-डॉ. रेखा श्रीवास्तव छत्तीसगढ़ के विभिन्न अंचलों में धातुशिल्प निर्माण की सुदीर्घ परम्परा है । प्रदेश के आदिवासी कलाकार पारम्परिक रूप से ...
-डॉ. रेखा श्रीवास्तव
छत्तीसगढ़ के विभिन्न अंचलों में धातुशिल्प निर्माण की सुदीर्घ परम्परा है । प्रदेश के आदिवासी कलाकार पारम्परिक रूप से धातु की ढलाई कर आकर्षक कृतियों का निर्माण कर रहें हैं। ये आदिवासी कलाकार सदियों से सौन्दर्यपरक, आनुष्ठानिक और उपयोगी कलाकृतियों का निर्माण अंचल के लोगों की आवश्यकता और सौन्दर्य चेतना के अनुसार सहज रूप से बनाते आ रहें है। जिनमें सरगुजा के मलार, रायगढ़ के झारा, बस्तर के घड़वा और लोहार प्रमुख है। मध्य प्रदेश में भी धातु ढलाई का अनुपम कार्य हो रहा है जिनमें टीकमगढ़ के स्वर्णकार और बैतूल के भरेवा कलाकारों ने आज तक अपनी परम्परा को जीवित रखा है। इस परम्परागत कला में, इतिहास एवं संस्कृति के अनेक उतार चढ़ाव कांस्य युग से वर्तमान युग तक की लम्बी परम्परा में सुरक्षित है । साढ़े चार पांच हजार वर्षों की यह समृद्ध कला परम्परा आज तक सुरक्षित व थोड़े परिवर्तनों के बावजूद अक्षुण्ण चली आ रही है। आदिवासी समाज ने इस कला परम्परा में किसी प्रकार का हस्तक्षेप किया बिना इसे धरोहर के रूप में न सिर्फ सुरक्षित रखा वरन इसे जीवन्त भी बनाये रखा ।१
छत्तीसगढ़ के दक्षिण में बसे बस्तर क्षेत्र में आज घढ़वा कला बड़े पैमाने पर होने लगा है। बस्तर जिले में प्राचीन काल से मिश्र धातु की ढलाई करके मूर्तियां, आभूषण, बर्तन, व दैनंदिन उपयोग में आने वाली अनेक वस्तुएं बनाई जाती रहीं है। यह मिश्र धातु तांबा, जस्ता व रांगा के मिश्रण से तैयार की जाती है। मिश्र धातु से ढलाई करके मूर्तियां बनाने का यह कार्य घसिया जाति के लोग करते है, जो दस्तकारों की एक अत्यंत प्राचीन जाति है। जो आज स्वयं को घड़वा जाति का होना बताती है ।
धातुशिल्प निर्माण की तकनीक चाहे वह सरगुजा की हो टीकमगढ़ की हो या बस्तर की घड़वा कला हो, ढलाई की मूलप्रक्रिया एक जैसी ही है, थोड़ी बहुत यदि भिन्नता है वह स्थान, परिवेश और सामाग्री की उपलब्धता के कारण हैं। शिल्प निर्माण में काम में आने वाले औजारों में भी समानता है। यह तकनीक भारत वर्ष की अत्यंत प्राचीन तकनीक है। जिसके साक्ष्य मोहन जोदड़ो से प्राप्त कांस्य प्रतिमा है। धातु ढलाई की इस तकनीक को मोम क्षय विधि कहते है। फ्रेंच भाषा में इसे सायरे परड्यू कहा जाता है। तथा अंग्रेजी में वेक्स लॉस प्रोसेस कहा जाता है। इस विधि में मधुमक्खी द्वारा निर्मित मोम का प्रयोग किया जाता है। इसलिये इस तकनीक का नाम मोम क्षय विधि पड़ गया ।२
इन लोक धातु शिल्पियों द्वारा निर्मित शिल्प पारम्परिक, लोक आधारित, सहज सरल, आकारों में होती है। लेकिन इन शिल्पियों द्वारा निर्मित ये सरल किन्तु आकर्षक कृतियां आज के आधुनिक परिवेश में न केवल कला प्रेमियों बल्कि अभिजात्य वर्ग और मध्यम वर्गीय परिवारों की भी पहली पसंद बन रही है। अब यह सुखद किन्तु विचारणीय प्रश्न है कि ऐसे कौन से तत्व है, जो इन शिल्पों को सामान्य से अलग करते हैं और समकालीन मंच पर अपना स्वतंत्र स्थान पाते हैं। जो भी हो बुद्धिजीवियों और कलाप्रेमी की यही जिज्ञासा इन लोक शिल्पों के संसार को क्रमशः बढ़ाते जा रहे हैं। जिससे इन लोक शिल्पियों के लिए सुखद और प्रगतिशील मार्ग का निर्माण प्रारंभ हो गया हैं । जहां इन प्रतिभाशाली शिल्पियों को अपनी बहुमुखी प्रतिभा का परिचय देने के लिये मंच प्राप्त हो रहा है।
यहां की सांस्कृतिक संपदा और पुरातात्विक अवशेषों से प्राप्त होने वाली सामग्री के अध्ययन से यह ज्ञात होता है कि ईसा पूर्व से ही यहां वास्तुकला, मूर्तिकला, और धातुकला का विकास हो चुका था । इस अंचल की शिल्प कला को देखकर ऐसा अनुभव होता है कि ये शिल्प कला छत्तीसगढ़ के सांस्कृतिक वैभव की मौन भाषा है । आदिवासी संस्कृति के इन शिल्पों में दो प्रकार के शिल्पों का निर्माण होता है। प्रथम पराशक्ति की आराधना हेतु देवी देवताओं के शिल्प जिनमें मुख्यतः घोड़ों पर सवार देवियां है, या जो हाथों में खड्ग, ढाल, अन्न की बालियां व मयूर पंख धारण किये हुए है जैसे तेलगिन माता मूर्ति, कंकालिन माता इत्यादि, चित्र क्रमांक ३, और दूसरा पशु आकृतियां जिनमें हाथी, घोड़े की आकृति प्रमुख है , इसके अतिरिक्त शेर मछली कछुआ मोर इत्यादि बनाए जाते है। इसके अतिरिक्त आनुष्ठानिक पात्रों, शिल्पों का निर्माण भी किया जाता है। वर्तमान में गृहसज्जा हेतु विभिन्न रूपाकारों का निर्माण इन शिल्पियों की स्वयं की रचनात्मक पहल है। वैसे भी आंचलिक देवी देवताओं का स्वरूप स्थानीय आस्थाओं और मिथक कथाओं पर उभरा हुआ स्वरूप है। जिसमें शिल्पियों की रचनात्मकता के ही उदाहरण मिलते है । ये आकृतियां न्यूनाधिक बेडौल भी होतीं हैं। किन्तु प्रतीकात्मक अधिक होती है। इन पर लक्षणवादी लोक संस्कृति का प्रभाव पड़ा है। इन देव आकृतियों को पूज्य भाव से बनाया जाता है। सामान्यतः जिस क्षेत्र के जैसे रीति रिवाज अथवा परम्पराएं होती है कला और शिल्प भी उसी के अनुरूप ढलने लगते हैं क्योंकि तीज त्योहार, रीति रिवाज, जादू टोना, मनोरंजन, प्रेम भावना, कला के रूप निर्धारण और प्रयोगों के प्रति उत्तरदायी होते है। यदि संस्कृति नगरीय होगी तो उसमें सामाजिक रूचि अरूचि प्रयोगात्मकता और व्यावसायिकता अधिक हावी रहेगी। प्रयोगों के कारण कलारूपों में स्थायित्व कम होगा। ग्रामीण अंचलों से जुड़ी इस क्षेत्र की कला आस्था और परम्परा पर आश्रित है अतः प्रयोगों की प्रक्रिया धीमी एवं दीर्घकालिक हैं। आवश्यकता के अनुरूप धीरे धीरे उसका स्वरूप निश्चित होता है। इन रूपों में स्थायित्व अधिक है। ३
इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि जादू टोना ने यहां की कला को प्रभावित किया है। शक्ति स्थलों पर लोहे की छड़ , त्रिशूल, अथवा धातु की मूर्तियों को स्थापित किया जाता है। लौह एवं ढलाई से निर्मित कृतियों का निर्माण का प्रचलन यहां दीर्घकाल से हो रहा है। लुहार, घसिया, घड़वा, तमेर आदि शिल्पियों ने विभिन्न देवी देवताओं पक्षियों, एवं बाइसन हार्नयुक्त मुरिया मारिया जाति के लोगों को शिल्पों में ढाला और आकर्षक कृतियों में प्रस्तुत किया। नवीन प्रयोगों और विकसित स्वरूपों में छत्तीसगढ़ क्षेत्र का ढोकरा शिल्प एक उद्योग का रूप लेता जा रहा है। ढलाई की सीमा के बावजूद टुकड़ों टुकड़ों में बनाकर वृहदाकार शिल्पों के निर्माण में वे सफल रहें है। अनेक शिल्पी मिलकर एक शिल्प के निर्माण में सहयोग करते है। कोण्डागांव जगदलपुर, करनपुर, ऐराकोट आदि गांव इस कला के केन्द्र बनते जा रहें है। अब ये शिल्प नये प्रतीकों और स्वरूपों के आयाम की ओर अग्रसर है।४
प्रारंभ में शिल्प निर्माण का कार्य स्थानीय लोगों की आवश्यकता के अनुरूप किया जाता था । किन्तु अब यह कार्य एक व्यवसाय का रूप ले लिया है। बस्तर में अब लगभग ३००से ४०० परिवार इस कार्य में लगे हुए है। ये परिवार परंपरागत तकनीक एवं अलंकरणों में शिल्प व अन्य उपकरणों का निर्माण करते हैं। जिनकी मांग कला संग्रहकर्ताओं में एवं विदेशों में बहुत अधिक है। बस्तर से मध्य प्रदेश हस्त कला निगम प्रतिवर्ष लगभग चार लाख की धातु शिल्पों का क्रय कर बाहर भेजती है। लगभग एक से डेढ़ लाख रूपये मूल्य की मूर्तियां डान्सिंग कैक्टस व श्री जयदेव बघेल व उनकी सहकारी संस्था एवं कुछ अन्य छोटे मोटे इम्पोरियम द्वारा क्रय की जाती है। ५
आज का यह लोक शिल्पी अनपढ़ अथवा आर्थिक रूप से पिछड़े भले ही हों किन्तु मौलिक सृजन की कसौटी पर अपना स्थान बना चुके हैं। अब क्षेत्रीय गतिविधियों से बाहर निकलकर समकालीन मूर्तिकारों के समकक्ष अपना स्थान बनाने में भी सफल हो रहे हैं वह अब प्रांतीय स्तर पर ही नहीं बल्कि राष्ट्रीय स्तर पर भी प्रदर्शनियों में अपनी शिरकत कर अपनी पहचान बना रहा है। जयदेव बघेल, सुकू्रराम बघेल, सुखचंद घड़वा, मानिक, संग्राम सिंह, हलाल, नान्हेराम जैसे अनुभवी एवं दक्ष शिल्पी प्रथम पंक्ति में आते हैं। जिन्हें बस्तर से बाहर विदेशों में भी प्रदर्शन के लिए आमंत्रित किये जा रहें है। जिनमें जयदेव बघेल नींव के पत्थर रूप में जाने जाते हैं। जिन्होंने जापान, चीन, बिट्रेन, फ्रांस इत्यादि अनेक देशों में ढ़ोकरा ढलाई तकनीक का प्रदर्शन कर इतिहास बनाया है।६ जयदेव बधेल के शिल्पों में आकार अपने नये आयाम में है। हालांकि अलंकरणों में परिवर्तन नहीं किया जाता है, मुख्य आकृतियों में बाजार या शिल्प प्रेमियों के अनुरूप परिवर्तन अपनी रचनात्मक सृजन का परिचय देते हुए किया गया है। ७.चित्र क्रमांक ५
घड़वा शिल्पी जैसे जैसे समकालीन शिल्पियों के साथ प्रदर्शनियों में भाग लेने लगे है, वैसे वैसे अपने इन परम्परागत शिल्प कला शैली में नये नये प्रयोग करने लगे है। कला से संबंधित प्रबुद्ध वर्ग इन्हें नये नये प्रयोग करने को प्रेरित एवं उत्साहित भी करते है। क्यों न हो परिवर्तन और नित नूतनता समय की मांग और अभिव्यक्ति की आवश्यकता है । फिर भी घड़वा शिल्पी अपनी परम्परा अपनी संस्कृति को इन शिल्पों में अक्षुण्ण बनाए रखे है। क्योंकि ये शिल्प घड़वा लोक कला के प्रतिरूप व प्रतीकात्मक रूप है। यह कला अपने सीमित साधनों ,अभावों अत्यंत श्रम साध्य होने के बावजूद सतत गतिशील बनी हुई है। इसका मूल कारण लोक जीवन के धार्मिक विश्वास, जादू टोना, सामाजिक व आर्थिक आधार है। आज लोक कलाओं में प्रयुक्त प्रतीक एक लम्बी सांस्कृतिक प्रक्रिया द्वारा प्रदत्त है। धार्मिक विश्वास, अदृश्य शक्ति के प्रति अटूट आस्था, परस्पर संबंधों के प्रति गहन जिज्ञासा इत्यादि विश्वासों की पृष्ठभूमि में अनेक प्रतीक विकसित हुए है। जिनकी लोक जीवन में गहरी जड़ें हैं। आज इन शिल्पों में जो ज्यामितीय अलंकरण या पशु पक्षी वृक्षों के सरल सहज आकार हमें प्रतीकों के रूप में प्राप्त होते हैं। वे वास्तव में उतने सरल नहीं है। ये अत्यंत परिष्कृत एवं सूक्ष्म आकारों का कलात्मक अमूर्तन हैं।
अपने सतत् प्रयास से आज ये शिल्पी श्रेष्ठतम एवं उत्कृष्ट कलाकृतियों का निर्माण कर रहें हैं, और समकालीन जगत में अपने ही प्रयासों से उच्चतम शिखर की ओर अग्रसर हो रहें है और वह दिन भी दूर नहीं जब इन शिल्पियों को हेनरी मूर, हुसैन, शंकु चौधरी के समान सम्मान प्राप्त होगा ।
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संदर्भ सूची
१. मोनोग्राफ घड़वा शिल्प ÷ म. प्र. आदिवासी लोक कला परिषद प्रकाशन
२. चौमासा अंक ८ वर्ष ३ पृष्ठ ६४ निरंजन महावर
३. छत्तीसगढ़ में कला प्रयोग - डॉ. उमेश मिश्र
४. छत्तीसगढ़ में कला प्रयोग - डॉ. उमेश मिश्र
५ चौमासा अंक ८ वर्ष ३ पृष्ठ ६३ निरंजन महावर
६. साक्षात्कार - श्री जयदेव बघेल कोण्डागांव
७. शोध प्रबंध- बस्तर क्षेत्र के लोक धातु शिल्प स्वयं
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सम्पर्क:
सहायक प्राध्यापक (चित्रकला)
शासकीय कन्या महाविद्यालय, रतलाम मप्र 457001
जाल स्थल : भारतीय चित्रकला
बहुत बढ़िया आलेख!!
जवाब देंहटाएंज्ञानवर्धक!!
आभार रचनाकार का
bhut hi shaandaaar aalekh likha hai mam , kya mam ka mail address ya other contact address mil skta hai ,thak you
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