अरे दीपक! तू यहाँ क्या कर रहा है?

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लघुकथाएँ - सीताराम गुप्ता अवमूल्यन दीपक जब पुरस्कार लेने के लिए स्टेज की ओर बढ़ा तो सारा हाल तालियों की गड़गड़ाहट से गूँज उठा। शिक्षामंत्र...

लघुकथाएँ

sitaram gupta- सीताराम गुप्ता

अवमूल्यन

दीपक जब पुरस्कार लेने के लिए स्टेज की ओर बढ़ा तो सारा हाल तालियों की गड़गड़ाहट से गूँज उठा। शिक्षामंत्री से पुरस्कार ग्रहण करने के बाद दीपक जैसे ही अपने स्थान पर वापस जाने के लिए मुड़ने लगा शिक्षा  निर्देशक ने उसकी बाँह थाम ली और शिक्षामंत्री से मुखातिब होकर कहा, ''सर, दीपक हमारे विभाग के अत्यंत योग्य, प्रतिभाशाली और विनम्र युवा शिक्षक हैं। हमारे विभाग को दीपक पर सचमुच गर्व है।`` शिक्षामंत्री ने दीपक की पीठ थपथपाई और पुन: हाथ मिलाया। फोटोग्राफरों के कैमरों के फ्रलैश से वातावरण पुन: जगमगा उठा। दीपक अत्यंत नम्रता से झुककर सबका अभिवादन करके खामोशी से अपनी सीट पर आकर बैठ गया। कार्यक्रम की समाप्ति पर सब लोग बाहर निकलने लगे। इसी दौरान हाल के अंदर ही दीपक को एक पुराने सहकर्मी मिल गये। दीपक ने उनका यथोचित अभिवादन करते हुए अपना हाथ उनकी तरफ बढ़ाया। सहकर्मी ने अभिवादन का उत्तर देना और हाथ मिलाना तो दूर अत्यंत उपेक्षा और लापरवाही से पूछा, ''अरे दीपक! भई तू यहाँ क्या कर रहा है?”

दीपक को लगा जैसे हाथ में पकड़ी हुई उसकी शील्ड धीरे-धीरे खिसकती जा रही है। उसने शील्ड पर अपनी पकड़ मजबूत कर उसे थोड़ा छिपाते हुए इतना ही कहा कि सर बस यूँ ही चला आया था कि आप जैसे महानुभावों से मुलाकात हो जाएगी।

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मिजाजपुर्सी

मैं जैसे ही घर पहुँचा तो पता चला कि मेरे पीछे से माँ की तबीयत बहुत खराब हो गई थी। आज ही कुछ ठीक हुई है। मैं एक हफ्त़े के लिए बाहर गया था। छत्तीसगढ़ के दूर-दराज एक गाँव में संपर्क का कोई साधन नहीं था जिससे मुझे माँ की बीमारी के बारे में पता चल जाता वो भी आज से पन्द्रह साल पहले। आज तो गाँवों में भी घर-घर टेलीफोन लग गए हैं लेकिन यदि उस दूर जंगल के एक गाँव में सूचना मिल भी जाए तो वहाँ बैठा आदमी कर भी क्या सकता है। दिल्ली तक पहुँचने में दो दिन का समय लग जाता है और तब तक कुछ भी हो सकता है। खैर माँ को ठीक-ठाक देखकर तसल्ली हुई।

मैंन नहा-धोकर खाना खाने बैठा ही था कि मामा जी आ पहुँचे। आते ही मुझसे पूछा ''अजय, छत्तीसगढ़ में तो सब ठीक हैं?`` मैंने कहा छत्तीसगढ़ में तो सब ठीक हैं पर आपको कैसे पता चला कि मैं छत्तीसगढ़ गया था? कहने लगे, ''यहाँ से फोन गया था। महेश ने बताया था कि माँ की तबीयत ठीक नहीं है बीमार हैं और भाई छत्तीसगढ़ गया है।`` ''अच्छा तो आप मेरे पीछे से भी आ चुके हैं माँ से मिलने`` मैंने कहा।

''नहीं तेरे पीछे से तो नहीं आया। सोचा तू छत्तीसगढ़ से आ जाएगा तभी आऊँगा। तुझ से भी मिल लूँगा। रोज-रोज आना तो संभव नहीं होता। तीन-चार दिन की ही तो बात थी। मुझे पता चल गया था कि तेरी गाड़ी आज बारह बजे पहुँचने वाली है इसीलिए अब चार बजे आया हूँ।`` इतना कहकर मामाजी ने अत्यंत आत्मविश्वास के साथ मेरी ओर देखते हुए पूछा, ''अच्छा बता बिल्कुल सही समय पर आया हूँ न?`` फिर जैसे उन्हें एकाएक कुछ याद आ गया हो इस अंदाज में पूछने लगे, ''अब तेरी माँ की तबीयत कैसी है? डॉक्टर ने क्या कहा है?``

''मैं आया हूँ जब से माँ सो रही हैं। अभी उठेंगी तो पूछकर बताता हूँ कि तबीयत कैसी है?`` इतना कहकर मैं माँ को देखने पुन: उनके कमरे की ओर चल दिया।

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कृतज्ञता

पवन कुमार को पता है कि मुझे सांस्कृतिक कार्यक्रमों तथा कवि-सम्मेलनों में जाने का बड़ा शौक है इसलिए वह प्राय: इस प्रकार के कार्यक्रमों की चर्चा करता रहता है। पवन कुमार ने एक बार मुझसे कहा भी था, ''विजय जी किसी दिन आपको एक अच्छे कार्यक्रम में लेकर जाऊंगा।`` एक दिन दोपहर के बाद सचमुच पवन कुमार का फोन आया और उसने बताया कि आज शाम को एक रंगारंग कार्यक्रम तथा हास्यकवि सम्मेलन है। उसने मुझे भी चलने के लिए कहा। उस दिन मेरी मनोदशा कुछ ठीक नहीं थी इसलिए मैंने वहाँ जाने में विशेष रुचि नहीं दिखाई। पवन कुमार ने कहा, ''अरे विजय जी चलो भी। दूसरों को तो कहते हो कि घर से बाहर नहीं निकलते और अब खुद घर से निकलने का नाम नहीं ले रहे हो। वैसे भी छुट्टी का दिन है। कहीं ऐसा तो नहीं है कि आपको मेरे साथ चलने में कोई आपत्ति है?” ''नहीं पवन ऐसा कुछ नहीं है। अच्छा बताओ कार्यक्रम कहाँ है और उसके आयोजक कौन हैं?” मैंने पवन को आश्वस्त करते हुए पूछा।

पवन कुमार ने कहा कि आयोजक अपने खास दोस्त और रिश्तेदार ही हैं और कार्यक्रम स्थल का पता बता दिया। कार्यक्रम एक धर्मशालानुमा स्थान पर था जो एक रिहायशी बस्ती के बीचोंबीच स्थित था। पता भी कुछ ठीक से नहीं बताया गया था अत: वहाँ तक पहुँचने में काफी परेशानी हुई। आसपास की कई बस्तियों के चक्कर लगाने पड़े। कार्यक्रम शुरू हुआ। पहले रंगारंग कार्यक्रम और उसके बाद हास्य कवि सम्मेलन। कवि सम्मेलन में कविताएँ तो नहीं थीं हाँ चुटकुले जरूर थे। कवि सम्मेलन न सही चुटकुला-सम्मेलन ही सही। चलो हँसने-हँसाने का मौका तो मिला। कार्यक्रम की समाप्ति पर काफी हल्का-फुल्का अनुभव कर रहा था।

पवन कुमार परिवार सहित आए हुए थे। परिवार सहित ही नहीं रिश्तेदारों सहित कहना ज्यादा ठीक होगा। वापसी में मैंने कहा कि चलो मैं छोड़ देता हूँ आप सबको घर तक। पवन कुमार ने कहा कि इससे अच्छी तो बात ही नहीं और वो अपने परिवार के सदस्यों को बुलाने चले गए। उनकी पत्नी और बच्चों से तो मैं थोड़ा परिचित था लेकिन कुछ अपरिचित चेहरे भी गाड़ी में बैठने लगे। पवन कुमार ने कहा, ''विजय जी अगर दिक्कत न हो तो इन बच्चों को भी हमारे घर के पास छोड़ देना। मेरे एक रिश्तेदार के बच्चे हैं।`` मैंने कहा कि इसमें दिक्कत की क्या बात है छोड़ देंगे इनको भी। कुल मिलाकर नौ लोग सवार हो गए। पवन कुमार का घर मेरे घर से विपरीत दिशा में था और उसके रिश्तेदार का घर वहाँ से पाँच-छ: किलोमीटर और आगे। पहले उनके रिश्तेदारों को छोड़ने गए। वहाँ पहुँचते ही सब लोग घर के अंदर चले गए। पवन कुमार ने मुझसे भी अंदर आने को कहा पर मैंने कहा, ''नहीं देर हो जाएगी। आप लोग भी जरा जल्दी करना।“ सब लोग जल्दी ही अर्थात् आध घण्टे के अंदर ही आ गए। चलने लगे तो एक लड़की ने शोर मचा दिया कि मेरा सामान तो घर के अंदर ही छूट गया। लड़की अपना सामान उठाने फिर अंदर चली गई और जब वह काफी देर तक नहीं आई तो एक-एक कर बाकी सभी लोग भी अंदर चले गए। इस बार सब लोग सचमुच जल्दी आ गए थे। केवल पंद्रह मिनट लगे थे छ: लोगों को आने में।

वहाँ से चलने के बाद पाँच मिनट में हम पवन कुमार के घर के सामने थे। पवन कुमार ने अत्यंत कृतज्ञतापूर्वक कहा, ''विजय भाई आपने रात को इतना कष्ट दिया और इन बच्चों ने भी आपको काफी लेट करवा दिया। आपका बहुत-बहुत धन्यवाद!`` उनकी पत्नी भी कम कृतज्ञ नहीं थी। उन्होंने कहा, ''भाई साहब इतनी रात को आपने बेकार कष्ट किया। चालीस रुपये लगते हैं यहाँ तक के। आराम से ऑटो में आ जाते।`` एक यहाँ तक एक आगे तक मैं क्या जवाब देता? हाँ घर पहुँचते-पहुँचते पुन: वही मनोदशा हो गई थी जो जाने से पूर्व थी। कवि सम्मेलन कहीं पीछे छूट गया था। मुझे लग रहा था कि सांस्कृतिक कार्यक्रमों और कवि सम्मेलनों की नहीं चुटकुलेबाजी की ही ज्यादा जरूरत है। मैं कार्यक्रम में प्रस्तुत चुटकुलों को याद करने का प्रयास करने लगा। अचानक अपने साथ घटित होने वाले चुटकुले पर ही मुझे जोर की हँसी आ गई।

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प्रवंचना

रात करीब ग्यारह बजे मनोज का फोन आया। उसने कहा, ''सॉरी टू डिस्टर्ब यू सो लेट आनंद जी। मैं जानना चाहता था कि क्या आपकी भतीजी की कहीं बात बनी?`` मैंने ही मनोज को अपनी भतीजी के लिए कोई अच्छा-सा लड़का बताने के लिए कहा था। मनोज को याद था और उसने इसी बारे में जानने के लिए इतनी रात को फोन किया था। मैंने उसे बताया कि मेरी भतीजी का रिश्ता अभी तक तै नहीं हुआ है। मनोज ने कहा कि उसकी नजर में एक बहुत अच्छा लड़का है। उसने एक-दो दिन के अंदर-अंदर उस लड़के का बायोडाटा भिजवाने की बात कही।

फिर मनोज ने बताया कि इस बार ''वैल्दी वर्ल्ड`` में वो मेरे दो लेख एक साथ प्रकाशित कर रहा है। अभी संपादकीय नहीं लिख गया है वरना पत्रिका अभी तक आ चुकी होती। फिर मुझसे कहने लगा, ''आपके पास समय हो तो आप लिख दो।`` मैंने असमर्थता व्यक्त की और साथ ही कहा कि मैं भला दूसरे के लिए क्यों लिखूँ? ''नहीं ऐसी कोई बात नहीं। कोई न कोई तो लिखता ही है। आप जरा अच्छा लिख देंगे इसलिए आपसे कह रहा हूँ``, मनोज ने कहा। ''कल दोपहर तक लिख लो, मैं खुद आकर ले जाऊंगा और आपको लड़के का बायोडाटा भी दे जाऊंगा,`` मनोज ने आगे कहा। ''मैं निरूत्तर और मौन था। मेरे मौन का अर्थ समझकर मनोज ने कहा, ''ठीक है आनंद जी! कल दोपहर को मिलते हैं। नमस्कार! शुभरात्रि!``

मैं सारी रात किताबें उलटता-पलटता रहा तब कहीं जाकर सुबह के साढ़े चार-पाँच बजे तक 'कुछ` लिख पाया। सुबह देर से उठा। चाय पीने के लिए कप हाथ में उठाया ही था कि दरवाजे की घंटी बजी। मनोज ही था। अंदर आकर मनोज मेरे लेखों की तारीफ के पुल बाँधने लगा। मैंने रात का लिखा हुआ उसके हवाले कर दिया और प्रश्नसूचक दृष्टि से मनोज की ओर देखा। ''सॉरी आनंद जी! उस लड़के का रिश्ता तो पक्का हो चुका। कल ही हुआ है। एक और लड़का है मेरी नजर में, उससे भी अच्छा है। उसका बायोडाटा भिजवाता हूँ।`` ये कहकर मनोज खड़ा हो गया। मैंने कहा बैठो चाय तो पीओ मनोज। ''थैंक्यू आनंद जी मैं नाश्ता करके ही घर से निकलता हूँ और संपादक जी बाहर गाड़ी में बैठे हैं। हम जरा जल्दी में हैं।`` इतना कहकर मनोज मेरे उठने से पहले ही खट-खट करता हुआ दरवाजे से बाहर हो गया।

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जुगाड़

गाँव में एक बारात आई। बारात एक चौपाल में रूकी। कुछ नौजवान जिनके लिए चौपाल में बड़ों के साथ वहीं बैठकर दारु पीना संभव न था. चौपाल से एक-दो गलियाँ छोड़कर एक बैठक के सामने पड़ी चारपाई पर जा बैठे और बारात में आने का हक अदा करने में जुट गए।

अभी पहला दौर शुरू ही हुआ था कि एक बूढ़ा गु़स्से से भरा हुआ आया और बोला, ''ये खाट तुम्हारे बाप की है जो तोड़ने लग रहे हो, भाग जाओ यहाँ से।`` एक नवयुवक जो शायद थोड़ा अनुभवी था ने कहा, ''ताऊ, आ बैठ`` और अपने दूसरे साथी से कहा ''अरे भई ताऊ के लिए एक बढ़िया सा पैग बना कर दे।``

ताऊ ने खड़े-खड़े ही पैग बनाने वाले की तरफ देखकर बेहद नरमी से कहा, ''बेटे बहुत थोड़ी-सी डालिये।`` ताऊ झटपट पैग हाथ में ले, गटागट हलक के नीचे उतार, खाली गिलास एक के हाथ में थमा, फ़ौरन से पेशतर नौ-दो-ग्यारह हो गया।

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मंगलवार

एक व्यक्ति ने दुकानदार से दो रुपये का सोडा माँगा। दुकानदार ग्राहक की तरफ सोडे की पुड़िया बढ़ा ही रहा था कि पास खड़े एक छ:-सात साल के बच्चे ने आश्चर्य से कहा कि ये कैसा सोडा? दुकानदार ने कहा कि ये वो सोडा नहीं है जो तू रोज अपने पापा के लिए ले जाता है। इस पर बच्चे ने कहा, ''पर आज तो मैं सोडा लेने आऊंगा ही नहीं``

दुकानदार के ये पूछने पर कि आज तू सोडा लेने क्यों नहीं आएगा बच्चे ने कहा, ''आपको पता नहीं आज मंगलवार है!``

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संपर्क:

सीताराम गुप्ता,

ए.डी. १०६-सी, पीतमपुरा,

दिल्ली-११००३४

फोन नं. ०११-२७३१३९५४

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रचनाकार: अरे दीपक! तू यहाँ क्या कर रहा है?
अरे दीपक! तू यहाँ क्या कर रहा है?
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