-मनोज सिंह कितना अच्छा लगता है यह सोचना, सुनना और महसूस करना कि हम स्वतंत्र हैं। कितना गर्व होता है यह कहकर कि हम एक आजाद देश के नागरिक ह...
-मनोज सिंह
कितना अच्छा लगता है यह सोचना, सुनना और महसूस करना कि हम स्वतंत्र हैं। कितना गर्व होता है यह कहकर कि हम एक आजाद देश के नागरिक हैं। गुलामी की बातों को याद कर अत्यंत दु:ख और फिर आक्रोश आता है। इस बात की हम हर जगह, हर वक्त दुहाई देते रहते हैं कि हमें अपने देश में घूमने-फिरने, लिखने-बोलने की आजादी है। जो कि गुलाम देशों में सामान्यत: नहीं होती। मगर क्या यह पूर्णत: सत्य है? वास्तविकता में अगर देखें तो हकीकत कुछ और है। शासन, व्यवस्था, सुरक्षा, धर्म और समाज के नाम पर ही कई सारे प्रतिबंधों को देखा जा सकता है। यही नहीं बच्चे जो मन के सच्चे होते हैं, उन्हें भी बचपन से ही मां-बाप द्वारा जगह-जगह पर रोका, समझाया और कभी-कभी तो डांटा भी जाता है कि क्या बोलना है और क्या नहीं, क्या करना है और क्या नहीं। बड़े होने पर कॉलेज-स्कूल में अनुशासन के नाम पर, अध्यापक के खिलाफ आप कुछ नहीं बोल सकते। चाहे वो पढ़ाने में बिल्कुल भी ध्यान न दे रहे हों।
नौकरी में अधिकारी का डंडा। यहां अंग्रेजी की कहावत का उदाहरण दिया जा सकता है, बॉस इज ऑलवेज राइट। कहीं-कहीं तो अधीनस्थ कर्मचारी से डरना पड़ता है तो कभी-कभी यूनियन से भी बचकर रहना पड़ता है। मैनेजमेंट के खिलाफ आप कुछ नहीं कह सकते, चाहे काम गलत हो रहा हो। ज्यादा बुरा लगे तो नौकरी छोड़नी पड़ेगी। घर पर पत्नी का रौब वो अलग। यह दीगर बात है कि औरतों पर तो बचपन से ही बंदिशें होती हैं। शादी के बाद सास-ससुर व पति के द्वारा संस्कारों, संस्कृति व खानदान के नाम पर दबाव। और फिर बुजुर्ग होने पर पति-पत्नी को जवान बच्चों का मोह तो बहू-दामाद का लिहाज। हम जीवन भर कहां स्वतंत्र हो पाते हैं। पत्रकार हर न्यूज या स्टोरी देने से पहले, उसके द्वारा होने वाले असर को हर पहलू से देखता है। लेखक भी हर शब्द लिखने से पहले कई बार सोचता है। उग्रवादी, आतंकवादी, गुंडे की तो छोड़िए पुलिस, संविधान, कोर्ट-कचहरी यहां तक कि मीडिया से भी डरना पड़ता है। यही नहीं समाजवादी, मानवतावादी, धार्मिक, अल्पसंख्यक और बुद्धिजीवी वर्ग के लोगों की भावनाओं के आहत हो जाने से बचने के लिए भी संभलकर लिखना पड़ता है। और यह सब तब है जबकि भारतीय संविधान बोलने की स्वतंत्रता देता है। अनुच्छेद १९ के अंतर्गत प्रत्येक नागरिक को यह अधिकार प्राप्त है कि वो राज्य की नीति, राजनीतिज्ञ, नौकरशाह, शासनतंत्र की आलोचना और विवेचना कर सकता है। संक्षिप्त में, सभी के लिए कहा जा सकता है, सिर्फ सर्वोच्च न्यायालय को छोड़कर।
प्रत्येक शब्द का अपने शब्दार्थ के साथ-साथ भावार्थ का लंबा इतिहास और विशेष संदर्भ होता है। उसका उपयोग किसी विशेष बात को कहने के लिए किया जाता है। कई शब्द समय के साथ अपने मायने को बदलते देखे गए हैं तो कई बार स्थान परिवर्तन के साथ ही अर्थ भी भिन्न-भिन्न होता है। और कभी-कभी इनमें इतना विरोधाभास होता है कि एक स्थान के लिए लिखे गए शब्द से दूसरे स्थान पर बवाल तक मच जाता है। इस तरह की मुसीबत से बचने के लिए लेखक संवेदनशील विषयों पर लिखते समय कुछ विशेष शब्दों से बचने की कोशिश करता है। मगर कई बार समानार्थक पर्यायवाची शब्द नहीं मिलते। और फिर मूल शब्द को हटाने से अर्थ का अनर्थ या फिर कई बार आवश्यक भावनाओं का सही तरह से संवाद नहीं हो पाता। और भी कई कारणों से हम शब्दों का इस्तेमाल खुलकर नहीं कर पाते हैं। किसी में नस्लवाद तो किसी में धर्म की भावना आहत होती है तो कहीं जाति विशेष को ठेस पहुंचती है। कहीं-कहीं शब्दों को अशोभनीय तक कह दिया जाता है तो कहीं मानवतावादी संगठन इसे अमानवीय करार देते हैं तो कहीं लिंग भेद बताया जाता है अर्थात नारीवादी को पुरुष अहम् की बू आती है। अकेले शब्दों का ये हाल है तो कथनों का क्या कहना। वर्तमान की छोड़ें, सही-सही इतिहास लिखना भी अब खतरे से खाली नहीं। किसी राजनीतिक पार्टी के विरोध में सत्य कहना आपको महंगा पड़ सकता है अगर वो सत्ता में हुई तो आप को जेल की हवा भी खानी पड़ सकती है। पार्टी असामाजिक तत्वों से लैस हुई तो फिर टांग भी टूट सकती है, अगर वो अधिक परिपक्व और शातिर निकली तो आप राजनीति के शिकार भी हो सकते हैं और धीरे-धीरे कब आपको बर्बाद कर दिया जाएगा, आपको पता भी नहीं चलेगा। आप मजबूरी वश हाशिए पर भी जा सकते हैं।
समाज के तथाकथित आदर्श, उच्च पदस्थ, ताकतवर, धनवान या चर्चित व्यक्तियों के बारे में लिखने-बोलने से पूर्व संयमित होना पड़ता है। मान-मर्यादा का उल्लंघन गैर-कानूनी साबित जो जाए तो मानहानि की भारी कीमत चुकानी पड़ सकती है। कई बार आपके खिलाफ प्रदर्शन भी हो सकता है। भीड़ द्वारा रोष या हिंसा भी की जा सकती है। आप किसी वाद-विवाद में भी पड़ सकते हैं। व्यक्तिगत और पारिवारिक नुकसान की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता।
ध्यान दें, तो महसूस होगा कि जैसे-जैसे हम आधुनिकता का चोला ओढ़ रहे है, ज्ञान और शिक्षा का प्रसार तो हो रहा है, साथ ही विकास भी हो रहा है, मगर अब सच बोलना खतरे से खाली नहीं तो झूठ बोलना बेहद सरल है। और यह विडम्बना दिन पर दिन हकीकत बनती जा रही है। इतिहास गवाह है, स्वतंत्रता सामर्थ्यवान, शक्तिशाली और समृद्ध के साथ रही है। कमजोर के साथ न थी, न है। सामान्य व्यक्ति को हर वक्त संभलकर बोलना पड़ता है। हर कथन पर ध्यान देना पड़ता है। कहते हुए सदा डर बना रहता है। चूंकि हर व्यक्ति पूरी तरह से निडर या निर्भीक नहीं हो सकता। जिसके पास खोने के लिए कुछ भी नहीं ऐसा अनोखा मनुष्य मिलना संभव नहीं। प्रत्येक की कोई न कोई कमजोरी होती है। और सामने वाला उसी जगह पर हिट करके आपको चोट पहुंचा सकता है। और इसी चोट या फिर कुछ खोने से आदमी डरता है। और यहीं से अपनी स्वतंत्रता को खोने का क्रम प्रारंभ होता है। समाज, संस्कार, संस्कृति की बेड़ियां हमें अपनी भावनाओं पर काबू रखने के लिए प्रेरित करती हैं। सुसभ्य, सुसंस्कृत, शालीन, सामाजिक, धार्मिक, नैतिकता के नाम पर बोलने-लिखने के पैमाने बन जाते हैं। और फिर भी जो सीधे-सीधे बोल सकते हैं उन्हें मुंहफट, उद्दंड और बदतमीज तक कह दिया जाता है। ऐसे लोगों की भी अपनी एक पहचान होती है और ये अकसर इसका कभी फायदा कभी नुकसान उठाते रहते हैं। इनकी पृष्ठभूमि को देखें तो किसी न किसी दल या ग्रुप का इन्हें अप्रत्यक्ष सहारा या आशीर्वाद प्राप्त अवश्य होता है। ऐसे लोग स्वतंत्रता के नाम पर उच्छृंखल बन जाते हैं और लोग इनसे बचते हैं। और जो अकेले चिल्ल-पों मचाते हैं वो अकसर मारे जाते हैं।
जागरूकता के बढ़ने से अधिकार के प्रति सचेत सामान्य नागरिक तक अपने बारे में कुछ भी सुनने के लिए तैयार नहीं। और इसीलिए राजनीतिज्ञ वोट लेते समय, कंपनी सामान बेचने वाले विज्ञापन में, धर्मगुरु अपने प्रवचन में, लेखक अपने लेखन में, संपादक अपने न्यूज में, कलाकार अपनी कला में सत्य को मरोड़ कर पेश करता है। और शायद इसी के स्पष्टीकरण के लिए चतुर-चालाक मानव ने कहावत तक बना दी 'सत्य हमेशा कड़वा होता है` अर्थात जिस तरह कड़वा खाना पसंद नहीं किया जाता उसी तरह सत्य सुनना भी किसी को अच्छा नहीं लगता। ऐसे में क्या आप बोलने की स्वतंत्रता का सही स्वाद चखना चाहेंगे? शायद नहीं। कम से कम सच बोलने का तो बिल्कुल भी नहीं।
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सम्पर्क:
मनोज सिंह
४२५/३, सेक्टर ३०-ए, चंडीगढ़
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