कहानी -अपना अपना तर्क -शैलेन्द्र चौहान बात उन दिनों की है जब मैं बी.एससी. प्रथम वर्ष में पढ़ता था. मेरा एक अभिन्न मित्र था अखिलन, बहुत सं...
कहानी
-अपना अपना तर्क
-शैलेन्द्र चौहान
बात उन दिनों की है जब मैं बी.एससी. प्रथम वर्ष में पढ़ता था. मेरा एक अभिन्न मित्र था अखिलन, बहुत संकोची और संवेदनशील बदनामी से वह बहुत डरता था. एक दिन पेड़ों से पत्ते झड़-झड़ कर कॉलेज के मैदान में इकट्ठे हो रहे थे. बड़ी मादक हवाएँ चल रहीं थीं, ऐसे में खाली पीरिएड में अखिलन और मैं गुलमोहर के पेड़ के नीचे बैठे थे. अखिलन बहुत व्यग्र और डिप्रेस्ड था, शायद आने वाली परीक्षाओं की वजह से वह कुछ कह नहीं पा रहा था. इतने में अगले पीरिएड की घंटी बजी, हमारा यह पीरिएड भी खाली था. अत: हम जमीन से कंकड़ चुन-चुन कर बेवजह ही निशाने साधते रहे. बी.ए. प्रथम वर्ष की कक्षाएँ समाप्त हो गई थीं. आर्ट्स के लड़के-लड़कियाँ क्लास रूम से बाहर आ रहे थे. बी.ए. प्रथम वर्ष में एक लड़की थी श्वेता, अखिलन को वह बहुत पसंद थी. मैं देख रहा था अखिलन की निगाहें उसी के क्लासरूम पर टँगी थी. पहले लड़के निकले फिर लड़कियाँ, श्वेता सबसे पीछे थी. अखिलन ने एक बार चोर निगाहों से देखा फिर निगाहें झुका लीं. श्वेता जैसे-जैसे आगे बढ़ती गई अखिलन वैसे-वैसे कछुए की तरह अपने में सिमटता गया. मैंने उसकी तरफ देख कर कहा, देख वह तेरी श्वेता जा रही है उसके चेहरे पर आनंद की रेखा खिची और लुप्त हो गई. श्वेता हम लोगों को बिना देखे आगे निकल गई. वह उसके पैरों की लय का पीछा करता रहा थोड़ी दूर जाकर श्वेता एकाएक धीरे से मुड़ी, एक नजर हमारी तरफ देखकर अन्य लड़कियों के साथ आगे बढ़ गई. देख उसने भी तेरी तरफ देखा मजा लेने के लिए मैंने यह बात कही थी, मैं जानता था उसे यह बात अच्छी लगेगी.
कोई महीने भर बाद हम लोगों की परीक्षाएँ थीं. पंद्रह दिनों बाद प्रिपरेशन लीव होने वाली थी, इधर वह श्वेता को लेकर कुछ ज्यादा ही सीरियस हो गया था. मुझे लगा यह तो गड़बड़ है अभी तक मैं उसका मन रखने के लिए और अपने मजे के लिए उसे शह दे रहा था, अब मुझे लगने लगा कि उसे रोकना चाहिए. प्रिपरेशन लीव अगले दिन से शुरू होने वाली थीं और अखिलन यह सोच-सोच कर परेशान हो रहा था कि इतने दिनों तक वह श्वेता को देख नहीं पाएगा . मुझे भी उसने अपनी यह परेशानी बताई मैंने सोचा, यही सही वक्त है, जब इसे एक डोज दी जा सकती है तुम एकदम पागल हो, परीक्षाएँ सिर पर हैं और तुम पर आशिकी का भूत सवार है, अरे यह तुम्हारा वन वे ट्रैफ़िक है, श्वेता तुम्हारे बारे में जानती ही क्या है ? अखिलन हतप्रभ था, वह क्रोध, अपमान और शर्म से ढका जा रहा था सर नीचे किए कुछ देर चुपचाप बैठा रहा, फिर उठ कर चल दिया. मैंने पुकारा भी, लेकिन उसने पलट कर देखा तक नहीं मुझसे इस बात की उसे कतई उम्मीद नहीं थी, मेरे इस तरह पलटा खाने से वह चकित था.
पंद्रह दिनों की प्रिपरेशन लीव में हम सिर्फ दो बार मिले, वह भी तब जब मैं उसके घर गया. पहले तो वह मुझसे मिले बिना एक दिन भी नहीं रह सकता था, पूरे दिन की छोटी-बड़ी सारी बातें जब तक वह मुझसे नहीं कह देता उसे चैन नहीं पड़ता. और अब जब मैं उसके घर गया तो बड़े अनमने भाव से आकर सामने बैठ गया, चुपचाप, खोया-खोया, कोई बात नहीं की, मैंने कुछ कहना चाहा तो उसमें कोई दिलचस्पी नहीं ली. थोड़ी देर बैठ कर मैं चला आया.
जैसे-जैसे परीक्षाएँ पास आती गईं, उसने अपने आप को सँभाला. परीक्षाओं में हमारी रोज मुलाकात होती. मुझे लगा अब वह सामान्य हो गया है. परीक्षाएँ समाप्त हो गईं तो वह अपने गाँव चला गया. मैं लायब्रेरी में सुबह शाम समय काटने लगा.
छुट्टियाँ समाप्त हो रही थीं, रिजल्ट भी आने वाला था. मैं रिजल्ट और अखिलन दोनों का इंतजार कर रहा था. अखिलन के आने से पहले ही रिजल्ट डिक्लेयर हो गया. हम दोनों उत्तीर्ण हो गए थे मैंने उसे एक कार्ड भेजा, साथ ही टेलिग्राम भी कर दिया. यह सोचकर कि कार्ड न भी मिले, टेलिग्राम तो मिल ही जाएगा एक हफ्ते बाद वह वापस लौटा.
फिर कॉलेज शुरू हुए, फिर गुलमोहर के पेड़ के नीचे हम बैठने लगे. कुछ दिनों बाद वह अचानक पूछ बैठा, श्वेता भी सैकेंड इयर में चली गई होगी मैंने उसकी तरफ आश्चर्य से देखा, वह झेंप गया मैं मुस्कराया, जाहिर है इतनी बुद्धू तो नहीं होगी वह. हमारी बातें चल ही रही थीं कि श्वेता कॉलेज की तरफ आती दिखाई दी. अखिलन ने श्वेता को देखा, श्वेता ने भी एक उचटती निगाह हमारी तरफ डाली और कॉलेज बिल्डिंग की तरफ बढ़ गई. दिन गुजरते रहे. वह श्वेता के बारे में जानकारी लेने को बेताब रहता, चोरी-छिपे उसका पीछा करता. उसने उसके घर-परिवार के बारे में पता कर लिया, कहाँ जाती है, किस-किस से मिलती है, क्या करती है, कहाँ रहती है लेकिन ये सारी सतही बातें थीं, इन से वह यह नहीं जान सकता था कि उसके दिल में क्या है? और उसके बारे में उसकी राय क्या है? यह पता करना बहुत ही मुश्किल था. इसी उधेड़बुन में वह उलझा रहता था . एक दिन वह बोला, तुम मेरी मदद नहीं कर सकते ?
“मैं क्या कर सकता हूँ.” मैंने जानना चाहा.
थोड़ी देर खामोश रहकर धीरे से बोला, “मैं अगर उसके नाम चिट्ठी लिखूँ तो?”
“देख लो, अगर तुम चाहते हो तो लिख डालो.”
वह डिप्रेस्ड था, डर भी रहा था “अगर कुछ हो गया तो ?”
“क्या होगा.”
“कुछ भी- - -,अगर वह चिट्ठी अपने बाप या भाई को दिखा दे, या प्रिंसिपल को ही दे दे.”
“हाँ रिस्क तो है.”
वह बहुत अधीर था, किसी भी तरीके से पता लगाना चाहता था श्वेता के मन की बात मेरी कुछ मदद करो, मेरी तो कुछ समझ में नहीं आ रहा है, दिन-रात बस श्वेता ही श्वेता सोचता रहता हूँ.
उसकी बातों ने मुझे भी डिस्टर्ब कर दिया, बड़ी परेशानी है, यह तो बेमतलब बावला हो गया है. मैंने उसे टाला, “ठीक है कल कुछ सोचेंगे, अभी दिमाग काम नहीं कर रहा है.”
दूसरे दिन जब मैं कॉलेज के लिए घर से निकला तो रास्ते में मुझे उसके झमेले की याद हो आई, शायद आज भी वही सब होगा. मुझे झुँझलाहट होने लगी . मन में आया क्यों न दो थप्पड़ रसीद कर दिए जाएँ मजनू जी को अजीब लफड़े में फँसा है, अब मुझे भी सहयोगी बनाना चाहता है. दूसरी तरफ मुझे उस पर रहम भी आ रहा था. मैं उसे कुछ भी समझा पाने में असमर्थ था क्योंकि वह कुछ समझना ही नहीं चाहता था. अत: मैंने तय किया कि उससे कहूँगा, तू चिट्ठी लिख के श्वेता को दे दे, जो भी होगा देखा जाएगा.
मैं आज थोड़ा लेट हो गया था. मेरे पहुँचने के पहले ही पीरिएड लग चुका था. मैं धीरे से क्लास रूम की तरफ बढ़ा, मे आई कम इन सर? यस! मैंने राहत की साँस ली मैथेमेटिक्स का पीरिएड था, डांगे सर इंटिग्रल केलकुलश पढ़ा रहे थे. पीरिएड खत्म हुआ, फिजिक्स और फिर केमिस्ट्री, लगातार तीन पीरिएड थे अत: मैं अखिलन से बच पा रहा था.
तीनों पीरिएड खत्म होने के बाद हम लोग साथ ही बाहर निकले. उसकी आँखों में प्रश्न था, क्या सोचा? मैंने थोड़ा रुक-रुक कर कहा, देख मुझे तेरे इस अफेयर में कोई इन्टरेस्ट नहीं है, तुझे जो जमे सो कर मैं अंदर ही अंदर डर रहा था, वह बिफर पड़ेगा, नाराज हो जाएगा, पर वह चुप रहा हम लोग चुपचाप चलते रहे. थोड़ी देर बाद वह बोला, चलो कैंटीन में बैठकर कुछ बातें करते हैं.
ठीक है. उसका जवाब था. हम कैंटीन की तरफ मुड़ गए, उसने दो कप चाय का ऑर्डर दिया. आज वह काफी कांफिडेंट दिख रहा था. “क्या तुम किसी के प्रति अट्रैक्ट नहीं होते ?”
“ओ नहीं”
“सच नहीं बोल रहे हो, छिपा रहे हो”
वह यकीन नहीं कर रहा था. नहीं छिपाने को कुछ है ही नहीं, यह शत-प्रतिशत सच है. मैं अपनी बात पर अड़ा था.
“झूठ !,मैं दावे से कह सकता हूँ, तुम झूठ बोल रहे हो”
“वो कैसे ?”
“तुम कविताएँ लिखते हो”
“पर प्रेम कविताएँ नहीं लिखता”
“मुझे पता है तुम बड़े क्रांतिकारी हो”
मैंने समझाया, देखो इस बहस से कोई फायदा नहीं, तुम ऑफेन्सिव हो रहे हो, चाय पियो और चलो
चलना तो है ही, पर मेरी एक बात ध्यान से सुनो, तुम मुझसे भी ज्यादा कायर और डरपोक हो, तुम कभी प्रेम नहीं कर सकते. वह आवेश में आ गया था. मैंने शांति से कहा, बस यही कहना चाहते थे, निकल गई तुम्हारी भड़ास, अब चलो. चाय के पैसे देकर हम दोनों चल दिए, रास्ते भर चुप रहे. एक मोड़ पर आकर,बाय कह कर अपने-अपने घर की तरफ मुड़ गए. मैं रास्ते भर सोचता रहा, उसने जो भी कहा सच ही कहा, चलो माना मैं कायर और डरपोक हूँ. रही बात प्रेम करने की, तो प्रेम की असफलता सहन कर पाने का मुझमें साहस कहाँ ? और अगर साहसी भी होता तो मैं क्या कर सकता था. क्या अखिलन का पत्र श्वेता को पहुँचाता ? बड़ी अजीब बात है, जो काम वह खुद नहीं कर सकता, मुझमें अपराध बोध पैदा कर मुझसे कराना चाहता है. अखिलन की इस बेचारगी पर मैं लगातार दुखी होता रहा.
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व्यंग्य
पोथी लिख-लिख जग मुआ लेखक भया न कोय
- शैलेन्द्र चौहान
तुम्हारी कविताएं मिलीं, कविताएं अच्छी हैं पर कम हैं. चुनी हुई बेहतर कविताएं दी जा सकें इसलिए कुछ और कविताएं भेजो क्योंकि एक साथ अच्छी चार पाँच कविताओं से ही प्रभाव निर्मित होता है. उम्मीद है शीघ्र ही रचनाएं भिजवाओगे. पत्रिका समय से निकालने में बहुत मेहनत करनी पड़ती है, सारे काम खुद ही करने पड़ते हैं . यह तो तुम्हें पता ही है. आजकल छपाई और पोस्टेज कितना अधिक महंगा है. पत्रिका निकालने में खर्च काफी हो जाता है. विज्ञापन मिलते नहीं हैं, ग्राहक भी बहुत नहीं बन पाते. बस तुम्हारे जैसे कुछ समर्थ मित्रों के सहयोग से और शेष अपनी जेब से पैसे लगाकर पत्रिका निकालता हूँ. पिछले पाँच अंकों से घाटा बहुत बढ़ गया है, कर्ज भी हो गया है. अत: उम्मीद है तुम कुछ विज्ञापन वगैरह दिलाकर आर्थिक मदद कर सकोगे. कुछ ग्राहक भी बना सको तो अच्छा रहेगा, तुम स्वयं तो ग्राहक बन ही जाओगे ऐसी उम्मीद है. कुछ प्रतियाँ अपने शहर के बुक स्टाल पर रखवा सको तो बहुत अच्छा हो, वैसे पाँच-दस प्रतियाँ तो तुम स्वयं भी निकाल सकते हो. तुम्हारी ही पत्रिका है. चार-छ: अच्छी कविताएं और भेज दो. चुनकर चार-पाँच कविताएं छाप दूँगा. शेष ठीक है, विज्ञापन के लिए अवश्य प्रयत्न करना. अपना सहयोग भी भिजवाना. कविताएं जल्दी ही भेजना. प्रसन्न होओगे, शुभकामनाओं सहित,
तुम्हारा
सम्पादक
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आदरणीय सम्पादक जी
आपका कृपापत्र पाकर अत्यधिक प्रसन्नता हुई. मेरी कविताएं आपको अच्छी लगीं यह मेरा परम सौभाग्य है. आप उद्भट विद्वान हैं, समर्थ निर्णायक हैं. अच्छी कविताओं के मामले में आप सचमुच एक पहुँचे हुए जौहरी हैं. मैं अपनी दस कविताएं और भेज रहा हूँ, इनमें से और पहले भेजी हुई पाँच कविताओं में से पाँच छह कविताएं छाँट लें वैसे मेरे विचार से वह कविता जो पहले मैंने आपको भेजी थी नागरिक पराभव वाली, बढ़िया बन गई है उसे थोड़ा हाइलाइट करें, यह मेरी प्रार्थना है. मैं शीघ्र ही दो विज्ञापन भिजवा रहा हूँ. साथ ही अपना चन्दा भी. अंक छपने पर दस प्रतियाँ भिजवा दें, मैं निकलवा दूँगा शहर के बुक स्टाल पर भी बात की है, वहाँ फिलहाल पाँच प्रतियाँ भिजवाएं, बिक जाने पर और बात की जा सकती है.
आपका कहानी संग्रह कड़वे नीम की तीन पत्तियाँ जो बटमार प्रकाशन से आया है, बहुत ही महत्वपूर्ण है. बहुत समृद्ध कहानियाँ हैं उसमें, मनोवैज्ञानिक स्तर पर बहुत अच्छा विश्लेषण है. चरित्रों का चरित्र एकदम जीवंत हैं, जैसे आसपास ही घूम रहे हों, क्या पकड़ है आपकी संग्रह की सर्वश्रेष्ठ कहानी है. चोली घाघरा अद्वितीय है. यह ये कहानियाँ एकदम जैनेन्द्र की टक्कर की कहानियाँ हैं. बल्कि कहीं-कहीं तो जैनेन्द्र की कहानियाँ आपके सामने दब सी जाती हैं. इस वक्त के आप सर्वश्रेष्ठ कथाकार हैं, कोई और तो इन दिनों आपके पासंग भी नहीं ठहर पा रहा है. मैं इस कहानी संग्रह पर अपने शहर में एक बड़ी गोष्ठी कराना चाहता हूँ, आप तो पधारेंगे ही, सुविधानुसार तारीख तय कर दें. विस्तृत कार्यक्रम अगले पत्र में लिखूँगा स्वस्थ एवं प्रसन्नचित्त होंगे पत्रोत्तर की प्रतीक्षा में :--
आपका स्नेह भाजन
कवि
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प्रिय कवि,
तुम्हारा पत्र एवं कविताएं आज ही मिलीं. कविताएं बहुत अच्छी हैं, अपार सम्भावनाएं हैं तुम्हारी कविताओं में पत्रिका के इस अंक में ये कविताएं दे रहा हूँ. नागरिक पराभव वाली कविता बहुत सहज एवं सरल कविता है, तुम्हें पसंद है तो मैं इसे अवश्य ही हाइलाइट करूँगा. मैं स्वयं तुम्हारी कविताओं पर टिप्पणी लिख रहा हूँ.
जानकार पांडेय जो महान साहित्य आलोचक हैं, अपने मित्र ही हैं, उनसे भी लिखवाऊँगा. किसी दिन शाम को ड्रिंक्स पर बुला लेता हूँ उन्हें, उस दिन अगर तुम भी आ सको तो और भी अच्छा रहेगा. उनसे बात करके दिन तारीख तुम्हें सूचित करूँगा. तुम्हारे भेजे दोनों विज्ञापन प्राप्त हो गए हैं, जब आओ तो पैसे भी लेते आना, अगले माह ही छप जाएंगे. उम्मीद है कुछ और भी विज्ञापन दिला सकोगे. शेष फिर सानंद होओगे. शुभकामनाओं सहित --
तुम्हारा
सम्पादक
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पूज्यनीय सम्पादक जी
शत् शत् नमन !
आपका स्नेह, अपनत्व और कृपा से पूर्ण पत्र पढकर आत्मा तक आनंद की कौंध व्याप्त हो गई. मैं तो प्रसन्नता के मारे सचमुच कुछ सोच ही नहीं पा रहा हूँ. आप और जानकार पांडे दोनों मेरी कविताओं पर टिप्पणी लिख रहे हैं, यह तो अद्भुत है. मुझे तो यह सुखद सपना प्रतीत हो रहा है. सम्पादक जी यह सब आपकी ही कृपा है, आपसे परिचय के बिना यह सब संभव नहीं था. आप निश्चित ही महान और कृपालु व्यक्तित्व के धनी हैं. मैं आपके और पांडेय जी के दर्शनलाभ से अवश्य ही कृतार्थ होना चाहूँगा. आप दिन तिथि की सूचना दें, मैं अवश्य ही पहुँच जाऊँगा. विज्ञापन वाले चेक भेज रहा हूँ, कुछ और भी शीघ्र ही इंतजाम करूँगा. अपना आजीवन सदस्यता शुल्क भिजवा रहा हूँ, साथ ही दस सदस्यों की सदस्यता भी आपके व्यक्तित्व, रुचियों और अरुचियों के बारे में जानना चाहता हूँ आपके दर्शनों की प्रतीक्षा में --
आपका, सादर
अकिंचन
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प्रिय कवि,
सदैव प्रसन्न रहो !
तुम निश्चित ही प्रतिभाशाली हो, तुममें अनन्त सम्भावनाएं हैं मैं तुम्हारी गम्भीरता और मेहनत की कद्र करता हूँ . तुम्हारे टेलेन्ट को सामने आना चाहिए जानकार पांडेय से बात हो गई है, अगले सप्ताह सोमवार को तुम्हें आना है. जानकार पांडेय इन दिनों कई पुरुस्कार समितियों के सदस्य हैं, हो सकता है कोई पुरुस्कार भी तुम्हें दिलवा सकें. सुना है तुम्हारे यहाँ केशर-कस्तूरी अच्छी मिलती है, साथ में दो बोतल लेते आना, अँग्रेजी की व्यवस्था हम यहीं से कर लेंगे. शेष मिलने पर और हाँ, मेरी कहानी पुस्तक गोष्ठी के लिए भी यहीं पक्का कार्यक्रम बना लेंगे. स्वस्थ एवं प्रसन्न होओगे
तुम्हारा
सम्पादक
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महानगर से लौटने के बाद इन दिनों कवि ने अपने कस्बे को काफी साहित्यिक सक्रियता बख्शी है. इधर वह हर मिलने जुलने वाले से अपने और पत्रिका के सम्पादक के घनिष्ठ सम्बंधों की चर्चा गर्व से करने लगा है. जानकार पांडेय को तो उसने अपना गुरू घोषित कर दिया है. पत्रिका सम्पादक की कहानी पुस्तक कड़वे नीम की तीन पत्तियाँ वह कस्बे के हर व्यक्ति की जबान पर चस्पा कर देना चाहता है. गोष्ठी के लिए वह जी तोड़ मेहनत कर रहा है. व्यापक स्तर पर बड़ी गोष्ठी का आयोजन करना है. ऐसी जैसी उस कस्बे में पहले कभी न हुई हो. इलाके के एम एल ए और आबकारी मंत्री को वह गोष्ठी में मुख्य अतिथि बनाना चाहता है, सो दिन-रात सघन संपर्कों के चक्कर काट रहा है.
इस माह की पत्रिका ध्वंस में कवि की छ: कविताएं मय फोटो के महत्वपूर्ण ढ़ंग से छापी गईं हैं, साथ में दो वजनदार टिप्पणियाँ भी हैं. सम्पादक ने कवि को इस दशक का सर्वश्रेष्ठ कवि घोषित किया है. आलोचक जानकार पांडेय ने तो कवि को हिन्दी का ईलियट बता दिया है. महानगर से कस्बे तक कवि की चर्चा साहित्यिक
बिरादरी में हो रही है. उम्मीद है इस वर्ष कोई न कोई पुरुस्कार कवि को अवश्य मिल जाएगा.
कस्बे में ध्वंस सम्पादक की कहानी पुस्तक कड़वे नीम की तीन पत्तियाँ पर एक बड़ी गोष्ठी का आयोजन सम्पन्न हुआ. आबकारी मंत्री बावजूद स्वीकृति के नहीं आ पाए एम एल ए ने उद्घाटन करते हुए कहा हमारे सहर का ई लौण्डा बहुत बड़ा साहित्यकार हुई गवा है. इन दिनों ई ने हमार बहुत सेवा की है. हमार नाम से बहुत साहित्यिक भाषण लिखे हैं जो हमने जनता के बीच पढ़ दिए हैं. राज्य की साहित्यिक अकादमी से ई की कविता की किताब छपवाये के लिए मदद भी हम सेंकसन करवा दिए हैं. ई सम्पादक भी बड़े गुणी आदमी हैं. हमरा साक्षात्कार छाप रहे हैं, अगले महीने आप सब लोग पढ़िएगा. हमें जरूरी जाना है सो हम चलेंगे, आप लोग गोष्ठी खूब करिए. हमारी एबसन्स में ई थानेदार जो बहुत बढ़िया कविता भी लिखते हैं, गोष्ठी की कार्यवाही चलाएंगे, जय हिन्द.
जानकार पांडेय की ओजस्वी आलोचना के साथ-साथ मंच के पीछे मदिरा का दौर चल रहा था जो आबकारी विभाग की कृपा से सस्ते में उपलब्ध हो गई थी. करीब-करीब सभी वक्ता गला तर कर चुके थे. थानेदार को भी तलब छूटी, मंच से उतर कर उन्होंने भी ठीक से गला तर किया. जानकार पांडेय के बाद कुछ और वक्ता बोले उसके बाद कवि का नम्बर आया. कवि ने उठकर सम्पादक को महान, महानतर, महानतम कथाकार बताया और सम्पादक के श्री चरणों को नमन के लिए वह मंच पर बैठे सम्पादक के पास पहुँच गया. तब तक थानेदार अपनी जगह बैठ चुके थे और जानकार पाण्डेय अपना गला तर कर रहे थे. सम्पादक के पास पहुँच कर कवि ने उनके चरण ढ़ंढ़ने चाहे, सम्पादक हड़बड़ा कर उठा और कवि को पकड़ने के चक्कर में उससे टकराया. कवि सीधा औंधे मुँह सम्पादक के चरणों में गिरा कवि को उठाने की कोशिश में सम्पादक भी कवि के ऊपर गिर पड़ा, दोनों इस वक्त तरंग में थे दरोगा थोड़ी देर चुपचाप तमाशा देखता रहा, मंच पर बैठे कुछ लोगों ने दोनों को संभालने की कोशिश की. पर जब वे नहीं संभल पाए तो दरोगा उठा और उठते ही कवि और सम्पादक दोनों की पीठ पर दो-दो लातें जमाईं. वह चिल्लाया स्साले शराबियों, मैं तुम्हें हवालात में बन्द कर दूँगा. इस नाटक को देखकर श्रोता खड़े हो गए. थानेदार की बेहूदगी पर वे नाराजी जाहिर करें उससे पहले ही थानेदार अपने सिपाहियों सहित वहाँ से खिसक लिया.
अगले दिन अखबारों में दो कालम में गोष्ठी की रिपोर्ट छपी. छम्मक छल्लो, अनारकली और चोली दामन के साथ ही मदिरा महात्म्य कहानी की भूरी-भूरी प्रशंसा की गई थी. रिपोर्ट के अंत में थानेदार द्वारा सम्पादक को सम्मानित करते हुए बताया गया था.
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हार्दिक धन्यवादका लागि फेरि पनि धन्यवाद! :)
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