- मनोज सिंह मेरी आवाज प्राकृतिक रूप से भारी और बुलंद है। सामान्य बातचीत में भी ध्वनि तेज ही निकलती है। बहुत कोशिश करते हुए धीरे से ध...
- मनोज सिंह
मेरी आवाज प्राकृतिक रूप से भारी और बुलंद है। सामान्य बातचीत में भी ध्वनि तेज ही निकलती है। बहुत कोशिश करते हुए धीरे से धीरे बोलने पर भी बगल के कमरे में मुझे सुना जा सकता है। अच्छे शब्दों के साथ प्रेमपूर्वक भी कहूं तो लगता है लट्ठ चला रहा हूं। चेहरे से आक्रोश के साथ ही क्रोध स्वाभाविक रूप से झलकता रहता है तो आंखों से तेजी प्रकट होती है। किसी को प्यार से देखने पर भी लगता है कि घूर रहा हूं। कितना भी झुककर, संभलकर चलूं, मेरी चाल के लिए कहा जाता है कि उसमें गुरूर और गर्मी भरी होती है। संपूर्ण व्यक्तित्व के बारे में कहें तो लोग अकसर मुझे गुस्सैल, घमंडी, ऐंठू और कोई-कोई तो बदमाश तक कह जाता है। पाठक सोचेंगे कि मुझे आत्म प्रशंसा में ऐसे विश्लेषणों को लगाने की आवश्यकता क्यूं आ खड़ी हुई। सर्वप्रथम, उपरोक्त वक्तव्य कितना सही है कहना मुश्किल है, मगर अगर है भी तो यकीन से कह सकता हूं कि ये सारे गुण-अवगुण को विकसित करने में मेरा योगदान न के बराबर है। अवस्था और परिस्थितियां प्रेरक हो सकती हैं लेकिन मुख्यत: ये अपने आप सहज रूप से जन्म से मेरे व्यक्तित्व का हिस्सा हैं। नजदीकी दोस्तों का यकीन करें तो मेरा आंतरिक स्वभाव सरल होते हुए भी बाहरी स्वरूप का मुझे प्रारंभ से ही फायदा कम नुकसान अधिक उठाना पड़ा है। फायदे को देखें तो बस, ऑफिस में मुझे अधिक चिल्लाने की आवश्यकता नहीं पड़ती और अनुशासन बना रहता है। कॉलेज के दिनों में आवारागर्दी करते समय गली के गुंडे दो-चार के झुंड में भी मुझे अकेला देखकर सहम जाया करते थे। जबकि कोई विशेष परिस्थिति न हो तो आंतरिक रूप से बलात् गुंडागर्दी करना मेरा स्वभाव नहीं। नौकरी में आने पर सामान्यत: बॉस डांटने से पहले चार बार सोचते हैं।
दूसरी ओर, नुकसान की बात करें तो उसकी सूची लंबी है। कॉलेज के दिनों में लड़कियां डर से नजदीक नहीं फटकती थीं। सुरक्षा या सहयोग प्राप्त करने के उद्देश्य से कुछ एक ने पास आने की जरूर कोशिश की, मगर प्रेम था या मुझसे सहायता लेने की चालाकी, कहना मुश्किल है। कॉलेज के प्रिंसिपल, मेरे प्रथम वर्ष के प्रथम दिन, व्यक्तिगत परिचय के दौरान यह स्वीकार करने को तैयार नहीं थे कि मैं वही छात्र हूं जिसने राज्य में मैरिट में स्थान प्राप्त किया। अपने इस नैसर्गिक व्यक्तित्व पर ऋणात्मक वक्तव्य मुझे अभी कुछ दिनों पूर्व भी सुनने को मिला, जब एक स्थापित समाचारपत्र के वरिष्ठ संपादक ने मेरी पुस्तक के लोकार्पण में अपने उद्बोधन में कहा कि इन्हें देखकर यह लगता ही नहीं कि ये लेखक भी हो सकते हैं। इतने वर्षों बाद भी मुझे इस तरह के कथन सुनने की आदत नहीं। मन ही मन तकलीफ होती है। जब बचपन के सहपाठी, जो अब भद्रपुरुष व महिला बन चुके हैं, आज इस उम्र में भी मुझे हल्के से लेते हुए विशेष शब्द कह जाते हैं तो दिल को बड़ी ठेस पहुंचती है। इतना ही हो तो भी इंसान सब्र कर ले, मगर जब हानि होने लगती है तो मन विद्रोह कर उठता है, और फिर परिणामस्वरूप और अधिक नुकसान उठाना पड़ता है। औरतों के साथ तो यह अकसर होता है, बदसूरत नापसंद की जाती हैं और खूबसूरत लड़कियों की दुनिया दीवानी होती है। सरकारी हो या गैर-सरकारी कार्यालय, हर एक जगह ऐसा आमतौर पर होता है कि, अगर आपका बाहरी व्यक्तित्व, व्यवहार व जुबान उग्र व कठोर है और आपके साथ का कोई व्यक्ति मीठे और चॉकलेटी चेहरे का धनी है तो यकीनन आप नुकसान उठा रहे होंगे। वो बड़े प्यार से अपने झूठ को भी सच साबित करके आपको नीचा दिखा देता होगा। दूसरों को गलत साबित करके स्वयं सफलता की सीढ़ियों पर आगे बढ़ जाता होगा। अब मुझे ही देख लें, बचपन से ही बच्चों की आपस की लड़ाई में बेकसूर होते हुए भी मैं ही अधिक डांट-मार खाता था। नौकरी में भी अच्छे से अच्छा काम करके भी अधिकांश सहयोगी मेरे बदले अधिक फायदा उठा ले जाते हैं, ऊपर से बॉस से अकसर मेरी चुगलीकर, अपनी आत्मरक्षा के नाम पर मुझे फटकार लगवा जाते हैं।
समाज के किसी भी क्षेत्र में देख लें, बाहर से दिखने में शांत और सुंदर व्यक्तित्व के धनी लोग सामान्य रूप से अधिक स्वीकार्य होते हैं और तीव्रता से आगे बढ़ते हैं। इनके दुश्मन कम होते हैं और आसपास के लोग इन्हें नुकसानदायक नहीं मानते। उलटे बेचारा, कहकर सभी सहयोग देने के लिए आगे बढ़ जाते हैं। फिर चाहे वो बाद में उन्हें हानि ही क्यों न पहुंचा दे। राजनीति, कला, संगीत, खेल, व्यवसाय कहीं का भी उदाहरण ले लें, इतिहास के पृष्ठों को खंगालकर भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को देख लें, सदैव उन्हीं को वरीयता प्राप्त हुई है, वे ही अधिक स्वीकारे गए हैं, जिनका व्यक्तित्व मनमोहक था। फिर चाहे वो अंदर से किसी भी तरह के हों। विज्ञापन के युग में तो सफल व्यक्तियों की आपस की होड़ में भी दिखने में सुंदर व स्मार्ट बाजी मार ले जाते हैं और अधिक चर्चित रहते हैं। व्यक्ति का द्रष्टव्य प्रभाव इतना असरदार होता है कि तानाशाह जिसे जरूरत के कारण कठोर रुख अपनाना पड़ता है वे भी जनहित में जितना भी कार्य कर लें, जनता द्वारा उन्हें पसंद नहीं किया जाता। अवाम आसानी से उसी को स्वीकार करती है जो उसे देखने में बेहतर दिखाई देता है। खलनायक के बदले नायक सदैव दिल से चाहे जाते हैं फिर चाहे वो व्यक्तिगत रूप से कितने भी वाहियात किस्म के इंसान क्यूं न हो। यहां भी गौ़र करें, क्या आपने कभी किसी फिल्मी नायक को बदसूरत देखा है? पर्दे पर कड़वा बोलते देखा है? नहीं। अगर ऐसा कभी हुआ भी तो पर्दे में आने के बाद उसे सुंदर से सुंदर बनाने की कोशिश की जाती है। यह सिलसिला धर्मक्षेत्र में भी होता है। क्रोधी गुरु के अनुयायी कम होते हैं फिर चाहे वो अधिक गुणी हो। लोकप्रिय धर्मगुरु की वाणी में संगीत-सा जादू होता है। वे अपने अनुयायियों के सामने पहुंचने पर अधिक से अधिक शांत व सौम्य दिखने की कोशिश करते हैं, चेहरे पर सदा मुस्कुराहट होती है और तभी वो भक्तों को मंत्रमुग्ध कर पाते हैं। राजनीतिज्ञ भी भीड़ के बीच जाने से पहले जनता की पसंद का बनने की कोशिश करते हैं। और फिर बाद में उन्हीं को लूटते हैं। कठोर मगर सत्य बोलने को कोई पसंद नहीं करता। यही हाल लेखन में भी है। घर-परिवार में भी सीधी-सच्ची बात कहने पर आप अपने लिए मुसीबत पैदा कर सकते हैं। शादी के लिए लड़की देखने जाने पर सूरत और सीरत के बारे में, लड़के के मां-बाप कितना भी जानते हों, सुंदर लड़कियों को ही पसंद किया जाता है फिर चाहे वो शादी के बाद दूल्हेराजा की हालत खराब कर दे। दूसरी ओर बदसूरत घर बैठी रहती हैं। फिर चाहे वो स्वभाव की भली हो।
सत्तर के दशक में एक फिल्म आई थी जिसका एक गाना अत्यधिक जन प्रचलित हुआ था 'दिल को देखो चेहरा न देखो, चेहरे ने लाखों को लूटा।` गीतकार के बोल सब कुछ कह जाते हैं। दर्शक ताली भी बजाता है, समझता भी है, स्वीकार भी करता है। मगर अमल में लाना नहीं चाहता। क्या करे उसकी भी मजबूरी है। सोचिये, क्या वो इसी गाने को किसी बेसुरे की आवाज में सुनना पसंद करता? या फिल्म के खलनायक पर फिल्माया जाता तो क्या इसे सुना जाता? नहीं। मगर बात फिल्म तक हो तो ठीक है। लेकिन अगर मामला राजनेता, धर्मगुरु, परिवार के सदस्यों-दोस्तों, कार्यालय में अधीनस्थ कर्मचारी या बॉस के पहचान की हो तो उपरोक्त गाने पर जरूर गौ़र करना चाहिए। नहीं तो आप नुकसान में रहेंगे।
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रचनाकार संपर्क:
-मनोज सिंह
४२५/३, सेक्टर ३०-ए, चंडीगढ़
मनोज जी
जवाब देंहटाएंआप की त्रासदी मैं समझ सकती हूँ। दुर्भाग्यवश मैं भी जन्मजात इसी त्रासदी का शिकार हूँ(सिर्फ़ आवाज मेरी भारी नहीं हैं) और ऊपर से नारी, तो मेरी त्रासदी आपसे ड्बल है। सबसे बड़ी मुश्किल ये है कि ऐसे व्यक्तित्व को आप बदलना भी चाहें तो कर नहीं सकते।
मनोज जी, आपसे ठीक विपरीत स्थिति है मेरी लेकिन इसका फ़ायदा मुझे कभी नही मिला । या शायद मैने लेना नही चाहा । प्रतिभावान भी हूं लेकिन कई बार पीछे हटी और हमेशा सतर्क रही कि कहीं यह न लगे कि व्यक्तित्व के आकर्षक होने का फ़ायदा उठा रही है । इसलिए न चाह कर भी वह रूखापन और कठोरता अपनाई जो आपको जन्म से मिल गयी है और जिसमें आपका कोई योगदान नही ।
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