व्यंग्य· -आर.के.भंवर क्या जवाब दूं ? टी.वी. पर चल रही दो नेताओं की अंतहीन तू-तू, मैं-मैं बहस पर वह बोल पड़ा, अंकल ये आपस में लड़ते क्यों...
व्यंग्य·
-आर.के.भंवर
क्या जवाब दूं ? टी.वी. पर चल रही दो नेताओं की अंतहीन तू-तू, मैं-मैं बहस पर वह बोल पड़ा, अंकल ये आपस में लड़ते क्यों हैं? सब कुछ तार तार या आर पार वाले पारदर्शिता के जमाने में चैनल वह सब दिखाना चाहते हैं, जिसकी दरकार हो या न हो। अब आपस में, लड़े जा रहे हैं, कोई किसी से कम नहीं। एक सत्ता में रह कर दाये-बाये उल्टे-सीधे, टेढ़े-मेढ़े तीर चलाने में चूक नहीं रहे हैं, और दूसरे वे जो सत्ता में नहीं है, तीर की बजाय गुम्बद चलाने में नहीं चूक रहे है। सड़कों पर लड़ाई झगड़ा अब उतना अच्छा नहीं लगता जितना चैनल पर। विद्वानजन कहते है कि हमारे अंदर भी एक द्वन्द चला करता है। सत् असत् की लड़ाई। अंदर की लड़ाई बाहर की लड़ाई से शान्ति पाती है। हम जब कभी सड़क पर दो लोगों को आपस में भिड़ते देखते हैं तो उसे छुड़ाने की बजाय यह पसंद करते हैं कि यार चलो दो-दो हाथ हो ही जाय। यह अंदर की बात है, दरअसल मन यहीं कहता है। यह अलग बात है कि हम समाजिक व्यवस्था को पानी पी पी कर कोसें, लेकिन दिल जो चाहता है, वह मैने अनुभव किया है। तो बात नेताओं के आपस में विकास के मुद्दे पर लड़ते चैनल जम कर दिखा रहे हैं। जो जितना तेज और कड़क आवाज में बोले भले ही उसके पास मुद्दे, आंकड़े या हकीकत न हों, पर वह ये सब रखने वालों पर भारी पड़ेगा ही, क्योंकि आवाज जो कड़क है।
अब क्या करें, गले की ही खाते है। बोलने में अच्छा, तो सारी योग्यता पूरी और बोलने में मिमियाये तो योग्य होते हुए भी अधूरे। अपने देश की बड़ी पंचायत में लोग बोलने की ही तो खा रहे है। काम ढेला भी नहीं आता पर बोलने में टापोटाप। सत्तावाले भी हाथ बढ़ाकर बधाई देते हैं कि क्या खूब जनाब, माशा अल्ला क्या आवाज का हुनर है, आप तो पीएम लायक ही है। इधर आर्ट आफ स्पीकिंग कोर्स में युवा पीढ़ी अपना बेहतर कैरियर देखने लगी है। पंन्द्रह दिन मेहनत करिये और पूरे पांच साल (मध्यावधि चुनाव अपवाद है) माल काटिये। अब पन्द्रह दिन के लिए धूल भी फांकनी पड़े तो कोई भी सुनहरे भविष्य के खातिर धूल लपेट कर धूल फांक लेगा।
अब उस मासूम को क्या मालूम कि विकास के वास्ते लड़ना सेहत के साथ साथ अपने नुमाइंदों के लिए कितना मजबूत होता है। क्षेत्र में लोगबाग क्या कहेंगे कि चुपाई मार के बैठे रहे, धत्। ये भी कोई राजनीति है। नेता चुनाव के दौरान अपने लिए नहीं वोटर के लिए, कार्यकर्ता के लिए, अपने बड़के नेता के लिए जीता है। और चुनाव बाद वह अपने और अपने परिवार के लिए जीता है। जिये भी क्यों न .... क्योंकि पन्द्रह दिन मेहनत बराबर आगे के पांच साल की ऐश। जमाना बदल रहा है। अब कोई पहले जमाने के नेता आज के समय की तुलना करें तो उन्हें तो जलन होगी ही। उनके समय में इस तरह की व्यवस्था कहां थी।
अब ऐसा लगने लगा है कि हमारे चैनल हमारी बौद्धिक ऊर्जा के लिए कुछ ज्यादा ही परोसने लगे हैं, साथ ही यह भी बताते हुए कि ऐसा पहले हमीं ने प्रसारित किया है और चैनल वाले जब मलाई रबड़ी चाप रहे थे तब हमारी टीम ने मेहनत करके यह पाया जो आपको दिखा रहे हैं। क्या यह बहस का मुद्दा नहीं हो सकता है कि हमारे चैनल कितना और किस तरह दिखायें। आजादी है पर नजरिये एक सद्पुरूष के कि हमारी आजादी वहीं पर समाप्त होती है जहां दूसरे की नाक शुरू होती है। हम कुछ ज्यादा ही आजाद है। नाक तो नाक, नाक के अंदर छड़ी तक घुसेड़ने में संकोच नहीं। पर लोगो का लड़ना चैनल दिखा रहे हैं और हम हैं जो उनके बेवजह, बेकार, उबाऊ विषय को तसल्ली से देख रहे हैं। ये चैनल क्या भारतीय लोकतंत्र के जहाज में हो गये बड़े छेद को दिखा रहे है? इतना बड़ा छेद कि जहाज में पानी जारजार घुस रहा हो। हम हैं जो सोफे पर पैर धरे चाय की चुस्की लिये झेल रहे हैं। वैसे ही जो दिखाते हैं वे , उसे देखते है हम, करें तो क्या करें। पर हम भूल जाते है कि सरकार के सूचना के अधिकार के हथियार की तरह हमारे पास भी एक हथियार है, वह है टी.वी. रिमोट। रिमोट उठाये और बंद कर दे टी.वी.। कोई आपसे शिकायत तो करने आ नहीं रहा है। लड़ाई झगड़ा चैनल पर अच्छा नहीं लगा सो बंद कर दिया टी.वी., बस। क्या कर लेगा कोई।
दरअसल हम जो देखना चाहते हैं, टी.वी. अब वह नहीं दिखाते हैं। हमें अब वही देखना है जो टी.वी. के चैनल चाहेंगे। सार यह कि अपनी आदत और अपनी रूचि हमारे मुताबिक बदल डालिये। वरना आप वहीं के वहीं रहेंगे। अविकसित देश के वासी, छीः छीः। दुनियां संचार क्रान्ति में प्रवेश कर चुकी है। पूरी दंनिया एक गांव में तब्दील होती जा रही है। और तो और इस पूरी दुनियां को मुठ्ठी में बंद करने का फलसफा भी आ चुका है। ऐसे में अब उस आम आदमी जिसे वोटर, कस्टमर, नागरिक, जनता कहते है, समय समय पर उसकी ताकत के लिए बड़े बड़े कसीदे पढ़े जाते है, उसके मनोरंजन के लिए हम इतना भी नहीं कर सकते कि हम जो चाहें वह देखें और जितना चाहें उतना उसे दिखायें। इसमें खलल क्या ? इसलिए कि संचार क्रान्ति के दौर से हम बावस्ता हो रहे है। चुनांचे इसे देख कर नाक-भौं सिकोड़ने वाले कितने है?
अब वह मासूम कल संचार क्रान्ति में प्रवेश करेगा। तो अभी जो उसे अबूझ-सा है, वह सब सामान्य-सा लगेगा। वह इस खोल में ढल जायेगा। ढलना उसकी मजबूरी कहें या नियति या फैशन, जो भी हो। अभी एक चैनल पर एक बुद्धिजीवी को झेल रहे थे कि हमारे सिस्टम में अब वह इनर्जी नहीं है। अब मेरी समझ में गोया यह नहीं आया कि सिस्टम जब उनके समय था तो इनर्जी थी, उनके हटते ही यह इनर्जी कहां गायब हो गई ? चैनल पर परोसी जाने वाली ऊब से निपटने के लिए रिमोट की बटन पर अंगुली रहे तो एक दिन सब सही हो जायेगा।
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आर के भंवर
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