-प्रो. अश्विनी केशरवानी भारत के विभिन्न दलों में बिखरे राजनीतिक नेतृत्व और विभिन्न विचारधाराओं में बटे बौद्धिक वर्ग को किसी एक मत में ...
-प्रो. अश्विनी केशरवानी
भारत के विभिन्न दलों में बिखरे राजनीतिक नेतृत्व और विभिन्न विचारधाराओं में बटे बौद्धिक वर्ग को किसी एक मत में एक कहा जा सकता है तो वह है भारतीय एकता और अखंडता। यह प्रश्न ही आज हमारी राष्ट्रीय बहस का केंद्र बना हुआ है। सभी लेखक, विचारक, नेता सभी राष्ट्रीय एकता और अखंडता के लिए चिंतित हैं। राष्ट्र किसे कहते हैं, हमारी राष्ट्रीयता की जड़ें कहां है, एकता का भावनात्मक आधार क्या होनी चाहिए आदि को भी जान लेना समीचीन होगा।
राष्ट्र, राष्ट्रीयता और राष्ट्रवाद आदि अवधारणाओं का जन्म कुछ शताब्दी पूर्व विशेषकर फ्रेंच क्रांति के बाद पश्चिम में हुआ माना जाता है। वास्तव में 'राष्ट्र' एक राजनीतिक संकल्पना है। राज्य ही राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया का मुख्य वाहक होता है। राजनीतिक एकता उसके अस्तित्व की पहली आवश्यकता है। इसके साथ ही भूमि, भाषा और मजहब की एकता का होना भी राष्ट्र के लिए आवश्यक है। इसी प्रकार राष्ट्रवाद या राष्ट्रीयता उस समूह चेतना का नाम है जिसे एक लंबी ऐतिहासिक प्रक्रिया से उत्पन्न सांस्कृतिक चेतना और उस भूखंड के प्रति देशभक्ति की भावना का पूर्ण संघात से प्राप्त किया जाता है। राष्ट्रीयता की यह समूह चेतना पहले एक छोटे से प्रबुद्ध बर्ग तक सीमित होती है और संपूर्ण जन समाज उससे समान रूप से अनुप्राणित नहीं होता। पूरे समाज में इस चेतना को फैलाने के लिए लोक शिक्षण के जागरूक प्रयत्नों की आवश्यकता पड़ती है।
भारत विभिन्न संस्कृतियों, धर्मों और सम्प्रदायों का संगम स्थल है। यहां सभी धर्मों और सम्प्रदायों को बराबर का दर्जा मिला है। हिंदु धर्म के अलावा जैन, बौद्ध और सिक्ख धर्म का उद्भव यहीं हुआ है। अनेकता के बावजूद उनमें एकता है। यही कारण है कि सदियों से उनमें एकता के भाव परिलक्षित होते रहे हैं। कदाचित् हमारा दृष्टिकोण उदारवादी है। हम सत्य और अहिंसा का आदर करते हैं। हमारे मूल्य समयातीत हैं जिन पर हमारे ऋषि-मुनियों और विचारकों ने बल दिया है। हमारे इन मूल्यों को सभी धर्मग्रंथों में स्थान मिला है। चाहे कुरान हो या बाइबिल, गुरू ग्रंथ साहिब हाक या गीता, हजरत मोहम्मद, ईसा मसीह, जोरोस्त्र, गुरूनानक, बुद्ध और महावीर, सभी ने मानव मात्र की एकता, सार्वभौमिकता और शांति की महायात्रा पर जोर दिया है। भारत के लोग चाहे किसी भी मजहब के हों, अन्य धर्मों का आदर करना जानते हैं। क्यों कि सभी धर्मों का सार एक ही है। इसीलिए हमारा राष्ट्र धर्म निरपेक्ष है।
हमारे देश में सभी धर्मों के लोग जानते हैं कि उनकी संस्कृति एक है। बौद्ध हों या जैन, वैष्णव हों या सिक्ख या फिर ब्रह्यसमाजी, श्रीराम और श्रीकृष्ण को अपना पूर्वज सभी मानते हैं। भले ही वे अपने उन पूर्वजों के जीवनवृत्तों को अपने मजहब का रंग दे ? सबको जोड़ने के लिए तीन रंगों के कपड़े को जोड़कर 'तिरंगा' बनाया गया है। वह कोई साधारण कपड़ा नहीं है बल्कि उसे हमने 'राष्ट्रीय एकता' का प्रतीक माना है। इसकी प्रतिष्ठा राष्ट्र की प्रतिष्ठा और इसका अपमान राष्ट्र का अपमान है। इसीलिए इस तिरंगे की शान के लिए आज तक हजारों-लाखों भारतीय अपने प्राणों की आहुति दे चुके हैं। इसी बलिदान का परिणाम है कि आज हमारी राष्ट्रीय एकता के प्रतीक तिरंगा झंडा अपने सर्वोच्च स्थान पर गर्व के साथ फहरा रहा है।
भारतीय मनीषियों और पाश्चात्य विद्वानों द्वारा ''राष्ट्रीयता'' की नवीन व्याख्या के संदर्भ में हम अपने इतिहास का अध्ययन करें तो हम पाते हैं कि सम्पूर्ण प्राचीन साहित्य राष्ट्रीयता के दो मूलभूत तत्वों- देशभक्ति और ऐतिहासिक, सांस्कृतिक गौरव भाव से ओतप्रोत है। विष्णु पुराण में उल्लेख है :-
उत्तरे यत्समुद्रस्य हिमाद्रेश्चैव दक्षिणम्।
वर्ष तद्भारतं नाम भारती यस्य सन्तति॥
अर्थात् समुद्र के उत्तार और हिमालय के दक्षिण में भारतवर्ष स्थित है और उसकी संतान को भारतीय कहते हैं।
वेद, भारतीय चिंतन के प्राचीनतम साहित्यिक, दार्शनिक और धार्मिक स्रोत ग्रंथ है। इसमें ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद और अथर्ववेद प्रमुख है। हिन्दु धर्म का मूल रूप हमें इन्हीं वेदों में मिलता है। वेदों के रचियता ऋषि-मुनि हैं जिन्होंने परम तत्व का साक्षात्कार करके उसे वेद मंत्रों के रूप में अभिव्यक्ति दी है। इसीलिए वेदों को परम सत्य माना गया है। श्रीरामकृष्ण परमहंस भारत में वेदांत की परंपरा को मानने वाले संत थे। वेदांत का मूल सिद्धांत है- एक ही ब्रह्म सभी जगह अलग अलग रूपों में दिखाई देता है। इसीलिए वे अपने उपदेशों में सभी धर्मों की एकता पर जोर देते हैं। उनका मानना है कि जिस प्रकार पानी को भिन्न भिन्न भाषा में भिन्न भिन्न नामों से पुकारते हैं, उसी प्रकार ईश्वर को कोई राम, कोई कृष्ण, कोई अल्लाह, कोई खुदा, कोई ईशु, कोई हरि और कोई ब्रह्म कहता है। लेकिन सबका आशय एक ही है।
ऋग्वेद के चिंतन में एक खुलापन दिखाई देता है- ''एकम् सत् विप्रा: बहुधा वदन्ति'' अर्थात् सत्य एक ही है पर लोग भिन्न भिन्न नाम से उसका वर्णन करते हैं। इस तरह से इसमें धर्म निरपेक्षता और राष्ट्रीयता प्रकट होती है। इसमें स्वीकार किया गया है कि पूर्ण सत्य की ओर पहुंचने और आंतरिक अनुभूति के अनेकों मार्ग हो सकते हैं। इसमें सर्व धर्म समभाव के दर्शन को सैद्धांतिक आधार मानकर उसे मान्यता प्रदान की गयी है। ऋग्वेद में उल्लेख है-'दूसरों के साथ वैसा ही व्यवहार करो, जैसा तुम अपने साथ चाहते हो। सभी प्राणवानों की तरफ मित्रता की दृष्टि से देखो क्यों कि उनमें एक ही आत्मा निवास करती है। सभी उसी वैश्विक आत्मा के अंग हैं। जो मानता है कि सभी मेरे आत्मीय हैं और सभी से समान प्रेम करता है उसे कभी अकेलापन महसूस नहीं होता। ऋग्वेद में एक सुक्ति है-'एकैव मानुषी जाति:' अर्थात् सभी मानव की जाति एक है। इसी प्रकार यजुर्वेद में कहा गया है :-
मित्रस्य मा चक्षुषा सर्वाणि भूतानि समीक्षन्ताम्।
मित्रस्य चक्षुषा सर्वाणि भूतानि समीक्षे।
मित्रस्य चक्षुषा समीक्षामहे।
अर्थात् सभी जीव मेरी तरफ मित्र की निगाह से देखें। मैं सब जीवों की तरफ मित्र की निगाह से देखूं। हम सब एक दूसरे की तरफ मित्र की निगाह से देखें।
वैदिक साहित्य में उपनिषद प्रमुख ग्रंथ है। इसमें भारतीय दर्शन का प्राचीनतम् रूप दर्शनीय है। इसमें आत्मा, परमात्मा, संसार, माया, मोक्ष, विद्या और अविद्या आदि दार्शनिक विषयों की विस्तृत चर्चा की गयी है। ये केवल दर्शन की दृष्टि से महत्वपूर्ण नहीं है बल्कि साहित्य की भी दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं। इसमें अनेक कथाओं, वार्ताओं, मिथकों की सुंदर संयोजना देखने को मिलती है। इसीप्रकार गीता दर्शन की दृष्टि में सबसे प्रसिद्ध ग्रंथ है। 18 अध्याय और 700 श्लोक के द्वारा कुरूक्षेत्र के मैदान में श्रीकृष्ण के द्वारा अर्जुन को दर्शन के गूढ़ रहस्यों को समझाया गया है। इसे एक तरफ महाभारत का अंग माना जाता है तो दूसरी तरफ सारे उपनिषदों का सार। उपनिषद में कहा गया है :-
असतो मा सद्गमय
तमसो मा ज्योतिर्गमय
मृत्योर्मा अमृतगमय।
इस प्रार्थना की ध्वनि प्लेटो के लेखों में भी मिलती है-'पृथ्वी परमात्मा का शरीर है, स्वर्ग उसका मस्तक, सूर्य और चंद्रमा उसकी आंखें और आकाश उसका मन है।' पवित्र बाइबिल में भी एकता और भाईचारा विषयक एक दृष्टांत 12 वें अध्याय में मिलता है। इसमें मानव मात्र को एक शरीर और सभी धर्मों को उसका अंग मानकर कहा गया है कि शरीर की कार्यप्रणाली को सुचारू रूप से संचालित करने के लिए सभी अंगों (धर्मों) का एक साथ कार्य करना आवश्यक है।
भारत में अनादि काल से संत महात्माओं के प्रति श्रद्धा रही है। जिनका जीवन पवित्र रहा हो,जो दूसरों के लिए कष्ट सहते हों और जो आध्यात्मिक साधना और आत्मज्ञान की प्राप्ति का उचित पथ प्रदर्शन करते हों, उनके प्रति श्रध्दा का होना स्वाभाविक है। इसीलिए यहां इस्लाम के प्रति आकर्षण अधिक था। क्यों कि वह एक ऐसा धर्म है जो ईश्वर के संदेश के द्वारा प्राप्त हुआ है। जिसे एक महान व्यक्तित्व का मसीहा लाया था। जिसने अनेकों कष्ट सहा और संकटों का मुकाबला किया था। इसी प्रकार ईसाई मत मानव जाति के लिए सूली पर चढ़ने का भयंकर कष्ट सहने वाले ईसा मसीह के दिव्य संदेश को प्रचारित करता था, जिसके प्रति यहां सहज आकर्षण था। इब्राहिम, इसाक, इस्माइल, जेकब और मोजेक जैसे जिन महात्माओं का ईसाई मत के ओल्ड टेस्टाामेंट में जिक्र पाया जाता है, उनका तथा ईसा मसीह का जिक्र पवित्र कुरान में आया है। अल फातिहा-तु-अलफत को रब-उल आलमीन यानी समस्त विश्व का प्रभु कहा गया है। इसमें अल्लाह को केवल मुसलमानों का प्रभु नहीं माना गया है। भारत के धार्मिक क्षेत्र में सदा ही कर्मकाण्ड तथा अंध विश्वासों के खिलाफ विद्रोह करने की परंपरा रही है, जिसे संतों, आचार्यों और महात्माओं ने बढ़ाया और वेदासंत के मूल विचार में निहित श्रध्दा और विश्वासों पर जोर देने की बात कही है। इसीलिए यहां पर ईसाई मत और इस्लाम का शांति पूर्वक स्वीकार और समर्थन किया गया है, केवल सह अस्तित्व की भावना से नहीं बल्कि उसे अपनी ही परंपरा का अंग मानकर स्वीकार किया गया है।
भारत में सम्राट अशोक और समुद्रगुप्त चक्रवर्ती राजा हुए। कलिंग युद्ध की विकरालता से प्रभावित होकर सम्राट अशोक ने बौद्ध धर्म को अपनाया और उसके प्रचार प्रसार में यथेष्ठ सहयोग दिया। समुद्रगुप्त के शासनकाल में हिन्दू धर्म को बढ़ावा मिला। इसीकाल में हिन्दू मतों के अनेक ग्रंथ लिखे गये। कदाचित् इसीकारण इस काल को हिन्दू धर्म का स्वर्णकाल माना जाता है।
आदि श्री गुरूग्रंथ साहिब में एक सीख दी गयी है :-
कोऊ भयो मुंडिया सन्यासी, कोऊ जोगी भयो,
कोई ब्रह्मचारी, कोई जतियन मानबो।
हिन्दू तुरक कोऊ, राफजी इमाम शाफी,
मानस की जात सबै एक पहचानबो।
तो कबीर भला क्यों पीछे रहते। गुरूवाणी के पृष्ठ 1349-50 में उन्होंने लिखा है :-
अव्वल अल्लाह नूर उपाया, कुदरत दे सब बंदे।
एक नूर ते सब जग उपज्या, कौन भले को मंदे॥
उसी प्रकार जैन धर्म में अहिंसा, अपरिग्रह, अनेकांतवाद, एक-दूसरे को समझने, सब जीवों में एकत्व का दर्शन करने वाली सोच, सेवा, तप और संयम की बात उसमें कही गयी है। पारसी मत की सैध्दांतिक व्याप्ति में समग्र मानवता का समावेश है। राजा को सभी मानव का प्रतिनिधि तथा अहुर मजद का प्रतीक माना जाता था। उसमें समस्त अस्तित्व का आदर्श माना गया है।
पवित्र कुरान का पहला सूरा है-'सूर ए अलहम्दा।' इस सूरे को पूरे कुरान का निचोड़ कहा जाता है। ''तमाम तारीफें अल्लाह के लिए है जो सारी दुनियां का पालनहार है। वह बड़ा दयालु और मेहरबान है। हे अल्लाह, हम सिर्फ तेरी ही इबादत करते हैं और तुझसे ही मदद मांगते हैं। हमें सही रास्ता दिखा।'' यह सूरा गायत्री मंत्र से बहुत मिलता है जिसमें कहा गया है-' हे सृष्टि के पालक, तू अनंत और असीम है। तू सर्व शक्तिमान है। तेरा अस्तित्व अवर्णनीय है। न तेरा आरंभ है न अंत। तू ही जीवन का स्रोत है...।' अंत में मैं वसुधैव कुटुम्बकम की कामना करते हुए कहना चाहूंगा :-
सर्वे भवन्तु सुखिन: सर्वे सन्तु निरामया:
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् भाग् भवेत।
------------------
रचना, आलेख एवं प्रस्तुति,
प्रो. अश्विनी केशरवानी
राघव, डागा कालोनी, चांपा-495671
गुरुजी ,सही लिखा है आपने भारत मानव वंश का उद्गम, अनेक भाषाओं तथा बोलियों की जन्म-स्थली, इतिहास की माता, पौराणिक एवं अपूर्व कथाओं की दादी और अनेक परम्पराओं की परदादी है। मानव इतिहास की अत्यंत बहुमूल्य उपलब्धियाँ भारत के खजाने की ही देन हैं।...अच्छे बिचार है ...अच्छा लगा आपको पढना ....बधाई .हमारे ब्लोग पे भी आपका स्वागत है .
जवाब देंहटाएं