- पंकज त्रिवेदी हमारी संस्कृति के व्यापक विषयों में पान खाने की परंपरा और महिमा, प्रत्येक व्यक्ति के लिए अलग-अलग है। किसी की पान खाने की ...
- पंकज त्रिवेदी
हमारी संस्कृति के व्यापक विषयों में पान खाने की परंपरा और महिमा, प्रत्येक व्यक्ति के लिए अलग-अलग है। किसी की पान खाने की इच्छा को रोकना, वह तो पान प्रेमियों के हृदय पर वज्राघात करने जैसा ही कार्य है न? पान की महिमा का उल्लेख हमारे लोकजीवन में भी देखने को मिलता है। गुजराती कवि रमेश पारेख के एक गीत में पान का संदर्भ बनारस के साथ कैसे जुड़ा है, देखें,
शेरीना छेडा पर पान नी दुकान
पान चोपडावे प्रीतम हमार
नुक्कड़ पर पान की दुकान और पान में रसपूर्वक चूना-कत्था ध्यान से लगवाने की उत्सुकता सभर प्रीतम की कल्पना ही कितनी रोमांचक है ! एक पुराने गीत की याद आती है-
पान खायें सैंया हमारो,
सांवली सूरत और होंठ लाल लाल...
पान खाने में कोई ऊंच-नीच का भेद नहीं होता। पान तो हमारी संस्कृति का अभिन्न अंग है। पान की लालिमा सिर्फ बनारस और बंगाल तक ही सीमित नहीं है, बल्कि वो तो हमारी राष्ट्रीयता के रंगों में भी घुलमिल गई है। बदलते समय के चलते हमारी युव पीढ़ी पान की सात्विकता से विमुख होकर गुटखा खाने की आदी हो गई है। जिसमें सड़ी सुपारी के साथ सुगंधित द्रव्यों का मिश्रण भले ही ललचायें, मगर उनके विकृत परिणाम हम सब भुगत रहे हैं। पता नहीं, हमारे युवक बर्बादी के मार्ग से कब लौटेंगे? पान तो कुदरत की देन है, उसे गुटखा-तम्बाकू के मिश्रण के बगैर भी खाया जा सकता है। पान का तो हमारी संस्कृति और परंपरा के अनुसार पूजा-पाठ में भी उपयोग होता है। जिस तरह पान की लज्जत का आनन्द आता है, उसी तरह पान के बारे में जानकारी प्राप्त करना भी रसप्रद होगा। किसी भी शहर में जाकर किसी का पता पूछना हो, किसी की जानकारी प्राप्त करनी हो, क्रिकेट, शेयरबाजार या कुछ भी... हम बेफिक्र होकर पान की दुकान पर पूछ सकते हैं। सौराष्ट्र में पान को गल्लो कहते हैं। हिन्दू धर्म के हवेलीपंथ के कृष्ण भक्तों के प्रसाद में पान का बीड़ा दिया जाता है। तो राजा-महाराजाओं के जमाने में किसी भी चुनौती के लिए सभा के बीच, बड़े-से थाल में पान का बीड़ा रखा जाता था। जो आदमी उस चुनौती को उठाना चाहता वह, भरी सभा में पान का बीड़ा उठाकर खा जाता। हमारे इतिहास में ऐसे कई उदाहरण मौजूद हैं और उन पर कई लोककथाएं भी !
युवाकवि रजत डैया ने एक पुरानी गुजराती पहेली याद दिलाई
कोणे हीमाळो सेवियो, कोणे सेवी आग ?
कोणे करवत मूकावी, कई राणी ने काज?
उसका जवाब –
का्ले हीमाळो सेवियो, चूने सेवी आग,
सोपारी ए करवत मूकावी, नागरवेल राणीने काज !
अर्थ - हीम जैसी ठंडक कत्थे से, चूने की आग, करवत से सुपारी कटती है और नागरबेल रानी के लिए सबकुछ किया जाता है।
पानवाले को तंबोली भी कहते हैं। कई वर्ष पहले राजकोट में एक पान की दुकान का नाम ‘भू्त तांबूल’ था, यह स्मरण हो रहा है। उस दुकान में काले-सफेद रंगों का ही प्रयोग किया गया था और उसके मालिक किसी हॉरर फिल्म के विलन जैसे दिखते थे। अनुभवी पानवाले सुबह से शाम तक कम से कम दो सौ-तीन सौ से ज्यादा ग्राहकों के विविध पान को सहजता से याद रख सकते हैं। ग्राहक को देखते ही वह पान बनाने लगते हैं। गुजरात में नागर जाति में पान अतिप्रिय होता है। उस में भी महिलाएं शाम के वक्त तैयार होकर घर की ऊंची पगथार बैठकर पान की लज्जत में डूबी देखना तो सौभाग्य की बात होती है। सुरेन्द्रनगर में मैं पान खाता हूं वहां शक्ति पान सेन्टर के मालिक हीराभाई पटेल ने एक बहन का परिचय करवाया। जो प्रतिदिन सुबह छह पान खास ब्रान्ड की तम्बाकू के साथ ले जाती हैं। आश्चर्य की बात यह है कि बहन पान खाती है और उनके पतिदेव धनियादाल भी नहीं खा्वे। फिर भी पत्नी के साथ पान लेने अवश्य जाते हैं। दीव में सेवन स्मार्ट बदर्स है। उनके पिता छियानबे वर्ष के बाद भी तम्बाकू वाला पान खाकर चौथी मंजिल पर सोने जाते हैं। भावनगर में तुषार शाह धनियादाल-तम्बाकू वाला पान खाते हैं। कैसा आश्चर्यजनक मिश्रण !
हमारे यहाँ पान के कई प्रकार हैं। जिसमें मुख्यतः बनारसी, कलकती,बंगलो, कपुरी, कला, कच्चा और पक्का पान मुख्य है। बनारस में तांबे की बड़ी तश्तरी में लाल उपरने से ढंककर पान को रखा जाता है। गुजरात में मेटल की ट्रे अथवा तांबे-पीतल और मिट्टी की कुल्हीयां तथा सण के बोरे के गीले टुकड़े लपेटकर रखा जाता है। बनारस में पान खाने के बाद मुंह लाल दिखना ही चाहिये, ऐसी मान्यता है। पान के अंदर रखे जाते द्रव्यों में वैविध्य देखने को मिलता है। कुछ जगहों पर हनीमून पान दो सौ इक्यावन रुपये में मिलता है तो दिल्ली के दरियागंज क्षेत्र में प्रिंस पान सेंटर में एक हजार रुपये का पान मिलता है। जिसे वेडिंग पान कहते है। मगर एक विदेशी पर्यटक ने उनके पुस्तक में भारत प्रवास के दौरान दिल्ली के उस पान का जिक्र करते हुए उसे बेड ब्रेकर पान नाम दिया है। उनके द्वारा किए गए शोध के आधार पर उस पान में हीपोपोटेमस के सींग का चूरा, कोकीन, ओपियम की गोली, सोने का वरक- जैसे शक्तिवर्धक द्रव्यों का उपयोग किया जाता है। जो शादी की पहली रात को जैसे दुल्हे के परफ़ॉर्मेंस के लिए वियाग्रा से भी ज्यादा असरदार साबित होता है। मगर नई-नवेली दुल्हन के लिए तो वह कष्टदायक ही सिद्ध होगी न् ? बिहार में पापड़ की तरह जल्दी से टूट जाएं ऐसे कड़क पान खानेवाले लोग ज्यादा है।
मगर चिंता आज के युवकों की है। जो सिँगार के धुएं में घोंटते हुए नजर आते हैं और गुटखा के गुलाम बन बैठे हैं। उस से भी आगे सिगार की तम्बाकू निकालकर उसकी जगह ड्रग्स को भरकर उसके नशीले कश खींचने में युवाधन खुद ही खिंचे जाते हैं। हमारे यहाँ तो स्कूल-कॉलेजों में सेक्स एज्युकेशन की बात छोड़ी गई तब केरल के शिक्षकों ने ऐसे अभ्यासक्रम को पढ़ाने का विरोध किया था। सेक्स तो पान चबाने जैसी कुदरती क्रिया है। बच्चों को भूख लगे ऐसी सहज प्राकृतिक प्रक्रिया है। नशीले पदार्थ के बगैर सात्त्विक पान भी खाया जा सकता है, उसमें गुटखा की क्या जरुरत ? स्कूल-कॉलेज के पास गुटखा बेचने पर सरकारी प्रतिबंध है मगर भविष्य की पीढ़ी तैयार करने वाले शिक्षक ही उस फतवे को चबा गएं। आनेवाली नश्ल को तंदुरुस्त बनानी है तो कायदे बनाने के साथ-साथ अमल करना भी सीखो। गुटखा बनाने वाली कंपनीयों को ही अलीगढ़ के ताले लगाने वाला कोई राजनीतिज्ञ पैदा हुआ है?
हमारे जीवन का मर्म युवापीढ़ी को समझाने के लिए कितने प्रयत्न करने होंगे ? हमारे इस दर्द का क्या? पान-गुटखा का कॉकटेल करके खानेवाले एक डॉक्टर हाल ही में केन्सर की बीमारी से मुक्त हुए हैं। उन्होंने साढ़े तीन लाख का खर्च कर दिया। ऐसा किसी सामान्य परीवार के युवक के साथ हो तो क्या करता ? जिनके आधार पर ही पूरा परिवार चलता हो, शाम के वक्त पति के ईन्तजार में खडी पत्नी हो और पति केन्सर के भंवर में परिवार को डुबो दे तो क्या करें ? एक गर्ल्स स्कूल की महिला प्रिन्सिपल को मस्ती से गुटखा हजम करती मैंने देखी है। धनवान और आबरुदार महिलाएं गुटखा, शराब और सेक्स के लिए कुछ भी करती है।
पान के बारे में मजे की बात यह है कि कर्णाटक के कसरागोड़ से केरल तक के क्षेत्र में सुपारी का उत्पाद सबसे ज्यादा होता है, फिर भी सुपारी यहाँ बिलकुल कम खाई जाती है। सुपारी को विशिष्ट तरीके से काटी जाती है। इंदौर में एम.जी.रोड पर सम्राट हॉटल के पास ही समग्र भारत का भव्य शो-रूम सुपारी का ही है। जिसमें करीब डेढ़ सौ प्रकार की खुश्बूदार, विविध रंगों और आकारों वाली सुपारी मिलती है। जो मख्खन-घी में फ्राय की जाती है। सुपारी की स्लाईस, रफ्फ, सेवधर्न, चूरा, टुकड़ा -जैसी कटिंग होती है। पान और सुपारी की बात हो गई है तो सरौता को कैसे भूलें? सौराष्ट्र-कच्छ में तो अंजार शहर के छोटे-बड़े नक्काशीदार, मीनाकारी वाले सरौते का आकर्षण विदेशी पर्यटकों के लिए भी है। जिसमें मोर-तोता के आकार और छोटी-सी घंटी भी लगाई जाती है।
लड्डू खाने के लिए ब्राह्मण हमेशा अग्रसर रहे हैं। सौराष्ट्र में तो हलवद, राजकोट और मोरबी जैसे शहरों में लड्डू भोजन की होड़ लगाई जाती है। उसमें हलवद के ब्राह्मणों की छवि तो सबसे बढ़िया है। पुराने लोग देसी तम्बाकू-चूना का सेवन करते थे। पान में देसी तम्बाकू का सेवन करने से भोजन आराम से हजम होता है और चूने के कारण केल्शियम मिलता है, जो दांतों को मजबूती देता है। पान हमारी सांस्कृतिक विरासत का हिस्सा है, जो हमारे धर्म और समाज के साथ आदिकाल से जुड़ा हुआ है। वह प्रकृति का प्रतीक है और प्रकृति तो सात्विक होती है। हम भी ऐसी सात्विकता के साथ पान का लुत्फ उठायें तो जीवन का मर्म जरुर पकड़ पाएंगे।
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संपर्क:
पंकज त्रिवेदी
हर्ष, गोकुलपार्क सोसायटी, ८० फूट रोड, सुरेन्द्रनगर -३६३००२ गुजरात - भारत
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चित्र - साभार dkimages.com
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