योग द्वारा ही संभव है धर्म का पालन - सीताराम गुप्ता प्राय: योग, धर्म और अध्यात्म को अलग-अलग माना जाता है। योग का संबंध भौतिक शरीर क...
योग द्वारा ही संभव है धर्म का पालन
- सीताराम गुप्ता
प्राय: योग, धर्म और अध्यात्म को अलग-अलग माना जाता है। योग का संबंध भौतिक शरीर को पुष्ट करने अथवा शारीरिक व्याधियों के उपचार तक सीमित माना जाता है। धर्म को प्राय: किसी विशेष पद्धति से पूजा-पाठ अथवा कर्मकाण्ड मान लिया गया है तथा अध्यात्म को दूसरे लोक की रहस्यात्मक वस्तु मान लिया जाता है। वास्तव में धर्म, अध्यात्म तथा योग अभिन्न रूप से जुड़े हुए हैं। एक के अभाव में दूसरे की कल्पना भी नहीं की जा सकती। अब इन तीनों को अलग-अलग देखने और इनके अंतर्संबंधों को जानने का प्रयास करते हैं।
धर्म क्या है?
धर्म की अनेक परिभाषाएँ और व्याख्याएँ मिलती हैं। मनुस्मृति में लिखा है:
धृति: क्षमा दमोद्धस्तेयं शौचमिन्द्रिय निग्रह:।
धीर्विद्या सत्यमक्रोधे दशकं धर्म लक्षणम्॥
धैर्य, क्षमा, दम, चोरी न करना, शुचिता, इंद्रिय-संयम, बुद्धि, विद्या, सत्य और अक्रोध - ये धर्म के दस लक्षण हैं। जिस व्यक्ति के स्वभाव में इन दस लक्षणों का समावेश होगा, वह व्यक्ति धर्म से युक्त होना ही चाहिए, चाहे वह हिंदू हो अथवा अन्य कोई। यदि संकुचित दृष्टि से ऊपर उठकर देखें तो पाते हैं कि उपरोक्त दस लक्षण ही नहीं अपितु जितने भी सकारात्मक गुण हैं उनका समुच्चय ही धर्म है। यदि हम धर्म को कुछ विशेष लक्षणों या गुणों तक सीमित कर देते हैं तो ये हमारी संकीर्णता है। संकीर्ण मनोवृत्ति का त्याग ही महान धर्म है। जैन धर्म जब अनेकांतवाद को स्वीकार करता है तभी वह सच्चे अर्थों में महान धर्म है। महावीर स्वामी की पूजा महान जैन धर्म नहीं है। महावीर स्वामी के गुणों और सिद्धांतों को आत्मसात करना महान धर्म है। यही शुद्ध धर्म है। शुद्ध धर्म को किसी टैग की जरूरत नहीं।
संत तिरुवल्लुवर कहते हैं कि मन को निर्मल रखना ही धर्म है, बाकी सब कोरे आडंबर हैं। वास्तव में धर्म तो वह तत्व है जो उन सभी लक्षणों को धारण करता है जिनसे मनुष्य विकाररहित होकर अपना स्वाभाविक विकास करता है और इस विकास से किसी दूसरे के विकास में बाधा उत्पन्न नहीं होती चाहे वह मनुष्य हो अथवा मनुष्येतर प्राणी या प्रकृति। सह-अस्तित्व के विकास का सिद्धांत धर्म ही तो है। धर्म एक कला है जिसके सहारे जीवन को उत्तम बनाया जाता है। कोई भी स्थिति या विचार जो हमारे जीवन को उत्तम बनाए तथा सकारात्मक सहारा प्रदान करे धर्म है।
विपश्यना के आचार्य सत्यनारायण गोयंका कहते हैं:
धर्म न हिंदू, बौद्ध है, धर्म न मुस्लिम, जैन,
धर्म चित्त की शुद्धता, धर्म शांति, सुख, चैन।
शांति, सुख, चैन ही शुद्ध धर्म है और विकाररहित निर्मल चित्त का स्वामी ही इसे धारण कर सकता है। धर्म जीवन जीने की कला है और जीवन जीने की कला है विकारों से मुक्ति।
धर्म का वास्तविक स्वरूप जानने के लिए धर्म के प्रमुख अंगों को समझना भी अनिवार्य है। धर्म के तीन प्रमुख अंग है:
1. दर्शन ;नैतिकता, अध्यात्म,
2. प्रतीक
3. कर्मकाण्ड
दर्शन धर्म का आंतरिक तत्व है जबकि प्रतीक और कर्मकाण्ड बाह्य तत्व हैं। आज हम धर्म के आंतरिक तत्व अर्थात् दर्शन या नैतिक मूल्यों को भूल चुके हैं। प्रतीकों और कर्मकाण्ड को धर्म मान लिया है। धर्म का आंतरिक तत्व ही अध्यात्म है और उसका विकास आध्यात्मिकता। चित्त की शुद्धता के बिना इसे धारण करना असंभव है। धर्म आचरण में हो दिखावे में नहीं। धर्म को आचरण में उतारने के लिए या नैतिक मूल्यों के समावेश के लिए जरूरी है धर्म के आंतरिक तत्व अर्थात् आध्यात्मिकता का विकास।
अब प्रश्न उठता है आध्यात्मिकता से क्या तात्पर्य है? हमारा शरीर मात्र हाड़-मांस का बना नहीं है। भौतिक शरीर के अतिरिक्त अन्य कई शरीर भी इसमें समाहित है। शरीर के इन विभिन्न कोषों अथवा अवयवों को जानना भी अनिवार्य है। मोटे तौर पर शरीर को तीन भागों में बाँटा गया है :
1. स्थूल शरीर अथवा भौतिक शरीर
2. मानसिक शरीर अथवा मन या कारण शरीर
3. सूक्ष्म शरीर या चेतना अथवा आत्मा
इन तीनों शरीरों को जानना तथा मन के माध्यम से चेतना में स्थित होना ही आध्यात्मिकता है। इसके लिए चित्त की शुद्धता अनिवार्य है। चित्त की शुद्धता योग द्वारा ही संभव है अत: योग धर्म और आध्यात्मिकता से पृथक नहीं है। योग शुद्ध धर्म का पर्याय है। शरीर और मन के बीच सेतु बनता है श्वास तथा मन और चेतना के मध्य सेतु है ध्यान एवं एकाग्रता। श्वास का सही अभ्यास और ध्यान योग के ही अंग हैं। अत: योग ही आध्यात्मिकता है योग ही शुद्ध धर्म है।
योगसूत्र में योग की परिभाषा भी शुद्ध धर्म की परिभाषा से मिलती है। कहा गया है:
''योग: चित्तवृत्ति निरोध:'' चित्तवृत्तियों का निरोध अर्थात् मन को स्थिर करना ही योग है। गीता में कहा गया है कि ''समत्वं योग उच्यते'' अर्थात् मन का समता में स्थित होना ही योग है। कुछ व्यक्ति मात्र योगासन तथा प्राणायाम को ही योग समझ लेते हैं। वास्तव में अष्टांग योग के आठों अंगों तथा सभी उपांगों का अभ्यास ही सम्पूर्ण योग है। यम-नियम से लेकर ध्यान और समाधि तक की यात्रा ही पूर्ण योग है। यदि यम-नियम का पालन नहीं किया जाता तो यह धर्म के बाह्य तत्व की तरह अधूरा रह जाता है। धर्म के जितने भी लक्षण गिनवाए गए हैं वे सभी यम और नियम में आ जाते हैं। इन सभी को धारण करने के लिए ध्यान की आवश्यकता पड़ती है। ध्यानावस्था में पहुँचने के लिए आसन और प्राणायाम सहायक होते हैं। इस प्रकार अष्टांग योग का अभ्यास ही शुद्ध धर्म है, यही मनुष्य धर्म है। इसके उपरांत किसी धर्म की आवश्यकता ही नहीं रह जाती। तो आइये जीवन को धर्ममय बनाने के लिए जीवन को योगमय बनाने की ओर अग्रसर हों। यही सच्ची आध्यात्मिकता है।
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सीताराम गुप्ता
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