ग़ज़ल संग्रह – मनोज नगरकर की 59 ग़ज़लें - मनोज नगरकर 1 अफ़साने रखते हैं जब तेरे ख़त सिरहाने रखते हैं, लगता है जैसे खज़ाने रखते हैं। तु...
ग़ज़ल संग्रह – मनोज नगरकर की 59 ग़ज़लें
- मनोज नगरकर
1 अफ़साने रखते हैं
जब तेरे ख़त सिरहाने रखते हैं,
लगता है जैसे खज़ाने रखते हैं।
तुमको तन्हा चलने की आदत क्यों,
हम तो साथ अपने ज़माने रखते हैं।
उसकी बेरूखी का ग़म नहीं होता,
दिल को बहलाने के बहाने रखते हैं।
हमको नहीं गरज किसी मयख़ाने की,
आंखों में अश्कों के पैमाने रखते हैं।
अब भी उठती है महक तेरी यादों की
सूखे गुलाबों में अफ़साने रखते हैं।
कभी तो मिलेगा ‘आस' का मुकाम,
यही सोचकर सीने में उड़ानें रखते हैं।
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2 तो अच्छा है
चलन जिंदगी का बदला जाए तो अच्छा है,
किसी के ग़म में अश्क बहाए तो अच्छा है।
हादसा है क्या और रंजे-हालात है क्या?
किताबें ग़म की पढ़ी जाए तो अच्छा है।
और भी आसान हो जाएगी मंज़िलें,
कांटों को राहों से हटाए तो अच्छा है।
तूफां नफ़रतों का उठने लगे इससे पहले,
नांव प्यार की साहिल से लगाए तो अच्छा है।
उम्र खिलोनों से खेलने की कहां रह गई,
नादानियां बाज़ार में बेच आए तो अच्छा है।
घरौंदे रेत के बनाकर थक चुके हैं ‘आस',
अब किसी दिल में घर बनाए तो अच्छा है।
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3 खंज़र देख लो
वक्त की हवाओं का यारों असर देख लो,
बिख़रे हुए पत्तों का ये मंज़र देख लो।
शौक से छुप जाओ बेवफाई के जंगल में,
पहले मेरी आंखों में वफ़ा का खंज़र देख लो।
अश्कों से उभर आये हैं हथेली पर छालें,
है इंतज़ार में तपिश किस कदर देख लो।
पल-पल में हुस्नें रंगत उड़ती नजर आयेगी,
आईने में शक्ल गौर से अगर देख लो।
ठोकरों में आये, तो मंदिरों में सज गए,
रास्तों के पत्थरों के भी मुकद्दर देख लो।
‘आस' यूं तो रहते हैं घरों में रिश्ते लेकिन,
दिलों के दरमियां है कितना अंतर देख लो।
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4 चारागर नहीं देखें
आंधियों ने जलाये हो चराग ऐसे मंजर नहीं देखे,
हमने दरिया से मिलते कभी समंदर नहीं देखे।
गैरों तक ही सिमट के रहगई निगाहें उनकी,
भूलकर भी रूख उनके हम पर नहीं देखे।
सौगात जख्मों की हर कोई देके चला है,
मरहम दिल पे लगाये ऐसे चारागर नहीं देखे।
चीज बूरी है बात अक्सर वो ही करते हैं,
जाम लबों से जिसने लगाकर नहीं देखे।
दिल में दर्द और आंखों में आंसू देखे हैं ‘आस'
हमने वफादारों के हाथों में पत्थर नहीं देखे।
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5 आज़माके देखिए
कभी दिल में किसी को बसाके देखिए,
रिश्ते भी कुछ नये बनाके देखिए।
रंग एक-सा ही नज़र आयेगा,
लहू को लहू से मिलाके देखिए।
महक उनके बदन से भी आयेगी,
अपने गुलशन में कांटे खिलाके देखिए।
हज़ारों बेगुनाहों की आहें दफन होगी,
सियासत की दीवारें गिराके देखिए।
सभी मतलबों के ही साथी मिलेंगे,
न हो यकीं तो आज़माके देखिए।
साथ तुम्हारे भी चलेगी ‘आस' दुनिया,
जुगनूओं-सा ज़रा जगमगाके देखिए
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6 पता मांगते हैं
दिल में धड़कनें न रहे दुआ मांगते हैं,
हम अपने गुनाहों की सज़ा मांगते हैं।
फिर सुलग उठे यहां हौसलों के शोलें,
बुझी-बुझी सी आग को हवा मांगते हैं।
बेहया हो चली है फितरतें सभी की,
आदमी में ज़रा-सी हया मांगते हैं।
दिल की बेचैन सासों को आये करार,
प्यार में डूबी कोई सदा मांगते हैं।
हम खुद ही ढूंढ़ लेते हैं अपना ठिकाना,
कब गैर से मंज़िल का पता मांगते हैं।
‘आस' के पांव में न हो जंज़ीर कोई,
और कुछ न इसके सिवा मांगते हैं।
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7 बिखर जाएगा
दरिया-ए-इश्क में जो उतर जायेगा,
फिर होश कहां उसे वो किधर जायेगा।
राह उल्फ़त की अगर चले दुनिया,
अदा बदलेगी हर चेहरा संवर जायेगा।
हमसफर हो साथ तो क्या है मुश्किल,
राह कोई भी हो आसां हर सफ़र जायेगा।
पत्थरों से न उलझ दिल भी ज़रा देख,
आईना ही तो है टुट के बिख़र जायेगा।
जब गुजर गया लम्हा आंखें पथरा गईं,
कब सोचा था मुझसे हादसा डर जायेगा।
हर तरफ धुआं-सा कोहरा-सा, अंधेरा-सा,
कौन पहचानेगा शहर में अगर जायेगा।
तुम ज़माने के साथ चलो शौक से,
आस, तन्हा है चाहे वो उधर जायेगा।
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8 हवा दीजिए
आज फिर ख्वाहिशों को दिल में जगा दीजिए,
तोड़ दो बंदिशे चिंगारियों को हवा दीजिए।
भला कब रूके हैं यहां प्यार के बादल?
किसने रोका है ज़रा हमें भी बता दीजिए।
दिल के ज़ख्म कहीं नासूर न बन जाएं,
बन के चारागर कभी तो दवा दीजिए।
फिर सुलग उठे यहां हौंसलों के शोलें,
बुझी-बुझी-सी आग को हवा दीजिए।
नफ़रतों का तूफ़ा उठाए जहां इससे पहले,
कश्तियां चाहत की साहिल से लगा दीजिए।
रह-रहके जो याद उनकी दिलाये ‘आस'
ऐसी उनकी हर निशानी को हटा दीजिए।
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9 तूफ़ान बहुत हैं
खुशियां कम और अरमान बहुत हैं,
जिसे भी देखिए यहां हैरान बहुत है।
करीब से देखा तो है रेत के घर,
दूर से मगर उनकी शान बहुत है।
कहते हैं सच का कोई सानी नहीं,
आज तो झूठ की आन-बान बहुत है।
मुश्किल से मिलता है शहर में आदमी,
यूं तो कहने को इन्सान बहुत हैं।
तुम शौक से चलो राहें-वफा लेकिन,
ज़रा संभल के चलना तूफान बहुत है।
वक्त पे न पहचाने कोई ये अलग बात,
‘आस', वैसे तो अपनी पहचान बहुत है।
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10 पिला तो दीजिए
तरसती आंखों को इक झलक दिखा तो दीजिए,
दीवाने दिल को संभलना सिखा तो दीजिए।
उस पार आप ठहरे और इस पार हम खड़े,
फासलों की इस दीवार को गिरा तो दीजिए।
प्यासे हैं कितनी मुद्दत से आपकी हसरत में,
इक जाम होठों का हमें भी पिला तो दीजिए।
नश्तर-सी चुभने लगी है ये खामोशी आपकी,
मुस्कुराइए ज़रा लबों को हिला तो दीजिए।
मुरझा गया है चमन हमारी हसरतों का
बहार बनके आइये कोई गुल खिला तो दीजिए।
उल्फ़त न सही नफ़रत ही सही कबूल है मगर,
‘आस' की चाहत का कोई सिला तो दीजिए।
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11 गुबार छाने लगा है....
प्यार में आजकल यूं भी होने लगा है,
दिल की जगह जिस्म मचलने लगा है।
दोस्ती, प्यार, वफ़ा-औ खुलूस का जज्बा,
किताबों में ही दम तोड़ने लगा है।
अपने हाथों की लकीरों में क्या है भला?
आदमी अपने ही सवालों में उलझने लगा है।
जाने अब के ये कैसा दौर आ गया,
शहर में नफरतों का गुबार छाने लगा है।
उससे निस्बत ही न रहे तो है अच्छा,
रह-रह के रूठना उसका खलने लगा है।
वक्त के मारों को जबसे देखा है यहां,
‘आस' भी अपने अंज़ाम से डरने लगा है।
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12 दरों-दीवार अब
कहो किस पे करे ऐतबार अब,
दोस्त ही करने लगे वार अब।
सब खेल है वक्त का हयात में,
करें किस-किस का इंतज़ार अब।
जब भी रहे तो ख़याल इतना रहे,
दामन वफ़ा का न हो दाग़दार अब।
उसकी जुदाई का असर न पूछो,
साथ रोने लगी है दरों-दीवार अब।
रहना है गर किसी नज़र में आस,
तो आंचल शर्मों-हया का संवार अब।
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13 बिख़र जायेगा मेरे यार
कहां तक बता जायेगा मेरे यार,
चल के खूब पछतायेगा मेरे यार।
यह राह वफा की है मुश्किल,
ठोकरों पे ठोकर खायेगा मेरे यार।
कोई हमदर्द, हमराह-हमदम नहीं,
अब-किसको आज़मायेगा मेरे यार।
प्यार के नाम पे है दिल का तमाशा,
टूट के बिख़र जायेगा मेरे यार।
सियासी चालों ने खोखली कर दी जड़ें,
किस दरख़त को संभालेगा मेरे यार।
‘आस', दिल में न पालना कोई,
शर्म से तर हो जायेगा मेरे यार।
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14 वो चुभो के शूल गए
जाने क्यों अहले जहां उनको भूल गए।
जो दे के हमें अपने उसूल गए।
आज उनके ही चमन वीरान आते नज़र,
खिलाके कलियां, जो हटाकर बबूल गए।
कांटे रह गये हैं हमारी रहगुजर पे,
उनकी राहों की तरफ सारे फूल गये।
पाक दामन हमारा फिर भी दागदार कहलाये,
उनके दामन के हर दाग मगर धूल गए।
कर सके न फिर कोई तमन्ना इसी खातिर,
सीने में ‘आस' के वो चुभो के शूल गए।
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15 मेहबूब नहीं क़ातिल होगा
लाख मशक्कत कर लो, कुछ न हासिल होगा,
न अपना समंदर होगा, न कोई साहिल होगा।
अब तो वो ही होगा खड़ा ज़माने के मुकाबिल,
जिसका अपना फ़न होगा, जो किसी काबिल होगा।
वो जो नहीं जानता प्यार-ओ-खुलूस के मायने,
दिल उसका मोम नहीं वह संगदिल होगा।
बंदगी-ईबादत, धर्म-कर्म, पूजा और ईमाँ,
नहीं जिसकी मंज़िल राही वो जाहिल होगा।
वफ़ा के नाम पर जो खेलता हो दिल से,
सच कहते हैं वो मेहबूब नहीं क़ातिल होगा।
चलो एक बार में ही खत्म कर दें ये सफ़र,
क्यों खड़ा मुन्तिजर, क्यूं परिशां किसी का दिल होगा।
आस कभी बे-आस जिंदगी के कई हैं रंग,
कहो? किस-किस का चेहरा नजर में दाखिल होगा।
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16 मधुमास हमेशा
तेरे खयालों की रोशनी रही पास हमेशा,
ज़िदगी मेरी फिर भी रही उदास हमेशा।
ये अलग बात थी कि तू न सुन पाया,
तुझको आवाज़ देती रही मेरी हर सांस हमेशा।
पतझड़ में भी हंसने की कोशिश कर ले,
मिलता नहीं किसी को भी मधुमास हमेशा।
बेइमानों के ही हक़ में होते रहे फ़ैसले,
वो चलते रहे हैं चाल कुछ खास हमेशा।
न पूछ क्यूं रिश्तों के जाल में उलझकर,
दम तोड़ती रही मेरी हर ‘आस' हमेशा।
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17 गुमां है
ये अश्क हैं किसके ये किसके निशां हैं,
पिघलती मोम है ज़िंदगी किसके बयां हैं।
यहां तो खामोशी के सिवा कुछ भी नहीं,
कौन रहते हैं यहां, ये किसके मकां हैं।
अजब शहर की हालत नज़र है आती,
हर तरफ़ हाथों में मौत के सामां है।
उठ गई हैं दीवारें रिश्तों के दरमियां,
रह गए घरों में रिश्तों के गुमां हैं
ज़रा सोचकर यहां दिल लगाइए साहब,
मुहब्बत हवा का झोंका नहीं तूफ़ां है।
मिलता नहीं प्यार अदब, सलीका कहीं,
दिल सभी के यहां मतलबों के दुकां है।
ऐतबार करना मगर ज़रा संभल के ‘आस',
कब वादों से मुकर जाये ये जुबां है।
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18 तीन मुक्तक
जिंदगी इंतकाम ले रही कि इम्तिहान क्या पता,
जान में आफत है कि आफत में जान क्या पता।
इसीलिए खुले छोड़े हैं हमने दिल के दरवाजे,
जाने कब कहां से आये कोई मेहमान क्या पता।
गम के सहरा में कहां तक जाओगे।
राहें-मुश्किल है बड़ी थक जाओगे।
कब तक परदे में छुपा रहा है कोई?
प्यारी नजरों को कभी तो झलक जाओगे।
हम गलत हैं कि सही आजमा तो लेते,
कभी महफिल में अपनी बुला तो लेते।
फिर कहते कि कम्बख्त चीज है बुरी,
पहले जाम होठों से लगा तो लेते।
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19 इल्जाम है
होंठों पे नाम तेरा, आंखों में पैगाम है,
हमसे रूठने वाले तुझको सलाम है।
तेरी उल्फ़त ने बस ग़म ही दिये,
तुझसे दिल लगाने का अच्छा इनाम है।
घर को लूटने वाले मुआफ़ हों गए,
हमपे घर सजाने के बहुत इल्जाम है।
तेरे मैख़ाने में साकी क्यूं आये भला?
अब तो हाथों में हमारे अश्कों के जाम हैं।
दिल के मारो से न पूछिए उनका ठिकाना,
कहीं सुबह उनकी कहीं उनकी शाम है।
अब तो मतलब, फ़रेब, बेईमानी है ‘आस',
आदमी के दिल में न अल्लाह, न राम है।
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20 हंसाया जाए
आँखों में मंज़र कोई बसाया जाए,
नफ़रत का काला धुआं हटाया जाए।
आलम कोई भी हो बदल जायेगा,
जाम लबों से कोई लगाया जाए।
कोई तो अपना भीड़ में आयेगा नज़र,
झुकी पलकों का फिर उठाया जाए।
शायद वो आये किसी रोज सजदा करने,
आँचल इसी उम्मीद से बिछाया जाए।
दिल से दुआ निकल आयेगी दोस्तों,
सिसकते होंठों को गर हंसाया जाए।
फर्ज इन्सान का यही कहता है - ‘आस'
डूबते को साहिल से लगाया जाए।
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21 आंधिया रूसवाई की
लुटेरें रहनुमा लेके निकले मशालें बुराई की,
क़ातिल हैं कि लड़ रहे जंग अच्छाई की।
भरी बरसात में भी दिल सुलगता रहा,
आग भी कैसी अजीब है तन्हाई की।
रो-रो के दीवाने का हाल है बुरा,
जब से सुनी है उसने सदा शहनाई की।
दिल धक् से हो जाते हैं देखने वालों के,
क्या सुनाये कहानी उसकी अंगड़ाई की
पल भर को भी कहीं चैन नहीं मिलता,
यही हक़ीक़त है यारों बे-वफ़ाई की।
वो एक झोंके से ही घबराके हार बैठे,
‘आस' हम हंसके झेलें-आंधियां रूसवाई की।
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22 नादानियां हैं
कहीं महकता चमन, कहीं वीरानियां हैं,
सुबह के होठों पर रात की कहानियां हैं।
जहां जब जी चाहे दिल लगा बैठते हैं,
दीवानों में आजकल कितनी नादानियां हैं।
हर मोड़ लगता है कि है आखिरी मोड़,
फजर् की राहों में कितनी कुरबानियां हैं।
तुमने तो शायद हर बात भुला दी हमारी,
पास हमारे आज भी कई निशानियां हैं।
अच्छाइयां हमारी सब भूला बैठे हैं ‘आस',
सबकी जुबां पर आज हमारी शैतानियां हैं।
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23 बहाव चाहिए
नहीं चाहिए झुकाव मुझे तो उठाव चाहिए।
मेरे तपते दिल को हमदम की छांव चाहिए।
बहते-बहते कई किनारें देख चुके है,
अब लगता है ज़िंदगी में ठहराव चाहिए।
वैसे तो छोटे-बड़े कई जख़म सह लिये,
उम्र भर याद रहे ऐसा कोई घांव चाहिए।
मिले न मिले किनारा कोई ग़म नहीं,
प्यार की कश्ती को मगर बहाव चाहिए।
हम तौलते हैं नज़रों से दिल की कीमत,
मिले हमसे ज़रा जिस-जिसको भाव चाहिए।
कौन कहता है अमन का परचम नहीं लहरायेगा,
बस आदमी को आदमी से ज़रा लगाव चाहिए।
‘आस' हमको जमाने की बड़ी फ़िक्र लगती है,
कल होगा, से होगा इस सोच में बदलाव चाहिए।
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24 बरसात कभी
था यकीं कि होगी ऐसी कोई बात कभी,
दिल से दिल की भी होगी मुलाकात कभी।
बहार जब आयी सूखें गुलों पर तो सोचा,
हमको भी मिलेगी खुश्बुओं की सौगात कभी।
साथ जिस्म के तब रूह भी भीगी थी।
आंगन में हमारे हुई थी वो बरसात कभी।
दौर वो भी होगा, आयेगा वो भी ज़माना,
आदमी-आदमी से न पूछेगा ज़ात कभी।
मुद्दतें हुई सिलसिला ख़तों का खत्म हुए,
दिल को भरोसा है कि आयेगा उसका ख़त कभी।
उम्मीदों ने तोड़ दिया दम इसी इंतज़ार में,
जुड़ जाएंगे हमारे भी किसी से तआल्लुकात कभी।
छांव में रिश्तों की रहना सिख लो ‘आस',
वरना पुछे कोई तुमसे तुम्हारी औकात कभी।
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25 असर होगा
फूलों की जगह हाथों में पत्थर होगा,
कल हर तरफ यही मंज़र होगा।
दुश्मनों की आंखों में शराफत का नशा,
दोस्तों के हाथों में खंज़र होगा।
खुद ही तलाशने होंगे रास्ते मंज़िलों के,
कोई हमसफ़र होगा न कोई रहबर होगा।
इसी उम्मीद में गुज़र गई उम्र उसकी,
इक रोज उसका मकां उसका घर होगा।
कौन वादों से मुकरता है देखेंगे?
उसकी शमशीर होगी अपना सर होगा।
ये सोचकर मुफ़लीस खरीद लेता है,
सुबह का अखबार शाम का बिस्तर होगा।
तुम दिल में ‘आस' को जगाये रखना,
कभी तो उसपे चाहत का असर होगा।
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26 ज़रा देखें
कब तक ये ख्वाब सुनहरा देखें,
उसकी आंखों में अपना चेहरा देखें।
रूख़ उनका ग़ैरों की ही जानिब क्यों?
कभी हमारी भी नज़रों का इशारा देखें।
जिसको किस्मत की मौजों ने डुबोया,
वो मझधार से दूर अपना किनारा देखें।
जिसने देखा न हो कभी तमाशा कोई,
चलो मेरे जलते घर का नज़ारा देखें।
अपनी कहां ऐसी किस्मत है ‘आस',
दर पे खड़ा कोई रास्ता हमारा देखें।
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27 तूफान बहुत हैं
खुशियां कम और अरमान बहुत हैं,
जिसे भी देखिए यहां हैरान बहुत हैं।
करीब से देखा तो है रेत का घर,
दूर से मगर उनकी शान बहुत हैं।
कहते हैं सच का कोई सानी नहीं,
आज तो झूठ की आन-बान बहुत हैं।
मुश्किल से मिलता है शहर में आदमी,
यूं तो कहने को इन्सान बहुत हैं।
तुम शौक से चलो राहें-वफा लेकिन,
जरा संभल के चलना तूफान बहुत हैं।
वक्त पे न पहचाने कोई ये अलग बात,
‘आस' वैसे तो शहर में अपनी पहचान बहुत हैं।
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28 अब की दीवाली में
दिल मिले यहां प्यार फलें, अब की दीवाली में।
पथ पे विश्वास के दीप जले अब की दिवाली में।
रास्ता जो भी हो कट ही जाएगा दोस्तों,
संग अमन के काफिलें चलें, अब की दीवाली में।
बचना उनसे जो आपके यहां हमदर्द नहीं,
बेसबब पड़ न जाये गले, अब की दीवाली में।
दुख न हो किसी को दिल न किसी का टूटे,
खुशी की लेके उमंग सांझ ढले, अब की दीवाली में।
उसकी गली में ये कैसा गम का है अंधेरा?
शायद फिर किसी के दिल जले, अब की दीवाली में।
आओ मिलके हम प्यार का कोई दीप जलाये,
द्वेष का करे दूर अंधेरा मिल जाये गलें, अब की दीवाली में।
विरान किसी की न हो बगिया ये दुआ है,
हर चमन में ‘आस' के फूल खिले, अब की दीवाली में।
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29 आराम नहीं है
जिंदगी के लबों पर कोई पैगाम नहीं है,
अपनी किस्मत में चाहत की शाम नहीं है।
बदला है जबसे आदमी ने फितरत का चोला,
दिल की क़िताब में वफ़ा का नाम नहीं है।
बिछड़कर उनसे क्या आ गए हैं हम,
ज़िंदगी को कहीं पर भी आराम नहीं है।
सच है, हादसों ने बदल दी चेहरे की रंगत,
मगर, सच ये भी ये हमारा अंज़ाम नहीं है।
सुरुर में हम भी डुबना चाहते हैं लेकिन,
किसी नज़र में उल्फ़त का जाम नहीं है,
माहौल इस तरह भी बदलते देख रहे,
हाथ उठते हैं मगर जुबां पे सलाम नहीं है।
कहां ढूंढ़ोगे ‘आस' काफिरों की ज़मीं पर,
यहां ईसा-मसीह, बुद्ध कोई राम नहीं है।
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30 खुदगर्ज है ज़माना
वो बातें पुरानी वो किस्सा पुराना,
किसे याद रखना किसे भूल जाना।
सुकूं मेरे दिल को देता नहीं,क्यूं
तेरा हौले-हौले से अब मुस्कुराना।
किसी को याद कोई रखे तो कैसे,
मतलब के साथी खुदगर्ज है जमाना।
जहां उम्मीदों के दीये जल रहे हों,
चलो चलके ढूंढ़ेंगे ऐसा ठिकाना।
कहीं कोई चिंगारी शायद भड़क उठे,
बुझी आग को है फिर छेड़ जाना।
खुशी है कहीं तो कहीं देखा मातम,
चलन वक्त का है रूलाना, हंसाना।
था ‘आस' को वफ़ा में ये भी मंजूर,
तेरा खेलना दिल से फिर तोड़ जाना
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31 जला दीजिए
मेरी चाहत का यही सिला दीजिए,
मिट्टी का घर है गिरा दीजिए।
हर लफ्ज याद मेरी ही दिलायेगा,
चाहे मेरे खतों को जला दीजिए।
शजर से गिरा पत्ता ही तो हूं,
चाहो जिस तरफ उधर हवा दीजिए।
उसको देखे बगैर गुजारा है मुश्किल,
रहम कीजिए उसका तो पता दीजिए।
तब तक राहों में खड़े रहे तन्हा,
किसी मोड़ से तो सदी दीजिए।
रोशनी की जिद में अड़े हो?
चलिए मेरे घर को जला दीजिए।
‘आस' दिल में मिलने की बनी रहे,
सौगात में कोई वादा झुठा दीजिए।
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32 यही फसाना है....
जिंदगी ने देखा हैं यह भी हौसला अपना,
हमने आशियां खुद ही जला डाला अपना।
गुल खिलेंगे फिर कैसे दिल में आरजुओं के,
दोस्ती खिजां से जब करता गुलसितां अपना।
दर्द कैसे भुलुंगा अपने जख्मी होने का,
मेहरबां के हाथों से छलनी तन हुआ अपना।
जिन्दा लाशों से क्या उम्मीद रखें कोई,
जिसका जीना अपना, जिसका मरना अपना।
कभी मिलने की खुशी, कभी बिछड़ने का गम,
यही फसाना है, यही है सिलसिला अपना।
‘आस' अब कहां जाएं किस मकाम पे ठहरें,
लुट गया मुहब्बत का चलता कारवां अपना।
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33 बात करो....
कर सको तो तूफां में किनारों की बात करो,
उदासी के चिथड़ों में लिपटे चेहरों की बात करो।
वक्त बदला तो फितरत भी बदल जाने दो,
अब फुलों की नहीं जलते अंगारों की बात करो।
आप अंधे हो न बहरे और न गूंगे हो अगर,
तो करो, उजड़े हुए घरों की बात करो।
मजहबों की खोखली दीवारें बना - बनाकर,
बांटते हैं दिलों को ऐसे काफिरों की बात करो।
आसमां के सितारों पे है क्यूं हर किसी की नजर,
जो हैं ठोकरों में यहां उन पत्थरों की बातकरो।
नर्म फूलों के साये में कौन कबतक रहा है ‘आस',
गम की धूप में तपते राहगीरों की बात करो।
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34 अरमान मांगते हो
आप हमसे हमारी पहचान मांगते हो।
मौत का क्यूं सामन मांगते हो।
क्या आपके सीने में कुछ भी नहीं?
इसीलिए हमारे अरमान मांगते हो।
काबिल नहीं आप इसलिए नहीं देते,
किसी से क्यूं झूठा सम्मान मांगते हो।
घर का आंगन तरस गया इसीलिए,
पड़ोसी से नया मेहमान मांगते हो।
‘आस' है तब ही तो जी रहे हम,
हमसे हमारा यह भी दान मांगते हो।
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35 तुम्हारी बात है....
तुम खफ़ा हमसे हो जाओ, तुम्हारी बात है।
बीज कांटों के बो जाओ, तुम्हारी बात है।
वक्त के साथ चलना फ़ितरत बना ली,
जागने के साथ सो जाओ, तुम्हारी बात है।
मुस्कुराकर जख्म सहना सीख लिया हमने,
अश्कों से शक्ल धो जाओ, तुम्हारी बात है।
आदमी बनकर जीने का मज़ा ही और है,
दोस्तों तुम फरिश्तें हो जाओ, तुम्हारी बात है।
लो अब राहें-उल्फ़त में रख दिया है,
मसलकर दिल को जाओ, तुम्हारी बात है।
‘आस' का क्या है कभी इधर कभी उधर,
तुम ठहरो न ठहरो जाओ, तुम्हारी बात है।
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36 उतर जाएगा
दरिया-ए-इश्क में जो उतर जाएगा,
फिर होश कहां उसे वो किधर जाएगा।
राह उल्फ़त की चले अगर दुनिया,
अदा बदल जाएगी हर चेहरा संवर जाएगा।
हमसफ़र हो साथ तो क्या है मुश्किल,
राह कोई भी हो आसां हर सफ़र जाएगा।
जब गुजर गया लम्हा आंखे पथरा गईं,
कब सोचा था मुझे हादसा छूकर जाएगा।
हर तरफ धुआं-सा, कोहरा-सा, अंधेरा-सा,
कौन पहचानेगा, शहर में अगर, जाएगा।
तुम जमाने के साथ चलो शौक से,
‘आस' तन्हा है चाहे वो उधर जाएगा।
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37 सजा लीजिए
मुस्कुराते हुए फिर आईना उठा लीजिए,
पहले ही जले हैं और जला लीजिए।
गर बस में है तुम्हारे मौसम तो कोई बात नहीं,
वरना साहिल पे रेत के घर बना लीजिए।
नहीं वास्ता खुदा से, नहीं दिल से काम,
किसने रोका है, परचम नफरत का उठा लीजिए।
जब है दोष आप में तो फिर शर्म कैसी?
आईना देखके बेशक नजरें चुरा लीजिए।
गर लगता है कि भीड़ में सभी अपने-से हैं,
तो शोक से हाथों को अपने हिला लीजिए।
सब्र कहते हैं जिसे जौहर-ए-इन्सानी है,
दामन में जिंदगी के इसे सजा लीजिए।
अगर नहीं ऐतबार खुद पे जरा-सा भी ‘आस',
अपने मकसूद से दामन को छुड़ा लीजिए।
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38 कलम नहीं करते
उल्फत में मिली बे-वफाई का मातम नहीं करते,
रेत के घर टूटने का कभी गम नहीं करते।
हंसकर सह जाते हैं हालात के दर्दों-सितम,
हम जैसे मुफलिस आंख नम नहीं करते।
अपनी औकात का जिनको रहता है गुमान,
वो झूठी शान का ऊँचा परचम नहीं करते।
अपने सीने में पलने दो हौंसलों का तूफां,
हालात से घबराकर इरादे कम नहीं करते।
उठाकर गले से लगाते हैं वफा के नाम पर,
हम अपने कातिलों का सिर कलम नहीं करते।
मिल ही जाएंगे इक रोज आरजुओं के मुकाम,
सिलसिला चाहत का ‘आस' खतम नहीं करते।
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39 निशानी दे
अपने हौसलों को फिर रवानी दे,
सूखे पौधों को ज़रा पानी दे।
याद बनके रह जाये उम्र भर,
चाहने वालों को ऐसी निशानी दे।
बहुत हौसले हैं इन परिन्दों में,
इन्हें सीख कोई तूफानी दे।
प्यार में सब कुछ है जायज,
दिल किसी को, किसी को जवानी दे।
जीने की है यही असली सूरत,
फर्ज की राहों में कुर्बानी दे।
मुश्किलों के साये में घिरे हैं जो,
मेरे देवता जीने में उन्हें आसानी दे।
मैं अब भी याद में उसकी जल रहा हूं,
मेरे हाल का बयां कोई उसे जुबानी दे।
अब यही दिल से निकलती है सदा,
उसको आराम, ‘आस' को परेशानी दे।
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40 बशर नहीं देखे
आंधियों ने जलाए हो चराग ऐसे मंज़र नहीं देखे,
हमने दरिया से मिलते कभी समंदर नहीं देखे।
गैरों तक ही सिमट के रह गईं निगाहें उनकी,
भूलकर भी रुख उनके इधर नहीं देखे।
इसीलिए मगरुर हो अपनी हंसती हयात पर,
तुमने शायद यहां मरते हुए बशर नहीं देखे।
वो तो मौजों के साथ ही खेलते रहे,
हमने बनाए किस तरह रेत के घर नहीं देखे।
सौगात जख्मों की हर कोई दे जाता है,
मरहम दिल पे लगाये ऐसे चारागर नहीं देखे।
दिल में दर्द, आंखों में आंसू देखे हैं ‘आस',
वफ़ादारों के हाथों में हमने पत्थर नहीं देखे।
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41 उपचार नहीं होता
अश्कों से गुजारा अब मेरे यार नहीं होता,
चले भी आओ कि दिल से इंतज़ार नहीं होता।
उस दिन ये लगता है दिन ही नहीं निकला,
जिस दिन आंखों को तेरा दीदार नहीं होता।
कोशिश तो बहुत की मगर मंजर वही है,
दिल के दर्द का कहीं भी उपचार नहीं होता।
आदमी चाहे तो शीशे से पत्थर भी तोड़ दे,
तलबगारों के लिए कोई रास्ता दुश्वार नहीं होता।
कुछ मजबूरियां पैदा करती है हालात वरना,
यूं ही आदमी जीने से बेजार नहीं होता।
भटकते हैं वो गम-ए-राह में ‘आस',
खुद पर ही जिनको यहां ऐतबार नहीं होता।
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42 सजा लीजिए
मुस्कुराते हुए फिर आईना उठा लीजिए,
पहले ही जले हैं और जला लीजिए।
गर बस में है तुम्हारे मौसम तो कोई बात नहीं,
वरना साहिल पे रेत के घर बना लीजिए।
नहीं वास्ता खुदा से, नहीं दिल से काम,
किसने रोका है, परचम नफरत का उठा लीजिए।
जब है दोष आप में तो फिर शर्म कैसी?
आईना देखके बेशक नजरें चुरा लीजिए।
गर लगता है कि भीड़ में सभी अपने-से हैं,
तो शोक से हाथों को अपने हिला लीजिए।
सब्र कहते हैं जिसे जौहर-ए-इन्सानी है,
दामन में जिंदगी के इसे सजा लीजिए।
अगर नहीं ऐतबार खुद पे जरा-सा भी ‘आस',
अपने मकसूद से दामन को छुड़ा लीजिए।
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43 नजर से देख
कभी तो प्यार की इक नजर से देख,
आदमी को आदमी की नजर से देख।
कुछ तो बात मुझ में भी होगी जरूर,
कभी इधर से देख, कभी उधर से देख।
तेरे ही ख्यालों के रंगों से रंगी हैं दीवारें,
मेरे हमजवा, बाहर से देख कि अंदर से देख।
तू भी वक्त की चपेट में आ गया दोस्त,
आखिर गुजर गया पानी तेरे सर से देख।
मैं कल भी वहीं था आज भी वही हूं,
मुझे ढूंढ़ने वाले गांव से देख कि शहर से देख।
वो एक-सा ही नजर आयेगा ‘आस'
चाहे मस्जिद से देख चाहे मंदिर से देख।
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44 दुआ निकलती ही नहीं
ये कैसी उलझन है जो सुलझती ही नहीं,
दिल से अब तक तेरी याद निकलती ही नहीं।
मैं कबसे देख रहा हूं इस आइने को,
तेरी सूरत है कि बस बदलती ही नहीं।
जब से वो यार मेरा मुझसे बिछड़ गया,
सीने में फिर तमन्ना कोई मचलती ही नहीं।
हर एक इम्तिहां के लिए बेठा हूं बेकरार,
ये जिंदगी है कि मुझे आजमाती ही नहीं।
हर कोई चल रहा है खुशियों की तलाश में,
‘आस' के मारों को मगर मंजिल मिलती ही नहीं।
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45 ये क्या बात है
जमाने से होना खफा ये क्या बात है,
खुद को देना सजा ये क्या बात है।
खुदग़र्जी का ये चलन तुम्हारा ठीक नहीं,
अपने फजर् से लेना रज़ा ये क्या बात है।
रह-रहके जख्म देना और फिर,
खुद ही होना दवा ये क्या बात है।
औरों को रूलाकर यूं बे-सबब?
छीन के लेना मजा ये क्या बात है।
अपनी खुशी के वास्ते किसी हद तक,
किसी को देना दगा ये क्या बात है।
दिल को शीशे-सा तोड़ना शौक के खातिर,
हो गई कहना खता ये क्या बात है।
अपनी हयात के लिये मेरे सरकार,
गरीबों को देना कज़ा ये क्या बात है।
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46 जलाये जाते हैं
कौन हमदर्द है कौन कातिल ये सवाल उठाये जाते हैं,
बुरे समय में हर चेहरे आजमाये जाते हैं।
हम दवा के साथ दुआ भी दें तो कातिल है नजरों में,
लोग दर्द भी दें तो हमदर्द कहलाये जाते हैं।
ना-मुमकिन है जहां वहीं मिल जाती हैं राहें,
जहां उम्मीद न हो वहीं पहरे लगाये जाते हैं।
कुछ उसूल अपने भी हैं बहार-ए-जिंदगी में,
हम वो मेहमां नहीं है जो बिन बुलाये जाते हैं।
जाने क्या बात है, जाने क्या बैर है हमसे?
रह-रह कर वो हमको बस रूलाये जाते हैं।
ये मसीहा गली का रास्ता भी हम भूल गए ‘आस'
फिर क्यूं वो वारहा हमको याद आये जाते हैं।
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47 जख्मों को धोता है
जब किसी का प्यार यहां जुदा होता है,
खामोशी दिल पे और लब रोता है।
आंखें ढूंढ़ती हैं जब चारों दिशाओं में,
हर तरफ उसका ही भरम होता है।
दिल अपना अब ऐसे सांचे में ढल गया,
बनके सौदाई ये बोझ गम का ढोता है।
सिरहाने रख के पत्थर लेता है गहरी नींद,
मुफलिस का बच्चा कहां मखमल में सोता है।
एक जमाने से में लगा रहा हूं हिसाब,
आदमी जिंदगी में क्या पाता है क्या खोता है।
प्यार में चोट यहां जिसने है खायी,
वो ही अश्कों से जख्मों को धोता है।
वो तोड़ गये दिल, खैर जाने दे ‘आस',
अच्छा होता है यहां जो भी होता है।
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48 बदल भी होना चाहिए
फिर अपने ऊसूलों से दो-चार होना चाहिए।
दामन जो है दागदार उन्हें धोना चाहिए।
बंजर-सी हो गई है ईमान की ज़मीं,
फसल बेईमानी की अब बोना चाहिए।
दिल में न हो हमदर्दियां न सही मगर,
दिखावे के लिये आदमी को रोना चाहिए।
किसे मिलता है हर वक्त बिछौना खुशी का?
ग़म की चादर पे भी हंसके सोना चाहिए।
धूप वादों की जब भी सताने लग जाए,
तो ख्वाबों-ख्यालों के जंगल में खोना चाहिए।
चलें कहीं और ठिकाना कर लें ‘आस',
अहले-महफ़िल में जरा बदल भी होना चाहिये।
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49 कोई सहर ही नहीं
कौन आया कौन गया इसकी खबर ही नहीं,
आदमी में आदमियत का असर ही नहीं।
कोई बच्चा पड़ोस में भूखा ही सो गया,
भूख के ठेकेदारों को इसकी खबर ही नहीं।
जख्म दिल के तू क्या देख पायेगा?
तेरी आंखों में वफा की नजर ही नहीं।
तू कहां तक साथ मेरे चलेगा ऐ दोस्त,
मैं वो शब हूं जिसकी कोई सहर ही नहीं।
जाम पे जाम पिला मगर ये तो बता साकी,
ये कैसा ज़हर है जिसका असर ही नहीं।
ऐसी आंधियां किस काम की जो नाम की हो,
जो तबाही न ढ़ाये वो कहर ही नहीं।
महज दीवारें उठाने से मकां नहीं होता ‘आस'
रिश्तों की खुशबू नहीं जिसमें वो घर ही नहीं।
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50 रकीब कहते हैं
मुहब्बत में रुसवाई को नसीब कहते हैं,
चाहने वाले भी बात खुब अजीब कहते हैं।
आईना जब दिखाया तो खफ़ा हो गए,
दोस्त हमको अपना रक़ीब कहते हैं।
सच कहां और फिर फना हो जाओ,
दौर में आजकल इसी को सलीब कहते हैं।
मतलबों में रहता है जिनका रिश्ता,
वो हर किसी को दिल के करीब कहते हैं।
रास्ते बदल दो कभी रिश्तें बदल दो,
शहर में इसी को तहजीब कहते हैं।
उनकी बातों पे न जाना धोका है ‘आस'
दूनिया में जो खूद को गरीब कहते हैं।
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51 तो क्या है
रस्में-उल्फत से मुकरना सितम नहीं तो क्या है?
यूं देखकर न देखना सितम नहीं तो क्या है?
खुशियों के घर में क्यू उदासी का आलम,
मुकद्दर का बशर पे हंसना सितम नहीं तो क्या है?
उठने लगे हैं यहां जो हाथ हक के लिए,
हौंसलों को उनके दबाना सितम नहीं तो क्या है?
मुश्किलों से बना करती है दिल में जगह,
ऐसे में नजर से गिराना सितम नहीं तो क्या है?
डूबाकर अंधेरों में दौस्तों का आशियाना,
अपने घर में चराग जलाना सितम नहीं तो क्या है?
हर बार बेरुखी, ये बेदिली, ये बेवफाई ‘आस',
हमारे हिस्से में आना सितम नहीं तो क्या है?
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52 फुर्सत किसे है
अपनी राहों में आये कोई फुर्सत किसे है,
फूल चाहत के खिलाये कोई फुर्सत किसे है।
अपने ही शिकंजे में उलझे हैं बहुत,
गम किसी के उठाये कोई फुर्सत किसे है।
दौर वो था जां तक कुर्बान थी वफा में,
प्यार से अब नजर मिलाये कोई फुर्सत किसे है।
उठने दो जों धुंआ उठता है धुआँ नफरतों का,
जलते घरों को बुझाये कोई फुर्सत किसे है।
खंजरों से लिखी जाती नहीं वफा की इबारतें,
अब के मासूमों को समझायें कोई फुर्सत किसे है।
बना रहा है आदमी ख्वाबों के मकां,
घर रिश्तों के बनाये कोई फुर्सत किसे है।
क्यूं जिंदगी बाजार सी लगती है हर तरफ,
‘आस' को ये समझाये कोई फुर्सत किसे है।
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53 खलने लगी है....
हम धूप में यादों की जलने लगे हैं,
फिर वफा के सांचे में ढलने लगे हैं।
आज फिर सीने से उठ रहा है धुंआ,
आज फिर दिल में अरमान जलने लगे हैं।
ये तमाशा नहीं तो और क्या है?
जिधर नहीं रोशनी उधर चलने लगे हैं।
कल तक जिनके अपने-अपने दल थे,
आज वो राह में तन्हा भटकने लगे हैं।
शहर की हवाओं का रूख बदल गया,
गांव में बर्बादियों के मेले लगने लगे हैं।
वो भी वक्त के अंधेरों में आ जाएंगे ‘आस',
जो गुरूर की रोशनी में पलने लगे हैं।
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54 पिघलने लगा है
फिर उल्फ़त का रंग देखिए बदलने लगा है,
फिर तसव्वुर आपका छलने लगा है।
सीने में दीदार की हसरत को लिए,
फिर कोई मोम-सा पिघलने लगा है।
ये तमाशा ही सही मगर देख तो लो,
अब दिल भी चरागों सा जलने लगा है।
हमसे साया भी हमारा खफा-खफा सा है,
आपके पास तो जमाना रहने लगा है।
बाद मुद्दतों के जवाब आया इस तरह,
बुझी आग को जैसे कोई हवा देने लगा है।
जब से टुकड़ों में बिखर गया है ‘आस',
हर टूटी चीज़ को दिल समझने लगा है।
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55 रिश्ते बदलते हैं लोग
मेरे बारे में कितना गलत सोचते हैं लोग,
धूल को चंदन का तिलक समझते हैं लोग।
एक मुद्दत हुई तुझको मुझसे ज़ुदा हुए,
आज भी लेके नाम तेरा मुझे छेड़ते हैं लोग।
तुम अपनी आग आप बुझाना सिख लो,
यहां बुझी आग को और हवा देते हैं लोग,
तेरे मयख़ाने में साकी आये भी तो कैसे?
पानी भी पीते हैं तो शराबी समझते हैं लोग।
तुम चलने दो कश्ती मुहब्बत की शौक से,
उठने दो जो रुसवाई का तूफां उठाते हैं लोग।
दिल में जलन की भावनाएं बढ़ गई बहुत,
हंसते चेहरों को देख नहीं सकते हैं लोग।
वो हैं कि ता-उम्र साथ निभाने की बात करते,
हमने देखा कदम-कदम पे रिश्ते बदलते हैं लोग।
हर कोई दुनिया में होता नहीं है बुरा,
‘आस' आदमी में भी इन्सान होते हैं लोग।
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56 भुलाते न बने
ये सुबह शाम कोई नाम भुलाते न बने,
और बेआबरु होकर कहीं जाते न बने।
कौन समझेगा इस बेचैन उदासी का सबब,
किसी को दास्तान अपनी सुनाते न बने।
ऐसा लगता है बहुत दूर निकल आये हैं,
जहां से चाह के भी लौट के आते न बने।
शौकिया रहमोंकरम खुद को गंवारा न हुआ,
फिर भी जीने का नया ढंग बनाते न बने।
कितनी मजबूर हो गई है बेजुबान गजल,
गम को गाते न बने और छिपाते न बने।
बहुत थका हूं जमाने के साथ चलने में,
जिंदगी मुझसे तेरा बोझ उठाते न बने।
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57 सजा लेता हूं
गम को हंसी की नकाब में छुपा लेता हूं,
मैं रस्म हालात की यूं भी निभा लेता हूं।
वो रोशनी की जिद में आ जाते हैं जब,
आग फिर अपने ही घर को लगा लेता हूं।
अश्कों का क्या है, ये तो बहते ही रहेंगे,
साथ हो जब कोई तो लब को हंसा लेता हूं।
किसी दिन तो आएगा रहम मेरे हाल पर,
ये सोचकर दिल उसकी राह में बिछा लेता हूं।
रास न आया जब भी जमाने का चलन,
अपनी दुनिया के अपने उसुल बना लेता हूं।
वो घर अपना फूलों से महकाते हैं ‘आस',
मैं राहें अपनी कांटों से सजा लेता हूं।
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58 भली है
हर तरफ मतलबों की लहर चली है,
बात सच्ची थी मगर सबको खली है।
वहां जो उठ रहा है धुंआ कैसा?
लगता है फिर कोई बस्ती जली है।
हमने तो यारों कोई ख़ता नहीं कि,
फिर किस गुनाह की सज़ा मिली है।
ये भिखारन-सी हाथ फैलाती नहीं,
जिंदगी खुद्दारी के साये में पली है।
जब से आये हैं बेवफ़ाई के मौसम में,
बिन जामों के न फिर रात ढली है।
वक्त लाया है अब के ऐसी बहारें,
थर्रा रही बाग की हर कली है।
वरना, धूल के सिवा कुछ नहीं ‘आस',
हो प्यार जहां वो राह भली है।
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59 सफर है
बदला-बदला-सा वो आता नजर है,
इश्क का उसपे छाया असर है।
मौजों से खेलने लगा है वो बे-खौफ़,
आने वाले कल के तूफ़ां से बेखबर है।
साथ-साथ चल रहे मगर अजनबी से,
अजब फ़ासलों का अपना सफर है।
सुनते आये कि अमृत का है प्याला,
पर जिंदगी अब लगती ज़हर है।
उपर से जो जितने दिखते हैं निड़र,
सच ये कि उन्हें अंदर से बहुत डर है।
सब अपनी-अपनी गरज के हो गए,
शहर में ये कैसी चल रही लहर है।
ज़रा सोच-समझकर चलना ‘आस',
हमारी चालों पर सबकी नज़र है।
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