-डॉ. रेखा श्रीवास्तव कला जीवन का अभिन्न अंग है। कला मानव में अथाह और अनन्त मन की सौन्दर्यात्मक अभिव्यक्ति है। कला का उद्भव एवं व...
-डॉ. रेखा श्रीवास्तव
कला जीवन का अभिन्न अंग है। कला मानव में अथाह और अनन्त मन की सौन्दर्यात्मक अभिव्यक्ति है। कला का उद्भव एवं विकास मानव जीवन के उद्भव व विकास के साथ ही हुआ है। जिसके प्रमाण हमें चित्रकला की प्राचीन परम्परा में प्रागैतिहासिक काल से ही प्राप्त होते हैं। जिनका विकास निरन्तर जारी रहा है। चित्र, अभिव्यक्ति की ऐसी भाषा है जिसे आसानी से समझा जा सकता है। प्राचीन काल से अब तक चित्रकला की अनेक शैलियां विकसित हुईं जिनमें से जैन शैली चित्र इतिहास में अपना विशिष्ट स्थान रखती है। जैन चित्रकला के सबसे प्राचीन चित्रित प्रत्यक्ष उदाहरण मध्यप्रदेश के सरगुजा राज्य में जोगीमारा गुफा में मिलते है। जिसका समय दूसरी शताब्दी ईसापूर्व है।१ ग्यारहवीं शताब्दी तक जैन भित्ति चित्र कला का पर्याप्त विकास हुआ जिनके उदाहरण सित्तनवासल एलोरा आदि गुफाओं में मिलते है। इसके बाद जैन चित्रों की परम्परा पोथी चित्रों में प्रारंभ होती है और ताड़पत्रों, कागजों, एवं वस्त्रों पर इस कला शैली का क्रमिक विकास होता चला गया। जिसका समय ११वीं से १५वी शताब्दी के मध्य माना गया। २
जैन धर्म अति प्राचीन एवं अहिंसा प्रधान धर्म है। भारत के अनेक स्थानों पर जैन स्थापत्य कला, मूर्तिकला, चित्रकला के उत्कृष्ट उदाहरण मिलते है। जिनमें प्रमुख केन्द्रों में खजुराहो, कुण्डलपूर, पावागिरि, श्रवणबेलगोल, कारकल, मूड़विद्रि, सम्मेद शिखर, बादामी, सित्तनवासल है।३ इन ललित कलाओं का निर्माण कर जैन कला ने न केवल लोक का आध्यात्मिक व नैतिक स्तर उठाने का प्रयास किया है बल्कि देश के विभिन्न स्थानों को सौन्दर्यमय भी बनाया है। कला में प्रतीकों का बहुत महत्व होता है, इसके माध्यम से भावों की अभिव्यंजना सरल हो जाती है। जैन शैली में उपलब्ध कलाकृतियों में भी प्रतीकों का प्रयोग स्पष्ट दिखाई देता है। जैन कला में अष्ट-प्रातिहार्य अर्थात आठ शुभ वस्तुएं, सांसारिक वृक्ष, पटलेश्या आदि प्रतीकों का प्रयोग किया गया है। जैन चित्र शैली में जहां महावीर के जीवन चरित्र एवं उनकी शिक्षाओं से संबंधित, जैन मुनियों, श्रावकों ,२४ तीर्थंकरों और उनसे संबंधित घटनाओं का चित्रण है वहीं इन चित्रों में नारी को आदर्शात्मक रूप में अभिव्यक्त किया गया है। जैन धर्म से संबंधित पौराणिक ग्रथों में नारी का चरित्रगत उत्कर्ष दिखलाया गया है। लौकिक दृष्टि से मातृत्व में नारी के समस्त गुणों का विकास दिखाकर उसे जननीत्व के उच्च पद पर आरूढ़कर जगतपूज्य बनाया है। नारी ने तीर्थंकर एवं महान पुरूषों को जन्म दिया और उनका अपने स्नेहिल छाया में लालन-पालन किया । कन्याओं को देवी की प्रतिकृति मानकर उनकी पूजा करने को कहा गया । भारतीय संस्कृति में शक्ति पूजा की भी परम्परा है। इसके अतिरिक्त भारतीय पुराणों में सुलभा, मैत्रेयी, सीता, गार्गी जैसी विदूषी नारियों का भी अंकन मिलता है। जिन्होंने नारी जाति का गौरव बढ़ाया । जिस प्रकार भारतीय संस्कृति में नारी के विभिन्न रूपों जैसे कन्या, गृहणी, माता, गणिका, दासी एवं देवी की अभिव्यंजना की गई है। उसी का प्रतिरूप हमें भारतीय चित्रकला के इतिहास में भित्ति एवं पोथी चित्रण में मिलते हैं। साथ ही हमें मध्यकालीन नारी की स्थिति उसके पहनावे, आभूषण जैन संस्कृति में नारी की भूमिका आदि के बारे में विस्तृत जानकारी मिलती है।
इस लेख में हम मध्य कालीन इन शैलियों में से जैन शैली के प्राप्त चित्रों में नारी की अभिव्यंजना का विशेष उल्लेख करना चाहते है। जैन पुराणों अथवा संस्कृति में नारी का अपना विशेष स्थान है, अर्थात नारी की पृथक सत्ता स्वीकार की गई है। उसे तीर्थंकरों की जननी, सोलह विद्यादेवी, पत्नी बहिन आदि आदर्शात्मक रूपों की अभिव्यंजना के साथ ही उसके अन्य स्वरूपों जैसे नृत्यांगना, दासी का भी चित्रण किया गया है। माता के सोलह स्वप्न अथवा चौदह स्वप्न देखते हुए, चित्र क्रमांक २ ‘देवनंदा और चौदह स्वप्न’ :कल्प सूत्र १४१६ ई. आत्मानंद जैन ज्ञान मंदिर जिरा पंजाबः एवं उन स्वप्नों का अर्थ पूछते हुए, माता के शोक हर्ष का चित्रण, गर्भ परिवर्तन का चित्र, एवं पुत्र के साथ चित्रण, भावों की सुन्दरता के साथ अंकित किया गया है। बहिन के रूप में कालकाचार्य की बहन, बाहुबली की दो बहनों- ब्रम्हाणी एवं सुन्दरी, स्थूल भद्र मुनि की सातों बहनों जो साध्वी थी का चित्रण किया गया है। पत्नी के रूप में राजकुमारी सोमा, यशोधा एवं जम्बू स्वामी की छः पत्नियों का चित्रण मिलता है। गणिकाओं दासियों को विभिन्न कार्यो मे संलग्न दिखाया गया है। उपासिकाओं एवं श्राविकाओं का भी अंकन किया गया है।४
जैन चित्रों में तुलनात्मक दृष्टि से देखा जाय तो नारी चित्रण कम मिलते है। परन्तु जितने भी उदाहरण हमें पोथियों में मिले है, उनमें नारी के आंतरिक सौन्दर्य के साथ ही बाह्य सौन्दर्य पर भी विशेष महत्व दिया गया है। नृत्यांगनाओं को बहुत आकर्षक मुद्रा में चित्रित किया गया है जिन्हें भिन्न भिन्न मुद्राओं और लयताल युक्त नृत्य करते हुए चित्रित किया गया है। अन्य चित्रों में दिक्ककुमारियों का अवतरण, चित्र क्रमांक ३ - महावीर का जन्म एवं दिक्कुमारियों का आगमन एवं मेरूस्नान : कल्पसूत्र १४५९ ई. देहलाना उपाश्रय अहमदाबाद से प्राप्तः छठी जागरण, चित्र क्रमांक ४ - महावीर का जन्म एवं छठी जागरण : कल्पसूत्र साराभाई की पुस्तक -जैन पेन्टिग भाग-२ चंपकमाला का अध्ययन चित्र भी बनाए गये हैं। इस शैली में नारी का चित्रण रागरागिनो के चित्रण में भी किया गया है । प्रत्येक तीर्थंकरों के जन्म से पूर्व माता के गर्भ में आने पर माता को चौदह शुभ स्वप्न के दर्शन होने के कई प्रमाण जैन ग्रथों में मिलते हैं। इन महास्वप्नों का अत्याधिक महत्व है। अतः चित्रकला में भी इनका चित्रण अधिक मिलता है। श्री दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र -श्री महावीर जी, जयपुर- के ‘महापुराण’ ग्रंथ में माता मरूदेवी द्वारा देखे गये सोलह स्वप्नों का अंकन है। इस चित्र में माता मरूदेवी महल में लेटी हुई है। एक दासी उनके पैर दबा रही है, एक दासी चंवर डुला रही है, चित्र के शेष भाग में १६ स्वप्नों का अंकन है। जो इस प्रकार हैः- हाथी, वृषभ, सिंह, लक्ष्मी, दो मालाएं, चंद्रमा, सूर्य, मीन युगल, दो कुम्भ, जलाशय, समुद्र, मणि जड़ित सिहांसन, देव विमान, सर्प युगल, रत्न राशि, और निर्धूम अग्नि ।
आदिपुराण ग्रंथ मे भी मरूदेवी के १६ स्वप्नों का चित्रण किया गया है। श्वेतांबर परम्परा में चौदह स्वप्नों को माना गया है जिनका वर्णन कल्प सूत्र में मिलता है।५ जिसमें इन्हीं चौदह स्वप्नों का चित्रण भी किया गया है, वे स्वप्न हैं:- गज, वृषभ, सिंह, अभिषेक लक्ष्मी पुष्पमाला, चंद्र, सूर्य, ध्वजा, कुम्भ, पद्म सरोवर, क्षीर सागर, देव विमान या भवन, रत्नराशि,और निर्धूम अग्नि । उपयुक्त चौदह स्वप्नों में से ध्वजा का अंकन दिगम्बर आम्नाय में नहीं किया गया है वह ध्वजा उत्तम स्वर्णदण्ड पर प्रतिष्ठित थी, जो अत्यधिक शोभायुक्त थी और जो मन्द मन्द पवन के सुखकारी झकोरे खाकर लहरा रही थी । दिगम्बर आम्नाय के सोलह स्वप्नों में से मीन युगल एवं सर्प युगल का अंकन श्वेताम्बर आम्नाय में नहीं किया गया है। शेष स्वप्न दोनों आम्नाय में समान वर्णित है। इसके अतिरिक्त इन स्वप्नों सिद्धार्थ से अर्थ पूछते हुए अथवा कहीं कहीं पर स्वप्नज्ञाताओं से अर्थ पूछते हुए चित्रित किया गया है। श्वेताम्बर संप्रदाय में गर्भ परिवर्तन से संबंधित एक रोचक कथा प्रचलित है। जिसमें शक्र-देवेन्द्र-देवराज की आज्ञा से माता देवनन्दा के गर्भ से किन्हीं कारणों भगवान महावीर के गर्भ रूप को माता क्षत्रियाणी त्रिशला के गर्भ में स्थापित करते है। ६ इस कथा से संबंधित अनेक चित्र अंकित किये गये है। इन चित्रों को गर्भ परिवर्तन के नाम से ही जाना जाता है। कई बार दोनों घटनाओं का चित्रण एक ही चित्र में किया गया है ,चित्र क्रमांक ५ः कालकाचार्यकथा १६वीं शता. बड़ौदा सग्रहालय पी.जी. ५ एफ ९ : और कुछ चित्रों में अलग अलग किया गया है। इन चित्रों में माता को शैय्या पर निद्रावस्था में और देव हरिनेगमैषी को हथेलियों के सम्पुट में गर्भरूप को लाते और ले जाते हुए चित्रित किया गया है। अन्य नारी चित्रण में जैन कलाकारों ने देवियों का अंकन अत्यधिक किया है। इन देवी चित्रों में उज्जवल, धूम वर्ण लोक शैली की अल्हड़ता, वस्त्र सज्जा और हस्त मुद्राएं सभी में कलात्मकता तथा माधुर्य है। चित्र क्रमांक १। छानी बड़ोदा के जैन भंडार में तेरहवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में चित्रित ओधनियुक्ति में सोलह विद्यादेवियों के बहुत सुन्दर चित्र है। इन चित्रों के विषय में श्री कार्ल खंडालावाला का मानना है कि विद्यादेवियों के यह चित्र स्पष्टतः शांतिनाथ भंडार , केम्बे के संग्रह में नेमिनाथ चरित में सन् १२४१ में निर्मित अंबिका की चित्रशैली में अंकित है।७ जैन चित्रशैली में २४ यक्षियों जैसे महामानसी, अंबिका, पद्मावती, काली यक्षी और अन्य देवी आकृतियों में सरस्वती, लक्ष्मी चित्र क्रमांक 1 , महिसासुरमर्दिनी, इत्यादि। दासियों, नृत्यांगनाओं, वादिकाओं, अप्सराओं एवं राग रागिनियों में नारी चित्रण किया गया है।
प्रारंभिक ताड़पत्रीय चित्रों में रेखाकंन उत्कृष्ट है। जिसमें नारी को अजन्ता के भित्तिचित्रण के समान अत्यंत गोलाईयुक्त रेखाओं के माध्यम से चित्रित किया गया लेकिन कागज पर चित्रण किये जाते वक्त पर्याप्त अन्तराल होने के बाद भी रेखांकन में कोणीयता प्रारंभ हो गई। जिससे चित्रों में कठोरता आने लगी। हस्त मुद्राओं में प्रतीकात्मक अलंकरण किया जाने लगा। मुखाकृतियां प्रायः एक चश्म, ड़ेढ चश्म अथवा सवाचश्म बनाए जाने लगे । नेत्र परवल के आकार में एवं परली आंख का पूरा बनाया जाना, लम्बी नुकीली नासिका, गोल ठुड्डी, वक्षस्थल बड़े एवं कटि भाग क्षीण अंकित एवं शरीर के अनुपात में सिर का बड़ा बनाया जाना इस शैली की अन्य विशेषताएं है। वस्त्राभूषण को क्षेत्रीय प्रभावानुसार चित्रित किया गया है। रंग संयोजनों में प्रायः चटकरंगों का प्रयोग किया गया।
जैन चित्रों में नारी के रूप-रंग, आकार और सज्जा में समन्वय प्रस्तुत किया गया है। नारी चित्रों में धार्मिक भावनाओं की अभिव्यक्ति हमें आकर्षित करती है। जैन चित्रकारों ने भारतीय परम्परा के अनुसार नारी को आदर्श रूप में प्रस्तुत किया है।
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संदर्भ सूचीः-
१-रायकृष्णदास, भारत की चित्रकला पृष्ठ 1
२-आर. ए. अग्रवाल, कला विलास, भारतीय चित्रकला का विवेचन पृष्ठ ६९
३-४-शोध प्रबंध, रोली ब्यौहार,जैन चित्र शैली में अभिव्यंजित नारी सौन्दर्य , नारी के विविध रूपों की अभिव्यंजना
५-महोपायाय,विनय सागर, संपादक एवं हिन्दी अनुवादक कल्पसूत्र पृ. ६१-८५
६- वही पृ. ३७-५६
७-कार्ल खण्डालावाला, पृ. ४११, भित्ति चित्र कला एवं स्थापत्य
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