कहानी निताई भिखमंगा, प्रेमिका और कविता एक मौत की - लाल्टू अजंता, तपती दुपहरी, लू के तमाचे और शाम का एकाकीपन, इन सबसे अलग अब...
कहानी
निताई भिखमंगा, प्रेमिका और कविता एक मौत की
- लाल्टू
अजंता,
तपती दुपहरी, लू के तमाचे और शाम का एकाकीपन, इन सबसे अलग अब और कुछ नहीं रहा। तुमने पाँच वर्षों के अनुभव पर कविता लिखने को कहा था न...! मैंने लिखा है–‘बस फटे पन्ने-सी उड़ती ज़िंदगी, इस पुलिये को भी छोड़ चली...।’ बस! इसके बाद और कुछ लिख न पाया! सुना है, बड़े शायरों ने पुरानी जगहों को छोड़ते वक़्त समृतियों को गीतों व ग़ज़लों में संजोया है; पर मैं तो, तुम जानती ही हो कभी दो-एक कविताएं लिख लेता हूँ। अब अचानक किसी फूल के खिलने-सा आलोड़न अनुभव करता हूँ हृदय में, या जब मेरे किसी मित्र की बातों में कहीं कुछ चुभता हुआ सा प्रतीत होता है। अचानक दिशाओं में वीणा के तार झंकृत हो उठते हैं और मैं डायरी के पन्नों में कुछ लिखने लगता हूँ। पर इन पाँच वर्षों में मैं सूखता गया हूँ, पल्लवहीन तरु जैसा। कभी लगता है, किसी ने तीखे चाकू की नोक मेरे हृदय में चुभो दी है। अब कोशिश करने पर भी आवेग नहीं उत्पन्न होता, और फिर यह तो, स्कूल टीचर गिरिधर पांडे कहा करते थे न–कला जो है, सीखी नहीं जा सकती, चक्रवात-सी अचानक उबल पड़ती है। अपने चारों ओर निर्लज्ज नंगे मनुष्यों को महसूस करती मेरी आँखें उन्हीं की तरह ठंडी हो गई हैं। अब कहीं कुछ उबलता नहीं...!
पाँच साल...! अच्छा, अजंता! तुम्हें ऐसे किसी द्वीप में भेज दिया जाए जहाँ सभी नपुंसक हों और तुम... एक मिनट के लिए तुम्हें पुरुष मान लेता हूँ ... (हंसना नहीं, मैं सीरियसली सोच रहा हूँ) अपना पुरुषत्व लिए नपुंसकों के बीच घूमती रहो, एक क्षीण आशा लिए कहीं कोई और स्वस्थ मनुष्य मिले! दो-एक पुरुष तुम्हें मिलें भी तो वे नपुंसकों की भीड़ में सम्मोहित दीख पड़ें, तो तुम्हें कैसा लगेगा?... और अचानक एक दिन तुम्हें पता चले कि वे सब नपुंसक नहीं थे, कतिपय राक्षस और उनके भय से पुरुषों की विशाल श्रेणी कुत्तों की तरह दुम हिलाती घूम रहीं!... मुझे पहली दफ़ा जब इस रहस्य का पता चला ... मैं रो पड़ा था... (मैं डर गया था कि मुझे मार डाला जाएगा, पर जब तक मेरी मौत करीब आई, मुझमें ज़िंदा रहने की लेशमात्र भी इच्छा न ती)। जब रोते-रोते मैं थक गया, मैंने कविताएं लिखीं। मेरे आंसुओं से भीगी वे कविताएं...जिनमें मेरे कमरे के बगल से बहती खून की नदी बहती थी, उन्हीं फटे पन्नों में बिखर गईं...जिनमें मिलकर मेरी ज़िंदगी क्रमशः उड़ती जा रही है।
मैंने फूलों को मुरझाते ही देखा। तुम पूछोगी, ‘तुम्हारे मित्रों को हंसते भी तो देखा है?’ बेशक! हंसी, जिसमें मैं नहीं शामिल हो पाया। अजंता! तुमनें किसी फूल को मुरझाते हुए देखा है?... अगर कभी ग़ौर से देखा हो तो मुरझाने से पहले खिलने के लिए जब फूल हाथ-पैर पटकता है... उस क्षण तुम्हें बेहोशी की अनुभूति अवश्य हुई होगी। मैं इसी बदहवासी में दिन गुज़ारता रहा हूँ। पहले दिन जब मैं रोया था, दर्जी गंगाचरण के बेटे को दाख़िला न दिला पाने की वजह से, और गंगाचरण के यह कहने पर कि, ‘डिफेंस में हैं साहब! हमारे बच्चे को सेंट्रल स्कूल में नहीं लिया और प्रोफेसरों के लड़कों को ले लेते हैं...।’ उसी दिन श्यामा के घर निमंत्रण था, अठारह मोमबत्तियां बुझा कर उसने केक काटा था... मेरे मन में सवाल था कि गंगाचरण के बेटे और श्यामा के भाई को क्या एक तराज़ू को दो पलड़ों पर बैठाया जा सकता है।
मेरा हृदय बहुत पहले से ही चूर्ण-विचूर्ण हो चुका है। अब अगर गुड्डी की चिट्ठियों में बापू का शराबी पागलपन या आर्थिक दुर्वस्था का वर्णन हो, तो मुझे कोई फ़र्क नहीं पड़ता, जबकि पहले में कितना चिंतित हो जाया करता था और ‘शीघ्र ही कुछ करना होगा’ सोचते-सोचते तड़पता रहता था। शायद गुड्डी में भी टूटने की प्रक्रिया शुरू हो गई है, इसलिए आजकल उसकी चिट्ठियां कम ही आती हैं, और जो आती भी हैं, उनमें न तो खेतों की हरीतिमा होती है और न ही बरसाती दिनों का मटमैला आकाश गंभीर हो खड़ा होता है। बस ग्रीष्म की ऐसी रातें, जब कहीं हवा न बहती हो और पसीने में भीगा शरीर बिस्तर पर लुड़कता रहता हो।
अरे! आज तो 20 मई है न? ठीक एक साल पहले, याद है तुम्हें ...? मुझे लग रहा है कुछ ही दिन हुए हैं, तुमने अपनी शादी का निमंत्रण-पत्र भेजा था मुझे ...। अपनी शादी की सालगिरह मनाओगी न? तुम्हें बधाई दे दूं!...मैं तो भूल ही गया, तुम्हारी शादी किस दिन हुई थी ... पर मुझे वह दिन न भूलेगा ... ठीक एक साल पहले मैं तुम्हारे भेजे हुए उस रंगीन कार्ड को लेकर खड़ा रह गया...। जानती हो! उस दिन मैं बहुत रोना चाहता था, पर मैं रो न पाया। उस दिन पहली बार मुझे लगा... मेरी आंखों के नीचे तालाब सूख गया है और मेरा हृदय टूटता जा रहा है। मैंने मन ही मन प्रतिज्ञा की थी कि अब तुम्हारे साथ कोई रिश्ता नहीं रखूंगा, पर कुछ ही दिनों बाद जब तुम्हारा ख़त आया और उसमें तुमने लिखा था–शादी पर मेरे न आने से तुम्हें बुरा लगा ... तुम्हें बीसों साड़ियां मिलीं और क्या-क्या... अंत में लिखा था–तुम्हारे ‘वे’ चीफ़ अकांउटेंट हैं, किसी एक विदेशी कंपनी की शाखा के... उस दिन मैं हंस पड़ा था... अपनी मूर्खता पर हंसने के सिवा और कर भी क्या सकता था!... और भीतर कोई रोने लगता था... उसे भूलने के लिए मैं अपने उन मित्रों की भीड़ में जा बैठा था जो मेरी संकीर्णता पर भावुक हो मुझे विशाल होने का उपदेश देते। इसके कुछ ही दिनों बाद जब गौरी सिंह ने मुझे बताया था, कि उसकी भाभी का शादी से पहले किसी से इश्क था, इसलिए उसका भाई भाभी को पीटता है, मैंने तुम्हें एक ख़त लिखा था जिसे पड़कर ... तुम्हें पता चला कि मैं बदल गया हूँ, जैसे हर कोई बदल जाता है।
अभी कुछ दिनों पहले मेरे कुछ मित्र विदेश यात्रा से पूर्व ‘क्वॉलिटी’ में पार्टी पर बुला ले गये। उस आलीशान रेस्तरां में निशाहार करते मैंने मन ही मन तुमसे कहा, ‘अजंता, देखो मैं कितने बड़े रेस्तरां में डिनर खाता हूँ।’ तुमने हंसकर उत्तर दिया, ‘वाह! आज दोस्तों ने पार्टी दी तो चले आये, रोज़ थोड़े ही आते हो।’ मैंने कहना चाहा था, ‘तुम्हारे दांत दूध से भी ज़्यादा सफ़ेद हैं’, पर मैंने कहा, ‘हां! आज पार्टी है। अब मैं अपने इन मित्रों को असंख्य शुभकामनाएं उपहार दूंगा। ये विज्ञान और तकनीकी के हित धन कमाते हुए ही अपना जीवन कुर्बान कर दें।’ अचानक उठकर चली गईं तुम और लौटी नहीं। मेरे मित्र काफ़ी परेशान थे कि उस दिन मैं बिल्कुल चुप क्यों था...। उस वक़्त मेरी आंखों के सामने एक मोटी तोंद जिस पर ‘चीफ़ अकाउंटेंट’ का लेबल चिपका था और उससे सटी हुई एक कोमल देह तैर रही थी...।
अच्छा अजंता! हमारे स्कूल के गेट पर एक लंगड़ा भिखारी बैठा करता था। निताई नाम था उसका। ज़रा देखना, वह आजकल वहां बैठता है कि नहीं? यहां कॉलेज के गेट पर वैसा ही एक भिखमंगा बैठा करता है। एक बार बचपन में पिताजी आये थे स्कूल में, शायद हेडमास्टर ने बुलाया था। निताई को देखकर काफ़ी बिगड़े और उन्होंने हेडमास्टर से शिकायत की थी। इसके बाद करीब महीने भर वह नहीं आया था। फिर अचानक एक दिन मैंने उसे देखा था, उसी जगह बैठे हुए, एल्यूमीनियम की एक टूटी थाली पसारे...। मैंने उसे निताई कहकर पुकारा तो उसने बतलाया कि वह निताई नहीं, गोपाल है। मुझे आश्चर्य हुआ था, पर मैं हमेशा उसे निताई ही कहता था। उस दिन ‘क्वॉलिटी’ से लौटते हुए कॉलेज के गेट पर बैठे भिखारी को मेरे एक मित्र ने पाँच पैसे दिये। मुझे अचानक हंसी आ गयी। मेरा वह मित्र काफ़ी देर तक मुझे घूरता रहा और धीरे से दूसरे एक मित्र के कानों में फुसफुसाया था, “सनकी है साला!”
उस दिन मैंने एक कविता लिखी थी – ‘त्रिभुज के तीन कोणों का योग दो समकोण होता है।’ तीन कोण – भूख, नग्नता और गरीबी। समकोण – फटा पन्ना और ज़िंदगी।
एक बार यहां कि एक प्रादेशिक समिति के साथ वनभोज पर गया था। ‘बिठूर’ नामक एक स्थान पर (यहां से करीब 14 कि.मी. दूर है)। खेतों के बीच पिकनिक की। करीब ही गंगा बहती थी। वहीं रमजसवा नामक एक स्थानीय वृद्ध ने कुएं से पानी भरा। उसकी बीवी और बच्चे भी काम करते रहे। करीब तीन बजे तक सबका खाना ख़त्म हुआ तो रमजसवा को बचा हुआ खाना दिया गया। वह इतना कम था कि वृद्ध ने बीवी को बच्चों में बांट देने को कहा। बच्चों की भूख न मिटी तो वे रोने लगे। आयोजकों में से एक से मैंने रमजसवा को कुछ पैसे देने को कहा। उसका जवाब था – ‘वह तो ख़ुद आया था, हमने तो उन्हें नहीं बुलाया।’ मैंने रमजसवा को बुलाकर कुछ पैसे दिये। उस दिन भी कविता लिखना चाहता था मैं, पर लिख न पाया। गंगा के किनारे बैठा सोच रहा था, मेरे चारों ओर बहती गंगा का जल खून-सा लाल है!
पाँच वर्ष...! मैं जानता हूँ, इससे पहले के सोलह वर्ष की दुनिया भी ऐसी ही थी। पर उन दिनों तुम थीं। उससे भी पहले सब थे – मेरा अपना दिन, अपनी रात, अपना पहाड़, अपना आकाश, अपनी नदी ... क्या नहीं था! धीरे-धीरे सब कहीं विलीन होता गया, बचपन में संजोयी आकांक्षाएं धीरे-धीरे मरती रहीं। मेरे वे सब सुन्दर क्षण ... एक-एक कर सब उड़ गये और तभी मुझे लगा था, मैं एक फटे पन्ने-सा काल के साथ उड़ता जा रहा हूँ। उड़ता-गिरता, धूलि में स्नान करता मैं किसी ओर जा रहा हूँ, मुझे पता नहीं। मेरे दिन गये। मेरी रातें गयीं। मेरे पहाड़, नदी और आकाश गये, और अजंता! मेरी तुम चली गयीं। मेरी कविताएं भी चली गयीं...!
तुम्हारे ‘वो’ तो काफ़ी पैसा कमाते होंगे! पिछली बार घर गया था तो मित्रों ने बतलाया था कि वे अच्छे खिलाड़ी भी हैं। मुझे ये बेशक काफ़ी पहले से पता था, क्योंकि मैंने उन क्षणों को सहा था, जब वे खेल में वे मुझसे काफ़ी आगे बढ़ गये थे। अगर मैं कहूँ, और वास्तव में यह सच है कि मैंने तुम्हारे ‘उनको’ कई बार निर्मित किया है और उनकी हत्या की है...। उन्माद के उन दिनों में मैंने इन पाँच वर्षों के सबसे बुरे (या अच्छे!) क्षण बिताये हैं...। अजंता! तुम्हें यह सब जानकर हंसी आ रही होगी...(पर कभी किसी क्षण मेरी याद आये तो दो आंसू मेरे लिए बहाना, गंगा के जल से अधिक निर्मल ... तुम्हारे गालों पर टपकते आंसू बड़े अच्छे लगेंगे...)। अब तक शायद तुम्हें मुझ पर गुस्सा आ रहा हो, कि कहां तो पाँच वर्षों के अनुभव पर कविता मंगवायी थी, और कहां यह पागलपन! पर जैसे मई महीने में जहां हर ओर सूखे, पीलिया से आक्रांत-से पेड़ दिखलाई पड़ते हैं, मैदानों में हर दोपहर, केवल चिताएं जलती हैं... इन पाँच वर्षों के बाद मैं भी उन्हीं में कहीं न कहीं हूँ। मैं विज्ञान का विद्यार्थी हूँ न, मुझे हर अन्याय को समझना पड़ा है, मनन करके ... यही मेरी मौत का कारण था। मेरे प्रगतिशील, सक्रिय मित्रों ने उन गहराइयों में डुबकियां लगानी पसंद न की थीं, जिनमें चारों ओर फेनिल पंक था, गंदगी से भरा, टूटते हृदयों की व्यथा से बोझिल ... और वे ज़िंदा रहे।
अजंता तुमने कभी डूबते सूर्य से निकलती सतरंगी किरणों में श्रद्धा, स्नेह आदि भावों को हताशा और रुदन में बदलते देखा है? ... मेरे ये भाव एक दिन ऐसे ही बदल गये थे, जब मुझे पता चला था, किताबों और दो टांगों पर खड़ी ज़िंदगी में कितना फ़र्क है! आदिम नग्नता कि इस वीभत्सता के बारे में मैंने सोचा तक न था! और जिस दिन मैंने जाना, काले अक्षरों पर तैरती आँखों के नीचे भी नग्नता की चाह है, और प्रेम और घृणा वहां सहवास करते हैं ... मुझे याद है, मैंने दिनभर खाना तक न खाया था। शायद हर आदमी एक दिन इस परिस्थिति से गुज़रता है जब एक मिमियाती भेड़-सा वह कुछ कहना चाहता है। पर कह नहीं पाता। अगर हिम्मत कर कुछ कह भी दिया (कि देखो चारों ओर अंधेरा है! ... स्तब्ध और गाढ़ा ...) लोग संदेह की नज़रों से ताकते हैं ... पागल! और इन सबके साथ क्रमशः चलता रहता है ख़ुद को बेईमान समझने की बार-बार होने वाली मौत का सिलसिला!...
और यह मौत ही मेरी कविता है। इसे मैंने गत पाँच वर्षों में लिखा है इसके पहले कि मैं यहां से सचमुच चला जाऊं (जो अब असंभव-सा प्रतीत होता है) मैं यहां के हर पेड़, जो कि सूखे हुए हैं, हर बगीचे को, थकी रातों को जलती दुपहरियों को इसी तरह कुछ न कुछ कहना चाहता हूँ, जैसे तुमसे कह रहा हूँ ... या भिखमंगे निताई को कहना चाहता रहा ... पर कह नहीं पाया ...
इति –
पुनश्चः ... कितनी ख़ौफ़नाक मौत है यह! अपने सब आदर्शों की मौत! और काटती ज़रूरतों को ढोता मेरा पैशाचिक अस्तित्व! ... हाय अजंता! मैं न चाहता हुआ भी यह लिखने को मजबूर हो रहा हूँ ... वैसे मेरे ज़िंदा रहने की परवाह भी किसने की है। ... मेरी कविताओं का गला घोंट दिया गया। मैंने कभी कुछ चाहा था। एक प्राणमय जीवन, सृजन और संस्कृति से समृद्ध एक सामाजिक परिवेश ...। और कितना कुछ...। पर अब मेरी मौत हो चुकी है। अब मुझे कोई शर्म नहीं ... अजंता! भाई साहब की चिट्ठी आयी थी कि उन्होंने तुम्हारे ‘उन’ की कंपनी के चौरंगी स्थित ऐडमिनिस्ट्रेटिव ऑफ़िस में क्लर्की के लिए दरख़्वास्त की है। चूंकि मैं तुम्हें कभी अच्छी तरह जानता था (भाई साहब ने ऐसा ही लिखा है) मैं तुमसे अनुरोध कर सकता हूँ कि तुम भाई साहब की नौकरी के मामले में ज़रा उनसे कहो। भाई साहब ने पता लगाया था कि उनके कहने से नौकरी मिलने की संभावना बढ़ जायेगी ...
(सारिका में 1981 में पूर्वप्रकाशित)
(आशीष अलेक्जेंडर ashiah002 AT gmail DOT com का टंकण सहयोग हेतु हार्दिक धन्यवाद )
रचनाकार परिचय के लिए लाल्टू का चिट्ठास्थल आइए हाथ उठाएं हम भी देखें
-----------
कलाकृति - निखिल-छगनलाल की कलाकृति, साभार निखिल-छगनलाल
COMMENTS