संस्मरण दुनिया गोल है 8 - सोमेश शेखर चन्द्र उनके पहुँचते ही हँसी मजाक और ठठ्ठों का ऐसा समा बँध जाया करता था कि बूढ़े जवान और बच्चे, ज...
संस्मरण
दुनिया गोल है 8
- सोमेश शेखर चन्द्र
उनके पहुँचते ही हँसी मजाक और ठठ्ठों का ऐसा समा बँध जाया करता था कि बूढ़े जवान और बच्चे, जिनका उससे मजाक का रिश्ता होता था वे भी और जिनका नहीं होता था वे भी, उसके पीछे पड़ जाया करते थे। इन मौकों पर पूरा माहौल इतना विनोद और हँसी ठठ्ठामय हुआ रहता था, जैसा होली के दिनों में लोगों पर होली का हुड़दंग हाबी हो जाता है। लेकिन वे सब अब गुजरे जमाने की बात हो गई है। अब लोगों को हँसाने के लिए लाफिंग क्लब बनने लगे हैं जहाँ मिलकर लोग हँसते नहीं है बल्कि हँसने का ढोंग करते हैं।
खैर, तीन चार, रविवार सत्संग में जाते जब गुजर गया था और एक रविवार के दिन जब मैं सत्संग में पहुँचा तो बड़े झाजी ने मुझसे कहा कि, अब आप संस्था के असली सदस्य हो गए। मैंने झाजी से पूछा, कि ऐसा आप क्यों कह रहे है, क्या संस्था के सदस्य भी असली और नकली होते हैं? होते है, झाजी ने मुझे बताया था, होते हैं। वह कैसे? मेरे पूछने पर उन्होंने बताया कि आश्रम में जो लोग आते हैं वे अपना कोई न कोई स्वार्थ लेकर आते हैं और इसका सदस्य बनते ही वे अपने स्वार्थ की बातें करने लग जाया करते हैं और जब वे देखते हैं कि उनका स्वार्थ यहाँ सिद्ध होने को नहीं है, तो वे आश्रम छोड़कर भाग खड़े होते हैं। लेकिन आपने यह कैसे समझ लिया कि मैं यहाँ बिना किसी स्वार्थ के आया हूँ? समझ लिया महराज, हम लोग, लोगों को देखते ही पहचान जाते हैं कि यह आदमी स्वार्थी है और अपना स्वार्थ सिद्ध करने के उद्देश्य से ही यहाँ आया है। लेकिन मैं तो अपना स्वार्थ सिद्ध करने का उद्देश्य लेकर ही यहाँ आया हुआ हूँ। बताइए आपका स्वार्थ क्या है? झाजी के पूछने पर मैंने अपना घर बार छोड़कर राँची आने का उद्देश्य विस्तार से बताया था। उस समय संस्थान के काफी लोग इकट्ठा हो चुके थे। सब मेरी बात बड़ा तन्मय होकर सुनने लगे थे। मैंने उन्हें बताया कि मैं अपने सांसारिक जिम्मेदारियों से मुक्त हो चुका हूँ और मेरे करने लायक अब कुछ बचा नहीं है, इसलिए वानप्रस्थ में आ गया हूँ और मेरी योजना है कि अपना शेष जीवन परोपकार के कामों में लगाऊँ। इसी के लिए मैं आप लोगों के बीच पहुँचा हूँ और आप लोगों के सहयोग का मुझे पूरा भरोसा है। इस समय मैं तीन चार बीमार और शरीर से अक्षम भिखारियों की दवा, दारू से लेकर उनके खाने पीने की व्यवस्था कर रहा हूँ। मेरा उद्देश्य और योजना, अपनी तरह के उन सभी लोगों को, जो अपनी सांसारिक जिम्मेदारियों से मुक्त हो चुके है तथा हर काम करने में सक्षम है उनकी एक संस्था बनाकर उनके ज्ञान और ऊर्जा को जरूरतमंदों के बीच लगाने की हैं और यह संस्था समूची पृथ्वी पर विस्तार पाले यही मेरी मंशा है? अगर आप लोग मेरे इस काम में सहयोग करेंगे तो हमारी, यहाँ की छोटी सी शुरूआत, एक दिन जरूर एक विराट रूप ले लेगी। योजना और उद्देश्य तो आपका बहुत अच्छा है बड़े झाजी मेरी बात सुनकर अपनी देह दाहिने बाएँ झुमाते हुए अपना आशय प्रकट किए थे। वे मेरी योजना के समर्थन में ऐसा बोले थे या उनका भाव कुछ दूसरा था, यह तो मेरी समझ में नहीं आया था लेकिन वहाँ बैठे एक सज्जन बड़े उत्साह में आकर मुझसे कहा था कि ठीक है हम लोग आपका पूरा साथ देंगे आप बताइए हमें क्या करना होगा? उनकी इस बात का वहाँ बैठे दो तीन लोग और भी हुंकारी भरकर, उनका समर्थन किए थे। मैंने उनसे कहा आप यह मत सोचिए कि मैं इस संस्था का मुखिया बनकर आपका नेतृत्व करूँगा। यह एक सामूहिक काम है इसे किस तरीके से किया जाए सभी बैठकर इसका विचार करें और सबका जैसा निर्णय हो उस पर अमल किया जाए। हम लोग चिन्मय मिशन के वानप्रस्थ कार्यक्रम में शरीक होते है इसमें मिशन और इसके स्वामी जी की सहमति, सहयोग और मार्गदर्शन की भी जरूरत होगी। मेरा ख्याल है सबसे पहले उनका आशीर्वाद हमें मिल जाए और उनके मार्गदर्शन में हम लोग अपना काम शुरू करें तो ठीक रहेगा। हो सकता है इस तरह का उनका कोई कार्यक्रम पहले से चल रहा हो। यदि ऐसा हो तो हम लोगों का काम सुगम हो जाएगा। मैंने अपनी योजना आज ही तो आप लोगों के बीच रखा है, इस पर आप लोग सोच विचार करके एक राय हो लें उसके बाद इस पर आगे बढ़े तो ठीक रहेगा।
उस दिन मैंने अपना उद्देश्य विस्तार से लोगों को बताकर अपनी योजना की प्रस्तावना उनके सामने रख दिया था। लोग इस पर कैसी प्रतिक्रिया करते हैं उनकी रूचि इसमें है या नहीं, यह सब जानना बड़ा जरूरी था। कहीं दे बाबू के भाई की तरह लोग यह न समझ बैठें कि मैं उनका नेता बनना चाहता हूँ और अपने नाम और प्रसिद्धि के लिए यह सब करना चाहता हूँ, इसलिए मैं इस काम में मुखिया की भूमिका निभाने की बजाए इसे पूरे समूह के संचालन के लिए छोड़ दिया था। उस दिन इतनी बात होने के बाद झाजी वानप्रस्थ का हमेशा चलने वाला कार्यक्रम शुरू कर दिए थे। यह सोचकर, कि लोगों के ध्यान में यह बात डाल दिया हूँ थोड़े दिन इंतजार करके देखता हूँ कि लोग इस पर क्या राय बनाते हैं, इसलिए इस विषय का, अगले दो तीन हफ्तों तक मैंने कोई जिकर नहीं किया था।
एक रविवार जब मैं कार्यक्रम में पहुँचा था और सब लोग इकट्ठा हो गए थे तो झाजी ने मुझसे पूछा था, कि सर हम लोगों का तो यहाँ घर परिवार है, बाल बच्चे और सगे संबंधी है हम यहाँ रहते हैं और वानप्रस्थ संस्था से जुड़कर अपना रविवार का दिन गुजारते हैं लेकिन आप अपना घर बार छोड़कर यहाँ क्यों चले आए? मैंने उस दिन बताया न कि मैं अपना शेष जीवन लोगों की सेवा में गुजारना चाहता हूँ। आप यह काम अपने घर और शहर में भी रहकर कर सकते थे। यहाँ क्यों आ गए? नहीं मैं यह काम अपने घर में रहकर नहीं कर सकता था। इस काम में मेरे बच्चे और पत्नी ही पहले बाधा बन जाती। यहाँ मैं जिस स्वतंत्रता से यह काम कर सकता हूँ अपने लोगों के बीच रहकर वैसा कर सकना संभव नहीं था। आप अपनी पत्नी को अपने साथ क्यों नहीं लाए? झाजी अपना यह प्रश्न पूछते समय मेरे चेहरे पर खोदती नजरों से देखकर बड़ी कुटिलता से मुस्कुराए थे। उन्हें अपने घर बाल बच्चों और नाती पोतों से ज्यादा मोह है इसलिए मेरे साथ आने को राजी नहीं हुई। और आप इस उम्र में उन्हें भी छोड़कर भाग आए? झाजी इस दफा पहले की तरह फिर कुटिल हो उठे थे, जैसे कह रहे हों ज्यादा उड़ने की कोशिश मत करिए हम लोग आपकी सब समझ रहे हैं। झाजी ही नहीं वहाँ उपस्थित सभी लोग वैसी ही कुटिल नजरों से मुझे देख देखकर मुस्कुराए जा रहे थे। वे सभी लोग बुजुर्ग थे काफी शिक्षित, प्रतिष्ठित और आला दर्जे के लोग थे और उनके प्रति मेरे मन में काफी सम्मान था, लेकिन उस दिन उनकी कुटिलता और घेराबंदी, देखने लायक थी। उनकी उस घेरा बंदी से मैं मुक्ति पा सकता था तो सिर्फ एक ही शर्त पर कि जैसा वे सोचते हैं उसे मैं बिना किसी उजुर के स्वीकार कर लूँ। देखिए जो सच है उसे मैंने आप लोगों से कह दिया कि मुझे अपना शेष जीवन परोपकार के काम में गुजारना है और मैं वही ठानकर घर से निकला हूँ, और करूँगा भी वही। इस उम्र में पहुँचने पर, हमारे धर्म और संत भी, वानप्रस्थ आश्रम में जाने की सलाह देते हैं और एक वानप्रस्थी की जो दिनचर्या उन्होंने निर्धारित किया है उसमें अपने ज्ञान और ऊर्जा का सार्वजनिक हित में उपयोग करना प्रमुख बात है। मैं आश्रम से ही एक किताब खरीदा था स्वामी जी, जिन्होंने इसे लिखा था, उसका नाम इस समय मेरे ध्यान में नहीं है, उन्होंने उस किताब में वानप्रस्थ यानी कि साठ की उम्र के बाद के लोगों को अपनी ऊर्जा और ज्ञान को लोगों की भलाई के लिए उपयोग करने को कहा था। लेकिन स्वामी जी, (इस मिशन के हेड) तो लोगों को भजन पूजन और सत्संग में ही अपना जीवन व्यतीत करने को कहते हैं। वह किताब मेरे पास थी उसे खोलकर मैं उनके सामने रख दिया था, देखिए, यह पूरी किताब ही वानप्रस्थ पर है। इसमें स्वामी जी भजन पूजन के साथ लोगों के बीच जाकर उनकी सेवा करने को भी कहते हैं। मेरे दिखाने पर झाजी ने या वहाँ उपस्थित कोई भी आदमी उसे देखने या पढ़ने की कोशिश नहीं किया था। दरअसल उस दिन वे लोग मुझे उघेड़ कर नंगा करने पर आमादा थे। इसलिए जब उन्होंने देखा था, कि इस बात से उनका उद्देश्य हल नहीं होता है, तो वे बात बदल दिए थे। किताबों में तो बहुत कुछ लिखा होता है, इसे आप अपने झोले में रखिए, और हम जो कहते हैं, उसे सुनिए।
कहिए आप लोग जो कहना चाहते हो कहें। मुझे लगा था, कि आज लोग अपनी बात कहने के लिए सोचकर बैठे हैं, इसलिए उनकी बात सुन लेना जरूरी था। कही पढ़ा था कि लोगों से अपनी बात प्रभावी ढंग से कहने के लिए आपको अच्छा श्रोता होना जरूरी है। उस समय यह बात मेरे ध्यान में आ गई थी और मैं एक अच्छे श्रोता की तरह उन्हें सुनने बैठ गया था।
देखिए सर, इस उम्र में पहुँचकर ज्यादा अकड़ ठीक नहीं होती है। झाजी अपनी मूंड़ी झमकाते हुए बड़ी गुरू गंभीर मुद्रा अख्तियार करके मेरे चेहरे पर ताकने लगे थे। उनका आशय समझते मुझे देर नहीं लगी थी। उन लोगों का ख्याल था, कि बूढ़े होने पर जिस तरह लोग सठिया जाते हैं, उसी तरह मुझ पर भी सठियप्पन चढ़ गया होगा, जिसके चलते मेरी, मेरे बीबी बच्चों से पटी नहीं होगी और मैं उनसे अकड़कर अपना घर बार छोड़कर भाग खड़ा हुआ हूँ। या कि मुझमें ऐसा कोई बड़ा कुटेब रहा होगा जिसे बर्दाश्त न कर पाने के चलते मेरे बीबी बच्चे मुझे मारपीट कर घर से बहिया दिए है। झाजी का इतना कहना था कि वहाँ उपस्थित सभी लोग, तमाम किस्से कहानियों और दृष्टांतों के जरिए मुझे समझाने पर पिल पड़े थे।
एक सज्जन ने मुझे दाँत और जीभ का दृष्टांत देकर मुझे समझाए थे कि देखिए साहब दाँत आदमी के पैदा होने के बाद आता है, और उसके मरने के पहले चला जाता है, लेकिन जीभ, दाँतों के बीच रहती है, फिर भी पैदा होने के साथ आती है, और मरने पर भी उसके साथ ही रहती है, ऐसा क्यों होता है, बताइए? ऐसा इसलिए होता है कि जीभ लचीली होती है, दाँत जैसी उसमें जड़ता और अकड़ नहीं होती, इसलिए वह बड़े आराम से दाँतों के बीच रहकर भी अपनी जिंदगी बड़े मजे में बसरकर लेती है। इसी तरह आप भी ...........।
एक सज्जन ने मुझे समझाया कि महाराज हम लोग जिंदगी में कदम कदम पर झुकते और समझौता ही तो करते रहते हैं, फिर अपनों के सामने थोड़ा झुक लेने में क्या हरज है। झुकना आदमी का अवगुण नहीं बल्कि गुण होता है, अगर आदमी झुकना सीखले तो उसकी जिंदगी बड़े मजे में कट जाएगी। आप अपना दुराग्रह छोड़कर बीबी बच्चों में जाइए और भगवत् भजन में अपनी शेष जिंदगी शांति से गुजारिए। यह क्या झूठ मूठ का ......... अहंकार पाले बैठे हैं।
एक सज्जन ने मुझे एक कुत्ते की कहानी सुनाकर अपनी अकड़ दूर करने का उपदेश दिए थे। उनकी कहानी कुछ इस तरह थी कि एक कुत्ता बूढ़ा हुआ तो वह एक दिन किसी तीर्थ पर निकला। वह चला जा रहा था, तो रास्ते में एक जगह उसे कई कुत्तों ने घेर लिया, कुत्ता जानता था कि इनसे लड़कर मैं पार नहीं पाऊँगा, इसलिए उसने अपनी पूछ अपने पेट में घुसेड़कर, अपनी देह झुकाए भागने लगा। कुत्ते जो उसे घेरे रखे थे, बड़ी दूर तक उस पर भौंकते उसे खदेड़ ले गए थे। रास्ते में उसे इसी तरह और भी कुत्तों की कई झुंडे मिली और सब जगह वह वही किया और सभी कुत्तों से पहले तीर्थ पहुँच गया तो साहब जिंदगी का सफर अकड़ से नहीं बल्कि कुत्ते की तरह समझदार होने से पूरा होता है, इसलिए आप समझदारी से काम लीजिए। इसके आगे मैं आपको क्या समझाऊँ आप तो खुद इतने पढ़े लिखे और समझदार हैं कि .........। एक आदमी अपना उपदेश खत्म करता इसके पहले ही दूसरा उसका हाथ पकड़कर उसे चुप करा देता और पालथी मारकर ऐसी मुद्रा बनाता जैसे कह रहा हो कि इन टुटपुंजियों की बात में वैसा दम कहाँ है जैसा दम मेरी बाणी में है, इसलिए जमूरे अब तू मेरी बात ध्यान देकर सुन.....। हे भगवान मैं कहाँ आकर इतने बुद्धि विशाल लोगों के बीच फंस गया। तू मुझे इनसे उबार भगवन। तूने ग्राह की पकड़ से गज हो जिस तरह उबारकर उसे जीवन दान दिया था, उसी तरह तू मेरा भी इन समझदारों की पकड़ से मुक्ति दिला। तूने अगर इसी तरह थोड़ी देर और मुझे इनके हवाले छोड़ दिया तो मैं यहाँ से पागल होकर ही बाहर निकलूँगा। उस समय एक एक करके, लोग मुझे जिस तरह अपनी बात सुनाने के लिए पिले पड़े थे, उसे सुनसुनकर मेरे दिमाग की नसे फटने फटने को हो आई थीं। सुबह दस बजे से लोग जो मुझे सुनाना शुरू किए थे दो घंटे तक उनका सुनाना बंद ही नहीं हुआ था। वह तो कुशल यह कहिए कि एक डाक्टर साहब को अपने क्लिनिक पहुँचने की जल्दी थी वे सबकी इजाजत लेकर वहाँ से उठे तो मैं भी लोगों से कहा कि मेरे एक मित्र बाहर से आ रहे है, उन्हें रिसीव करने मुझे स्टेशन 12 बजे ही पहुँचना था काफी देर हो गई इसलिए आप लोग मुझे भी इजाजत दें। और जो मैं वहाँ से अपनी जान छुड़ाकर भगा तो फिर वहाँ वापस नहीं लौटा। इस घटना के बाद मेरे दिमाग पर सवार वह भूत भी उतर गया था, जो मुझे उम्रदराज लोगों को संगठित करके उनके ज्ञान और ऊर्जा को रचनात्मक कोनों में लगाकर उन्हें गरिमापूर्ण जिंदगी देने को था। जिसके लिए मैं अपना घर बार तक छोड़ दिया था। उसी दिन, पर सेवा और परोपकार जैसे महान कार्य के माध्यम से, स्वर्ग प्राप्ति की मेरी सारी तृष्णा भी खत्म हो गई थी, और मैंने अपने वतन वापस लौटने का निर्णय ले लिया था। अपने वतन वापस लौटने के पहले मैंने सोचा कि जाकर बैंक के अपने साथियों से मिल आता हूँ। हमारी बैंक का क्षेत्रीय कार्यालय सैविक काम्पलेक्स मेन रोड में है। वहाँ के रीजनल मैंनेजर उड़ीसा के कोई सत्पथी करके थे। उनसे मिला और अपना नाम उनसे बताया तो वे बड़ी अजीब नजरों से मुझे ताकने लगे थे। शायद इसके पहले मेरे पागलपन का किस्सा वे सुन चुके थे। थोड़ी देर मुझे ताकने के बाद उन्होंने मुझसे पूछा था कि आप अपना घर परिवार छोड़कर यहाँ राँची में क्या कर रहे है, यहाँ आपकी कोई रखैल है क्या? ऐसे लोग जो पहले से ही किसी के प्रति अपनी धारणा बनाए बैठे हों उन्हें उनके प्रश्न का क्या जवाब दिया जा सकता है?
डाक्टर अग्रवाल से लालपुर के उनके क्लिनिक में मिलकर उनसे कहा डाक्टर साहब आपने मेरे काम में मेरा बड़ा सहयोग किया, मैं राँची बड़ी उम्मीद लेकर आया था, लेकिन यहाँ से असफल होकर अपने वतन वापस लौट रहा हूँ। दरअसल मुझे अग्रवाल जी जैसे पढ़े लिखे और संभ्रान्त आदमी से बड़े सहयोग की उम्मीद थी, लेकिन दो तीन दफा भिखारियों को मुफ्त दवा देने के अलावे वे मेरी कोई मदद नहीं किए थे। इसका मेरे मन में बड़ा मलाल था। मैं उन्हें धन्यवाद देने नहीं बल्कि उलाहना देने के उद्देश्य से उनके पास पहुँचा था। इसी तरह का मलाल मुझे झारखंड की धरती से भी था। राँची से ट्रेन चलकर जब पहाड़ों, और जंगलों के बीच से गुजरने लगी थी, और उनके बीच बसे छोटे छोटे खपरैले और फूस के घर और सिर पर लकड़ी रखे बाजार जाती औरतों की कतारें और घाटियों में भेड़, बकरियाँ और मवेशी चराते लोग पीछे छूटने लगे थे तो अमर्ष से मेरी आँखे भर आई थी। ओ झारखंड की माटी पहाड़, और जंगल, यहाँ के बाशिंदों ने मुझे स्वीकार नहीं किया। मैं आज तुम्हें छोड़कर अपने वतन लौट रहा हूँ। अलविदा, अलविदा, कहने के साथ मेरे भीतर से जोर का भमका फूटा था, और मैं अपना मुँह रूमाल से तोपकर हू हू कर रोने लग गया था। उस ट्रेन के पहले राजधानी जा चुकी थी, इसलिए ए.सी. का पूरा डिब्बा करीब करीब खाली था और वहाँ मुझे रोते हुए कोई देखने वाला नहीं था इसलिए मैं जितना भी अपने को चुप कराता मेरी रूलाई और ज्यादा वेग से फूट पड़ती।
प्राइमरी की पाँचवी कक्षा पास करके जब मैं छठवीं में पहुँचा था, तो उस समय का एक वाकया, मुझे अभी भी अच्छी तरह याद है। पृथ्वी गोल है, यह पाठ हमें चौथी या पाँचवी कक्षा में ही पढ़ाया जा चुका था, लेकिन उस समय मुझे इतना ज्ञान नहीं था कि मैं इसे समझ सकता। गुरूजी हमें प्रश्न लिखवाए थे पृथ्वी का आकार कैसा है? उत्तर में उन्होंने लिखवाया था पृथ्वी का आकार संतरे की तरह गोल है। गुरूजी का लिखवाया प्रश्न और उत्तर दोनों मैंने रट्टा मारकर धोख लिए था। इसमें प्रश्न कौन सा है और उसका उत्तर क्या है, उस समय इस तक का मुझे ज्ञान नहीं था तो पृथ्वीगोल है या चपटी इसका तो ज्ञान होने का प्रश्न ही नहीं उठता था। छठवीं में जब मैं पहुँचा तो एक दिन भूगोल के पीरियड में हमारे गुरू जी। अपने हाथ की छड़ी, अपनी काँख के नीचे दबाए और दोनों हाथों में, एक ग्लोब, बड़ी सावधानी से पकड़े कक्षा में दाखिल हुए थे। उन दिनों, हर गुरू जी के हाथ में, एक लंबी और सुर्री छड़ी जरूर होती थी। यह छड़ी, नीम, बबूल या शीशम के लंबे सल्लों की बनी होती थी। गुरूजी जब अपनी कक्षा के लिए निकलते थे तो वे छड़ी को बड़े गर्व से हवा में लहराते चलते थे। गुरूजी की छड़ियाँ, स्कूल का ही कोई विद्यार्थी, जिसे गोदाहे की मजबूती का अच्छा ज्ञान होता था, और वह पेड़ पर चढ़कर उसे काटने से लेकर, छील छालकर कड़क और रौबदार छड़ी बनाने में माहिर होता था, वही बनाता था। गुरूजी की छड़ी उनके आतंक और श्रेष्ठ होने का एक पैमाना भी हुआ करती थी। जो छड़ी लचकीली, छरहरी सीधी होती थी, और सटकारने पर सॉय सॉय की आवाज करती थी, वह छात्रों में बड़ा आतंक पैदा करती थी, इसलिए वही सबसे उम्दा और दमदार छड़ी मानी जाती थी, और वैसी ही छड़ियाँ उन दिनों हर गुरूजी के हाथ में हुआ करती थी। बच्चों में उन दिनों गुरूजी का, इतना आतंक हुआ करता था, कि कक्षा से जब वे काफी फासले पर होते तब भी उनकी डर से कक्षा के भीतर सन्नाटा छाया रहता।
उस दिन गुरूजी काँख के नीचे छड़ी दाबे और दोनों हाथ में ग्लोब पकड़े कक्षा में दाखिल होने के बाद, जमीन पर बैठे विद्यार्थियों को कुछ इस तरह ताकने लगे थे जैसे कोई बाजीगर अपना अद्भुद करिश्मा दिखाने के पहले, सामने जुटी भीड़ मुआयना करता है। गुरूजी उस दिन एकदम नए रूप में थे। एक तो उनके साथ की छड़ी उनके हाथ में नहीं, बल्कि इनके काँख के नीचे दबी थी, दूसरे उनके हाथ में जो हरे और पीले रंगों से रंगा गोला था, वह बड़ा अजूबा था। कक्षा के लड़कों ने वैसी अजूबी चीज इसके पहले कभी नहीं देखा था, इसलिए सभी में उस गोले का रहस्य जानने का बड़ा कुतूहल था। गुरू जी जिस रहस्यमयी ढंग से हमें ताकते खड़े हुए थे, उससे हमारा कुतूहल अपने चरम पर पहुँच गया था। गोले को मेज पर रखकर गुरूजी ने उसे एक हाथ से जोर से घुमाया था तो गोला लट्टू की तरह अपनी धुरी पर घूमने लग गया था। तुम लोगों में से कोई बता सकता है कि यह गोला क्या है? गुरूजी ने घूमते हुए गोले की तरफ इशारा करके बच्चों से पूछा था तो कोई बच्चा जवाब देने के लिए न तो अपना हाथ उठाया था और न ही अपनी जगह पर खड़ा ही हुआ था। गुरूजी अपनी बगल में दबाई छड़ी, बड़े इत्मिनान से वहाँ से निकलकर मेज पर रख दिए थे, गोला अभी भी अपनी धुरी पर जोरों से चक्कर काट रहा था। बच्चों, यह हमारी पृथ्वी है, पृथ्वी माने क्या होता है, तुम लोग जानते हो? बच्चों को पृथ्वी का मतलब भी पता नहीं था, इसलिए उन्होंने इनकार में अपना सिर हिला दिया था। यह जमीन जिस पर हम लोग रहते हैं यह जिस पर हम अभी खड़े और बैठे हैं, इसको पृथ्वी कहते हैं। गुरूजी ने जमीन पर अपना पाँव पटककर बच्चों को समझाया था। बच्चों यह पृथ्वी गोल है, आज जो पाठ हम तुम्हें पढ़ा रहे है इसे भूगोल कहते है, भू माने पृथ्वी गोल माने गोल यानी कि पृथ्वी गोल। पृथ्वी का आकार इसी तरह गोल है, और यह अपनी धुरी पर हर चौबीस घंटे में एक दफा इसी तरह चक्कर लगाती है।
उस दिन गुरूजी ने पृथ्वी के बारे में जो कुछ पढ़ाया था, उसे लेकर मेरे बाल मन में कई तरह के प्रश्न उठ खड़े हुए थे। यह पृथ्वी तो चपटी है, घर से स्कूल आने के बीच कहीं भी मुझे यह गोल नहीं दिखी। इस पर ऊँचे, टीले और गढ्ढे जरूर हैं लेकिन यह गोल तो कहीं नहीं है और जिस तरह घुमरी परैया करते समय हम लोग गोल गोल घूमते हैं उसी तरह पृथ्वी भी घुमरी परैया करती है। जब पृथ्वी घुमरी पुरैया करती है तो वह घुमरते घुमरते चक्कर खाकर गिरती कैसे नहीं? जबकि हम लोग घुमरते घुमरते गिर जाते हैं। इसी तरह की, और ऐसी ही तमाम बातें लेकर मेरे मन में कई दिनों तक उठा-पटक चलती रही थी। उस दिन मैं घर आकर अपनी माँ को बताया था कि यह जमीन चपटी नहीं बल्कि गोल है, और यह हम लोगों की तरह घुमरी परैया करती है, तो माँ को मरी बात पर भरोसा नहीं हुआ था, लेकिन उसे इस बात पर गर्व हुआ था, कि मेरा बेटा स्कूल में अजूबी अजूबी बातें सीखता है, और गुरूजी ने जब उसे ऐसा ही सिखाया है तो यही सत्य होगा। या कि माँ ने इसकी सत्यता और असत्यता को लेकर कुछ सोचने की जहमत ही नहीं किया था, क्योंकि उस दिन उसने मुझसे इस बात को लेकर कोई तर्क नहीं किया था।
स्कूल की छमाही परीक्षा हुई थी तो प्रश्न पत्र में पहला प्रश्न यही था, कि सिद्ध करो कि पृथ्वी गोल है, हालांकि मेरे किताब में पृथ्वी का आकार नारंगी की तरह गोल है, लिखा हुआ था, और कक्षा में गुरू जी, भी ग्लोब के माध्यम से हमें समझा चुके थे, कि पृथ्वी गोल है। इतना ही नहीं, यही बात उन्होंने हमें कापी में भी लिखवाया था। हमने रट्टा मारकर उसे वैसा ही घोख भी लिया था, लेकिन परीक्षा के प्रश्न पत्र में जब मैंने पढ़ा था, कि सिद्ध करो कि पृथ्वी गोल है तो मेरा मन पृथ्वी के गोल होने की बात सिरे से खारिज कर दिया था। वह इसलिए कि पृथ्वी को गोल साबित करने के लिए जो दो तीन बातें हमारी किताब में लिखी हुई थी, और गुरूजी ने भी हमें पढ़ा कर लिखवाया था, उनके बारे में मैं पूरी तरह अनभिज्ञ था। अब जैसे उन प्रमाणों में एक प्रमाण यह था, कि समुद्र में बड़े जहाज जब बंदरगाह की तरफ आ रहे होते हैं तो, सबसे पहले उनका ऊपरी पाल दिखाई पड़ता है, इससे साबित होता है, कि पृथ्वी गोल है। उस समय तक मैंने न तो समुद्र देखा था न बंदरगाह और न ही जहाज ही देखा था। इसी तरह पृथ्वी के गोल होने के जो दो तीन प्रमाण और दिए गए थे, उन्हें भी समझ सकना मेरी बुद्धि से परे की बात थी। क्योंकि उनके बारे में, भी मैं कुछ नहीं जानता था। उलट इसके जब मुझे पढ़ाया गया कि पृथ्वी गोल है तो कई दिनों तक इसको लेकर मेरे भीतर उठापठक चलती रही थी और उन दिनों मेरे सामने जो कुछ भी दिखाई देता उसमें मैं पृथ्वी के गोल होने का प्रमाण खोजने में जुटा रहता, लेकिन इसके गोल होने का एक छोटा सा भी सबूत मुझे कही नहीं दिखा था। जिसके आधार पर मैं पृथ्वी के गोल होने की बात स्वीकार करता। इसलिए मैं इस प्रश्न के उत्तर में लिखा था, कि पृथ्वी गोल नहीं बल्कि चपटी है। यह हमें हर जगह चपटी दिखाई देती है इसलिए यह चपटी है। अगर यह गोल होती तो इस पर हम दौड़ और खेल नहीं पाते। हमारी पृथ्वी गोल होती तो बरसात के दिनों में हमारे खेतों में जो पानी बटुरता है, वह बह जाता। हम इस पर अपना घर नहीं बना पाते क्योंकि इसे बनाने के लिए मिट्टी ढोने वाले लोग फिसल कर गिरने लगते। घर से बाहर निकलते ही हम फिसलने लगते। इसके गोल होने पर इस पर रेलगाड़ी और इक्के तांगे नहीं दौड़ सकते थे, जैसी तमाम बातें मैंने अपने उत्तर की कापी में लिखकर सिद्ध कर दिया था, कि पृथ्वी गोल नहीं बल्कि चपटी है।
जिस दिन छमाही का रिजल्ट मिलना था गुरूजी ने हमारी पूरी क्लास को स्कूल के बाहर एक आम के पेड़ के नीचे बैठने के लिए कहा था। जैसा गुरू जी ने आदेश किया था, हम लोग पेड़ के नीचे कतारों में बैठ गए थे। थोड़ी देर में स्कूल का चपरासी कड़ेदीन, गुरूजी की कुर्सी अपने सिर पर उल्टी रखकर वहाँ पहुँचा था और नियत जगह पर उसे डाल कर वापस चला गया था। लड़कों में उस दिन रिजल्ट को लेकर बड़ी बेचैनी थी। कोई किसी से कुछ बोल नहीं रहा था लेकिन बेचैनी में कोई अपनी दोनों हथेलियाँ आपस में रगड़ रहा था तो कोई लंबी सीत्कार ले ले कर अपनी देह हिला रहा थां और कोई अपनी चमड़ी रगड़ कर उसकी मैल निकाल निकाल कर फेंक रहा था। बड़े स्कूल के, बड़ी कक्षा की, उन्हें आज पहला नतीजा मिलना था, इसलिए उनमें घबराहट भी काफी थी। कड़ेदीन ने जब गुरूजी की कुर्सी लाकर उसकी जगह पर रखा था तो कई लड़के उसे घेरकर पूछने लगे थे नतीजा कब आएगा। उसने लोंगो को बताया कि गुरूजी नतीजे की कापी और अपनी समझावन छड़ी, एक लड़का को पकड़ा चुके है, और वे अब किसी भी समय पहुँच सकते हैं। गुरूजी के किसी भी क्षण पहुँचने की खबर सुनकर बच्चों में उत्तेजना फैल गई थी। थोड़ी ही देर में गुरूजी अपने हाथ की छड़ी हवा में फटकारते और कापियों का बडंल कॉख में दबाए, हम लोगों के सामने कुर्सी पर विराजमान होकर एक-एक करके लड़कों का नाम पुकारते और उसके पहुँचने पर उसकी जँची हुई कापी उसे पकड़ा देते। सब की कापियाँ जब वे बाँट चुके तो सबसे अंत में उन्होंने मेरा नाम लेकर मुझे अपने पास बुलाया था। मैं उस समय बुरी तरह उत्तेजित था मुझे लगा था कि अपनी कक्षा में मैं सबसे अव्वल आया हूँ इसलिए गुरू जीने मुझे सबसे बाद में बुलाया है। ऐसा मैं इसलिए सोचा था कि मेरा नाम कक्षा में पढ़ने वाले तथा अच्छे लड़को में शुमार था। गुरूजी के बुलाने पर जब मैं उनके पास जाकर खड़ा हुआ था तो वे मेरी मर्दन पकड़कर, मेरा मुंह अपने सामने से हटाकर कक्षा की तरफ घुमा दिए थे और अपना दाँत पीसते हुए कहा था उधर मुँह करके खड़ा हो। लोगों की तरफ मुँह करके खड़ा होते ही गुरू जीने कक्षा को संबोधित करते हुए कहा था कि इसका चेहरा देखो यह तुम्हारी कक्षा का सबसे होनहार छात्र है। इसके बाद उन्होंने मेरी कापी मुझे पकड़ा दिया था। मैं कापी के मुख्य पृष्ठ पर देखा था तो उसमें नंबर की जगह एक बहुत बड़ा गोला बना हुआ था। कितना नंबर तुम्हें मिला है? गुरू जी ने मुझसे पूछा था तो मैं डर के मारे थर थराने लग गया था, और मेरे गले से कोई आवाज नहीं फूटी थी। मेरी हालत देखकर पूरी क्लास सन्न थी। उनकी समझ में ही नहीं आ रहा था कि आखिर माजरा क्या है। कितने नंबर मिले? गुरूजी ने घुड़क कर दोबारा मुझसे पूछा था तो मुझे लगा था मेरा टट्ठी और पेशाब दोनों एक साथ निकल जाएगी। मैं बड़ी मुश्किल से उन्हें बता पाया था ''शून्य'' दरअसल गुरूजी मेरे पहले प्रश्न के उत्तर से, इस कदर चिढ़ गए थे कि परीक्षा के सारे विषयों के उत्तर चाहे वे सही थे, या गलत इतनी बेरहमी से कटा कुट कर दिए थे कि कापी के पन्नों के चीथडे हो गए थे। मेरे ''शून्य'' बोलते ही गुरूजी, मेरे कनबोजे पर ऐसा जोर का थप्पड़ मारे थे कि मैं झौरिया कर जमीन पर गिर पड़ा था। मैं जमीन से उठकर खड़ा होता इसके पहले ही गुरूजी मुझे मेरी गर्दन पकड़कर पिल्ले की तरह हवा में टॉग लिए थे। हवा में टंगते ही मेरी इद्रियों पर मेरा कोई कंट्रोल नहीं रह गया था और मैं छुल्ल छुल्ल मूतने लग गया था।
आज जब मैं अपने चार वर्षों के राँची प्रवास का अपना अनुभव लिखने बैठा हूँ तो मुझे अपने स्कूल के दिनों का वह वाकया याद हो आया है और मुझमें यह कहने की हिम्मत नहीं पड़ रही है, कि जो दुनिया मैंने देखी है वह गोल नहीं बल्कि चपटी है।
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(समाप्त)
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रचनाकार संपर्क:
आर. ए. मिश्र,
2284/4 शास्त्री नगर,
सुलतानपुर, उप्र पिन - 228001
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Hii mai hu vivek kumar sonkar pinnabar 209312 ....duniya gol h ye bat sahi h
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