दोस्ती के बदलते रूप

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  -मनोज सिंह   विगत सप्ताह अपने बचपन के दोस्त दिनेश से अचानक मुलाकात हुई थी। जबलपुर के सेंट थॉमस स्कूल में अकसर एक ही बैंच पर बैठा करते थे।...

 

-मनोज सिंह

 

विगत सप्ताह अपने बचपन के दोस्त दिनेश से अचानक मुलाकात हुई थी। जबलपुर के सेंट थॉमस स्कूल में अकसर एक ही बैंच पर बैठा करते थे। स्कूल से छूटते ही या फिर शाम को कई बार साइकिल पर साथ-साथ घूमना-फिरना, पिक्चर हॉल में आने वाली नई फिल्मों के पोस्टर देखने जाना, सड़कों पर बेवजह चक्कर लगाना, खेलना, पास के छोटे होटलों में चाय-समोसे खाना और साथ ही लड़कियों की चर्चा करते हुए गप्पें मारना, हमारी दिनचर्या में शामिल था। वो फुटबाल खेलने में अच्छा था और मैं पढ़ाई में। लेकिन बचपन से थोड़ा शरारती स्वभाव होने के कारण मैं सदा पीछे वाले सहपाठियों के साथ बैठने में लालायित रहता। जिसमें अधिकांश खिलाड़ी या फिर फेल होने वाले छात्र होते। इसके बावजूद चूंकि मस्ती पीछे के बैंचों में ही मिलती थी इसीलिए आगे बैठना मुझे पसंद न था। दोस्तों की बात माने तो इसी कमजोरी की वजह से मैं, प्रतिस्पर्धा के युग में और अधिक आगे नहीं निकल पाया। यही कारण रहा जो भारत सरकार का प्रथम श्रेणी अधिकारी और टेक्नोक्रेट बनने पर भी प्रारंभ में इस बात का सदा मलाल रहता कि थोड़ी मेहनत और करने पर प्रशासनिक या पुलिस सेवा में जाकर कलेक्टर या पुलिस कप्तान भी बना जा सकता था। जो कि धीरे-धीरे बड़े-छोटे सभी नौकरों की हकीकत देखकर कम होता चला गया और फिर लेखन में आने के बाद तो यह मलाल पूरी तरह से जाता रहा।

 

खेल में अव्वल दिनेश बीएसएनएल में कार्यालय सहायक है मगर आज भी फुटबाल खेलता है और दूरसंचार की मध्य प्रदेश टीम का कप्तान है। भारत संचार निगम लिमिटेड, अन्य शासकीय विभागों की तरह ही अखिल भारतीय स्तर पर अपने अधिकारी-कर्मचारियों के लिए विभिन्न खेल प्रतियोगिताओं का आयोजन प्रतिवर्ष करता है। संयोग यूं हुआ कि इस बार की फुटबाल प्रतियोगिता चंडीगढ़ में थी और वह अपनी टीम के साथ यहां खेलने आया था। मिलते ही पहचानने में दिक्कत नहीं हुई थी। उसके बाल काले और पेट अंदर था। चेहरे पर उम्र का असर भी कम था। यह लगातार खेलने का प्रभाव है या स्वास्थ्य के प्रति उसकी जागरूकता, कहना मुश्किल है। चूंकि उसकी टीम के अन्य कई साथी खिलाड़ियों की तोंद निकली हुई थी। इसी संदर्भ में पीजीआई चंडीगढ़ के डायरेक्टर का यह वक्तव्य मुझे ठीक लगा था, जो उनके द्वारा प्रतियोगिता के उद्घाटन भाषण में बतौर मुख्य अतिथि दिया गया था, खेलना शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य के लिए बेहद जरूरी है। पैदल चलने और घूमने से भी बात नहीं बनती चूंकि ऐसा करते हुए भी हमारा मन-मस्तिष्क कुछ न कुछ सोचने में तल्लीन रहता है।

 

हां, मुझे पहचानने में उसे भी परेशानी नहीं हुई थी, जबकि मेरे मतानुसार मैंने अपने वजन में बढ़ोतरी की है। एक पल तो लगा भी नहीं कि हम पच्चीस वर्ष के अंतराल के बाद मिल रहे हैं। मगर अगले ही पल हमें बिना किसी विशेष कारण से अलग होना पड़ा था। चूंकि उसे खेल के मैदान में खेलने जाना था और मुझे दर्शकदीर्घा में। मैच देखते हुए जब मैंने अपने बाल सखा के बारे में पत्नी से चर्चा की तो उसने हिन्दी फिल्मों की खलनायिका की तरह कम से कम मुंह तो नहीं बनाया मगर कोई उत्साहपूर्वक विशेष प्रतिक्रिया भी नहीं दी थी। और फिर मैं अपने दैनिक कार्य में उलझा रहा।

वह मेरे शहर में आठ दिन रहा मगर एक बार भी न तो उसका फोन आया, न ही उसने मुझसे मिलने की कोशिश की। मैं भी अपनी नौकरी की व्यस्तताओं के कारण उससे मिल नहीं पाया। यहां तक कि रोजमर्रा की झंझटों से घिरकर उसका खेल तक नहीं देख पाया। समापन समारोह के ठीक एक दिन पूर्व उसकी अचानक याद आने पर संवेदनाओं से भरे भावुक एहसास ने, मेरे लेखक मन को यह सोचने पर मजबूर किया कि क्या मैं ऐसा किसी उच्च पदस्थ सहपाठी के साथ कर सकता था? नहीं। और फिर रातभर आत्मग्लानि हुई थी।

मन किया कि उड़कर उसके पास पहुंच जाऊं, उसके साथ बैठकर खूब गप्पे हांकू, एक बार फिर बेवजह सड़कों की धूल झाड़कर आवारागर्दी करूं और देर रात कोई चटपटी फिल्म देखूं, खाना-पीना फिर होटल में ही हो तो और बेहतर। और फिर अगले दिन मैंने समारोह में उससे मिलने की कोशिश की थी। मगर दूसरी बार की एक सेकंड की मुलाकात में उसकी भाव-भंगिमा को देखकर लगा कि हमारी नौकरियां हमें मिलने से रोक रही हैं। और इस बात की अनुभूति मैं तब और अधिक कर पाया जब मैंने अपने आप को उसके स्थान पर रखकर देखा। और याद किये वो उदाहरण जो मेरे उन दोस्तों से संबंधित हैं, जो मुझसे भी बहुत ऊपर हैं, पद और पैसों में। वो मुझसे मिलना चाहते हैं या नहीं, ठीक-ठीक कहा नहीं जा सकता, मगर मुझमें जरूर न चाहते हुए भी एक अजीब-सी हीन भावना उत्पन्न होती है जो मुझे उनसे मिलने से रोकती है। मन में अकसर विचार आता है कि सामने वाला कहीं यह न सोचे कि मुझे उनसे कोई काम है। और सामान्यत: उच्च पदस्थ लोगों में भी जाने-अनजाने समय के साथ अभिमान आ जाता है। स्वार्थ, घमंड, अहं एवं पॉवर का नशा सिर चढ़कर बोलता है और रही-सही कसर परिवार व नये मित्र पूरी कर देते हैं।

 

यही समय की खूबियां हैं। कुछ ही दिनों में कोई आसमान पर विराजमान होता है और कोई जमीन पर धक्के खाता है। यह प्रत्येक के साथ होता है कि बचपन के दोस्तों में कुछ आगे निकल जाते हैं तो कुछ पीछे रह जाते हैं। समय के साथ यह आगे-पीछे होने वाला खेल निरंतर जारी रहता है और जिसकी वजह से आदमी खट्टे-मीठे अनुभवों से गुजरता रहता है। लेख लिखने में, भाषण और दर्शन झाड़ने में, कहने के लिए तो इन सब बातों का कोई मायने नहीं होता। मगर कोई माने न माने मगर यह जीवन का एक नंगा सत्य है। वैसे तो कहा जाता है कि मित्रता बराबर वालों में होती है। लेकिन कोई ज़रा पूछे कि अगर समय के साथ दोस्तों के बीच पद, पैसा, पॉवर के कारण फर्क आ जाए तो क्या किया जाए? वैसे कहा तो यह भी जाता है कि दोस्ती निभानी चाहिए, मगर ऐसा हो नहीं पाता। दूसरी तरफ ध्यान से देखें तो उलटे आजकल तो बराबरी वालों की आपस में बिल्कुल भी नहीं पटती। उधर, बड़ी उम्र में दोस्ती श्रेणी, वर्ग, रंग, जाति, धर्म और क्षेत्र को देखकर की जाती है तो आधुनिक युग में सिर्फ मतलब के लिए। हर आदमी अपने से ऊपर वाले के साथ संबंध रखना चाहता है उसके नजदीक जाना चाहता है मगर उच्च वर्ग नीचे वाले से मिलना पसंद नहीं करता। और फिर इस तरह चक्र के पूरा न होने से अंत में हर एक अकेला रह जाता है।

 

इस समय की विडम्बना और मानवीय सामाजिक जटिलता को देखकर, बस मेरी तो यही दुआ है कि मैं कभी भी उस शहर के कार्यालय में पदस्थ न हूं, जहां मेरा दोस्त नौकरी करता है। अन्यथा मेरे लिए यह कशमकश मुझे मानसिक रूप से प्रताड़ित तो करेगा ही, शायद उसे भी अत्यधिक पीड़ा वाला अनुभव देगा।

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सम्पर्क:

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मनोज सिंह

४२५/३, सेक्टर ३०-ए, चंडीगढ़

http://www.manojsingh.com

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COMMENTS

BLOGGER: 1
  1. वाकया और मनोज जी का अत्म मंथन अच्छा लगा।

    कहीँ-कहीँ या फिर सीधे कहें तो बहुत कुछ मुंशी प्रेमचन्द की कथा, शायद "गिल्ली-डंडा" की झलक मिलती है इस घटनाक्रम और लेख के आत्म विचार में

    क्या ऐसा ही लगता है किसी और को भी?

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