-सीताराम गुप्ता मशहूर-ओ-मारूफ़ उर्दू शायर मिर्जा ग़ालिब का एक शेर हैः निकलना खुद से आदम का सुनते आए थे लेकिन , बड़े बेआबरू होकर तेरे कूचे...
-सीताराम गुप्ता
मशहूर-ओ-मारूफ़ उर्दू शायर मिर्जा ग़ालिब का एक शेर हैः
निकलना खुद से आदम का सुनते आए थे लेकिन,
बड़े बेआबरू होकर तेरे कूचे से हम निकले।
ये इज्जत-आबरू ये बेइज्जती अथवा मानापमान क्या है? हमारे शरीर में इनका स्थान कहाँ पर है? वस्तुतः इसकी भौतिक सत्ता है ही नहीं। ये सब मन के स्तर पर घटित होता है और मन तो इसको जैसा समझाओगे, बताओगे वैसा ही मान लेगा और करेगा। जैसा हमने मन में सोच रखा है वैसा हो जाए तो सुख अन्यथा दुःख। दूसरों से जैसा आचरण हम चाहते हैं वैसा हो जाए तो इज्जत अन्यथा बेइज्जती। एक शेर और देखिएः
खुद से आदम न निकले होंगे इस तौकीर से,
उस ने खुद उठ कर उठाया अपनी महफ़िल से मुझे।
ये साहब तो ग़ालिब को भी न सिर्फ चार कदम पीछे छोड़ देते हैं अपितु इनका तो अंदाज ही निराला है। इनके लिए तो महफ़िल से निकाला जाना और खुद महबूबा द्वारा महफ़िल से निकाला जाना तौकीर अर्थात् प्रतिष्ठा की बात है जो इन्हें हजरत आदम वे समकक्ष खड़ा कर देती है। अपना-अपना अंदाज है। मानापमान से बचना है तो इससे अच्छा उपाय और क्या हो सकता है? थोड़ा-सा दृष्टिकोण में परिवर्तन करने की जरूरत है और थोड़ा धैर्य से काम लेने की जरूरत है फिर किसमें ताकत है जो आपका अपमान कर दे अथवा आपको दुख पहुँचा दे?
यह आपके सोचने के ढंग पर निर्भर करता है कि आप किसी घटना को किस रूप में लेते हैं। यदि वास्तव में कोई ऐसी छोटी-मोटी घटना घट जाती है जो आपके लिए अपमान या बेइज्जती का सबब बन जाती है तो सोचिये क्या एक छोटी-सी घटना आपको विचलित करके रख देगी और आप स्वयं पर नियंत्रण खो बैठेंगे। बिलकुल नहीं। यदि आप कहते हैं कि हाँ ये मेरा बहुत बड़ा अपमान है और मैं इसे कदापि बर्दाश्त नहीं कर सकता तो आप में धैर्य या सहिष्णुता नाम की कोई चीज है ही नहीं और इस स्थिति में आप सचमुच अपमान के अधिकारी हैं। आप स्वयं अपना अपमान करवाना चाह रहे हैं। आप स्वयं अपने अपमान का कारण बन रहे हैं। आप में खुद का तमाशा बनते देखने की चाह पैदा हो रही है। आप इस स्थिति को स्वीकार कर स्वयं खुद को अपमानित करने की स्वीकृति दूसरों को दे रहे हैं। वास्तव में आपकी सहमति के बिना कोई आपका अपमान नहीं कर सकता। किसी घटना पर आपकी जो तत्क्षण प्रतिक्रिया होती है वही आपके अपमान का कारण बनती है। हर स्थिति में तुरंत प्रतिक्रिया मत कीजिए। ऊँट किस करवट बैठता है इसको देखने का इंतजार कीजिए। हो सकता है कुछ देर में परिस्थितियाँ ही बदल जाएँ। आज ही कोई कयामत का दिन तो नहीं कि आज ही सारे फैसले हो जाने चाहिएँ। कई बार कुछ ग़लतफ़हमियाँ भी हो जाती हैं अतः उचित अवसर की प्रतीक्षा करनी चाहिये जब बात साफ़ की जा सके। एक दूसरे का गिरेबान पकड़ लेने से तो कभी समस्या का समाधान नहीं हो सकता। धैर्य और शालीनता तो हर हाल में बनाए रखनी चाहिये।
एक घटना याद आ रही है। एक संगोष्ठी में मैं भी अपने विचार रख रहा था। अचानक एक बंधु बोल उठे। आपको बिलकुल तमीज नहीं है बोले जा रहे हैं। ये कोई सभ्यता है क्या दूसरे लोगों को नहीं बोलना है? मैं ये सुन कर सन्न रह गया। संगोष्ठी में पचास-साठ लोग उपस्थित थे। सभी मित्र और परिचित। बोलने की कोई समय सीमा भी तय नहीं थी फिर भी मैंने उक्त मित्र महोदय के कथन का प्रतिवाद नहीं किया अपितु कहा, हाँ काफी समय हो गया है और मैं शीघ्र अपनी बात पूर्ण करता हूँ। यह कह कर मैंने दूरदर्शन पर उर्दू खबरें पढ़ने वाले एक समाचार वाचक की तरह आँधी-तूफान की गति से बहुत जल्दी अपनी बात पूरी कर डाली और आराम से बैठ गया। थोड़ा मर्माहत जरूर हुआ पर किसी पर प्रकट नहीं होने दिया जैसे कोई बात ही न हुई हो। कुछ दिन बाद इस गोष्ठी के संयोजक मित्र का फोन आया और उन्होंने कहा कि उस दिन आपने जिस धैर्य और शालीनता का परिचय दिया वह अनुकरणीय है। यह सुनकर मान-अपमान तो दूर मैं गदगद हो गया। पूरे शरीर में आनंद की लहरें हिलोरें मारने लगीं। यही आनंद की लहरें, जिन्हें तकनीकी भाषा में हार्मोन का उत्सर्जन कहते हैं, हमारे सुख, हमारी प्रसन्नता तथा हमारे अच्छे स्वास्थ्य का कारण हैं। धैर्यवान होकर हम अपने अच्छे स्वास्थ्य को ही आमंत्रित करते हैं। यदि हमारा स्वास्थ्य अच्छा होगा तो हममें धैर्य भी होगा ही। धैर्यवान होंगे तो पुनः स्वास्थ्य अच्छा होगा। दोनों पूरक हैं एक दूसरे के।
कहा गया है कि “असम्मानात् तपोवृद्धि सम्मानात्तु तपः क्षयः'' अर्थात् असम्मान से तपस्या में वृद्धि होती है और सम्मान से तपस्या का क्षय होता है, ह्रास होता है अतः मानापमान अथवा उपेक्षा के भय से स्थितियों से पलायन करना अविवेकपूर्ण पग है। स्थितियों को एक चुनौती के रूप में स्वीकार करें। आप चुनौती के रूप में स्वीकार करें कि मैं अपमान करने का प्रयास करने वाले या मिथ्या दोषारोपण करने वाले को अपना मित्र बनाकर ही दम लूँगा न कि उसको नीचा दिखाने का अवसर खोजें। यदि आप भी बदले की भावना से कार्य करेंगे तो उसे कभी सही और ग़लत का पता नहीं चल सकेगा।
अपमानित या मर्माहत होकर व्यक्ति न केवल नई दृष्टि तथा दृष्टिकोण का विकास कर सकता है बल्कि नई दृष्टि और नये सकारात्मक दृष्टिकोण का विकास विषम परिस्थितियों में ही सहजता से किया जा सकता है। हर स्थिति व्यक्ति को आत्म-विश्लेषण तथा पुनर्मूल्यांकन का अवसर प्रदान करती है। स्थिति जितनी विषम होगी, समस्या जितनी गहन होगी अथवा चोट जितनी गहरी होगी उतना ही अधिक आत्मविश्लेषण तथा पुनर्मूल्यांकन संभव हो सकेगा क्योंकि छोटी-मोटी घटना पर तो हम विचार करते ही नहीं।
निरी प्रशंसा और सम्मान से व्यक्ति अहंकारी होकर अपने उचित मार्ग या कर्तव्य-पथ से विचलित हो सकता है। प्रशंसा तो विष के समान है जिसे मात्रा औषधि के रूप में अत्यंत अल्पमात्रा में ही लेना चाहिये। अधिक मात्रा घातक होती है। विरोध, निंदा या अपमान एक कटु औषधि होते हुए भी अच्छी है क्योंकि ये रोगोपचारक है, प्रशंसा से उत्पन्न अहंकार रूपी रोग को नष्ट करने में सक्षम है। कबीर ने तभी तो कहा हैः
निदंक नियरे राखिये, आँगन कुटी छवाय,
बिनु साबुन पानी बिनु, निर्मल करे सुभाय।
आपको रोकने-टोकने वाला, आपकी ग़लती बताने वाला आपका शत्रु या अपमान करने वाला नहीं अपितु आपका परममित्र और शुभचिंतक है। बशीर बद्र का एक शेर हैः
जिसकी मुखालफ़त हुई मशहूर हो गया,
इन पत्थरों से कोई परिंदा गिरा नहीं।
अपनी परवाज को, अपनी उड़ान को सलामत रखना है, ऊँचे उड़ते रहना है तो विरोध या अपमान को स्वीकार करना सीखें। संसद से लेकर व्यक्तिगत जीवन तक में सभी जगह विपक्ष या विरोधी या आलोचक की महत्वपूर्ण भूमिका की उपेक्षा नहीं की जा सकती।
समझदार व्यक्ति को किसी भी घटना या आरोप पर प्रतिक्रिया करने से पूर्व उसका भली-भाँति विश्लेषण कर लेना चाहिये। विश्लेषण से पता चल जाएगा कि ये आरोप अथवा तथ्य सही हैं या ग़लत। यदि आरोप सही है तो उसे स्वीकार कर सुधर करना चाहिये क्योंकि इसी में हमारा आंतरिक विकास अंतर्निहित है। यदि मिथ्या दोषारोपण किया गया है तो भी विचलित होने की क्या बात है? सोचिये क्या इतनी छोटी सी बात मुझे विचलित कर देगी? किसी बात को बहुत गंभीरता से न लेकर हल्के-फुल्के ढंग से या मजाक में भी लिया जा सकता है। एक घटना देखिए। एक व्यक्ति को पंचायत से धक्के देकर बाहर कर दिया गया। उसके एक तथाकथित मित्र ने चुटकी लेते हुए पूछा कि सुना है कल तुम्हें पंचायत से धक्के मार कर बाहर निकाल दिया गया। उस व्यक्ति ने कहा हाँ निकाल तो दिया पर उससे क्या फर्क पड़ता है। मैं तो इससे भी बड़ी-बड़ी पंचायतों से कई बार धक्के दे दे कर निकाला जा चुका हूँ। है कोई प्रत्युत्तर?
तुलनात्मक अध्ययन द्वारा भी हम इस प्रकार की स्थिति को नियंत्रित कर सकते हैं। कोई भी स्थिति या घटना स्वयं में छोटी या बड़ी अथवा अच्छी या बुरी नहीं होती अपितु दूसरी स्थितियों या घटनाओं से तुलना करने पर ही उसका स्वरूप निर्धारित होता है। मानापमान भी एक सापेक्ष स्थिति है। जीवन में हम न जाने कितनी बड़ी-बड़ी समस्याओं से जूझते रहते हैं। कभी आर्थिक संकट तो कभी सामाजिक प्रतिष्ठा की मान-मर्यादा की समस्या। कभी भयंकर बीमारी अथवा दुर्घटना का हमला तो कभी अपने किसी प्रियजन के बिछोह की स्थिति। जीवन में घटित बड़ी समस्याओं से किसी द्वारा कही गई छोटी मोटी कड़वी बात या कटूक्ति या अपमानजनक टिप्पणी को उसकी तुलना में तुच्छ समझकर बर्दाश्त कर लेना चाहिये। ये सोचना चाहिये कि इससे भी अपमानजनक स्थिति आ सकती थी। ये तो कुछ भी नहीं है। उर्दू शायर शुजाअ खावर कहते हैं :
गुजारे के लिये हर दर पे जाओगे ‘शुजाअ' साहब,
अना का फ़लसफा रह जाएगा दीवान में लिखा।
सच जब जीवन-वृत्ति या रोजगार की बात आती है तो हम देखते हैं कि इसके लिए कितने समझौते करने पड़ते हैं। जो काम पसंद नहीं वो करना पड़ सकता है। आदमी जिन सिद्धांतो के लिए जीवनभर संघर्ष करता रहा एक पल में उन सिद्धांतों को तिलांजलि देनी पड़ जाती है। बच्चों की शिक्षा और रोजगार के लिए न जाने कितने लोगों की सलाह और सहायता लेनी पड़ सकती है। अनेकानेक विषम परिस्थितियों से जूझते जाना और सही रास्ता निकाल लेना ही जीवन है और इन परिस्थितियों में निंदा, अपमान और विरोध जैसी परिस्थितियाँ भी सम्मिलित हैं।
एक घटना और देखिए। एक बस स्टॉप पर जैसे ही दो बसें आकर रूकीं यात्रियों ने बसों से नीचे उतरना शुरू किया। टिकट जाँच करने वाले उतरने वाले यात्रियों के टिकट देखने लगे। एक अगली बस में और दूसरा पिछली बस में। अगली बस में से एक पहलवाननुमा व्यक्ति उतरा और जैसे ही टिकट चैकर ने टिकट माँगा उसने छाती फुलाकर बेपरवाही से जवाब दिया, “हम टिकट नहीं लिया करते और तेरे जैसों को कुछ नहीं समझते।'' चैकर ने उसके डील-डौल और अंदाज को भाँप कर कहा कि पहलवान साहब टिकट नहीं है तो कोई बात नहीं, जाओ, पर ठीक तो बोलो। पहलवान ने आँखें निकालकर घूरते हुए जवाब दिया कि ऐसे ही बोलते हैं और ऐसे जाया भी नहीं करते और अकड़कर वहीं खड़ा हो गया और चैकर का हाथ पकड़ लिया। अब चैकर की सिट्टी-पिट्टी गुम। स्थिति की नजाकत को समझते हुए चैकर हाथ जोड़कर खड़ा हो गया और कहने लगा कि भाई मुझसे ग़लती हो गई माफ़ कर दे। मेरी नौकरी ही ऐसी है कि टिकट पूछना पड़ता है। जब दोनों बसें और उतरी हुई सभी सवारियाँ जा चुकीं तो कुछ गड़बड़ का अंदाजा लगाते हुए दूसरे चैकर ने वहीं से जोरदार आवाज में पूछा कि भई क्या बात है? पहले चैकर ने उत्तर दिया, नहीं, नहीं, सब ठीक है। दूसरे ने फिर पूछा कि इतनी देर क्यों लगा रहे हो? पहले ने कहा कि कोई खास बात नहीं। ये तो मेरा रिश्तेदार है। भाई लगता है मेरा, छोटा भाई। इतना कहकर पहलवान की तरफ हाथ उठाकर बाय-बाय की और अपने सहकर्मी की ओर चल पड़ा।
यहाँ प्रश्न उठता है कि क्या किसी के अपराध को यूँ नजरंदाज किया जा सकता है? यद्यपि किसी की ग़लती को तो क्षमा किया जा सकता है किसी के अपराध को नहीं लेकिन यदि किसी अपराध को नजरंदाज न करने पर बड़े अपराध की आशंका हो तो ऐसे अपराध को नजरंदाज करना ही उचित प्रतीत होता है।
अब मान लीजिए पुलिस की गाड़ी वहाँ से गुजरती है और चैकर गाड़ी को हाथ देकर रूकवाता है और पहलवान की शिकायत करता है। यहाँ भी कई संभावनाएँ हैं। या तो पुलिस जल्दी में हो और अपनी विवशता प्रकट करते हुए आराम से नौकरी करने का भाषण पिलाकर अपना पल्ला झाड़ ले या फिर उससे ही पूछे कि क्या कुछ देकर नहीं गया? एक संभावना ये भी है कि पुलिस पहलवान और उसके कृत्यों से परिचित हो और धमकाते हुए कहे कि तुझे आराम से अपनी नौकरी करके अपने बच्चे पालने हैं या अपने बच्चों को लावारिस बनाना है। ये पहलवान अभी तेरा तीया-पाँचा कर देगा।
यहाँ कुछ तथ्य स्वयं स्पष्ट हो जाते हैं। मारपीट करने या पिटने से बचने के लिए दो बातें सुन लेना अच्छा है, जान गँवाने से पिट लेना बेहतर है लेकिन साथ ही जिल्लत की जिंदगी से जान दे देना ही श्रेयस्कर है। लेकिन जिंदगी क्या इतनी सस्ती है? कदापि नहीं। फिर जिल्लत या मानापमान मन की विशेष अवस्था मात्रा है। अपनी सोच को सकारात्मक बनाकर तथा अपने व्यवहार में तदनुरूप परिवर्तन करके हम इस प्रकार की स्थितियों से उबर सकते हैं। वस्तुतः मानापमान अथवा अन्य किन्हीं भी दो विपरीत अवस्थाओं यथा लाभ-हानि सुख-दुख आदि से ऊपर उठना ही जीवन जीने का सर्वोत्तम मार्ग है।
एक और घटना मेरी स्मृति में आ रही है। मैं एक गोष्ठी में भाग लेने के लिए जा रहा था। रास्ते में एक लालबत्ती पर जैसे ही मैंने गाड़ी रोकी एक नई चमचमाती क्वालिस मेरी गाड़ी से एकदम सटकर आ खड़ी हुई। जैसे ही बत्ती हरी हुई क्वालिस वाले ने अपनी गाड़ी निकालने का प्रयास किया लेकिन उसकी गाड़ी का साइड व्यू मिरर मेरी गाड़ी से टकरा गया; क्वालिस में दोनों और बड़े-बड़े साइडव्यू मिरर लगे हुए थे। उसने मुझे घूर कर देखा और अनापशनाप बकना शुरू कर दिया जबकि मैंने अभी तक गाड़ी गियर में भी नहीं डाली थी। उसने कहा कि नीचे उतर अभी बताता हूँ। मुझे भी ताव आ गया और चौराहा पार कर मैंने गाड़ी को धीमा कर साइड में लगाने का विचार किया। उसने भी अपनी गाड़ी मेरी गाड़ी के थोड़ा आगे लगाकर रोक दी और गाड़ी को बंद कर चाबी झुलाते हुए बेफ़िक्री से बाहर निकल आया और आकर मैदाने-जंग में डट गया। सड़क के बीचों-बीच एक ऐसा जिन्न खड़ा था जिसे बोतल में बंद करना नामुमकिन था। मुझे एकाएक खयाल आया कि मुझे गोष्ठी में पहुँचना है। मैंने अपने साफ-सुथरे कपड़ों और कमीज की कॉलर को देखा। कितनी मेहनत से मैंने खुद प्रेस किये थे ये कपड़े। मुझे दिख रहा था कि नीचे उतरते ही भाई साहब पहले तो गिरेबान पकड़ेंगे और फिर दनादन कई घूँसे रसीद कर देंगे। मुझे अपना मैला-कुचैला कमीज और मुड़ा-तुड़ा कॉलर और गिरेबान तथा नीला-पीला चेहरा नजर आने लगा। गोष्ठी में लोगों की सहानुभूति और साथ ही हँसते हुए चेहरे भी नजर आने लगे। ऐसी हालत में घर वापस जाऊँ तो घर वाले भी दुखी होंगे पर दोषी तो मुझे ही ठहराएँगे। एक तरफ ये हालात थे तो दूसरी तरफ़ भाई साहब की चुनौती।
मेरी गाड़ी अभी पूरी तरह रूकी भी नहीं थी कि मैंने धीरे-धीरे उसकी गति बढ़ानी शुरू कर दी और गाड़ी को पुनः बीच सड़क पर ले आया और रास्ता साफ देख कर गाड़ी की गति तेज कर दी। जब तक भाई साहब अपनी गाड़ी तक पहुँच कर उसे स्टार्ट करते मेरे और उनके बीच पर्याप्त फासला हो चुका था।
यहाँ कई मित्र कह सकते हैं कि ये तो पलायनवादिता है। मैंने कई बार इस घटना पर विचार किया और पाया कि यह पलायन हर हाल में बेहतर था। काल्पनिक मानापमान की रक्षा से ये पलायन बेहतर था क्योंकि यहाँ तो रक्षा की भी संभावना नहीं थी। इस पलायन में खोने को कुछ नहीं था अपितु मान-मर्यादा का बचाव ही था। मैं एक बात और अनुभव करता हूँ कि यदि मैं उस दिन नीचे उतर जाता तो आज ये घटना आपको नहीं बता पाता क्योंकि उस प्रकार की घटनाएँ मन में एक ग्रंथि का रूप ले लेती हैं और किसी मनोग्रंथि को यूँ सार्वजनिक रूप से प्रकट करना संभव नहीं होता है। मनोग्रंथि का उपचार करना पड़ता है अब मैं जब भी उक्त घटना को याद करता हूँ। अथवा किसी को बताता हूँ तो एक हास्य की ही सृष्टि होती है। समरसेट मॉम कहते हैं - “थोड़ी-सी सामान्य बुद्धि थोड़ी-सी सहनशीलता, थोड़ा-सा शिष्ट हास्य यदि आपके पास है तो आप नहीं जानते कि इस ग्रह पर आप अपने को कितना सुखी बना सकते हैं।''
इसी विषय पर एक आलेख के विषय में मुझे कई पत्र प्राप्त हुए। एक सुधी पाठक लिखते हैं, “आपने मानापमान की व्याधि के जो उपचार बतलाए हैं, वे स्थितप्रज्ञ वीतराग जैसे अपवादों को छोड़कर सामान्य जन द्वारा साध पाने तो सहज नहीं लगते।'' उनकी यह शंका निराधार नहीं लेकिन यह भी ठीक लगता है कि स्थितप्रज्ञ या वीतरागी पैदा नहीं होते अपितु अपने आचरण से बनते हैं। इस दिशा में प्रयासरत होने में कोई बुराई नहीं। एक शेर है:
हकपरस्ती है बड़ी बात मगर,
रोज किस-किस से लड़ा कीजिएगा।
आप किसी को बदल नहीं सकते। बदलना तो खुद को ही पड़ेगा। स्वयं को परिवर्तित कर सको तो जमाना न केवल बदलना प्रतीत होगा अपितु बदलेगा भी लेकिन कहीं न कहीं से तो शुरूआत करनी ही पड़ेगी। धैर्य अथवा सहिष्णुता का विकास करना भी एक अच्छा परिवर्तन और एक अच्छी शुरूआत है। विरोध कम से कम हो तो मानव की ऊर्जा की बचत ही है और इस ऊर्जा का उपयोग अन्य रचनात्मक कार्यों अथवा अन्य किसी सकारात्मक दिशा में किया जा सकेगा। समझदार व्यक्ति ईंट का जवाब पत्थर से देने की अपेक्षा फेंकी गई ईंटों को एकत्र कर उनसे मजबूत दीवार बना लेता है।
एक वास्तविकता ये भी है कि किसी एक घटना से मर्माहत होकर ही मैंने इस विषय पर निरंतर चिंतन और विश्लेषण किया जिसके फलस्वरूप ये विचार आपके समक्ष प्रस्तुत करने में सक्षम हो सका। यह घटना का सृजनात्मक आयाम है।
अब्दुल हमीद ‘अदम' साहब फ़र्माते हैं:
जो लोग जान बूझ के नादान बन गए,
मेरा खयाल है कि वो इंसान बन गए।
घटनाओं और स्थितियों को नजरंदाज करना सीखें। आप अपने बच्चों की या अपने प्रियजनों की बड़ी से बड़ी ग़लती को नजरंदाज कर सकते हैं, उन्हें माफ़ कर सकते हैं तो अन्य लोगों की छोटी-मोटी ग़लती क्यों नहीं नजरंदाज कर सकते? इसमें आपका ही बड़प्पन है। सहनशील होने के साथ-साथ क्षमाशील होना भी एक बहुत बड़ा गुण है।
एक बात और। यदि पचास-सौ लोगों के बीच आपका बिना वजह अपमान किया जाता है अथवा मिथ्या दोषारोपण किया जाता है तो आपको इसका प्रतिवाद करने की जरूरत ही नहीं है। क्या उन सैकड़ों लोगों में से किसी न किसी को ग़लत बात या ग़लत बोलने वाले का खंडन नहीं करना चाहिये? यदि नहीं तो फिर आपके अकेले चीखने-चिल्लाने से क्या हो जाएगा? अतः धैर्य को ही अपना अस्त्र बना लीजिए। मानापमान वास्तव में एक विशुद्ध मानसिक अवस्था है। हमने अपनी एक काल्पनिक प्रतिमा ; इमेज, बना रखी है। हमने ही ये तय कर रखा है कि कौन हमसे किस प्रकार का व्यवहार करे जो हमारे वश में नहीं। हम स्वयं को तो नियंत्रित कर सकते हैं लेकिन दूसरों को नहीं। जब भी कोई हमारी अपेक्षा के विरूद्ध व्यवहार करता है तो हमारी इस काल्पनिक प्रतिमा को ठेस पहुँचती है। हमने तो अपनी ये प्रतिमा इतनी नाजुक बना रखी है कि हाथ लगते ही मैली हो जाती है अथवा गिरकर चकनाचूर हो जाती है। इस स्थिति से बचिये। अपनी प्रतिमा को स्थितियों के अनुसार परिवर्तित करते रहिये। दूसरों के व्यवहार को नियंत्रित करने की कोशिश मत कीजिए। किस-किस को बदलते फिरेंगे? स्वयं को ही बदल डालिये। छोटी-छोटी बातों पर व्यथित होना छोड़ दीजिए। अपने दृष्टिकोण को बदल डालिये। धैर्य का दामन थामे रखिये। आप सारी ध्रती पर कालीन नहीं बिछवा सकते केवल अपने लिए एक जोड़ी अच्छे से जूते खरीद सकते हैं ताकि चलते समय आपके पैर सुरक्षित रहें।
मानापमान पूर्णतः एक काल्पनिक स्थिति है। इसके प्रति निरपेक्ष होकर तथा अपने दृष्टिकोण में परिवर्तन करके सुखी-संतुष्ट जीवन जीने की ओर अग्रसर हो जाइये।
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संपर्क:
सीताराम गुप्ता,
ए.डी. १०६-सी, पीतमपुरा,
दिल्ली-११००८८
फोन नं. ०११-२७३१३९५४१
Aapke is blog se mann me nakaratmakta aur bhad gayi. Saath hi galat sandesh bhi pahucha hai logo ke beech me. Shayad isliye hamare desh ka ye haal hai aaj. Jo aapne bataya usse majboori keh sakte hain, lachari keh sakte hain, samajhdaari nahi.
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