आलेख मातृभाषा में प्राथमिक शिक्षा :एक अनिवार्य आवश्यकता - राजेन्द्र अविरल यह सर्वविदित तथ्य है , कि किसी भी देश के समग्र विकास ...
आलेख
मातृभाषा में प्राथमिक शिक्षा :एक अनिवार्य आवश्यकता
-राजेन्द्र अविरल
यह सर्वविदित तथ्य है,कि किसी भी देश के समग्र विकास में उसकी अपनी भाषा का भी मह्त्वपूर्ण योगदान होता है ,परन्तु शायद यह अल्पज्ञात है कि सभी विकसित देशों ने प्राय: एक ही भाषा को अपना रखा है ,जो कि उनकी अपनी भाषा है ,किसी और देश की नहीं .जैसे जापान में जापानी फ्रांस में फ्रेंच, तथा अमरीका और इंग्लैण्ड में अंग्रेजी . विकसित देशों के बच्चे प्राथमिक शिक्षा से लेकर उच्च शिक्षा तक का सफर अपनी मातृभाषा में ही पूरा करते हैं .जो कि शायद उन देशों के विकसित होने का गुप्त रह्स्य भी हैं और उन देशों के नागरिकों के अपने -2 ज्ञान में अधिक प्रामाणिक होने का प्रमाण भी .
दुर्भाग्य से भारत के नौनिहालों को ऐसा सुख नसीब नहीं हो पा रहा है . यहाँ तो दूध पीता बच्चा भी अपनी माँ के भावनात्मक स्पर्श और ममता भरी लोरियों को सुनते सुनते माँ की ही भाषा में स्कूल में होने वाली प्राथमिक शिक्षा भी ग्रहण नहीं कर पा रहा है . यहां उसे लोरियाँ तो उसकी मातृभाषा में ही सुनाई जाती है ,परन्तु ढ़ाई-तीन साल के दूध पीते बच्चे को स्कूल नाम के बियावान जंगल में एक नितांत अपरिचित अज्ञात से भय के वातावरण में अकेला छोड़ दिया जाता है ,जहाँ पर वह पहले के कुछ दिनों में खूब रोता है ,बिलखता है क्योंकि वहां उसे उसकी माँ जैसी मीठी बोली में कोई नहीं पुचकारता ,पुकारता . वहाँ उसे एक अपरिचित से परिवेश में रची गई अंग्रेजी भाषा की कविताओं की कैसेटों से तीव्र धुनें सुनाई जाती हैं ,अंग्रेजी कहानियों के विडियो चित्र दिखाए जाते हैं और चारों ओर टंगी होती है विदेशी परिवेश जन्य ए, बी सी डी या गिनती के चित्रों की कंटीली झा ड़याँ . इनके अलावा टीचर की अंग्रेजी में डाँट-फटकार (पुचकार नहीं ,क्योंकि इसके लिए टीचर को वक्त नहीं होता है ,प्राय: इस काम के लिए स्कूल में आया या बुआ रखी गई होती हैं .)इस प्रकार स्कूल के पहले ही दिन एक अंग्रेजी संस्कृति ,भारतीय संस्कृति पर हावी हो जाती हैं और मासूम बच्चे के अवचेतन पर एक अज्ञात भय पैदा कर देती हैं ,और शायद हमें पता भी नहीं होता कि आज पैदा होने वाला यह भय बच्चे में अंग्रेजी भाषा के प्रति भी विरक्ति का भाव पैदा कर चुका है तथा वह आठवीं या नवीं कक्षा में आते आते पुन: अपनी मातृ भाषा में पढ़ने हेतु लौट जाता है .तब स्थिति लौट के बुध्दू घर को आए जैसी हो जाती है और बच्चा न मातृभाषा में प्रामाणिक हो पाता है न विदेशी भाषा में . यह सब जानते हुए भी हम अभिशप्त और कटिबद्ध है कि बच्चा तो हमारा अंग्रेजी माध्यम में ही पढ़ेगा .चाहे हमें एबीसी डी भी नहीं आती हो ,अंग्रेजी हमारे लिए काला अक्षर भैंस बराबर हो ,पर हम बच्चे को अवश्य अंग्रेजी में निष्णात देखना चाहते हैं .हम प्रकृति के मूलभूत नियमों को भी भूल जाते हैं , हम यह भी भूल जाते है कि शेर का बच्चा बिल्ली की तरह म्यांऊ नहीं कर सकता , गाय का बच्चा बकरी की तरह नहीं मिमिया सकता और कोयल का बच्चा काँव काँव नहीं कर सकता .फिर क्या हिंदी या भारतीय भाषी का बच्चा अंग्रेजी में प्रामाणिक हो पाएगा .यह हमारे चिंतन का विषय हैं . खैर..
इधर स्कूल के पहले ही दिन पालक गर्व से तनीं गर्दनें लिए अपने पड़ोसियों और साथियों को यह बताते हुए नहीं थक रहे होते हैं कि हमारे बच्चे का शशहर के नामी अ,ब,स स्कूल में बड़ी मु श्कल से दाखिला हो गया है . तगड़े डोनेशन की राशि बताना भी उनका स्टेसस संबल होता है , उधर जब बच्चा भयाक्रांत होकर जब घर लौटता है ,तो वह माँ भी जो उसे मातृभाषा में लोरियाँ सुनाते नहीं थकतीं थीं ,पूछती हैं ,बेटा आज तुमने कौन सी अंग्रेजी पोयम सीखी ? और कुछ ही दिनों में बच्चा रटी रटाई अंग्रेजी कविताओं को सुनाना आरंभ कर देता है और पालक प्रसन्न होते है कि बच्चा सीख रहा है .पर क्या वास्तव में वह सीख रहा होता है ? कतई नहीँ . वह केवल रटंत विद्या के द्वारा केवल और केवल रट रहा होता है , और यह तोता रटंत ही उसकी पढ़ाई का अनिवार्य हिस्सा होती हैं , यदि रटने से ही प्रामाणिकता प्राप्त हो गई होती तो तोता भी मानव समाज में कुछ रचनात्मक योगदान कर पाता , पिंजरे में बन्द होकर द्वार पर लटका नहीं होता .
अंग्रेजी परिवेश में वहाँ के नौनिहालों के लिए रची गई विदेशी रचनाएं भला भारतीय बच्चे को क्या सीखा सकती है . उन के रचनाकारों ने कभी सपने में भी नहीं सोचा होगा कि उनकी रचनाएं भारतवर्ष के भावी भविष्य के निर्माताओं को दूध पीने की उम्र में ही रटा दी जाएगी .क्या हम इस ह्द तक स्वार्थी हो गए हैं कि अपने प्राणों से प्रिय बच्चों पर होने वाले ञ्त्याचार हमें नजर नहीं आ रहे या फिर हम जान -बूझकर यह सब सह्ने को विवश हें ?क्या कारण है कि हम अपने बच्चों को उनकी अपनी मातृभाषा में प्राथमिक शिक्षा न दिलवाकर मोटी मोटी फीस देने को और फिर बच्चे पर टयूशनों का बोझ बढ़ाकर विदेशी भाषा में पढ़ाने को अभिशप्त हैं .चाहे इसके लिए हमें अनैतिक तरीके से ही धन क्यों न जुटाना पड़े .
इधर कुछ तर्क दिए जाते है कि हिंदी रोजगार परक नहीं हे . परन्तु क्या कुछ हजार विदेशी नौकरियों के लालच में हम देश के सारे बच्चों पर विदेशी भाषा थोप नहीं रहे हैं ? खासकर तब जब आज के आधुनिक युग में साल छह महीने विशेष प्रयास और प्रशिक्षण से कोई भी विदेशी भाषा सहजता से सीखी जा सकती है . ऐसे में बच्चों के बचपन को अंग्रेजी के कैक्टस पर टाँग देना क्या औचित्य पूर्ण है ?
याद रहे ,जब हम किसी दूसरी भाषा में अपने बच्चों में प्राथमिक शिक्षा का बीजारोपण कर रहे होते हैं ,तो कहीं न कहीं अपनी संस्कृति ,देश तथा समाज के प्रति उसमे ह्कारत का भाव भी पैदा कर रहे होते हैं ,विदेशी भाषा और परिवेश में शिक्षित केवल और केवल संस्कृति हंता की भूमिका ही अदा करने वाले साबित हो सकते हैं .यह तथ्य विदेशौं में बसे बारतीयो को भी समझ में आने लगा है और वे अपने नौनिहालों को ए अर्थात अर्जुन और बी अर्थात बलराम पढ़ाने लगे है , जिससे कि उनके बच्चे अपनी संस्कृति से जुड़ाव मह्सूस कर सके .और हम है कि अपने बच्चों को लंदन ब्रिज की कविता रटाकर कौन से परिवेश और संस्कृति से परिचित करा रहे हैं ? अग्रेजी कितनी पीड़ादायक हो सकती है यह उस छोटे से बच्चे से पूछना चाहिए जिसे ये भाषा बेह्द उबाऊ ,थकाऊ और बो झल लगती हैं .पर वह बाध्य है अपने पालकों की नासमझी और खोखले दम्भ के द्वचक्रीय पाटों के बीच में पीसा जा रहा है .जब खुद के माता पिता ही ऱैरी हो जाए तो बेचारा किससे अपील करे .और उसकी सुनेगा भी कौन?.स्वार्थलोलुप नेता ,टयूशनखोर शिक्षक, गाल बजाने वाले समाजसेवी या फिर तथाकथित मानवाधिकारी ?इनमें से शायद कोई नहीं ,क्योंकि इनमें से किसी को भी उन बच्चों के दर्द का अह्सास रंच मात्र भी नहीं हैं .
वह तो यह भी नहीं जानता कि यह अन्याय उस पर उसके ही माता पिता शायद इसलिए भी कर रहे हैं कि बड़ा होकर कान्वेन्टी फेक्ट्री का उनका यह उत्पाद दुनिया के किसी देश में 900 या 1000 डालर पाकर उस देश की उन्नति में योगदान देगा । इस देश की तरक्की के लिए हमारे 33 करोड़ देवी देवता हैं ही . इस देश की तरक्की या इसे विकसित बनाने के हमारे प्रयास केवल और केवल सरकारों को उलाकहना देने तक ही सीमित हैं . ऐसी परिस्थितियों में देश को विकसित बनाने का हमारा सपना केवल सपना ही रहेगा .और यह ककहना भी अपसंगिक नहीं होगा कि अपनी मातृभाषा में प्राथमिक शिक्षा देने से लेकर बच्चों में मौलिक सोच का विकास किए बगैर विकसित बनने की परिकल्पना को छोड़ देना ही हमारे लिए बेह्तर होगा . क्योंकि बोए पेड़ बबूल के तो आम कहाँ से पाय?
न जाने किस जिद और भ्रम का शिकार हो चुके हैं हम कि हम गाँधीजी की कही गई उस बात पर ध्यान ही नहीं देते कि जो बच्चा अपनी मातृभाषा में प्राथमिक शिक्षा की पढ़ाई नहीं करता ,वह अपने ही हम उम्र के उस बच्चे से 06 वर्ष पीछे रहता है जो अपनी मातृभाषा में प्राथमिक शिक्षा हासिल कर रहा है. हम भारत के चोटी के वैज्ञानिकों के उस मत से भी इत्तेफाक नहीं रखना चाहते कि जब तक भारत के बच्चों को अपनी मातृभाषा में प्राथमिक शिक्षा नहीं दी जाती ,उनमें मौलिक सोच पैदा नहीं हो सकती और बच्चों में मौलिक सोच उत्पन्न हुए बगैर देश को विकसित बनाने का सपना केवल सपना ही रहेगा ह्कीकत नहीं हो सकता .
ये क्या हो गया है हमें और किस दिशा में जा रहे हैं हम ?हमने क्यों अपने बच्चे के लिए ,अपने लिए और विकसित राष्ट्र के सपनों की राह में अंग्रेजी के काँटे बिछा दिए हैं ? अगर आजादी के 60 वर्षों बाद भी हमें इस पर चिंतन या चिंता करने को समय नहीं हैं तो वह समय कब आयेगा ? क्या हमारे नौनिहाल ऐसी ही बोझिल शिक्षा को अर्जित करते रहेंगे ,रटन्तू तोते की तरह घोंटा लगाते रहेंगे या अपनी मातृभाषा में पढ़ाई करके अपने देश अपनी संस्कृति से जुड़ाव मह्सूस करते हुए विकसित राष्ट्र की नींव के पत्थर बनेंगे .अब समय आ गया हैं कि हमें इस पर विचार करना आरंभ करना होगा .और मासूम बच्चों पर हो रहे भाषाई अत्याचार से मुक्ति दिलानी ही होगी . वरना एक न एक दिन कोई बाल 'तिलक' यह उद्घोष अवश्य कर देगा कि मातृभाषा में प्राथमिक शिक्षा मेरा जन्म सिद्ध अधिकार हैं और मैं इसे लेकर रहूंगा.
-राजेन्द्र अविरल
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कविता
पिता
जब जन्म लिया था ,
मैंने खोए थे,जीवन के झंझावातों में तुम .
जब उठाया बाहों तुमने मुझे /
सुन्दर भविष्य के लिए मेरे ,
कठोरतम श्रम का
व्रत ले रहे थे तुम .
मेरे पाठशाला में जाने के ,
पहले ही तुम ही ,
दौड़ पड़े थे लेने /
स्लेट पेंसिल मेरी .
तंग करने पर सह्पाठियों के /
समझाया था तुमने ,
ऐसे और भी लोग मिलेंगे /
और कैसे निपटना होगा मुझे उनसे .
बड़ा होते ही दोस्त बन चुके थे .
तुम भी मेरे ,
समझाते दुनिया की ऊँच -नीच /
धूँप-छाँव ,खुशी गम..
शहर असफलता पर मेरी ,
दिलाया विश्वास तुमने कि /
सफलता की राह में ,
मिल जाती है ,यह भी परखने को हमें .
मौन होकर भी ,
सब कुछ कह जाते थे तुम /
कैसे चुका पाऊँगा ,
तुम्हारे अनंत उपकारों का कर्ज .
कठोरता के आवरण में लिपटे /
कोमलता का अह्सास कराते ,
तुम्हारे शब्द आज भी ,
भटकने पर राह दिखा जाते है मुझे .
आज बन कर एक बालक का पिता /
मह्सूस कर रहा हूं ,
उन परिस्थितियों को /
जिनमें तुमने मेरा निर्माण किया .
पोते से बतियाते देख तुम्हें /
मैं भी सुन लेता हूँ ,
छुप छुप कर तुम्हारी संघर्ष गाथाएं ,
और भींग जाती हैं पलकें मेरीं .
पिता मैं धन्य हूँ ,तुम्हें पाकर /
उऋण नहीं हो सकता कभी तुमसे /
भूमि जैसी माँ में जड़े मजबूत हैं मेरी तो ,
तुम आकाश हो ,धूप हो ,कवच हो मेरा
पिता मैं धन्य हूँ ..
राजेन्द्र ' अविरल '
रचनाकार परिचय:
नाम : राजेन्द्र 'अविरल'
जन्म : 23.10.1968 (रतलाम में )
शिक्षा : एम.ए.(हिंदी साहित्य)
विद्युत इंजीनियरिंग में डिप्लोमा
उपलब्धियाँ : विभिन्न स्थानीय एवं प्रादेशिक समाचार पत्र-पत्रिकाओं अवंतिका ,अग्निपथ(उज्जैन) ,राज-एक्सप्रेस(भोपाल) , सुरभि-संस्कृति (रतलाम) में लेख ,व्यंग्य प्रकाशित , स्थानीय एवं प्रांतीय काव्य -गोष्ठियों में शिरकत , निरंतर र्साथक लेखन हेतु प्रयासरत .
सम्मान :गुजरात रिफाइनरी द्वारा वर्ष 2005 में आयोजित अखिल भारतीय कविता लेखन प्रतियोगिया में द्वितीय पुरस्कार .
पता : A-18, संयोग सृजन ,तक्षशिला परिसर , मुखर्जी नगर के पास ,रतलाम (म.प्र.) पिन 457001
फोन : 07412-264670 , मोबाईल -09229873215.
E-mail - aviral_raje246@rediff.com
rajendra aviral ki rachna pita aur aalekh bahut hi acche hai ,
जवाब देंहटाएंrachanakar ko badhai
saath me prakashit painting bhi bahut acchi hai
D.R.tabiyar
rajendra aviral ki kavita ne jeevan ki satyata ko pramanit kiya hai aur yah kavita doosro ke liye jeevan ki prerna banegi aisa mera vishwas hai. vartmaan yug me sanskar yukt banne ke liye aapki kavita hridaymarmsparshi hai ,jo aapki kavita me aapka anubhav hai ,isse manav samaj prerna le yahi meri shubh kamna hai .pt.B.K.tiwari ratlam
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