-मनोज सिंह अपनी पीढ़ी के अन्य सामान्य हिन्दुओं की तरह मैं भी बचपन से ही प्रत्येक पूजा में-'ऊँ भूर्भुव: स्व: तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो द...
-मनोज सिंह
अपनी पीढ़ी के अन्य सामान्य हिन्दुओं की तरह मैं भी बचपन से ही प्रत्येक पूजा में-'ऊँ भूर्भुव: स्व: तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि। धियो यो न: प्रचोदयात्।` का जोर-जोर से और अक्सर नहाने के बाद मन ही मन में जाप करता रहा हूँ। यज्ञ या हवन में सम्मिलित होने पर तो इसी मंत्र का उच्चारण करना एक स्वाभाविक प्रक्रिया बन चुकी है। परंतु गायत्री मंत्र के शब्दार्थ की बातें करे तो अकल आने के बहुत दिनों बाद ही जाकर इसके बारे में कुछ-कुछ समझ पाया था। तब भी विभिन्न ट्रस्ट, आश्रम या कंपनियों द्वारा बनाये गये रंगीन कैलेंडर एवं डायरी में बताए गए अर्थ तक ही सीमित रहा। और मेरी अज्ञानता देखिए कि यह तो वर्षों बाद ही जान पाया था कि यह महामंत्र ऋग्वेद के तृतीय मण्डल के सूक्त ६२ का दसवाँ मंत्र है। मेरी पीढ़ी के अधिकांश लोगों की यही अवस्था होगी ऐसा मेरा मानना है। जब हमारी पीढ़ी की यह दुर्दशा है तो आने वाली पीढ़ियाँ इस ज्ञान को जानने के लिए कितना आकर्षित होंगी समझ सकना मुश्किल है। परंतु अब मुझे इस बात का सदैव अफसोस रहता है कि मैंने अपने छात्र जीवन में संस्कृत भाषा का अध्ययन क्यूँ नहीं किया। मेरा मानना है कि स्कूली जीवन में तृतीय भाषा के रूप में किसी स्थानीय भाषा के स्थान पर संस्कृत का अध्ययन करना अधिक फलदायी हो सकता है। कारण कई गिनाए जा सकते हैं। प्रथम यह अधिकांश भारतीय भाषाओं की जननी है। दूसरा विश्व की इस सशक्त भाषा के माध्यम से आप प्राचीन ग्रंथों का अध्ययन कर उसे बेहतर ढंग से समझ सकते हैं। तीसरा-इस व्यवस्थित एवं सुगठित भाषा में आपको स्कूल में शतप्रतिशत अंक प्राप्त हो सकते हैं। जानकर हैरानी होती है कि इतनी प्राचीन भाषा होते हुए भी यह अत्यधिक वैज्ञानिक है एवं इसके कुछ शब्दों के माध्यम से आप सामान्य से अधिक विचारों का आदान-प्रदान कर सकते हैं। इसमें एक प्रवाह, मिठास एवं लयात्मकता है तभी इस महाद्वीप के अधिकांश प्राचीन ग्रंथों को लिखने के लिए इसी भाषा का उपयोग हुआ है जो पद्य में लिखे गये। हिन्दी तो पूर्णत: संस्कृत पर निर्भर है ही अन्य भारतीय भाषाओं में भी संस्कृत उपस्थित है और विद्वानों की राय पर यकीन करें तो विश्व की अन्य भाषाओं ने भी इससे कई शब्द लिए हैं।
किसी भी लिखित साहित्य को समझने के लिए उसके मूल भाषा का ज्ञान होना आवश्यक है अन्यथा अनुवाद के माध्यम से सतही रूप से तो पढ़ा और समझा जा सकता है परंतु उसकी गहराई का अंदाज लगाना मुश्किल होता है। फिर चाहे सरल भावार्थ वाली सैंकड़ों पुस्तकें बाजार में उपलब्ध क्यूँ न हो। यहाँ तो वही मिसाल हुई कि मीनाकुमारी के लिए गाए गए लतामंगेशकर के दर्द भरे गीतों को अन्य भाषा में चाहे जितना भी अच्छा अनुवाद किया जाए परंतु उसकी पीड़ा और कशमकश का अहसास कर पाना नामुमकिन है। उस पर से संस्कृत जैसी वजनदार भाषा जिसमें शब्दों का भावार्थ असीमित होता है। उसके साहित्य को सामान्य भाषान्तर के द्वारा समझ पाना थोड़ा मुश्किल है। हाँ पुस्तक के सही चयन करने पर आप मूल लेखक की भावनाओं के समीप पहुँचने में कामयाब हो सकते हैं। और इसी उम्मीद एवं विश्वास के साथ मैं गायत्री परिवार द्वारा प्रकाशित वेदों की आठ पुस्तकें खरीद लाया, जिसमें चार ऋग्वेद, एक-एक सामवेद एवं यजुर्वेद तथा दो अथर्ववेद पर आधारित हैं। जिसका संपादन आचार्य पं. श्री राम शर्मा जी ने किया हुआ है। और जिस कारण वे वेदमूर्ति कहलाते हैं। चूंकि उनका व्यक्तित्व वेदों के अध्ययन एवं गायत्री साधना से ही उभरा था।
वेद को दिव्य ज्ञान का भण्डार एवं इंडो-आर्यन धर्म, संस्कृति, सभ्यता तथा साहित्य का प्राचीनतम ग्रंथ संग्रह माना जाता है एवं गायत्री को वेदमाता। भारत के मूल को समझने के लिए, इतिहास को जानने के लिए वेदों का अध्ययन आवश्यक है। वेदों को श्रुति भी कहा जाता है। अर्थात स्वयं साक्षात्कार व अनुभव किए गये ज्ञान का भण्डार। वेद को प्रथम दृष्टि सरसरी निगाह से देखते ही महसूस किया जा सकता है कि प्रत्येक मंत्र को एक दो पंक्तियों में भावार्थ सहित व्यक्त करना कितना मुश्किल कार्य है। परंतु इसके बावजूद इन अनुवादित पुस्तकों के माध्यम से कुछ-कुछ समझा जा सकता है। वेदों के पठन-पाठन के प्रारंभ में ही जो सबसे बड़ी विशेषता नजर आती है वह यह है कि ये ज्ञान में अनंत असीमित होते हुए, सृष्टि के समस्त जीवधारियों के कल्याण, सुख-समृद्धि एवं सभी धर्म सम्प्रदाय के लिए बनाए गए हैं। जो आज भी अपरिवर्तनीय है तथा काल, परिस्थिति व समय के संदर्भ में प्रासांगिक, व्यवहारिक एवं विज्ञान सम्मत हैं। साथ ही इसकी महानता पर दृष्टि डालें कि जहाँ एक ओर ऋषियों ने वेद को पूर्ण तो कहा किंतु उसके साथ नेति-नेति (यह अंतिम नहीं है) भी कहा। जो उसकी परिपक्वता को भी दर्शाता है। आज के अंहकारी युग में जब हर कोई अपने को संपूर्ण, सर्वशक्तिमान, सर्वश्रेष्ठ बताने व सिद्ध करने में तत्पर हो, ऐसे में प्रकृति के रहस्य को समझते हुए हजारों वर्ष पूर्व यह लिखना आश्चर्य पैदा करता है। और यह ठीक भी है। पल-पल परिवर्तनशील एवं निरंतर प्रवाहित प्रकृति को समझकर, कुछ शब्दों में समेटकर व्यक्त कर देना आसान नहीं।
वेदों के मंत्रों को समझने के लिए संस्कृत भाषा का ज्ञान एवं व्याकरण को जानना ही काफी नहीं वे उसकी गूढ़ता को समझने में सहायक तो हो सकते हैं पर अंतिम सत्य को सिर्फ अनुभव किया जा सकता है। ज्ञान का जो दिव्य स्वरूप है उसे अंतर्मन के द्वार खोलकर ही पढ़ा जा सकता है। सरल भावार्थ के लिए वेदों में प्रतीक एवं रूपक का खुलकर प्रयोग हुआ है और विभिन्न पात्रों के माध्यम से समझाने का सफल प्रयास किया गया है। छन्द, काव्य शैली अपने कला के चरम पर दिखाई पड़ते है। वैसे तो सामान्य जानकारी अनुसार वेद एवं यज्ञ एक दूसरे से संबंधित हैं पर पढ़ने पर ये पूर्णत: एक दूसरे पर आश्रित, संदर्भित एवं गुथे हुए प्रतीत होते हैं। यज्ञ में वेदों के मंत्रों का उच्चारण एक स्वाभाविक प्रक्रिया है एवं यज्ञ से ही ब्रम्हांड उत्पन्न हुआ है ऐसी धारणा है। वेद मुख्यत: चार विभागों में हैं संहिता, ब्राहा्रण, आरण्यक, उपनिषद्। संहिता में वैदिक स्तुतियाँ संग्रहित है। ब्राहा्रण में मंत्रों की व्याख्या तथा प्रवचन है। आरण्यक में वानप्रस्थ आश्रम में कर्मरत के लिए उपयोगी विधि विधान एवं उपनिषदों में दार्शनिक व्याख्याओं का प्रस्तुतिकरण है। कालांतर में यह वर्गीकरण समाप्त हो गया एवं सभी स्वतंत्र इकाई माने जाने लगे तथा वेद सिर्फ संहिता के लिए प्रयुक्त होने लगे। इसमें ऋक् को प्रार्थना, यजुष् को यज्ञ विद्या, साम को शांति मंगलमय गान तथा अथर्व को धर्म-दर्शन तथा लोक जीवन के उपयोगी जानकारी से भरपूर माना जाता है। संहिता में संकलित वेद को चार भागों में महर्षि व्यास ने किया और इसी कारण से वे वेदव्यास कहलाए। यहाँ व्यास का शब्दार्थ संपादन से भी है।
चारों वेद पढ़कर पूर्णत: कब समझ सकूँगा कहना मुश्किल है परंतु इसका संक्षिप्त विवरण व मूल भाव शीघ्र ही पाठकों तक पहुँचाने की कोशिश करूँगा। आज मुझ जैसे अज्ञानियों के लिए गायत्री मंत्र का संक्षिप्त भावार्थ समझना ही काफी है- 'उस प्राणस्वरूप, दु:खनाशक, सुखस्वरूप, श्रेष्ठ, तेजस्वी, पाप नाशक, देवस्वरूप परमात्मा को हम अंतरात्मा में धारण करें। वह परमात्मा हमारी बुद्धि को सन्मार्ग की ओर प्रेरित करें।` उपरोक्त भावार्थ को जानने के बाद मुझे घोर आत्मग्लानि हुई थी चूंकि पूर्व में उपरोक्त मंत्र जाप के दौरान ऐसे भाव मन मस्तिष्क में बिल्कुल भी नहीं आते थे और मैं सदैव अपने लिए किसी हित के वरदान की अभिलाषा करता या अपने दुश्मनों के अहित की कामना करता रहा। मैं कितना गलत था। क्या आप सही हैं? क्या ऐसा महसूस नहीं होता कि ये मंत्र आज अधिक प्रासंगिक हैं?
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मनोज सिंह
४२५/३, सेक्टर ३०।ए , चंडीगढ़
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आज अचानक इस लेख तक पहुंचा. आपने वेदों की उपयोगिता के सन्दर्भ में सही कहा है. क्या इन्हें पीडीएफ फौर्मेट में डाउनलोड करने का कहीं विकल्प है ?
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