तथा ''गुरु के मूल्यांकन की कसौटी है उसके शिष्यों का आचरण'' -सीताराम गुप्ता साधु-संत त्याग, तपस्या और सहनशीलता तथा क्षमा क...
तथा
''गुरु के मूल्यांकन की कसौटी है उसके शिष्यों का आचरण''
-सीताराम गुप्ता
साधु-संत त्याग, तपस्या और सहनशीलता तथा क्षमा की प्रतिमूर्ति होते हैं इसमें संदेह नहीं। इसी से संत की जीवन अनुकरणीय तथ प्रेरणास्पद होता है। एक शिष्य अथवा अनुयायी की चरितार्थता इसी में है कि वह अपने गुरु के आचरण को जीवन में उतारे। यही बात धर्म के संबंध में भी कही जा सकती है। धर्म वह है जो हमें व्यवस्थित करे, हममें सकारात्मक गुणों का विकास करे। हमें राग-द्वेष, हिंसा, क्रोध, अहंकार, अविद्या, असत्य, असहिष्णुता आदि नकारात्मक भावों से बचाए। एक धार्मिक व्यक्ति की चरितार्थता भी इसी में है कि वह अपने धर्म पर की गई किसी भी टिप्पणी पर उत्तेजित न हो और अपने धर्म के विरोध में बोलने वाले को भी क्षमा कर धैर्य का परिचय दे। यह कोई बहुत बड़ी बात नहीं है अपितु धर्म का अनिवार्य तत्व है। यदि कोई व्यक्ति ऐसा नहीं कर पाता है तो वह धार्मिक होने का ढोंग तो कर रहा है लेकिन सही अर्थों में धार्मिक नहीं है क्योंकि किसी भी धर्म में धर्म की रक्षा के लिए उत्तेजना, अधैर्य, असहिष्णुता अथवा हिंसा का कोई स्थान नहीं है अपितु इनकी निंदा की गई है। प्राय: धर्म की रक्षा के दंभ में हम पूर्णत: अधार्मिक या धर्महीन हो जाते हैं।
कई बार ऐसा होता है कि किसी साधु-संत का जाने-अनजाने में अपमान हो जाता है या उसे सामान्य लोगों के मुकाबले विशिष्ट सम्मान या छूट नहीं मिल पाती तो उसके शिष्य आपे से बाहर हो जाते हैं। हंगामे और हिंसा पर उतारू हो जाते हैं। नारेबाजी और अभद्र आचरण का प्रदर्शन तो सामान्य बात है कई बड़े नाम वाले गुरुओं के शिष्यों के लिए। इस प्रकार की घटनाएँ शिष्यों या अनुयायियों की पात्रता पर ही प्रश्नचिह्न लगा देती हैं और शिष्यों या अनुयायियों का आचरण गुरु की पात्रता पर।
साधु-संत सदैव न केवल नकारात्मक वृत्तियों और भावों के त्याग का उपदेश देते हैं अपितु अपने आचरण से भी उसे सिद्ध करते हैं। उनका आचरण ही उनका संदेश होता है और होना भी चाहिये। श्रीमद्भगवद्गीता में लिखा है :-
यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तादेवेतरो जन:।
स: यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते॥ 3:21 ॥
महापुरुष जो-जो आचरण करता है, सामान्य व्यक्ति उसी का अनुसरण करते हैं। वह अपने अनुसरणीय कार्यों से जो आदर्श प्रस्तुत करता है, संपूर्ण विश्व उसका अनुसरण करता है। सभी संत, सभी महापुरुष राग-द्वेष, घृणा, वैमनस्य, क्रोध, उपेक्षा, ईर्षा, अहंकार, असहिष्णुता, हिंसा आदि के सर्वथा त्याग का उपदेश देते हैं। समता में स्थापित होने की बात होती है। मानापमान, सुख-दुख, लाभालाभ आदि परस्पर विरोधी भावों से ऊपर उठने की बात की जाती है। पर क्या ये बातें मात्र सुनने-सुनाने के लिए हैं आचरण में उतारने के लिए नहीं? गुरु का दर्जा भगवान से भी ऊँचा माना गया है। गुरु महत्वपूर्ण है। ज्ञान का स्रोत और संवाहक है गुरु। ज्ञान से तात्पर्य सूचनाओं के आदान-प्रदान अथवा भौतिक जगत की वस्तुओं की जानकारी से नहीं है। शास्त्रों का पठन-पाठन या स्वाध्याय अथवा सत्संग भी ज्ञान नहीं है। ज्ञान है स्वयं की जानकारी। आत्मज्ञान ही सही अर्थों में ज्ञान है। गुरु शास्त्रों के माध्यम से अपने आचरण में रूपांतरण द्वारा ज्ञान का संवाहक बनता है। ज्ञान अर्थात् रूपांतरण का माध्यम है गुरु एक शिष्य के लिए। यदि गुरु अपने आचरण द्वारा शिष्य के रूपांतरण में असफल रहता है तो इसका सीधा-सा अर्थ है कि गुरु स्वयं आत्मज्ञान को प्राप्त नहीं हुआ है और जिसने आत्मज्ञान नहीं प्राप्त किया, स्वयं का रूपांतरण नहीं किया, वह दूसरों को इसका आभास कैसे करा सकेगा। यदि रूपांतरण की प्रक्रिया सम्पन्न नहीं होती है तो बाह्य ज्ञान भार के समान है जो मिथ्या अहंकार का कारण बनता है जिसके फलस्वरूप द्वंद्व की उत्पत्ति होती है।
आज किसी ने किसी के धर्म या धर्मगुरु पर टिप्पणी कर दी तो ख़ून की नदियाँ बहने लगती हैं। धर्म की रक्षा के लिए सरफरोशी की तमन्ना लिए लोग सरों पर कफन बाँध के निकल पड़ते हैं। सरफरोशी तो होती है पर धर्म की रक्षा नहीं। क्या धर्म इतना कमजोर, इतना क्षणभंगुर होता है कि कोई दो शब्द कहे और वो मिट्टी में मिल जाए। धर्म न हुआ काँच का खिलौना हो गया। शीशे की अलमारी में बंद करके रखो। कोई छू देगा तो अपवित्र हो जाएगा या टूटकर बिखर जाएगा। धर्म न हुआ कच्ची मिट्टी का कसोरा हो गया जो पानी लगते ही घुलने लगेगा और हमेशा के लिए अदृश्य हो जाएगा। यदि आपका धर्म, आपका मत या संप्रदाय इतना ही नाजुक, इतना ही कमजोर और क्षणभंगुर है तो उसे टूट जाने दीजिए। ऐसा धर्म आपको क्या संभालेगा? आपकी क्या रक्षा करेगा? जो अपनी ही रक्षा नहीं कर सकता वह दूसरों की क्या रक्षा करेगा? किसी मजबूत धर्म की शरण में चले जाइये या नये धर्म का आविष्कार कर लीजिए या बिना धर्म के ही रह जाइये लेकिन एक धर्म को मत छोड़िये और वह है मनुष्य धर्म। मनुष्यता है तो सभी धर्म हैं नहीं तो बाहरी धर्म को ढोकर ही क्या होगा?
हम कभी धर्म की रक्षा के लिए आगे आते हैं तो कभी संतों के बचाव में आगे आते हैं पर क्या धर्म या संत इतने कमजोर होते हैं कि उनकी रक्षा के लिए धर्मावलंबियों या अनुयायियों अथवा शिष्यों को आगे आना पड़े। धर्म की रक्षा या स्थापना के लिए संत हैं और संतों की रक्षा के लिए धर्म है। जहाँ तक मानापमान या बेइज्जती की बात है किसी को भी ये अधिकार नहीं कि बेवजह किसी का अपमान करे। एक संत के अपमान का तो प्रश्न ही नहीं उठता क्योंकि संत तो वही है जो मानापमान से ऊपर उठ चुका है। यदि मानापमान की बात करें तो क्या नियम पालन में ही किसी का अपमान हो गया? कदापि नहीं। विषम परिस्थितियाँ या अपमानजनक स्थितियाँ मनुष्य को ऊँचा उठाने के लिए आती हैं। कहा गया है कि ''असम्मानात् तपोवृद्धि: सम्मानात्तु तप: क्षय:'' अर्थात् असम्मान से तपस्या में वृद्धि होती है और सम्मान से तपस्या का क्षय होता है। अपमान की अवस्था धैर्य और सहिष्णुता की परीक्षा ही तो है साथ ही अधिक धैर्य और सहिष्णुता के विकास का अवसर भी। कबीर ने भी कहा है कि 'निदंक नियरे राखिये'। कहीं निंदा या सही आलोचना के अभाव में अथवा अधिक सम्मान के कारण ही तो ये गड़बड़ नहीं हो गई?
संत का मूल स्वभाव है क्षमा करना। बार-बार और बिना माँगे क्षमा करना। धर्म इसमें सहायक होता है। धर्म ही मानापमान सहना तथा विषम परिस्थितियों में आगे बढ़ना सिखाता है। सहिष्णुता का विकास करता है धर्म। एक कथा है सबने सुनी होगी। एक संत नदी में स्नान कर रहे थे। एक बिच्छू पानी की तेज धार में बहता हुआ जा रहा था। संत ने उसकी प्राणरक्षा के निमित्त उसे अपनी हथेली पर उठा लिया। जल से बाहर आते ही बिच्छू ने संत की हथेली पर डंक मारा। संत पीड़ा से तिलमिला उठे और झटके के कारण बिच्छू फिर पानी में जा गिरा और बहने लगा। दयालु संत ने बिच्छू के प्राणों की रक्षा के निमित्त पुन: उसे हथेली पर उठा लिया। बिच्छू ने फिर डंक मारा। संत बिच्छू को बचाने के उपक्रम में लगे रहे और बिच्छू उन्हें डंक मारता रहा। यह सब देखकर एक शिष्य ने पूछा, ''गुरुजी जब यह कृतघ्न जीव आपको बार-बार पीड़ा पहुँचा रहा है तो आप क्यों व्यर्थ इसकी प्राणरक्षा में अपने को संकट में डाल रहे हो?'' संत ने कहा कि वत्स अपना-अपना स्वभाव है। अपना-अपना धर्म है। जब यह अपना स्वभाव नहीं त्यागता तो मैं अपना स्वभाव क्यों त्यागूँ? बिच्छू का स्वभाव है डंक मारना और साधु का स्वभाव है क्षमा करना। उसकी ग़लती के लिए क्षमा नहीं किया जाएगा तो उसके प्राणों की रक्षा कैसे होगी? उसके प्राणों की रक्षा नहीं होगी तो धर्म का पालन कैसे होगा? धर्म की रक्षा बदले की भावना या हिंसा से नहीं अपितु स्वयं के त्याग और उत्सर्ग द्वारा ही संभव है। जब धर्म की रक्षा के लिए हिंसा का सहारा लिया जाता है तब धर्म की प्रासंगिकता पर ही प्रश्नचिह्न लग जाता है। धर्मावलंबियों के आचरण से धर्म का ही मूल्यांकन हो जाता है और गुरु का मूल्यांकन करता है उसके शिष्यों का आचरण।
'आज का धर्म'
- सीताराम गुप्ता
'धर्म' वो
बेड़ियाँ अज्ञान की
जो काट दे,
आज का जो धर्म है
धर्मसंकट में वो डाल दे
न जीने दे
न मरने दे
न मुक्त होने दे
मुक्त करने की बजाए
बेड़ियाँ कुछ और घट में डाल दे।
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सीताराम गुप्ता
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