-प्रांजल कुमार केशरवानी बस्तर का दशहरा अन्य स्थानों से भिन्न होता है क्योंकि यहां दशहरा में दशानन रावण का वध नहीं बल्कि बस्तर की अधिष्ठ...
-प्रांजल कुमार केशरवानी
बस्तर का दशहरा अन्य स्थानों से भिन्न होता है क्योंकि यहां दशहरा में दशानन रावण का वध नहीं बल्कि बस्तर की अधिष्ठात्री दंतेश्वरी माई की विशाल शोभायात्रा निकलती है। दशहरा आमतौर पर अयोध्यापति राजा राम की रावण के उपर विजय का पर्व के रूप में मनाया जाता है लेकिन यहां ऐसा कुछ नहीं होता। वास्तव में बस्तर का ऐतिहासिक दशहरा यहां के राजवंश की गौरवगाथा का जीवन्त दस्तावेज है। ऐतिहासिक दस्तावेज से पता चलता है कि यहां का दशहरा राजधानी का आयोजन रहा है। इस राज्योत्सव का उल्लेख प्रथम काकतीय नरेश अन्नमदेव (१३१३ ई.) से ही मिलता है। राजा अन्नमदेव अपनी विजययात्रा के दौरान चक्रकोट (बस्तर का प्राचीन नाम) की नलवंशीय राजकुमारी चमेली बाबी पर मुग्ध हो गये। उन्होंने राजकुमारी के समक्ष विवाह का प्रस्ताव रखा जिसे राजकुमारी ने अस्वीकार कर दिया, यही नहीं बल्कि राजा अन्नमदेव के विरूद्ध सैन्य संचालन करते ही वीरगति को प्राप्त हुई। इस घटना का राजा के उपर गहरा प्रभाव पड़ा...और उन्होंने चमेली बाबी की स्मृति में नारंगी नदी के जल में पुष्प प्रवाहित करने की परंपरा शुरू की। कालान्तर में यह दशहरा की एक अनिवार्य परंपरा बन गयी। आज भी इसका निर्वहन किया जाता है। राजाओं के साथ जहां उनकी राजधानियां बदलीं वही दशहरा उत्सव के स्वरूप में भी परिवर्तन आता गया।
बस्तर की अराध्य दंतेश्वरी माई आज अवश्य है लेकिन वास्तव में वह राजा की ईष्ट देवी के रूप में पूजित होती रहीं हैं। नवरात्र में बस्तर के राजा दंतेश्वरी माई के मंदिर में पुजारी के रूप में नौ दिन रहकर शक्ति साधना किया करते थे। जो देवी राजा की ईष्ट हो वह बस्तरांचल में पूजित न हो ऐसा कदापि नहीं हो सकता। यही कारण है कि आज दंतेश्वरी माई का बस्तरांचल में विशेष स्थान है। बस्तर की ग्राम देवियों में मावली देवी, हिंगलाजिन, परदेसिन, तेलिन, करनकोटिन, बंजारिन, डोंगरी माता और पाट देवी प्रमुख हैं।
बस्तर जिला मुख्यालय जगदलपुर नगर की परिक्रमा करने वाला विशाल रथ का परिचालन बस्तर दशहरा का प्रमुख आकर्षण होता है। प्राचीन काल में यह रथ १२ पहियों का हुआ करता था लेकिन आगे चलकर इसके परिचालन में असुविधा होने लगी जिससे राजा वीरनारायण के शासनकाल (१५३८-१५५३ ई.) में इसे आठ तथा चार पहिये वाले दो रथ में निकाला जाने लगा। दशहरा उत्सव में रथयात्रा की शुरूवात राजा पुरूषोत्तमदेव के शासनकाल (१४०७-३९ ई.) में हुई। उन्होंने लोट मारते हुए जगन्नाथ पुरी की यात्रा पूरी की थी जिससे प्रसन्न होकर भगवान जगन्नाथ के आदेशानुसार वहां के पुजारी ने राजा को एक रथचक्र प्रदान कर उसे रथपति की उपाधि प्रदान की थी। उन्होंने अपने राज्य में रथयात्रा का आयोजन इसी रथचक्र प्राप्ति के बाद शुरू की थी। जगन्नाथपुरी की रथयात्रा की तर्ज में उन्होंने बस्तर में गोंचा परब और नवरात्र के बाद दशहरा की उत्सव शुरू की। दशहरा की शुरूवात अश्विन शुक्ल प्रतिपदा से हो जाती है। इस दिन ब्राह्मणों को बुलाकर देवी देवताओं की पूजा कराये जाते हैं। यह सप्तशती पाठ, बगलामुखी पाठ, हनुमान चालीसा पाठ, विष्णु पाठ के रूप में पूरे नवरात्र में चलता है। सीरसार चौंक में जोगी बिठाई की रस्म होती है। हलबा जाति का आमाबाल गांव का एक व्यक्ति जोगी के रूप में बैठता है। लगभग दस दिनों तक यह व्यक्ति फलाहार करके उत्सव की निर्विध्न समाप्ति के लिए कामना करता रहता है। नवमीं को जोगी उठाई होती है। जोगी बिठाई के दूसरे दिन से फूलरथ परिक्रमा प्रारंभ करता है। फूलों से अलंकृत होने के कारण यह फूलरथ कहलाता है। भतरा जाति के लोग इस रथ को चुराकर कुम्हड़ाकोट ले जाते हैं। यहीं राजा नवाखाई की शुरूवात करता है। १८९८ ई. में इस प्रथा को बंद कर दिया गया।
फूल रथ में राजा बैठकर राजा मावलीगुड़ी से जगन्नाथ गुड़ी तक जाता था। अश्विन शुक्ल प्रतिपदा से द्याष्ठी तक राजा कभी नीला पीताम्बर और गले में दुपट्टा डालकर और कभी पूरे शरीर में चंदन लगाकर और हाथ, गला तथा सिर में फूलों की माला डालता था लेकिन इस दौरान वे आभूषण धारण नहीं करते थे। राजा सरस्वती पूजा करते थे। प्रातःकाल राजा ब्राह्मणों के पास देवपाठ सुनने के लिये बैठते थे। फिर मावली डोली अथवा दंतेश्वरी डोली रात्रि नौ बजे आती थी जिसे दंतेवाड़ा से लाया जाता था। माता की सवारी का स्वागत राजा स्वयं अपने कर्मचारियों और सेनाओं के साथ करते थे। इस अवसर पर प्रजा अपनी कला का प्रदर्शन करके पुरस्कृत होते थे। जब तक दंतेश्वरी माई जगदलपुर में रहते थे, राजा स्वयं उनकी पूजा-अर्चना करते थे। प्रतिदिन बकरा, भैंसा, मुर्गा आदि की बलि दी जाती थी। इस अवसर पर राजा अपनी तलवार की भी पूजा किया करता था। अंतिम क्रिया के रूप में दशहरा पर्व सम्पन्न होता था जिसमें दंतेश्वरी माई की विशाल शोभायात्रा निकाली जाती थी। समूचे बस्तर के ग्रामीण, जमीदार और अन्य ओहदेदार शामिल होते थे। सभी दंतेश्वरी माई की रथ को खींचकर पुण्य के भागीदार बनने को लालायित रहते थे। महिलाएं सुंदर वस्त्राभूषण से सुसज्जित होकर अपने अपने घरों की छतों से इस दृश्य को देखकर आनंदित होती थीं। अन्यान्य महिलाएं इस शोभायात्रा में शामिल भी होती थीं।
काछन गादी, बस्तर दशहरा की एक प्रमुख रस्म है। यह दशहरा का एक प्रारंभिक विधान है। इसके द्वारा युद्ध की देवी काछन माता को तांत्रिक अनुष्ठान के द्वारा जगाया जाता है। कांटों की सेज पर एक महार कन्या को बिठाया जाता है। यहीं पर से वह कन्या दशहरा उत्सव मनाने की घोषणा करती है। पथरागुड़ा के पास जेल परिसर से लगा काछन देवी की गुड़ी है। यहीं पर यह उत्सव होता है। सुप्रसिद्ध साहित्यकार लाला जगदलपुरी के अनुसार हरिजनों की देवी काछन देवी को बस्तर के राजाओं द्वारा सम्मान देना इस बात की पुष्टि करता है कि वे इस राज्य में अपृश्य नहीं थे। इसी प्रकार आपसी सहयोग से विशाल रथ का निर्माण, उसके लिए लकड़ी काटकर संवरा जाति के लोग जंगलों से लाकर करते हैं। इससे उनकी राजा और इस उत्सव के प्रति प्रतिबद्धता प्रदर्शित होती है।
दशहरा का प्रमुख आकर्षण मुरिया दरबार होता था। कदाचित मुरिया जाति की दरबार में ऊंचा स्थान था। दरबार का मुखिया राजा होता था। इस दरबार में राजा अनेक विषयों पर चर्चा करके आदेश जारी करता था और मुरिया इस आदेश को लेकर साल भर के लिए दंतेश्वरी माई से वर्ष भर राज्य में खुशहाली के लिए प्रार्थना कर नई उमंग, नई जागृति और आत्म विश्वास लिए आदिवासी जन अपने गांवों को लौटते हैं।
------------
प्रस्तुति,
प्रांजल कुमार केशरवानी
डागा कालोनी, चांपा
शानदार लेख!!
जवाब देंहटाएंशुक्रिया!!
मै सोचता ही रह गया इस पर लिखने का और रचनाकार/जूनियर केशरवानी जी बाज़ी मार ले गए।