- महेन्द्रसिन्ह परमार अनुवाद : पंकज त्रिवेदी 'शाम के वक्त घर पे अकेले मत रहा करो ' - ऐसा कहीं सुना-पढ़ा उससे पहले काफी समय ...
- महेन्द्रसिन्ह परमार
अनुवाद : पंकज त्रिवेदी
'शाम के वक्त घर पे अकेले मत रहा करो ' - ऐसा कहीं सुना-पढ़ा उससे पहले काफी समय से वह अनुभव था । शाम किसी अजीब सी नमी भरी उदासी लेकर उतरती । हम कहीं भी स्थिर नहीं होते । ' चले जाएं.... चले जाएं.... ' होता रहे । ऐसे समय आसरे का ठिकाना - एक बोरतालाब । दूसरा यह खोडियार मंदिर । बोरतालाब गांव के बीचोबीच, इस कारण कइयों के बीच अपना निजी अकेलापन ढूंढ लेना पड़े । होता है... तालाब तो हाथ हिलाता रहे । मगर फेरी करने वाले, बैंच पर बैठे प्राणीजन, ईवनिंग वॉक करनेवालों की चलते चलते होती सांसारिक बातें- ऐसा सबकुछ दिखता दुनयावी हो ! इसीलिए कुछ समय से बोरतालाब की शाम का स्थान इस छोटे से मंदिर ने लिया है । गांव से दूर । सीमा में । छोटे से चेकडेम के किनारे । अकेला अगर अकेलापन वाला नहीं ऐसा यह मंदिर मेरी कईं शामों का साथी । आता.... बैठता, आरती होने तक । कभी पानी में पड़े-पड़े शाम को ' फील ' करता, कभी किनारे बैठकर आंखों की जियाफत । झीलता, झील पाता जैसे अर्थकलापों को समझने मथता रहूं ।
कहनी ही है तो बरसाती-गीली शाम है । घण्टेभर पहले धीमी धार से बरस चुका है महाराज ! क्षितिज चारों ओर काली भुजंग है अभी । काले बादल किसी आयोजन करने में पड़े है मगर उस काले आक्रमण में से सरककर निकल चुका उजास है आसपास । घिरी हुई, गाढ़ी, उकेलो तो उकेल सको ऐसी यह शाम । चेक डेम का पानी किनारे की हरियाली और उपर आकाश के रंगो को मिलाकर कुछ 'रच' लेने की धुन में है । पानी की सतह हरी भरी है । दूर टीकावाली बतख़ धीरे धीरे सरकी और जो कंपन फैले वह यहाँ आकर मुझे स्पर्शता है । पानी की भीतर से कुछ-कुछ देर में उठता सॉंप का सर जल की सतह को तोड़ दे । पवन अपना काम करें । किनारे के पेड़ भरपूर क़ैफ में । भरपूर पीकर गहराई तक उतर गए हैं । पिछले वर्ष एक लड़के को भक्षण कर गए डेम का यह पानी शिकार निगलकर पड़े हुए मगर जैसा भयानक लगता था ।
आज, सारस पंछी की फैली हुई पंख जैसा रमणीय ! है न् यह भी स्थिति भेद! सोलह-सत्तर जितनी नीलगायों का झुंड देखो सामनेवाली झाड़ी में से निकला । यह उनका रोज़ाना समय । अब पहचान पक्की होने लगी है । इसलिए कुछ देर मेरे सामने हटकर देखेंगे और फिर निकल जाएंगे, उदर तृप्ति अर्थ में ।
चेकडेम के ढालान पर से अधिक पानी कल-कल शोर करता हुआ बह जाएं । उस के प्रवाह के जोश में कुछेक मछलियों को देशाटन मिले । अनिच्छा से प्रवाह में बहने के बाद फिर शुरु किया प्रयास । प्रवाह से विपरीत ढालान चढ़कर उपर आने का । अजब उत्कंठा (उत्सुकता) से मैं उनका यह प्रचंड उद्यम का गवाह बन जाऊं । नीचे भरे हुए पानी में से अर्धचंद्राकार उछलकूद, डेम के पाले पर उपर चढती हज़ार दो हज़ार मछलियॉं ! उनके चांदी जैसे उदरभाग की चमक, क्षितिज पर होती बिजली जैसी ही आकर्षक । हदपारी भरपीने के उनके सांझा प्रयत्न । आधे तक पहुंचे । पानी का प्रवाह फिर वापस फेंके । इस तरफ के पानी में से उस तरफ के पानी में पहुंचने की उनकी चटपटी (जल्दबाज़ी) करुणांतिका बन जाएं । पानी के प्रवाह से पटकाती वापस गिरी मछली नीचे घूमते जल सॉंप का कौर बन जाएं । हदपारी... सचमुच हदपारी । रही सही एक मछली सफल हो । एवरेस्ट आरोहण के उत्सव के मूड में हो तब.. पाले पर हाज़िरबाश बगला गरदन लम्बी करें... और जय माताजी ! इतने समय में एक भी मछली को चेक डेम में वापस लौटने का सौभाग्य नहीं मिला ! देखो अनिश्चित हवा में, मस्त ठाटवाला किंगफिशर । हमें लगे कि खुद का आसमानी प्रतिबिंब देखने हवा में इतना स्थिर होकर टिक रहा है । मगर नहीं, उसे तो दिलचस्पी है पानी के भीतर रही मछलियों में ! उस एक ही जगह पर घुमाई हुई उनकी पंखों ने हवा में रेखाओं की जो झड़ी बरसाई हो, उस के साथ पानी तक लगी उसकी छलांग की एक लकीर बन जाएं । किसी कमनसीब मछली बहने से पहले उठ जाएं ! इसकी तस्वीर कोई लेकर तो देखें ! भूख़ की गिनती सब को रत (व्यस्त) रखें । किसी गिनती के बगैर मैं उन में रत रहूं, और शाम ढलती जाएं । मंदिर में से आरती सूचक घण्टी बजे । सितंबर की 'यह ' शाम । मेरी खुद की । बिलकुल जानी पहचानी । बिलकुल स्थानीय । मंदिर के नगाड़े का ढम्... ढ...म् ढ...म् ढ...म् बद्धमात्रिक यांत्रिक लय को सुनता हूं तो सरक जाता हूं दूसरी एक शाम की स्मृति में । पिछले बरस के नवंबर की २० तारीख़ की वह शाम बिलकुल आज उधेड़ रही है, मेरे भीतर से...
काज़ीरंगा नेशनल पार्क । असम । वह शाम चार-सवा चार को ही अंधेरा उतर चुका था । नेशनल पार्क में परमिट लेकर बन्दूकधारी रक्षकों के साथ जीप में निकले थे । गहराई तक उतर जाते... एकाकी-रहस्यमय रास्ते । ऐसा ही रहस्यमय जंगल । उनकी पुंसकता जंगल का लिंग परिवर्तन करने को प्रेरणा दें... जंगल कैसा के बदले कैसो लगे - ऐसी, घनी ! मन में बहुत बड़ा चित्र था । डिस्कवरी चैनल के पर्दे पर देखे गए दृश्यों की एक छाप थी । उन्मत गज यूथों को पानी में मस्ती करते हुए देखना था, बाध की दहाड़ें सुननी थी । यहाँ-वहाँ घास के मैदानों में चरते गैंडों ने आकर्षण रचा । मगर फिर जंगल सुरीला लगने लगा । एक तो जंगल की ऐसी उदास अनुभूति, और उस में शाम ! धुन्ध भरे बादल जहाँ-तहाँ अहदी (आलसी) गैंडे जैसे पड़े थे । नीचे पाँव पर चलने की इच्छा जताई मगर गार्ड ने सावधान करके मना कर दी । जीप ने एक वॉच टावर के पास विराम लिया । वॉच टावर पर से विशाल जंगल, धास भरे मैदान और आकाश को देखता रहा । उदासी ने मारवा (राग) छेड़ा... मगर तभी तो नीचे फैले पडे तालाब ने अचानक प्रसन्न पूरवी का अनुभव करवा दिया। तालाब की केसरी -रुपेरी -काली -सफेद झांकी अभी भी झिलमिलाती है मेरे अंदर । एक छोटा पेड़ गोष्ठी करता था तालाब के साथ, मैं भी जुड़ गया । कहाँ मेरे यह चेकडेम -बोर तालाब...और कहाँ काज़ीरंगा का सरोवर ! मुड़ गये वापस । रास्ते में एक हस्तीयुगल और उनके मकुने देखे और उछले, ओह्ह्हो ! बाद में पता चला कि वह तो वन विभाग के पालतू हाथी । अरेरे !
एक कसक के साथ, इतनी दूर आएं और कुछ 'खास ' पा न सके उसके अफसोस के साथ वापस मुड़े, काज़ीरंगा गॉंव के धनश्री रिसोर्ट में । शाम ढल चुकी थी और आकाश को छू सके इतना नीचे उतर आया था । 'झिलमिल पड़ाव ' जैसा । उसने थोड़ा दिलासा देने जैसा किया मगर चैन न मिला इसीलिये पैदल निकल पड़ा । गांव की बस्ती की ओर । कहीं दूर से समूह में असमिया तालवाद्यों की आवाज़ आती थी । आवाज़ की दिशा में खींचा गया । देखता हूं तो एक मंदिर के परिसर में एक साथ दस-बारह लड़के, दस-बारह वर्ष की उम्र के, गले में मृदंग लटकाकर तालीम ले रहे थे । असम के आराध्य शंकरदेव का मंदिर है । बिजली नहीं है इसीलिये मंदिर की लालटेन का हल्का सा उजास इस बालभक्तों को उजला कर रहा था । मृदंग को कपड़े से सजाए हैं । धोती-गमछे में सजे बच्चों की आंखों में सीखने की उत्सुकता है । गुरुजी - प्राथमिक विद्यालय के शिक्षक- उत्साह सिखा रहे हैं । आनेवाले उत्सवों की पूर्व तैयारी चलती है ।
' एक, दुई, तीनी, सारी ! '
' एक, दुई, तीनी, सारी !
असमिया भाषा तो समझ में नहीं आती मगर मात्रा की गिनती समझ में आती है । बच्चों के अनगढ़ हाथ की थाप मिश्र स्वर खड़ा करती है । गुरुजी हाथ पकड़कर वाद्य में से ताल का पता बताते हैं :
धे डाऊं...., धेडाऊं..., धे...डाऊं !
धे डाऊं..., धे डाऊं, धे.... डाऊं....! गूंज उठता है । बीच बीच में मुझे - अन्जाने को लड़के देख रहे हैं । गुरुजी तालीम में ध्यान देने की सूचना देते हैं । आसनस्थ वाद्यतालीम अब नर्तन समेत के वाद्य कार्यक्रम में तबदील होता है । बजाते बजाते अर्धचंद्राकार या पूर्ण चौगिर्दा घुमाव में पाँव का थापा रचते लड़कोंने, किसी बड़े ' जलसे ' को टक्कर मारे ऐसा जलसा करवा दिया ! छोटी मात्रा के आवर्तनों के बाद शुरु हुए दीर्धमात्रिक आवर्तन....
खिरी खिरी ता..., खिरी खिरी ता !
खिरी खिरी ता..., खिरी खिरी ता !
.... एक बच्चे ने 'खिरी '' ढंग से न बजाया.... खिरी ! हा ! फिर जम गया !
लडकों का नर्तन :
ता खुरु धेता धेनीन... डाऊं, ता खिरी... की रिकी धाऊं,
ता खुरु धेता धेनीन... डाऊं, ता खिरी... की रिकी धाऊं !
असम के बिहुनृत्य देखने का सद्भाग्य प्राप्त हुआ था । असमिया युवक -युवतियों का मादक अंगडोलन और नर्तन में समग्र पृथ्वी की ऊर्जा का अनुभव किया था । उन बच्चों के नर्तन में एक प्रकार की शांत जल्दबाज़ी महसूस हो रही थी । 'धेनीन...डाऊं ' और 'ता़खिरी... की ' में बीच में जो अवकाश रखा गया है वहां आप अपनी झॉंझ जैसे धातुवाद्य की एक आवाज़ की कल्पना करो और उस थाप पर पॉंव का ठेका लेकर चौगिर्दा धुमाव करते बालनर्तक की कल्पना करके देखो तो !
मन ही मन में गुनगुनाते हुए कब खड़ा हो गया, पॉंव कब नाचने लगे... पता ही न चला : ता खुरु धेता धेनीन... डाऊं, त खिरी... की रिकी धांउ, ता खिरी... की रिकी धांउ !... बच्चों की मंडली, उनको घर ले जाने आई असम की मावरो ठहका (खडखडाट) लगाने लगी । आनंद । आनंद । आनंद । उदास शाम को ऐसी अदभुत रात्रि का आसरा मिले ऐसी कल्पना कहॉं से हो ? पूरे असम का दर्शन यहीं पर ही कर लिया । अब कहीं भी जाने की ज़रुरत नहीं । बच्चे लोग के साथ बहुत सारी बातें हुई । सब के नाम तो याद नहीं रहे । एक स्मृति में रह जाएं ऐसा था : हरिपद पंकज ! यह सब हरिपद पंकजों उनकी परम्परा को आत्मसात् करने के लिए जो मथ्थापच्ची कर रहे थे, उसने मुझे सोच में डाल दिया । मृदंग लेकर विष्णु चरण में समर्पित होते हरिपद पंकज के हाथ में मशीनगन कौन रख देता है ? यह वही असम है, जहॉं दिन दहाड़े भी बाहर न निकल पाएं ऐसा आतंक प्रवर्तमान है । बत्तीस लक्षणा 'उल्फा ' युवक मृदंग छोड़कर इस रास्ते पर क्यों मुड़ते हैं उसी की उल्फत है । गौहाटी में महसूस किए भय के ओथार को काज़ीरंगा की तारों से सजी रात को, शंकरदेव के मंदिर ने चूरचूर कर दिया ।
देखो, कैसी सिम्फनी रच गई ! मेरे खोडियार मंदिर के इस नगाड़े की बंधी गति के साथ असम के मृदंग जुड गएं । 'ढम्... ढम्...! ढ...म् ढ...म् ढ...म् ' खिरी खिरी ता, खिरी... खिरी ता ! एक यह शाम और एक 'वह ' शाम । ऐसे जुड गई ! अजब होती है शाम की लीला, क्यों ! मेलंकली में से सहज सर्जित हुई यह मेलोडी आपको भेज दूं न् ! आप भी उस के गायक है, और कितनी तंज़ोर के साक्षी हो । चलो भी, गा लेते है वह पसंदीदा गीत :
वो शाम कुछ अजीब थी, ये शाम भी अजीब है
वो कल भी आसपास थी, वो आज भी करीब है
.... है कि नहीं ?
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संपर्क:
-पंकज त्रिवेदी
हर्ष, गोकुलपार्क सोसायटी, ८० फूट रोड, सुरेन्द्रनगर-३६३ ००२
ई-मेल : pankajtrivedi@india.com
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