- सीताराम गुप्ता पेट्रोल और डीजल के दाम बढ़ने की संभावना से ही हलचल शुरू हो गई। पेट्रोल पंपों पर रौनक बढ़ गई। आख़िरकार आधी रात के बाद दाम...
- सीताराम गुप्ता
पेट्रोल और डीजल के दाम बढ़ने की संभावना से ही हलचल शुरू हो गई। पेट्रोल पंपों पर रौनक बढ़ गई। आख़िरकार आधी रात के बाद दाम बढ़ने की घोषणा भी एक दिन कर ही दी गई। चारों तरफ अफरा-तफरी मच गई। जिसे देखो भागा जा रहा है पेट्रोल भरवाने। गाड़ी में दस-पंद्रह लीटर पेट्रोल होगा पर आज तो टंकी फुल करवानी है। वैसे तो दो-दो लीटर पेट्रोल डलवाते फिरेंगे। बाप गाड़ी ले जा रहा है तो 50 रुपये का पेट्रोल डलवा रहा है और बेटा 25 रुपये में ही काम चला रहा है। न जाने पेट्रोल समाप्त हो जाने पर कितनी बार गाड़ी सड़क के बीच में ही लटक कर रह गई पर आज टंकी फुल करवानी है।
पेट्रोल पंपों पर लंबी-लंबी लाइनें लगी हुई हैं। घंटों में पेट्रोल डलवाने का नंबर आ रहा है पर आज ये मैदान मारना ही है जैसे आज ये जीत हासिल कर ली तो फिर जीवन भर कोई ख़तरा नहीं। पेट्रोल भरवाकर विजयी की मुद्रा में घर लौट रहे हैं। मैंने ऐसे ही एक साहब से पूछा कि भाई साहब चार किलोमीटर जाकर पेट्रोल भरवा कर लाए हो इतना पेट्रोल तो जाने-आने में ही लग गया होगा जितना फायदा नहीं हुआ होगा। कहने लगे, ''फायदा कैसे नहीं हुआ?'' मैंने पूछा कैसे? कहने लगे पन्द्रह लीटर पेट्रोल भरवाकर लाया हूँ। ढाई रुपये लीटर के हिसाब से साढ़े सैंतीस रुपये का लाभ हुआ और जाने-आने में लगा चौबीस रुपये का पेट्रोल। इस प्रकार साढ़े तेरह रुपये का फायदा ही हुआ। नेट प्रॉफिट। हर चीज का हिसाब उंगलियों पर है। यही तो है हमारी आज की शिक्षा। लाभ-हानि का आकलन फौरन हो जाता है। हाथों-हाथ प्रॉफिट एंड लॉस अकाउण्ट और बैलेंसशीट। फिर ये हमारा अधिकार भी है हम अपना अधिकार क्यों छोड़ दें?
लाभ-हानि की बात करें तो लाभ तो तब होता है जब किसी चीज को ज्यादा में बेचें लेकिन यहाँ तो विक्रय हुआ ही नहीं। यदि प्राप्त संतुष्टि को ही लाभ मान लिया जाए तो यहाँ पूरे साढ़े सैंतीस रुपये की संतुष्टि हुई है लेकिन उसमें से चार किलोमीटर जाने और चार किलोमीटर आने की निरर्थक क्रिया का नुकसान भी घटाना पड़ेगा। लेकिन क्या इस निरर्थक क्रिया को पैसों में ऑंका जा सकता है? क्या चार किलोमीटर जाने और आने की निरर्थक यात्रा का नुकसान मात्र चौबीस रुपये ही होगा?
एक दुकानदार ने थाने में रपट दर्ज करवायी कि एक ग्राहक ने उसे तीन किलोग्राम का बट्टा दे मारा। दरोगा ने पूछा कि भई तीन किलोग्राम का तो कोई बट्टा होता ही नहीं फिर उसने तुम्हें तीन किलोग्राम का बट्टा कैसे मार दिया। लाला जी अपनी बात पर डटे हुए थे कि मुझे तीन किलोग्राम का बट्टा ही मारा गया है। दरोगा ने कहा कि भाई मुझे पूरी बात विस्तार से बताओ। लाला जी ने कहा कि हमारी कहासुनी हो गई। मुझे गुस्सा आ गया और मैंने दो किलोग्राम का बट्टा उठा कर उसे दे मारा। उसने बदले में पाँच किलोग्राम का बट्टा मुझे मार दिया। उसने मुझे पाँच किलो का बट्टा मारा पर मैंने तो सिर्फ दो किलो का बट्टा ही मारा था। उसके पाँच किलो के बट्टे में से दो किलो का बट्टा घटा दिया जाए तो तीन किलो का बट्टा बचा कि नहीं? क्या ख़ूब तर्क है आप अपराध करके भी अपराधी नहीं।
प्रश्न उठता है कि जब दो व्यक्तियों ने एक दूसरे के प्रति अपराध किया हो तो क्या ज्यादा अपराध करने वाले के अपराध में से कम अपराध करने वाले के अपराध को घटा कर बाकी बचे अपराध के लिए बड़े अपराधी को सजा दे दी जाए अथवा दोनों को उनके अपने-अपने अपराध की सजा मिले? न्याय तो यही कहता है कि दोनों को ही उनके अपराधों की पूरी-पूरी सजा मिले। जिसने दो किलो का बट्टा मारा है उसे भी उसके कृत्य की सजा मिले और जिसने पाँच किलो का बट्टा मारा है उसे भी उसके कृत्य की सजा मिले। यहाँ ये भी संभव है कि दो किलो का बट्टा मारने वाले को ज्यादा सजा मिले क्योंकि अपराध की शुरूआत उसने की। दूसरे ने संभव है बचाव में ये कार्य किया हो।
अगले दिन से दाम बढ़ने हैं इसलिए आज और अभी पेट्रोल भरवाने चले जाते हैं। काम छोड़ना पड़े, गर्मी लग जाए कोई बात नहीं। बेशक ये एक आर्थिक लाभ का सौदा हो सकता है लेकिन वास्तव में देखें तो चार किलोमीटर का जाना और उतना ही आना उसमें जो खर्च आया वह चौबीस रुपये मात्र नहीं है। आपको जाने की जरूरत ही नहीं थी। कल उस रास्ते से गुजरते तो पेट्रोल भरवा लेते। आज जाकर आपने बेकार सड़क पर भीड़ बढ़ाई और प्रदूषण की मात्रा में वृद्धि की। कोई आपात स्थिति नहीं थी ये। वस्तुत: आपने एक अपराध किया है आर्थिक भी और सामाजिक भी। वस्तुओं की जमाखोरी की जिससे कृत्रिम अभाव की स्थिति पैदा हो सकती है कालाबाजारी को प्रोत्साहन मिल सकता है। मात्र साढ़े तेरह रुपये के लिए आपने पूरे राष्ट्र को ख़तरे में डाल दिया। आपने आठ किलोमीटर की निरर्थक ड्राइविंग की लेकिन लाखों-करोड़ों लोग यदि ऐसा ही एक साथ करेंगे तो क्या होगा? करोड़ों किलोमीटर की निरर्थक यात्रा और करोड़ों रुपये के तेल की बर्बादी और प्रदूषण का तो कुछ हिसाब ही नहीं। क्या आपके साढ़े तेरह रुपये की नकद बचत से या करोड़ों लोगों की साढ़े तेरह-तेरह रुपये की कुल बचत से भी इस प्रदूषण पर काबू पाया जा सकता है?
इसके लिए दोषी कौन है? हमारी घोर व्यावसायिक सोच और अल्पकालिक लाभवृत्ति और इसका निर्माण किया है हमारी शिक्षा ने। इन सब स्थितियों के लिए उत्तरदायी है हमारी शिक्षा प्रणाली। आज की शिक्षा हमें बचत करना सिखाती है। छोटी-छोटी बचतों को बढ़ाकर ज्यादा लाभ कमाना सिखाती हैं। इसके लिए पर्यावरण, सामाजिक जीवन और नैतिक मूल्यों की घोर उपेक्षा की जाती है। उत्पादक अपना सामान बेचने की फिराक में रहते हैं। नहीं बिकता तो एक के साथ एक फ्री देते हैं। फिर भी नहीं बिकता तो एक के साथ दो फ्री देते हैं लेकिन किसी न किसी तरह आपको फंसा ही लेते हैं। आज की शिक्षा उनके पक्ष में है। शिक्षा उपभोग पर नियंत्रण कर पर्यावरण और सामाजिक परिवेश के संरक्षण की आवश्यकता से विमुख है।
शिक्षा हमें पैसे बचाना सिखाती है। किसी भी प्रकार भाग दौड़ कर हम सस्ती चीशें ख़रीदने का जुगाड़ कर ही लेते हैं। पैसे बचाकर व्यक्तिगत जीवन को आरामदायक बनाने के लिए सुख-सुविधा प्रदान करने वाली वस्तुओं को प्राप्त करना ही जीवन का एकमात्र उद्देश्य रह गया है और इसी के लिए न जाने कितनी निरर्थक क्रियाएँ करते हैं। इस आपाधापी में अपने सामाजिक दायित्वों को पूरी तरह भुला देते हैं। इसके लिए शिक्षा के उद्देश्यों में परिवर्तन करना ही होगा। शिक्षा वही हो जो व्यक्तिगत लाभ-हानि का आकलन करना न सिखाए अपितु हमारे अंदर उदात्ता मूल्यों को स्थापित करे।
जो चीज समाज या राष्ट्र के हित में नहीं, परिवेश के अनुकूल नहीं उसे न करना ही सही लाभ है शेष हानि ही हानि है उससे चाहे कितना भी पैसा क्यों न मिले। जो इस चीज का ज्ञान दे सके वही शिक्षा है और जो इस ज्ञान को जीवन में उतार सकें वही शिक्षित हैं। बाकी सब व्यवसायी हैं। इतने बड़े व्यवसायी बनना भी किस काम का कि पैसों के लिए अपना सुख-चैन, समाज का सुख-चैन बेचना पड़े। हमारे आध्यात्मिक विकास की राह में हमारे आर्थिक विकास का ढाँचा हमारी आकस्मिक लाभ वृत्ति और शिक्षा प्रणाली के संकुचित उद्देश्य सबसे बड़ी बाधाएँ हैं। इन बाधाओं को पार करके ही हम समाज और राष्ट्र का सर्वांगीण विकास कर सकते हैं।
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