी रचनाओं का प्रकाशन जारी रहा जिनमें से कुछ जिनका इंग्लिश अनुवाद उपलब्ध हैं वे हैं - 'बैरन जियोग्रफी' (१९७२), 'द सी एंड द बेल्स' (१९७३), 'द यलो हॉर्ट' (१९७४), 'सलेक्टेड वेस्ट पेपर' (१९७४), 'एलजी' (१९७४), 'मेमोयर्स' (१९७४), 'पैसंस एंड इम्प्रेशंस' (१९७८). बाद की दोनों रचनाएँ गद्य में हैं .

हिन्दी में अब तक उनके काव्य का छिटपुट रूपांतरण ही प्राप्त होता था, परंतुु हाल ही में साहित्य अकादमी ने चंद्रबली सिंह के अनुवाद के रूप में 'पाब्लो नेरुदा संचयन' नाम से एक एंथालोजी प्रकाशित की है. के. सच्चिदानन्दन ने उनकी कविताओं का मलयालम में तर्जुम्मा किया है. विश्वास है कि भारत की अन्य भाषाओं में भी नेरुदा उपलब्ध हैं. हाल ही में जे.एन.यू. के प्रियदर्शी मुखर्जी ने लैटिन अमेरिका और इंडिया के लेखकों के सम्बंधों पर 'क्रॉस कल्चरल इम्प्रेशंस' नाम्क पुस्तक एवं 'सोल कनेक्शन' नामक डाक्युमेंट्री बनाई है. जिसमें नेरुदा मुख्य रूप से हैं. उनकी अधिकाँश रचनाओं का इंग्लिश में अनुवाद हो चुका है. इलान स्टावांस ने १००० पेज की 'द पोयट्री ऑफ पाब्लो नेरुदा' में उनकी ६०० कविताओं का इंग्लिश अनुवाद प्रस्तुत किया है. पेंगुइन द्वारा प्रकाशित 'मेमोयर्स' कवि की जीवनी, कविताओं, पहेलियों का मनोरंजक संग्रह है. इसमें उनके निजि जीवन की झाँकी मिलती है. वे एक जोशीले मेजबान थे यह भी इस पुस्तक से ज्ञात होता है. उनके अन्दर उद्यमशीलता, कर्मठता और जिजीविषा कूट कूट कर भरी हुई थी. उन्होंने स्पैनिश गृहयुद्घ के शरणार्थियों को चिली जाने में सहायता दी. वे अपने समय के नए कवियों के सहायक और सलाहकार थे. खासकर इसाबेल एलेंडे, एंटोनिओ स्कार्मेटा, जॉर्ज एडवर्ड्स उनसे बहुत प्रभावित थे. जब कवि जलावतन था तब उसने एक पोस्टमैन को कविता पढ़ाना प्रारम्भ किया और इस तरह वह स्वयं को अभिव्यक्त करता है और प्रेम को समझने का प्रयास करता है. इटली तट पर विकसित इस प्रेम कहानी पर १९९५ में 'इल पोस्टीनो' नाम से एक फिल्म भी बनी जिसे उस वर्ष का सर्वोत्तम पिक्चर का नोमीनेशन मिला.

नेरुदा और उनकी रचनाओं को एक आलेख में समेटना संभव नहीं है. नोबेल पुरस्कार समारोह के समय कार्ल रैगन जियेरो ने ठीक ही कहा था, यह गरुढ़ को तितली के जाल में पकड़ने के समान है. नेरुदा का कार्य मानवता के लिए है क्योंकि यह उसे दिशा प्रदान करता है. आगे वे कहते हैं इसमें समाज अपने पूरे अस्तित्व के साथ उपस्थित है. नेरुदा स्वयं अपनी रचना 'न्यु एलीमेंटल ओड्स' में अपने कार्य को परिभाषित करते हुए उसे आदमी और धरती का समन्वय कहते हैं. उनकी रचनाओं में तबाही की छाया, मिलन, एकाकीपन, विस्थापन का दर्द है. वे स्वयं कहते हैं, 'यह ऐसा है कि वह थक गया है आदमी होकर.'

और इन सबके बीच है अदम्य आशा, विश्वास, मनुष्य पर आस्था, और हैं भविष्य के असीम स्वप्न. वे कहता है, - 'कल आएगा हरे पदचाप के साथः भोर की नदी को कोई रोक नहीं सकता है'.

स्पेन में रहते हुए उनके जीवन में एक मोड़ आया, जब उन्होंने अपने मित्रों और साथी लेखकों को जंजीरों में जकड़ा देखा, उनकी खुलेआम हत्या होते देखी. उनके लिए साहचर्य का रास्ता खुल गया. जब वे गृहयुद्घ वाले देश स्पेन से अपने देश लौटे उन्होंने स्वयं को शोषित और उत्पीड़ित लोगों के संग खड़ा पाया. १९३७ में चिली लौटकर उन्होंने एलाएंस ऑफ इंटेलैक्चुअल्स का गठन किया. वे रेडिकल हो गए और उनकी सोच में व्यापकता आई. इसके साथ ही इसी काल में उनकी रचना में भय के साहचर्य के साथ अतीत का गर्व, समृद्घि का भान और भविष्य की आशा भी आई. उन्हें सुदूर मृगतृष्णा की झिलमिल कँपकपी नजर आई, यहीं से उनका कार्य राजनैतिक और सामाजिक काव्य में परिवर्तित हो गया. उनका यह विचार दृढ़ हो गया कि उनका देश उनका और उनके देशवासियों का हाेना चाहिए और मनुष्य की गरिमा का अपमान नहीं होना चाहिए. इसके बाद वे जीवनपर्यंत इसी विचार से प्रेरित हो अपना कार्य करते रहे. उनकी प्रवृति को दर्शाने वाली उनकी एक रचना है - 'ऐस्टावैगारिओ', उन्होंने यह एक नया शब्द गढ़ा जिसमें ऐक्स्ट्रावैगैंस और वेगाबाउंड दो शब्द, दो भाव समाहित हैं जो उनके सम्पूर्ण जीवन को व्यंजित करते हैं. इसमें एक पंक्ति है, 'क्या लगता है इस धरा पर शांति से एक दूसरे को प्यार करने में'.

वे स्वयं कहते हैं कि मैंने किसी पुस्तक से कविता लिखने का गुर नहीं सीखा. इसीलिए वे दूसरों को भी ऐसी सलाह नहीं देना चाहते हैं. जीवन के गहन अनुभवों ने उन्हें सूझ दी और यही उनकी कविता यात्रा का पाथेय बना. जीवन का अनुभूत सत्य ही उनके लेखन की पूँजी था. वे झूठ, मक्कारी, शोषण का नाश कर एक सत्य, शिव और सुन्दर जगत की कल्पना करते थे. 'उनके शब्द रक्त से उत्पन्न होते थे, अंधेरे में स्पन्दित होते थे तथा मुँह और होठों से निकलते थे. उनकी असह्य जवानी खोजने में बीत गई. वे जानते थे कि यही उनकी भूमिका है और इसके कारण उन्होंने इतनी उदासी जानी'.

लोर्का ने उनके लिए कहा है - 'एक कवि फिलॉसफी से ज्यादा मृत्यु के निकट, बुद्घि से ज्यादा दर्द के निकट, स्याही से ज्यादा रक्त के निकट, एक सच्चा आदमी जो जानता है कि सरकंडा और अबाबील एक मूर्ति के कठोर गालों से ज्यादा अमर है.'

नेरुदा गाना चाहते थे और उन्होंने भरपूर गाया. वे स्वतंत्रता से स्वतंत्रता के लिए गाना चाहते थे. 'प्लीनरी पावर' में वे कहते हैं, -

'सूर्य की अनघ शक्ति के लिए, मैं लिखता हूँ

सम्पूर्ण समुद्र के लिए,

पूरी और खुली सड़क के लिए, जहाँ मैं गा सकूँ.'

वे गठिया से पीड़ित थे. फ्रांस में दो साल के लिए एम्बेसडर के रूप में कार्यरत होने के दौरान उनको अपने कैंसर ग्रसित होने की जानकारी मिली तब उन्होंने अपने पद से त्यागपत्र दे दिया और डिप्लोमेटिक जीवन सदा के लिए समाप्त कर लिया. कैसी रही होगी उनकी मानसिक दशा जब उन्हें पता चला होगा कि उन्हें कैंसर है. यह कविता हमें उनके अनुभव की एक झाँकी देती है -

'तो अब यह है, मृत्यु ने कहा

और जहाँ तक देख सकता था मैं

मृत्यु मुझे देख रही थी, मुझे ...

मृत्यु का एक छोटा सा बीज

अटका हुआ था'

पहले वह कामना करता है कि मृत्यु उसे न पहचान सके.

'पहले मैं धुआं हो गया

जिससे वह अंगारा गुजर जाए और

मुझे न पहचाने

मैंने बुद्घु होने का स्वाँग किया

मैं महीन और पारदर्शी होता गया'

वह मृत्यु से भागना चाहता है वह उससे जवाब तलब भी करता है उसे स्वर्ग या नरक जाने की इच्छा नहीं है वह इसी धरती पर रहना चाहता है.

'मैं चाहता था साइकिल सवार होना

और पैडल मारते हुए मृत्यु की सीमा से

निकल भागना

तभी लेकिन मैं ताव खा गया और मैंने कहा

मौत तू छिनाल

तुझे हर वक्त इस तरह मरखना होना चाहिए?

क्या तेरा जी नहीं भर गया है हड्डियाँ चबाने से?'

कवि मौत को ललकारता है. उसे चेताता है कि संसार में और बहुत हैं जिन्हें तुझे ले जाना चाहिए पर तू है कि अपना काम सही ढ़ंग से नहीं करती है.

'तमीज नहीं है तुझे पहचानने की, तू बहरी है

हद से ज्यादा बेवकूफ....

क्यों नहीं ले जाती तू वे कमबख्त

वहशी चालाक नीच

हत्यारे व्यभिचारी

दो मुँहे न्यायाधीश

धोखेबाज पत्रकार

आइसलैंड के तानाशाह

वे जो पहाड़ों को जलाते हैं आग में

पुलिस के चीफ

जेलर्स और सेंधमार?

मुझे स्वर्ग से क्या लेनादेना

नरक मुझे पसन्द नहीं

मैं धरती पर ही ठीक हूँ'

पर इस बार डॉक्टर ने उन्हें रोग मुक्त घोषित कर दिया कवि को लगा

'यह मेरी बारी नहीं थी'

पर वह अकाल मृत्यु नहीं मरना चाहता है वह कहता है कि

'यदि मैं मरा अकाल मृत्यु

तो मुझे जूते मारो, घूँसे मारो'.

पर कैंसर ने नेरुदा को ग्रस लिया था. २७ सितम्बर १९७३ को ल्युकोमिया से पाब्लो नेरुदा की मृत्यु हुई. अपने गृहस्थान इसला नेग्रा में मिलिट्री की देखरेख में सेंटियागो की जनरल सिमिट्री में उन्हें दफनाया गया. उनके समर्थक उनके शव के आसपास भी नहीं फटक सके, जो नजदीक आए वे शासन की नजरों में चढ़ गए. कवि एकाकी गया पर उसका जीवन और उसकी मृत्यु व्यर्थ नहीं गए. उसने अपनी कविता 'ट्रेन का स्वप्न' में कहा था -

'लेकिन मैं अकेला ही अकेला नहीं था

अकेलों की भीड़ इकट्ठी थी वहाँ'.

नेरुदा बहुत सम्वेदनशील थे मार्केस अपनी कहानी में कहते हैं - 'खाना खाते हुए नेरुदा ने मुझसे बड़ी धीमी आवाज में कहा कोई मेरे पीछे है जो मुझे लगातार घूर रहा है और यह सत्य था. यह वही स्वप्नों की सौदागर स्त्री थी'.

नेरुदा दोपहर को खाने के पश्चात एक झपकी लिया करते थे. मार्केस अपनी कहानी में कहते हैं 'विधिवत रस्मी तैयारी के बाद नेरुदा ने हमारे घर में झपकी ली. एक तरह से जापानी चाय समारोह की याद दिलाने वाली. छः खिड़कियाँ खोलनी पड़ी और कुछ को बन्द करना पड़ा ताकि उपयुक्त मात्रा में गर्माहट पाई जा सके. साथ ही खास कोण से खास दिशा से खास प्रकर के प्रकाश की व्यवस्था की गई और संग में चरम नीरवता. नेरुदा तुरंत सो गए और दस मिनट बाद-जब हमें आशा नहीं होती है और बच्चे उठते हैं ऐसे ही जाग गए, वे गाल पर तकिए के मोनोग्राम की छाप लिए हुए बिलकुल तरोताजा बैठक में आए.' इतना ही नहीं उन्होंने आकर लेखक को बताया कि उन्होंने स्वप्न बाँचने वाली स्त्री को स्वप्न में देखा और यह देखा कि वह उनके बारे में स्वप्न देख रही है. कुछ देर बार ज्ञात हुआ कि वे सच कह रहे थे. ऐसी जाग्रत छठी इंद्रिय वाले थे नेरुदा.

एक ओर उनकी कलम आग उगलती है तो दूसरी ओर वे अपनी एक कविता में कहते हैं -

'आज की रात लिख सकता हूँ मैं

दुःख से लबालब भरी पंक्तियाँ .

महसूस करने के लिए कि अब वह मेरे पास नहीं है.

मानने के लिए कि मैंने उसे खो दिया है.

खामोश रात की धड़कनों को सुनती हुई'

जबकि उसके बगैर यह रात और खामोश हो गई है

'कविताएँ गिरती हैं ओस की बूँदों की तरह

इससे क्या बन जाता अगर मेरा प्यार उसे बाँध कर रख लेता'.

कितना दर्द, कितनी खामोशी है इन पंक्तियों में. कवि की आत्मा नहीं मानती है कि उसने अपना प्यार खो दिया है वह आगे कहता है -

'मेरी आत्मा नहीं मानती कि उसने उसे खो दिया है.

यह उसका दिया हुआ आखिरी दर्द है जो मुझे सहना है.

और यह अंतिम कविता जो उसके लिए लिखता हूँ मैं.

वे अपनी एक कविता 'सबके लिए' में सबको कहते हैं -

मैं अचानक तुमें नहीं बता सकता हूँ

कि मैं तुम्हें क्या कहना चाहता हूँ

प्रिय मुझे माफ करो; तुम जानते हो

कि भले ही तुम मेरे शब्दों को न सुनो,

मैं सो नहीं रहा था न ही रो रहा था,

कि मैं बिना तुम्हें देखे भी तुम्हारे साथ हूँ

एक लम्बे समय के लिए और अंत तक.'

कवि लोगों को बताना चाहता है कि उसने दुःख, निराशा में भी आशा का दामन नहीं छोड़ा है वह अब भी अपनी वाइलिन बजा रहा है.

'मुझे मालूम है बहुतेरे सोच रहे होंगे

''क्या कर रहा है पाब्लो?'' मैं यहाँ हूँ

गर तुम खोजो मुझे सड़क पर

पाओगे तुम मुझे मेरी वाइलिन के साथ,

गाने के लिए तैयार,

मरने के लिए तैयार.

कुछ नहीं है जो मैं दूसरों के लिए छोड़ूँ,

इन दूसरों के लिए नहीं तुम्हारे लिए नहीं ,

गर तुम भली तरह सुनो, बारिश में ,

तुम सुनोगे

कि मैं आता हूँ , जाता हूँ और मँडराता हूँ.

और तुम जानते हो मुझे जाना है.

मगर मेरे शब्दों को नहीं मालूम है,

पक्का है, मैं ही हूँ जो गया.

कोई सन्नाटा नहीं जो न टूटे.

जब वक्त आएगा, मेरी आशा करना

और सबको बताना कि मैं आ रहा हूँ

सड़क पर, अपनी वाइलिन के साथ'.

नेरुदा की कविताओं में प्रकृति वर्णन प्रचुर मात्रा में मिलता है. एक उदाहरण पर्याप्त होगा. वे 'सुबह' नामक एक कविता में सुबह से कहते हैं - 'तुम नग्न हो तुम ऐसी तन्वी हो मानो नग्न गेहूँ का कण'.

वे उसकी तुलना क्यूबा की नीली रात्रि से करते हैं जिसकी केशराशि में तारे टंके हुए हैं. वह ऐसी ही विस्तृत और पीली है मानो एक सुनहरे चर्च में ग्रीष्म ऋ तु हो. दिन के उदित होने तक यह भोर अपने ही नखों की भाँति मुड़ी हुई और गुलाबी है, दिन निकलते ही यह भूमिगत होने के लिए पीछे हट जाती है. एक निष्पाप युवा स्त्री उनको श्वेत समुद्र तट जैसी लगती है जिसमें आग छिपी हुई है.

उन्होंने ढ़ेरों प्रेम की मांसल कविताएँ लिखीं. जिनमें उन्होंने युवा सुन्दरियों का दिल खोल कर अभिषेक किया है. एक नमूना 'ओड टू अ ब्युटीफुल न्यूड' से देखे -

'निष्पाप हृदय से,

निर्मल आँखों से,

मैं तुम्हारे सौंदर्य का उत्सव मनाता हूँ

खून की लगाम पकड़े हुए

ताकि यह छलाँग मारे

और तुम्हारी रूपरेखा का खाका खींचे

जहाँ

तुम मेरे गीत में लेटी हो

मानों निर्जनों की भूमि पर, या फेनिल तरंगों में

सुगंधित माटी में

या समुद्र-संगीत में.'

उनके विरोधी भी उसके महान कवि होने से इंकार नहीं करते थे जैसा कि जब वे ३० बरस कि उम्र में बार्सीलोना आये तो उम्र में वहाँ के एक कवि और उनके मित्र जिम्नेज़ ने कहा था, 'एक महान बुरा कवि.' उनके द्वारा रचित वृहदाकार साहित्य में सभी कुछ एक तरह का होगा, उच्च कोटि का होगा यह सोचना बचकानापन होगा. यह कदापि सम्भव नहीं है. ढ़ूढ़ने पर कमजोरियां नहीं मिलेगी इसका दावा शायद रचनाकार स्वयं भी नहीं करेगा, पर विशेषताएँ जानने के लिए ज्यादा प्रयास नहीं करना पड़ेगा, यह भी शर्तिया सच है. अपने पहले प्रमुख कार्य से लेकर अपनी अंतिम रचना तक उनका साहित्य प्रौढ़ता की ओर अग्रसर हुआ है इसमें कोई शक नहीं है. शैली और कथ्य में निरंतर विकास करते हुए वे अपने आंतरिक रूपांतरण का बाह्य प्रकाशन अपनी रचनाओं में करते रहे. प्रारम्भ में उनकी रचनाएँ अस्पष्ट, समझ के बाहर प्रतीत होती थीं परंतु बाद में न केवल वे सरल, स्पष्ट वरन और आकर्षक बनती गईँ. वे एक ऐसी दुनिया की कल्पना करते थे जहाँ देशों, राष्ट्रों, का लोगों का समन्वय सम्भव है. वे स्वप्नद्रष्टा थे उनकी आँखें सुदूर झिलमिलाते भविष्य पर टिकीं थीं. हालँाकि कवि का स्वप्नभंग हुआ पर अंत तक वह आशावादी बना रहा. उनकी रचना में एक सौम्य प्रज्ञा, विवेक, बुद्घिमत्ता नजर आती है. उन्होंने स्वयं अपनी एक कविता में कहा है - ''अबसे मैं एक बालक न रहा. क्योंकि मैंने अपने लोगों को जाना. मुझे जीवन से वंचित किया गया. और एक कब्र में महफूज किया गया.''

कोई भी व्यक्ति जब तक अपने लोगों को, जीवन को नहीं जानता है, तब तक वह महान नहीं बन सकता है. इसी क्षण से वह अपने एकांत से बाहर कदम रखता है, पर दुःखकातर बनता है, उसे वसुधैव कुटुम्बकं का मंत्र मिलता है. वह अपनी मातृभूमि उसके लोगों से जुड़ता है. उस धरती और उन लोगों से एकात्म अनुभव करता है जो सदियों से दबे कुचले थे. वह जमीन और वे लोग जो बार-बार सताए जाने पर भी नष्ट नहीं हुए थे. जिनकी जिजीविषा अभी भी कायम थी, वे समाप्त नहीं हुए थे, रुके नहीं थे. इन्हीं दमित शोषित कुचले लोगों की आवाज बन कर पाब्लो नेरुदा का साहित्य मुखरित हुआ. वे अतिक्रमित मानवता की अस्मिता के कवि थे. मनुष्य के आत्मसम्मान की पुकार थे.

स्पेन के गृहयुद्घ ने कई संवेदनशील लोगों के विचारों को परिवर्तित कर दिया. ये सभी हर प्रकार के सर्वसत्तावाद के खिलाफ हो गए. स्पेन के गृहयुद्घ ने सर्वसत्तावाद का ऐसा भयावह रूप दिखाया कि लोगों का विश्वास प्रत्येक प्रकार के प्रशासन पर से उठने लगा. जॉर्ज ऑर्वल इस दौरान एक रिपोर्टर के रूप में स्पेन में था और उसने इस विभीषिका को 'होमेज टू केटालोनिया' रचा जिसकी प्रस्तुति के आधिकारिक वर्णन के करण उसे ऑर्वल की सबसे उच्च कोटी की रचना की संज्ञा दी जाती है. उसकी बाद की रचनाओं 'एनीमल फॉर्म' और 'नाइनटीन एट्टीफोर' भी इन्हीं अनुभवों का परिणाम हैं इसमें किसी को कोई शक नहीं है. आर्थर कोएलसर का 'डार्कनेस ऐट नून' इसी गृहयुद्घ के भयावह अनुभवों का फल है क्योंकि आर्थर कोएलसर स्पेनी गृहयुद्घ में रिपब्लिकन आर्मी में शामिल था. उसके भी सुनहरे भविष्य की आशा धूलिधूसरित हो चुकी थी. इन लोगों ने राजनैतिक उपन्यास लिखे. पाब्लो पिकासो ने इसी गृहयुद्घ की भयानकता को अपने कार्य में रूपायित किया. १९३७ में इस गृहयुद्घ के संत्रास को अभिव्यक्त करने के लिए उसने 'गुएर्निका' नामक कृति बनाई. जो आज भी बार्सीलोना के संग्रहालय में रखी है.

तब भला नेरुदा जैसा संवेदनशीलकवि इससे कैसे अछूता रह सकता था. शासन के अत्याचारों के समक्ष कवि ने अवश्य ही स्वयं को निरीह पाया होगा. इस नरसंहार ने अवश्य ही कवि के अंतर को झकझोरा. बार्सीलोना और मैड्रिड प्रवास के दौरान स्पैनिश गृहयुद्घ के अनुभव की यही पीड़ा द्रवीभूत हो कर 'स्पेन इन माई हार्ट' काव्य संग्रह के रूप में प्रकाशित हुईं. नेरुदा पहले स्पेन और फिर फ्रांस में रिपब्लिकन आन्दोलन से जुड़े हुए थे. कवि ने बार्सीलोना में रह कर काफी कुछ सीखा. जॉर्ज ऑर्वल ने कहा है ''बार्सीलोना एक शहर है जो क्रांति में जीया, युद्घ से आक्रांत हुआ, जिसने कठिनाइयों में भाईचारे का अभ्यास रखा. जिसने समानता की सांस ली है.'' यहीं उनकी दोस्ती लोर्का, रफैल अल्बर्टी, मिग्युल हेर्नांडेज जैसे स्वतंत्रता के दीवाने स्पैनिश रचनाकारों से हुई. और १९३६ में इसी लोर्का की राजनैतिक हत्या ने नेरुदा की जीवन और रचना धारा बदल दी. वह क्रांतिद्रष्टा, क्रांति गायक बन गये.

कामू ने स्पेन के विषय में लिखा है 'यह स्पेन ही था जहाँ आदमी पाता है कि वह सही है तब भी पीटा जा सकता है.' नेरुदा का मित्र मैग्युल हेरनांडेज़ स्पेन के एक किसान परिवार में १९१० में जन्मा था जिसे न के बराबर शिक्षा प्राप्त हुई थी परंतु जिसका पहला काव्य संग्रह २३ वर्ष की उम्र में ही प्रकाशित हो गया था. मिग्युल हेरनांडेज़ को फ्रांको का विरोध करने के कारण बहुत बार जेल जाना पड़ा था. जेल में ही उसे यक्ष्मा लग गया और वह ३१ वर्ष की उम्र में १९४१ में मर गया. ऐसे मित्र के जीवन और मृत्यु का कवि पर प्रभाव पड़ना स्वभाविक है.

बार्सीलोना प्रवास नेरुदा के लिए कई मायनों में प्रभावकारी रहा इस प्रवास ने उनके जीवन में अभूतपूर्व परिवर्तन ला दिया. यहीं १८ अगस्त १९३४ में उनकी एकमात्र संतान माल्वा मारीना का जन्म हुआ. जो दीर्घायु न हो सकी और १९४२ में गुजर गई. १९३६ में लोर्का की हत्या हुई. 'रेजीडेंस ऑन अर्थ' का पहला भाग इसी काल में रचा गया. इसी गृहयुद्घ के समय १९३६ में उनकी पहली पत्नी मारिया एंटोनिएटा हैगेंनियर उन्हें छोड़ गई.

गर्मजोशी, प्यारे आकर्षक व्यक्तित्व वाले नेरुदा को लगातार एक साथी की जरूरत थी जो उनकी देखभाल कर सके. उनकी दूसरी साथिन बनी अजेर्ंटीना की एक चित्रकार डेलिया डेल काइरिल जो द्वितीय विश्व युद्घ और नेरुदा के सरकारी उत्पीड़न तक उनके साथ रही. बाद में उससे भी उनका तलाक हो गया. उनकी सच्ची सहधर्मिणी बनी मेटिल्डा जिससे १९४९ से ५६ सात वषोर्ं तक मैक्सिको में उनके गुप्त संबंध रहे १९५२ से बराबर जिसका वर्णन उनकी सभी पुस्तकों में मिलता है और बाद में पत्नि बन कर जो अंत तक उनके साथ रही.

कवि को प्रशांत महासागर से बेहद लगाव था. उसने अपने काव्य में दिल खोल कर प्रशांत महासागर का गान किया है. इस प्रकृति प्रेमी कवि ने कई घरों में रह कर कार्य किया परंतु उनका नेग्रा वाला घर उनकी प्रिय कार्य स्थली रहा, जहाँ वे तरोताजा होने के लिए अतिथियों से बच कर झपकी लेने के लिए, विशिष्ट कक्ष में चले जाते थे, जिसमें जाने का एक गुप्त रास्ता है. यह घर चट्टान पर प्रशांत महासागर पर बना है, मानो घर समुद्र की ओर झाँक रहा हो. इस घर में उनके द्वारा जमा की गई ढेरों अमूल्य चीजें सुरक्षित रखी गईँ हैं. इस संग्रह में शीशी, टिकट, सिक्के, पत्थर, और न जाने क्या-क्या है. इसे देख कर किसी ने कहा था, 'मैंने बेकार की चीजों का इतना विशाल संग्रह एक छत के नीचे कभी नहीं देखा.'

हमारे देश में अभी भी रचनाकारों को न तो पर्याप्त सम्मान मिलता है न ही हम उनके बाद उनकी धरोहर को संजोने-सम्भालने का कार्य हम करते हैं. दूर क्यों जाएं अभी तक हम प्रेमचन्द के घर का रख-रखाव नहीं कर पाए हैं. १२५ वीं प्रेमचन्द समारोह के तहत सरकार ने उनके घर के जीणोर्ंद्घार की बात उठाई है देखें क्या होता है. पर चीली ने अपने इस सपूत को पर्याप्त सम्मान दिया है. उनके एक घर इसला नेग्रा में सदैव दर्शनार्थियों की कतार लगी रहती है. अतः एक पर्यटक का कहना है कि सप्ताहांत में वहाँ न जाकर सप्ताह के अन्य दिनों में जाना खासकर सुबह जाना अच्छा होगा. उनके घर 'चेस्कोना' में पाब्लो नेरुदा फाउंडेशन भी है. 'वाल्पाराइसो' तथा 'सेबस्टीना' भी उनके घर हैं.

नेरुदा अपने रंगून, कोलम्बो, बटाविया (आज का जकार्ता ), जावा और सिंगापुर प्रवास के काल में १९२८ में कलकत्ता आए थे और उन्होंने ऑल इंडिया कॉग्रेस कमिटि सेशन के दौरान गाँधी, नेहरु तथा अन्य नेताओं से मुलाकात की थी. दूसरी बार वे पुनः कवि विष्णु डे के आमंत्रण पर १९५७ में कलकत्ता आए थे. उनकी कविताओं खासकर बार्सीलोना और मैड्रिड प्रवास के समय स्पैनिश गृहयुद्घ के अनुभवों पर लिखी गई कविताओं का प्रभाव बंगाल के कवियों पर भी पड़ा. लेकिन नेरुदा मानते थे कि सारे एशिया का जागरण भारत में प्रारम्भ हुआ. उन्होंने 'इंडिया' नाम से एक कविता भी लिखी. 'बीस प्रेम कविताएं और एक हताशा गीत' में उन्होंने टैगोर की एक कविता का भावानुवाद भी किया. १९५१ में वे शांति सन्देश का भाषण देने भारत आए. उनकी सरलता का एक और उदाहरण जब वे मद्रास गए तो वहाँ की स्त्रियों के साड़ी पहनने के ढ़ंग ने उन्हें बड़ा चकित किया वे लिखते हैं, 'अराउंड द बॉडी विथ सुपरनेचुरल ग्रेस, कार्विंग देम इन अ सिंगल फ्लेम एज शाइनिंग सिल्क'

कोई भी वस्तु कितनी भी सामान्य क्यों न हो वह नेरुदा के लिए न तो व्यर्थ थी न सामान्य. वे उसे अपनी कविता का विषय बना सकते थे. नेरुदा के पास कविता अनायास आती है 'मेमोरियल द इसला नेग्रा' में वे स्वयं कहते हैं, -

'कविता आई

मुझे खोजने, मालूम नहीं, मालूम नहीं कहाँ से'.

उन्होंने टमाटर, लाल वाइन, प्याज, साइकिल, मधुमक्खी, कैंची, यहाँ तक कि नमक पर भी रचना की. जीवन और जीवन की सरलतम चीजों को वे सम्बोधित कर सकते थे. उन्होंने अगर प्रेमिका के स्तनों, जाँघों का वर्णन किया तो उसी सहजता से खनिज, ज्वालामुखी, जंगल, नदी, ग्लैशियर, झीलों, स्थानों और लोगों पर भी रचना की.

'टमाटर' कविता में रास्ता टमाटरों से भरा है. दोपहर, गर्मी, रौशनी खुद को दो भागों में बाँटती हुई सड़क पर टमाटर के रस जैसी दौड़ रही है.

इतिहास, लोक, लोकमानस, परम्परा, संस्कृति देश के मूल वासी, सबमें वे मनुष्य के साथ हैं. वे व्यापक स्तर पर मनुष्य की सांस्कृतिक धरोहर को बचाना चाहते हैं. वे मानवीय सम्वेदना के कवि हैं. वे सामान्य लोकजीवन में स्वयं शामिल नजर आते हैं. इसी जीवन का हिस्सा होने के कारण नेरुदा की काव्याभिव्यक्ति सार्थक बनती है. वे यथार्थ को भोगे हुए यथार्थ के रूप में प्रस्तुत करते हैं. उन्होंने मात्र वायवी और सैद्घांतिक काव्य नही ं रचा, केवल दार्शनिक रहस्यमयी कविताएँ नहीं लिखीं बल्कि स्पर्श, गंध, और अनुभवों को शब्दों में पिरोया. तभी लोर्का ने उनके विषय में कहा है 'स्याही से ज्यादा रक्त के करीब'.

नेरुदा लोक से जुड़े हुए हैं. उनका लोक दुःख और संघर्ष में जीता-जागता लोक है. उनका लोक प्रकृति और मनुष्य के समन्वय से निर्मित होता है जिसमें उल्लास और त्रासदी, हास्य और रुदन, प्रेम और घृणा, क्षमा और क्रोध सब हैं. नेरुदा का काव्य हमारे अंतःकरण में बेचैनी पैदा करता है, हलचल पैदा करता है. उसमें विचार और संवेदना का संगम मिलता है. आस-पास की जीवन की छोटी-छोटी चीजों का बारीक विवरण मिलता है. नेरुदा के अनुसार उन्हें रास्ता दिखाने वाले हैं संघर्ष एवं आशा. मगर कोई भी संघर्ष एकाकी नहीं होता है, न ही कोई आशा अकेली होती है. प्रत्येक मनुष्य सुदूर युगारम्भ, युगांतर, आशा-निराशा, गलतियाँ, सुख-दुःख, अपने समय के दबाव, इतिहास का मिश्रण है. कवि मानता है कि एक कवि के रूप में उसका कर्तव्य न केवल गुलाब और सुडोलता, उल्लसित प्रेम और असीम लालसा एवं उत्कंठा से मित्रता है वरन मनुष्य के निष्ठुर कठोर पेशों से भी है. जिसे उन्होंने अपने काव्य में भी समाहित किया है.

नेरुदा अपने से सौ वर्ष पूर्व के भविष्यद्रष्टा कवि के कथन पर विश्वास करते थे. रिम्बौड ने कहा था, ''भोर में, जलते हुए धैर्य के साथ, हम भव्य, शानदार, उत्कृष्ट शहरों में प्रवेश करेंगे.'' नेरुदा एक अंधकारपूर्ण क्षेत्र, भौगोलिक कारणों से संसार के दूसरे देशों से कटे हुए देश से आए थे. वे कवियों में सबसे ज्यादा निराश, उदास, परित्यक्त, उपेक्षित, असहाय, हतभाग्य थे और उनकी कविता स्थानीय, क्षेत्रीय, देहाती, दबी-कुचली और दुर्दिन की कविता थी. परंतु उन्होंने सदैव मनुष्य पर विश्वास किया. आशा का दामन कभी नहीं छोड़ा. शायद इसीलिए वे अपने झंडे और अपनी कविता के साथ वहाँ पहुँच सके जहँा विरले ही पहुँचते हैं. वे सभी कल्याणकारी संस्थाओं, कार्यकर्ताओं, कवियों को सन्देश देते हैं कि केवल इसी धधकते हुए धैर्य के साथ ही हम उज्ज्वल संसार को पा सकते हैं, जहाँ हम सम्पूर्ण मानवता को प्रकाश, न्याय और प्रतिष्ठा दे पाएँगे. इसी धधकते हुए धैर्य के साथ पाब्लो नेरुदा ने झिलमिलाते भविष्य, उज्जवल विश्व की कामना की थी.

गैब्रियल गार्सा मार्केस ने उन्हें बीसवीं शतब्दी का किसी भी भाषा का सबसे बड़ा कवि कहा है. शांति के लिए किए गए अपने कार्यों के लिए १९५० में उन्हें पिकासो के साथ लेनिन अंतर्राष्ट्रीय शांति पुरस्कार मिला. १९७१ में नोबेल पुरस्कार मिला. इस अवसर पर नोबल पुरस्कार समिति ने उनके काव्य के विषय में कहा था,- 'दक्षिण अमेरिका के विशाल शून्य को शब्दों से भरने हेतु', उन्होंने अपने काव्य से मात्र दक्षिण अमेरिका को ही नहीं सम्पूर्ण विश्व को सम्पन्न बनाया. रहस्यमय एंडीज़ की उपत्यकाओं से उपजा यह प्रेम और क्रांति का स्वर भविष्य में भी समीचीन रहेगा.

कहा जाता है, किसी महान लेखक के लिए नोबेल पुरस्कार विभूति नहीं है यह नोबेल पुरस्कार है जो उनसे विभूषित होता है. नेरुदा के विषय में यह अक्षरशः सत्य है.

संपर्कः

विजय शर्मा, सी २/४ गंगोत्री काम्प्लेक्स, बाराद्वारी एंक्लेव, जमशेद्पुर ८३१००१. फोनः ०६५७-२४३६२५१. ई-मेलः vijshain@yahoo.com

(वर्तमान साहित्य में पूर्वप्रकाशित)

COMMENTS

BLOGGER: 3
  1. रवि भाई
    अब तक हम एक दूजे से दूर दूर से बात कर रहे थे. रचनाओं पर टिप्‍पणी कर रहे थे. आप का काम अद्भुत है और मैं आपकी नज़र, मेहनत और लगन को प्रणाम करता हूं. विजय जी का ये लेख बेहद बेहद मेहनत से रचा गया बेहतरीन गद्य का नमूना है. कुछ बरस पहले मैं खास तौर पर कोलकाता पुस्‍तक मेले गया था. उस बरस मेले की थीम थी पाब्‍लो नेरूदा का साहित्‍य. आपको बताना चाहता हूं कि साहित्‍य प्रेमी बंग समाज ने उनके लिए कितना सुंदर आयोजन किया था. उनके स्‍टाल. साहित्‍य. चित्र्. वाणी . मोनोग्राम तो थे ही. शाम के वक्‍त पूरे पांडाल में पाब्‍लो की कविताएं मूल, अंग्रेजी और बांगला अनुवाद के साथ मेले में आने वाले सभी मेहमानों को सुनायी जा रही थीं पब्लिक एड्रेस सिस्‍टम के सहारे. मैं बयान नहीं कर सकता किस तरह का असर हुआ था तब हम सब पर.आपने ये लेख दोबारा पढ़ने के लिए दिया, आभारी हूं

    जवाब देंहटाएं
  2. बेनामी6:26 pm

    मार्खेज़ ने एकदम ठीक लिखा है नेरुदा बीसवीं शताब्दी के विश्व की किसी भी भाषा के सबसे बड़े कवि थे . अपनी जमीन और अपने जन-समुदाय से उनका जुड़ाव अनूठा था . यह अद्भुत जन-संपृक्ति और जनता के संघर्ष में साथी होना ही उन्हें विशिष्ट कवि बनाता है . वे कहते थे कि 'सभी शुद्ध कवि मुंह के बल (बर्फ़ पर) औंधे गिरेंगे .'

    बेहतरीन लेख के लिए विजय जी को और प्रस्तुति के लिए आपको बहुत-बहुत बधाई!

    जवाब देंहटाएं
  3. नेरूदा के बारे में पढाकर उत्तम कार्य किया आपने. उद्भावना का अंक भी है मेरे पास.

    अतुल

    जवाब देंहटाएं
रचनाओं पर आपकी बेबाक समीक्षा व अमूल्य टिप्पणियों के लिए आपका हार्दिक धन्यवाद.

स्पैम टिप्पणियों (वायरस डाउनलोडर युक्त कड़ियों वाले) की रोकथाम हेतु टिप्पणियों का मॉडरेशन लागू है. अतः आपकी टिप्पणियों को यहाँ प्रकट होने में कुछ समय लग सकता है.

नाम

 आलेख ,1, कविता ,1, कहानी ,1, व्यंग्य ,1,14 सितम्बर,7,14 september,6,15 अगस्त,4,2 अक्टूबर अक्तूबर,1,अंजनी श्रीवास्तव,1,अंजली काजल,1,अंजली देशपांडे,1,अंबिकादत्त व्यास,1,अखिलेश कुमार भारती,1,अखिलेश सोनी,1,अग्रसेन,1,अजय अरूण,1,अजय वर्मा,1,अजित वडनेरकर,1,अजीत प्रियदर्शी,1,अजीत भारती,1,अनंत वडघणे,1,अनन्त आलोक,1,अनमोल विचार,1,अनामिका,3,अनामी शरण बबल,1,अनिमेष कुमार गुप्ता,1,अनिल कुमार पारा,1,अनिल जनविजय,1,अनुज कुमार आचार्य,5,अनुज कुमार आचार्य बैजनाथ,1,अनुज खरे,1,अनुपम मिश्र,1,अनूप शुक्ल,14,अपर्णा शर्मा,6,अभिमन्यु,1,अभिषेक ओझा,1,अभिषेक कुमार अम्बर,1,अभिषेक मिश्र,1,अमरपाल सिंह आयुष्कर,2,अमरलाल हिंगोराणी,1,अमित शर्मा,3,अमित शुक्ल,1,अमिय बिन्दु,1,अमृता प्रीतम,1,अरविन्द कुमार खेड़े,5,अरूण देव,1,अरूण माहेश्वरी,1,अर्चना चतुर्वेदी,1,अर्चना वर्मा,2,अर्जुन सिंह नेगी,1,अविनाश त्रिपाठी,1,अशोक गौतम,3,अशोक जैन पोरवाल,14,अशोक शुक्ल,1,अश्विनी कुमार आलोक,1,आई बी अरोड़ा,1,आकांक्षा यादव,1,आचार्य बलवन्त,1,आचार्य शिवपूजन सहाय,1,आजादी,3,आत्मकथा,1,आदित्य प्रचंडिया,1,आनंद टहलरामाणी,1,आनन्द किरण,3,आर. के. नारायण,1,आरकॉम,1,आरती,1,आरिफा एविस,5,आलेख,4288,आलोक कुमार,3,आलोक कुमार सातपुते,1,आवश्यक सूचना!,1,आशीष कुमार त्रिवेदी,5,आशीष श्रीवास्तव,1,आशुतोष,1,आशुतोष शुक्ल,1,इंदु संचेतना,1,इन्दिरा वासवाणी,1,इन्द्रमणि उपाध्याय,1,इन्द्रेश कुमार,1,इलाहाबाद,2,ई-बुक,374,ईबुक,231,ईश्वरचन्द्र,1,उपन्यास,269,उपासना,1,उपासना बेहार,5,उमाशंकर सिंह परमार,1,उमेश चन्द्र सिरसवारी,2,उमेशचन्द्र सिरसवारी,1,उषा छाबड़ा,1,उषा रानी,1,ऋतुराज सिंह कौल,1,ऋषभचरण जैन,1,एम. एम. चन्द्रा,17,एस. एम. चन्द्रा,2,कथासरित्सागर,1,कर्ण,1,कला जगत,113,कलावंती सिंह,1,कल्पना कुलश्रेष्ठ,11,कवि,2,कविता,3239,कहानी,2360,कहानी संग्रह,247,काजल कुमार,7,कान्हा,1,कामिनी कामायनी,5,कार्टून,7,काशीनाथ सिंह,2,किताबी कोना,7,किरन सिंह,1,किशोरी लाल गोस्वामी,1,कुंवर प्रेमिल,1,कुबेर,7,कुमार करन मस्ताना,1,कुसुमलता सिंह,1,कृश्न चन्दर,6,कृष्ण,3,कृष्ण कुमार यादव,1,कृष्ण खटवाणी,1,कृष्ण जन्माष्टमी,5,के. पी. सक्सेना,1,केदारनाथ सिंह,1,कैलाश मंडलोई,3,कैलाश वानखेड़े,1,कैशलेस,1,कैस जौनपुरी,3,क़ैस जौनपुरी,1,कौशल किशोर श्रीवास्तव,1,खिमन मूलाणी,1,गंगा प्रसाद श्रीवास्तव,1,गंगाप्रसाद शर्मा गुणशेखर,1,ग़ज़लें,550,गजानंद प्रसाद देवांगन,2,गजेन्द्र नामदेव,1,गणि राजेन्द्र विजय,1,गणेश चतुर्थी,1,गणेश सिंह,4,गांधी जयंती,1,गिरधारी राम,4,गीत,3,गीता दुबे,1,गीता सिंह,1,गुंजन शर्मा,1,गुडविन मसीह,2,गुनो सामताणी,1,गुरदयाल सिंह,1,गोरख प्रभाकर काकडे,1,गोवर्धन यादव,1,गोविन्द वल्लभ पंत,1,गोविन्द सेन,5,चंद्रकला त्रिपाठी,1,चंद्रलेखा,1,चतुष्पदी,1,चन्द्रकिशोर जायसवाल,1,चन्द्रकुमार जैन,6,चाँद पत्रिका,1,चिकित्सा शिविर,1,चुटकुला,71,ज़कीया ज़ुबैरी,1,जगदीप सिंह दाँगी,1,जयचन्द प्रजापति कक्कूजी,2,जयश्री जाजू,4,जयश्री राय,1,जया जादवानी,1,जवाहरलाल कौल,1,जसबीर चावला,1,जावेद अनीस,8,जीवंत प्रसारण,141,जीवनी,1,जीशान हैदर जैदी,1,जुगलबंदी,5,जुनैद अंसारी,1,जैक लंडन,1,ज्ञान चतुर्वेदी,2,ज्योति अग्रवाल,1,टेकचंद,1,ठाकुर प्रसाद सिंह,1,तकनीक,32,तक्षक,1,तनूजा चौधरी,1,तरुण भटनागर,1,तरूण कु सोनी तन्वीर,1,ताराशंकर बंद्योपाध्याय,1,तीर्थ चांदवाणी,1,तुलसीराम,1,तेजेन्द्र शर्मा,2,तेवर,1,तेवरी,8,त्रिलोचन,8,दामोदर दत्त दीक्षित,1,दिनेश बैस,6,दिलबाग सिंह विर्क,1,दिलीप भाटिया,1,दिविक रमेश,1,दीपक आचार्य,48,दुर्गाष्टमी,1,देवी नागरानी,20,देवेन्द्र कुमार मिश्रा,2,देवेन्द्र पाठक महरूम,1,दोहे,1,धर्मेन्द्र निर्मल,2,धर्मेन्द्र राजमंगल,1,नइमत गुलची,1,नजीर नज़ीर अकबराबादी,1,नन्दलाल भारती,2,नरेंद्र शुक्ल,2,नरेन्द्र कुमार आर्य,1,नरेन्द्र कोहली,2,नरेन्‍द्रकुमार मेहता,9,नलिनी मिश्र,1,नवदुर्गा,1,नवरात्रि,1,नागार्जुन,1,नाटक,152,नामवर सिंह,1,निबंध,3,नियम,1,निर्मल गुप्ता,2,नीतू सुदीप्ति ‘नित्या’,1,नीरज खरे,1,नीलम महेंद्र,1,नीला प्रसाद,1,पंकज प्रखर,4,पंकज मित्र,2,पंकज शुक्ला,1,पंकज सुबीर,3,परसाई,1,परसाईं,1,परिहास,4,पल्लव,1,पल्लवी त्रिवेदी,2,पवन तिवारी,2,पाक कला,23,पाठकीय,62,पालगुम्मि पद्मराजू,1,पुनर्वसु जोशी,9,पूजा उपाध्याय,2,पोपटी हीरानंदाणी,1,पौराणिक,1,प्रज्ञा,1,प्रताप सहगल,1,प्रतिभा,1,प्रतिभा सक्सेना,1,प्रदीप कुमार,1,प्रदीप कुमार दाश दीपक,1,प्रदीप कुमार साह,11,प्रदोष मिश्र,1,प्रभात दुबे,1,प्रभु चौधरी,2,प्रमिला भारती,1,प्रमोद कुमार तिवारी,1,प्रमोद भार्गव,2,प्रमोद यादव,14,प्रवीण कुमार झा,1,प्रांजल धर,1,प्राची,367,प्रियंवद,2,प्रियदर्शन,1,प्रेम कहानी,1,प्रेम दिवस,2,प्रेम मंगल,1,फिक्र तौंसवी,1,फ्लेनरी ऑक्नर,1,बंग महिला,1,बंसी खूबचंदाणी,1,बकर पुराण,1,बजरंग बिहारी तिवारी,1,बरसाने लाल चतुर्वेदी,1,बलबीर दत्त,1,बलराज सिंह सिद्धू,1,बलूची,1,बसंत त्रिपाठी,2,बातचीत,2,बाल उपन्यास,6,बाल कथा,356,बाल कलम,26,बाल दिवस,4,बालकथा,80,बालकृष्ण भट्ट,1,बालगीत,20,बृज मोहन,2,बृजेन्द्र श्रीवास्तव उत्कर्ष,1,बेढब बनारसी,1,बैचलर्स किचन,1,बॉब डिलेन,1,भरत त्रिवेदी,1,भागवत रावत,1,भारत कालरा,1,भारत भूषण अग्रवाल,1,भारत यायावर,2,भावना राय,1,भावना शुक्ल,5,भीष्म साहनी,1,भूतनाथ,1,भूपेन्द्र कुमार दवे,1,मंजरी शुक्ला,2,मंजीत ठाकुर,1,मंजूर एहतेशाम,1,मंतव्य,1,मथुरा प्रसाद नवीन,1,मदन सोनी,1,मधु त्रिवेदी,2,मधु संधु,1,मधुर नज्मी,1,मधुरा प्रसाद नवीन,1,मधुरिमा प्रसाद,1,मधुरेश,1,मनीष कुमार सिंह,4,मनोज कुमार,6,मनोज कुमार झा,5,मनोज कुमार पांडेय,1,मनोज कुमार श्रीवास्तव,2,मनोज दास,1,ममता सिंह,2,मयंक चतुर्वेदी,1,महापर्व छठ,1,महाभारत,2,महावीर प्रसाद द्विवेदी,1,महाशिवरात्रि,1,महेंद्र भटनागर,3,महेन्द्र देवांगन माटी,1,महेश कटारे,1,महेश कुमार गोंड हीवेट,2,महेश सिंह,2,महेश हीवेट,1,मानसून,1,मार्कण्डेय,1,मिलन चौरसिया मिलन,1,मिलान कुन्देरा,1,मिशेल फूको,8,मिश्रीमल जैन तरंगित,1,मीनू पामर,2,मुकेश वर्मा,1,मुक्तिबोध,1,मुर्दहिया,1,मृदुला गर्ग,1,मेराज फैज़ाबादी,1,मैक्सिम गोर्की,1,मैथिली शरण गुप्त,1,मोतीलाल जोतवाणी,1,मोहन कल्पना,1,मोहन वर्मा,1,यशवंत कोठारी,8,यशोधरा विरोदय,2,यात्रा संस्मरण,31,योग,3,योग दिवस,3,योगासन,2,योगेन्द्र प्रताप मौर्य,1,योगेश अग्रवाल,2,रक्षा बंधन,1,रच,1,रचना समय,72,रजनीश कांत,2,रत्ना राय,1,रमेश उपाध्याय,1,रमेश राज,26,रमेशराज,8,रवि रतलामी,2,रवींद्र नाथ ठाकुर,1,रवीन्द्र अग्निहोत्री,4,रवीन्द्र नाथ त्यागी,1,रवीन्द्र संगीत,1,रवीन्द्र सहाय वर्मा,1,रसोई,1,रांगेय राघव,1,राकेश अचल,3,राकेश दुबे,1,राकेश बिहारी,1,राकेश भ्रमर,5,राकेश मिश्र,2,राजकुमार कुम्भज,1,राजन कुमार,2,राजशेखर चौबे,6,राजीव रंजन उपाध्याय,11,राजेन्द्र कुमार,1,राजेन्द्र विजय,1,राजेश कुमार,1,राजेश गोसाईं,2,राजेश जोशी,1,राधा कृष्ण,1,राधाकृष्ण,1,राधेश्याम द्विवेदी,5,राम कृष्ण खुराना,6,राम शिव मूर्ति यादव,1,रामचंद्र शुक्ल,1,रामचन्द्र शुक्ल,1,रामचरन गुप्त,5,रामवृक्ष सिंह,10,रावण,1,राहुल कुमार,1,राहुल सिंह,1,रिंकी मिश्रा,1,रिचर्ड फाइनमेन,1,रिलायंस इन्फोकाम,1,रीटा शहाणी,1,रेंसमवेयर,1,रेणु कुमारी,1,रेवती रमण शर्मा,1,रोहित रुसिया,1,लक्ष्मी यादव,6,लक्ष्मीकांत मुकुल,2,लक्ष्मीकांत वैष्णव,1,लखमी खिलाणी,1,लघु कथा,288,लघुकथा,1340,लघुकथा लेखन पुरस्कार आयोजन,241,लतीफ घोंघी,1,ललित ग,1,ललित गर्ग,13,ललित निबंध,20,ललित साहू जख्मी,1,ललिता भाटिया,2,लाल पुष्प,1,लावण्या दीपक शाह,1,लीलाधर मंडलोई,1,लू सुन,1,लूट,1,लोक,1,लोककथा,378,लोकतंत्र का दर्द,1,लोकमित्र,1,लोकेन्द्र सिंह,3,विकास कुमार,1,विजय केसरी,1,विजय शिंदे,1,विज्ञान कथा,79,विद्यानंद कुमार,1,विनय भारत,1,विनीत कुमार,2,विनीता शुक्ला,3,विनोद कुमार दवे,4,विनोद तिवारी,1,विनोद मल्ल,1,विभा खरे,1,विमल चन्द्राकर,1,विमल सिंह,1,विरल पटेल,1,विविध,1,विविधा,1,विवेक प्रियदर्शी,1,विवेक रंजन श्रीवास्तव,5,विवेक सक्सेना,1,विवेकानंद,1,विवेकानन्द,1,विश्वंभर नाथ शर्मा कौशिक,2,विश्वनाथ प्रसाद तिवारी,1,विष्णु नागर,1,विष्णु प्रभाकर,1,वीणा भाटिया,15,वीरेन्द्र सरल,10,वेणीशंकर पटेल ब्रज,1,वेलेंटाइन,3,वेलेंटाइन डे,2,वैभव सिंह,1,व्यंग्य,2075,व्यंग्य के बहाने,2,व्यंग्य जुगलबंदी,17,व्यथित हृदय,2,शंकर पाटील,1,शगुन अग्रवाल,1,शबनम शर्मा,7,शब्द संधान,17,शम्भूनाथ,1,शरद कोकास,2,शशांक मिश्र भारती,8,शशिकांत सिंह,12,शहीद भगतसिंह,1,शामिख़ फ़राज़,1,शारदा नरेन्द्र मेहता,1,शालिनी तिवारी,8,शालिनी मुखरैया,6,शिक्षक दिवस,6,शिवकुमार कश्यप,1,शिवप्रसाद कमल,1,शिवरात्रि,1,शिवेन्‍द्र प्रताप त्रिपाठी,1,शीला नरेन्द्र त्रिवेदी,1,शुभम श्री,1,शुभ्रता मिश्रा,1,शेखर मलिक,1,शेषनाथ प्रसाद,1,शैलेन्द्र सरस्वती,3,शैलेश त्रिपाठी,2,शौचालय,1,श्याम गुप्त,3,श्याम सखा श्याम,1,श्याम सुशील,2,श्रीनाथ सिंह,6,श्रीमती तारा सिंह,2,श्रीमद्भगवद्गीता,1,श्रृंगी,1,श्वेता अरोड़ा,1,संजय दुबे,4,संजय सक्सेना,1,संजीव,1,संजीव ठाकुर,2,संद मदर टेरेसा,1,संदीप तोमर,1,संपादकीय,3,संस्मरण,730,संस्मरण लेखन पुरस्कार 2018,128,सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन,1,सतीश कुमार त्रिपाठी,2,सपना महेश,1,सपना मांगलिक,1,समीक्षा,847,सरिता पन्थी,1,सविता मिश्रा,1,साइबर अपराध,1,साइबर क्राइम,1,साक्षात्कार,21,सागर यादव जख्मी,1,सार्थक देवांगन,2,सालिम मियाँ,1,साहित्य समाचार,98,साहित्यम्,6,साहित्यिक गतिविधियाँ,216,साहित्यिक बगिया,1,सिंहासन बत्तीसी,1,सिद्धार्थ जगन्नाथ जोशी,1,सी.बी.श्रीवास्तव विदग्ध,1,सीताराम गुप्ता,1,सीताराम साहू,1,सीमा असीम सक्सेना,1,सीमा शाहजी,1,सुगन आहूजा,1,सुचिंता कुमारी,1,सुधा गुप्ता अमृता,1,सुधा गोयल नवीन,1,सुधेंदु पटेल,1,सुनीता काम्बोज,1,सुनील जाधव,1,सुभाष चंदर,1,सुभाष चन्द्र कुशवाहा,1,सुभाष नीरव,1,सुभाष लखोटिया,1,सुमन,1,सुमन गौड़,1,सुरभि बेहेरा,1,सुरेन्द्र चौधरी,1,सुरेन्द्र वर्मा,62,सुरेश चन्द्र,1,सुरेश चन्द्र दास,1,सुविचार,1,सुशांत सुप्रिय,4,सुशील कुमार शर्मा,24,सुशील यादव,6,सुशील शर्मा,16,सुषमा गुप्ता,20,सुषमा श्रीवास्तव,2,सूरज प्रकाश,1,सूर्य बाला,1,सूर्यकांत मिश्रा,14,सूर्यकुमार पांडेय,2,सेल्फी,1,सौमित्र,1,सौरभ मालवीय,4,स्नेहमयी चौधरी,1,स्वच्छ भारत,1,स्वतंत्रता दिवस,3,स्वराज सेनानी,1,हबीब तनवीर,1,हरि भटनागर,6,हरि हिमथाणी,1,हरिकांत जेठवाणी,1,हरिवंश राय बच्चन,1,हरिशंकर गजानंद प्रसाद देवांगन,4,हरिशंकर परसाई,23,हरीश कुमार,1,हरीश गोयल,1,हरीश नवल,1,हरीश भादानी,1,हरीश सम्यक,2,हरे प्रकाश उपाध्याय,1,हाइकु,5,हाइगा,1,हास-परिहास,38,हास्य,59,हास्य-व्यंग्य,78,हिंदी दिवस विशेष,9,हुस्न तबस्सुम 'निहाँ',1,biography,1,dohe,3,hindi divas,6,hindi sahitya,1,indian art,1,kavita,3,review,1,satire,1,shatak,3,tevari,3,undefined,1,
ltr
item
रचनाकार: पाब्लो नेरुदाः एंडीज़ से उपजा सौंदर्य और क्रांति का स्वर
पाब्लो नेरुदाः एंडीज़ से उपजा सौंदर्य और क्रांति का स्वर
रचनाकार
https://www.rachanakar.org/2007/11/blog-post_05.html
https://www.rachanakar.org/
https://www.rachanakar.org/
https://www.rachanakar.org/2007/11/blog-post_05.html
true
15182217
UTF-8
Loaded All Posts Not found any posts VIEW ALL Readmore Reply Cancel reply Delete By Home PAGES POSTS View All RECOMMENDED FOR YOU LABEL ARCHIVE SEARCH ALL POSTS Not found any post match with your request Back Home Sunday Monday Tuesday Wednesday Thursday Friday Saturday Sun Mon Tue Wed Thu Fri Sat January February March April May June July August September October November December Jan Feb Mar Apr May Jun Jul Aug Sep Oct Nov Dec just now 1 minute ago $$1$$ minutes ago 1 hour ago $$1$$ hours ago Yesterday $$1$$ days ago $$1$$ weeks ago more than 5 weeks ago Followers Follow THIS PREMIUM CONTENT IS LOCKED STEP 1: Share to a social network STEP 2: Click the link on your social network Copy All Code Select All Code All codes were copied to your clipboard Can not copy the codes / texts, please press [CTRL]+[C] (or CMD+C with Mac) to copy Table of Content