दुनिया गोल है 1 - सोमेश शेखर चन्द्र जून 2001 में मैं अपनी नौकरी से रिटायर हुआ था और उसी वर्ष अक्तूबर के महीने में अपना घर छोड़ कर रा...
दुनिया गोल है 1
- सोमेश शेखर चन्द्र
जून 2001 में मैं अपनी नौकरी से रिटायर हुआ था और उसी वर्ष अक्तूबर के महीने में अपना घर छोड़ कर रांची के लिए निकल पड़ा था।
उस समय मेरी उम्र सत्तावन साल थी। अपने यहाँ की मान्यता के हिसाब से, इस उम्र में पहुँचते तक, आदमी का चौथपन शुरू हो जाता है और चौथे पन में पहुँचे लोगों के भीतर, न तो बचपन की उछलकूद, चुलबुलापन और बेफिक्री रह जाती है और न ही जवानी के दिनों की पहाड़ फलांग जाने जैसा माद्दा ही बचा रहता है। उलट इसके, इस सब की जगह, उसमें डर और कायरता, अपने पाँव पसार चुकी होती है। जिसके चलते वह, अपने घर की चहार दीवारी के भीतर और अपनों के बीच अपने को महफूज रखने में ही अपनी भलाई समझता है। इस अवस्था में पहुँचकर लोग, अपना घर बार छोड़ते भी हैं तो या तो किसी कुएं, नदी में कूदकर या रेल के नीचे कटकर आत्म हत्या करने के लिए या किसी आश्रम की पनाह लेकर, अपनी बाकी की जिंदगी सुरक्षित काट देने के लिए। इन दो कार्यों के सिवा, मेरी तरह, तीसरे किसी काम के लिए, अपना घर बार छोड़कर बाहर निकलते लोग, मेरी नजरों से अभी तक तो नहीं ही गुजरे थे।
ऐसा नहीं है कि, इस उम्र में पहुँचकर, मैंने अपना घर बार छोड़ने का फैसला, अपनी किसी मजबूरी या जिद के चलते या कि परिवार की कलह से त्रस्त होकर, उससे निजात पाने के लिए ले लिया था। मेरे ऐसा फैसला लेने के पीछे बात यह भी नहीं थी कि, मैं बड़ा जीवट वाला आदमी था और ख़तरों से खेलना मेरी फितरत में था, इसलिए, इस उम्र में पहुंचने के बावजूद, मैं ऐसा खतरनाक खेल, खेल गया था। उम्र के इस पड़ाव पर पहुंचने पर, डर और कायरता, जिस तरह दूसरों के भीतर पैठ कर उसे कमजोर और डरपोक बना देती है, ठीक वैसी ही कमजोरी मेरे भीतर भी अपनी पैठ बना चुकी थी। इस सबके बावजूद, मैं अपना घर बार छोड़कर बाहर निकल पड़ने जैसा घातक कदम, अपनी बच्चों जैसी अधकचरी तथा बेसिर पैर की सोच तथा उस सोच की बुनियाद पर वैसी ही बेसिर पैर की और अव्यावहारिक योजनाएं बनाकर, उसके बल पर बूढ़ों की जिंदगी सुधारने की टिटहरियों सरीखी, आकाश को अपने पैरों पर थाम लेने जैसी, खुशफहमी पाल लेने के चलते, उठा लिया था। मेरी वह बचकानी सोच यह थी कि पृथ्वी की कुल आबादी की करीब एक चौथाई के बराबर बूढ़ों की आबादी तो होगी ही। इतनी बड़ी आबादी की देखभाल आज दुनिया के सभी मुल्कों की एक बड़ी समस्या बनी हुई है। भारत में पुरातन से चली आ रही संयुक्त परिवार की व्यवस्था टूट रही है। पश्चिम की तरह यहाँ भी नई पीढ़ी माइक्रो फेमिली में विश्वास करने लगी है जिसमें मियाँ बीबी और बच्चों के अलावे, अपने बीच तीसरे किसी का हस्तक्षेप उन्हें बर्दाश्त नहीं है। इसके चलते यहाँ के वृद्ध माँ-बाप अपनों से उपेक्षित होकर एकाकी और घुटन भरी नरक की जिंदगी जीने को मजबूर होते है। मेरी इस बचकानी सोच को दृढ़ करने के लिए, मेरी पहचान के एकाध दो ऐसे लोग थे, जो थे तो संभ्रान्त किस्म के लेकिन घर की कलह और बहू बेटों की बेकदरी और ताड़ना से इस कदर त्रस्त थे कि वे अपना घर छोड़ कहीं भाग जाने या गले में फंदा डालकर खुदकुशी तक कर लेने की सोचा करते थे।
मेरी ही बैंक के एक स्टाफ अपनी नौकरी से रिटायर होकर जब अपने घर गए थे तो, उनके अपने बच्चों ने उनके साथ ऐसा सलूक किया था कि एक दिन वे घर से निकले थे और रेलगाड़ी के नीचे कटकर अपनी जान दे दिए थे। वह वाकया मुझे भीतर तक दहलाकर रख दिया था और उसकी याद अभी भी मेरे दिमाग में ताजा थी। अखबारों और चैनलों पर बूढ़ों की तरह-तरह की दुखभरी खबरें आए दिन पढ़ने और देखने को मिलते रहते थे। माँ बाप के साथ उनकी औलादों की बेगैरती और स्वार्थांधता दर्शाती ''यह जो है जिंदगी'' और ''बागबॉ'' जैसी फिल्में मैं देख चुका था। इस सबके चलते तथा अपनी नौकरी से रिटायर होने के बाद खुद की घर मैं बैठकर काहिलों की जिंदगी जीने की समस्या मेरे सामने खड़ी थी जिसके बारे में सोचकर मैं परेशान रहा करता था।
क्यों है ऐसी दुर्दशा बूढ़ों की? क्या उनकी इस दुर्दशा के लिए उनके बच्चे और यह समाज ही जिम्मेदार है? क्या नरक भोगना ही बूढ़ों का प्रारब्ध है? क्या उनको उनके इस नरक से मुक्ति का कोई कारगर उपाय नहीं है? मैं इन तमाम प्रश्नों के उत्तर बड़ी बेसब्री से तलाशने लग गया था और तलाशते तलाशते, इस निष्कर्ष पर पहुँचा था कि, बूढ़ों की उनकी दुर्गति के लिए कोई और नहीं बल्कि वे खुद ही उसके जिम्मेदार हैं। मेरे इस निष्कर्ष पर पहुंचने का आधार यह था कि चाहे कोई वस्तु हा या आदमी, जब वह अपनी उपयोगिता खो देता है, तो वह घूरे की चीज हो जाता है और घूरे की चीज को लोग घूरे पर ही फेंकते हैं। उसे अपने सिर पर रखकर नहीं ढोते। जब इस समस्या की असल जड़ मेरी पकड़ में आ गई थी तो मेरी भोली सोच, मुझे और गहरे पैठकर इसकी तह तक पहुंचने को प्रेरित करने लग गई थी। उसकी प्रेरणा पाकर जब मैं और गहरे उतरा था तो इस समस्या की जड़ का आखिरी सिरा मेरी पकड़ में आ गया था। उसका आखिरी सिरा यह था कि बूढ़े बेचारों के पास आश्रमों की तरह ऐसा कोई ठोस और सशक्त विकल्प नहीं है जहाँ नौकरी से रिटायर होने के बाद पहुँचकर वे, अपनी असीम ऊर्जा, अनुभव और ज्ञान का रचनात्मक कामों में उपयोग करने के साथ साथ गरिमापूर्ण और इत्मीनान की जिंदगी जी सके। इसी के चलते लोग काहिलों की तरह घर में बैठकर अपनी जिंदगी काटने को मजबूर होते हैं। जैसी कि कहावत है कि खाली दिमाग शैतान का घर होता है। करने को उनके पास कुछ होता नहीं है इसलिए घर में बैठकर वे दिन भर तरह तरह की ख़ुराफ़ातें कर करके न सिर्फ अपने बाल बच्चों का जीना मुहाल किए रखते हैं बल्कि खुद की जिंदगी भी नरक बनाकर रख देते हैं। एक तो करैली दूसरे नीम पर चढ़ी, उम्र के इस पड़ाव पर पहुँच कर उनमें सठियप्पन अपने चरम पर पहुँच चुकी होती है। उसके चलते परिवार के छोटे से छोटे निर्णयों में टाँग अड़ाने और अपने तरीके से सबको चलते देखने की उनमें कट्टर जिद होती है। अपने इन्हीं कुटेबों से वे घर में महाभारत की षश्रृष्टि किए रखते हैं जिससे आजिज़ आकर लोग उन्हें अपने बीच से बहिष्कृत कर देते हैं।
वृद्धों की मजबूरी का असल सच मेरी पकड़ में आते ही मेरी सोच को तो, जैसे पंख ही लग गए थे। इसके बाद मैं उन्हें उनके नरक से मुक्ति के लिए किसी ऐसे ठोस और कारगर विकल्प देने की तलाश में जुट गया था जो न सिर्फ आश्रमों की तुलना में ज्यादा सुरक्षित और पुरसकून हो बल्कि वहाँ पहुँचकर वे समाज से कटें नहीं, बल्कि उससे पहले से ज्यादा गहरे से जुड़ने के साथ साथ अपनी ऊर्जा अनुभव और ज्ञान का ऐसे कामों में उपयोग कर सकें जिससे उन्हें आत्मिक और आध्यात्मिक संतुष्टि के साथ, गरिमापूर्ण प्रतिष्ठा की जिंदगी जीने का मौका भी मिले।
इस दिशा में जब मैं सोचना शुरू किया था, तो मुझे बहुत ज्यादा माथापच्ची करने की जरूरत नहीं पड़ी थी। मेरी भोली बुद्धि ने मुझे, बूढ़ों को, दीन दुखियों की सेवा जैसे महान तथा पुण्य के काम में जुटाकर इस समस्या का बड़ा सरल और कारगर सा हल सुझा दिया था। विश्व की इतनी बड़ी और विकराल समस्या का इतना कारगर और सरल सा हल सूझते ही मैं खुशी से झूम उठा था। इसके बाद, इसे अमली जामा पहनाकर पृथ्वी पर उतारने के लिए इसकी योजना की रूपरेखा तैयार करने तथा इससे जुड़ी तमाम छोटी बड़ी समस्याएँ हल करने में मुझे ज्यादा मशक्कत नहीं करना पड़ा था। एक के बाद दूसरी और तीसरी सारी योजनाएं और समस्याएँ, खुद व खुद बनती, और हल होती चली गई थी। उन योजनाओं में सबसे पहली योजना मेरी यह बनी थी कि अपनी नौकरी से रिटायर होने के बाद मैं ऐसे लोगों को, जो मेरी तरह अपनी देह से दुरुस्त है, तथा अपनी दुनियावी ज़िम्मेदारियाँ भी निभा चुके हैं, उन्हें इकट्ठा करके उनकी एक संस्था बनाऊँगा। जब इस संस्था से, मेरे जैसे कुछ समर्पित और कर्मठ लोग जुड़ जाएँगे तो उन्हें लेकर मैं किसी दूर दराज के विपन्न लोगों की बस्ती में जाऊंगा और उनके बीच ठहरकर, उन्नत किस्म की खेती, पशुपालन, दुग्ध व्यवसाय, कुटीर उद्योग तथा जड़ी बूटियों की फसलें उगाकर उन्हें उनकी आर्थिक बदहाली के दलदल से निकालकर उनकी जिन्दगी खुशहाल बनाऊँगा। उनके बच्चे, जो अपने माँ बाप की विपन्नता के चलते अनपढ़ रह जाते है और अपना बचपन भेड़, बकरियाँ और ढोर चराते गुजारने को मजबूर होते हैं, उनके पढ़ने और रहने के लिए जगह जगह स्कूल और हॉस्टल बनवाऊँगा। जब मेरी संस्था अपना काम अच्छी तरह करने लगेगी तो, दीन दुखियों की सेवा जैसे नेक काम से प्रेरित होकर इस संस्था से भारी संख्या में लोग जुड़ना शुरू कर देंगे। और जुड़ते-जुड़ते जब इससे जुड़ने वालों की खासी तादाद हो जाएगी तो मैं अपनी योजना का दूसरे इलाकों में विस्तार करना शुरू कर दूंगा। इस तरह, तेजी से विस्तार पाती यह संस्था एक दिन समूची पृथ्वी पर छा जाएगी।
बचपन में अपनी किताब में मैंने ग्वालिन का एक किस्सा पढ़ा था। वह किस्सा कुछ यूँ था कि एक ग्वालिन रोज सुबह दही की हँडिया सिरपर रखकर गाँव में दही बेचने के लिए जाती थी। उस समय उसके पास एक ही गाय थी। एक दिन हमेशा की तरह जब वह दही बेचने निकली तो रास्ते में सोचने लगी कि दही बेचकर मैं ढेर सारा पैसा इकट्ठा करूंगी, और उन पैसों से दूसरी, तीसरी और चौथी गाय खरीदूंगी और इसके दूध, दही बेचकर गाँव की सबसे धनी आदमी बन जाऊँगी। इस धन से मैं अपने छप्पर के घर तुड़वाकर उसकी जगह जमींदार की तरह एक बड़ी हवेली बनवाऊँगी और उसमें उसी की तरह अपनी सेवा टहल के लिए कईयों नौकर और बांदियाँ रखूंगी। मैं अपनी पलंग पर लेटूँगी तो कोई मेरा पैर दबाएगा तो कोई पंखे झलेगा। वाह क्या आनंद की जिंदगी होगी। इस तरह अपने ख़यालों से मगन होकर उसने अपने सिर को इतने जोर का झटका दिया था कि उसके सिर से दही की हँडिया गिरी थी और टूट गई थी इस तरह उसका सारा सपना चकना चूर हो गया था।
ग्वालिन की तरह कुछ वैसे ही खयाली पुलाव, मैं भी अपनी संस्था को लेकर पकाने लग गया था। मैंने सोचा था कि मेरी संस्था जब विस्तार पाकर समूची पृथ्वी पर फैल जाएगी तो, ऐसे सभी लोग, जो इस तरह की संस्था के अभाव में अपनी जिंदगी घर में बैठकर गुजारने को मजबूर होते हैं उन्हें न सिर्फ इससे जुड़कर व्यस्त होने का अच्छा सुयोग प्राप्त होगा बल्कि उनकी ऊर्जा अनुभव और ज्ञान का भी सार्थक उपयोग होने लगेगा। इस तरह मैंने वृद्धों की आबादी के एक बड़े हिस्से को उन्हें उनके नरक से निकालने तथा प्रतिष्ठा तथा इज्जत की जिंदगी जीने का ठोस विकल्प तैयार कर दिया था। लेकिन अपनी इस तजवीज़ के बाद भी मैं संतुष्ट नहीं था क्योंकि इसके बाद भी बड़ी संख्या में ऐसे लोग बचे रह जाते थे जो अपनी किसी मजबूरी या इच्छा के अभाव में, इस संस्था से नहीं जुड़ सकते थे। उनके बारे में मैंने सोचा यह था कि मैं इस संस्था की एक एक शाखा शहर के हर मोहल्ले और गली में खोल दूंगा। जब लोगों को, यह संस्था, अपनी तमाम ख़ासियतों के साथ, उनके अपने दरवाजे पर खड़ी मिलेगी, तो बिरला ही कोई ऐसा होगा जो इससे जुड़ने से कतराएगा। ऐसे लोगों के बारे में मैंने सोचा यह था कि वे अपने घर में ही रहकर अपने आस पास की झुग्गी झोपड़ियों और घर में काम करने वाली औरतों के बच्चे बच्चियों को पढ़ाने, लोगों को एड्स जैसी जान लेवा बीमारियों के प्रति जागरूक करने के साथ साथ अपने मोहल्ले के जरूरत मंदों की सभी तरह से मदद करेंगे।
ऊपर बताई गई दो तरह की योजनाओं के जरिए बूढ़ों की, काफी बड़ी आबादी की बेकारी की समस्या हल हो जाती थी। लेकिन इसके बाद भी काफी संख्या में ऐसे लोग बचे रह जाते थे जो किसी गंभीर बीमारी से ग्रस्त होने या वार्धक्य के चलते, अक्षम होकर विस्तर पकड़ लिए है और उनकी देखभाल करने वाला भी कोई नहीं है, तथा संस्था से जुड़े वे सभी भी लोग जो अपना सब कुछ त्याग कर अपना जीवन संस्था को समर्पित कर चुके होंगे, यदि वे किसी गंभीर बीमारी से ग्रस्त होकर, या ज्यादा उम्र के चलते अक्षम हो जाएँ तो उनके लिए अलग एक आश्रम बनाकर, वहाँ उनके खाने पीने, रहने और दवादारू के लिए ऐसी योजना बना डाला था जिससे कि वे अपने अन्तिम दिन सुख और शांति से काट सके। जैसा मेरा विश्वास था कि मेरी संस्था से बड़ी संख्या में डाक्टर और नर्सें जुड़ी होंगी, इसलिए इस आश्रम की व्यवस्था तथा प्रबंधन कोई और नहीं बल्कि संस्था से जुड़े लोग ही देखेंगे। इस तरह, मैंने जब, बूढ़ों की समूची आबादी को, इस संस्था से जोड़कर, उन्हें गरिमामयी और इज्जत की जिंदगी देने की योजना बना लिया था, तो मेरा दिल बल्लियों कूदने लग गया था। संस्था को चलाने के लिए समर्पित लोग मुझे, दुनिया के हर कोने में सहज ही उपलब्ध थे। इसके कार्यों की रूप रेखा और योजना मैंने इस तरह तैयार किया था कि उसमें किसी भी तरह के कंटक की गुंजाइश नहीं थी।
बात आई संस्था को चलाने के लिए, इसकी अहम जरूरत, पैसों की, तो इसकी बाबत भी मुझे ज्यादा माथा पच्ची करने की जरूरत नहीं पड़ी थी। गणित मैंने यह लगाया था कि मेरी संस्था से जुड़े लोग, इंजीनियर, डाक्टर, व्यापारी तथा दूसरे तमाम संभ्रान्त वर्ग के लोग होंगे और उनके पास अपने फंड, ग्रेच्युटी, पेंशन के साथ अपने जीवन भर की कमाई की एक बड़ी रकम तो होगी ही होगी। उस बड़ी रकम में से, पूरी न सही, थोड़ा थोड़ा करके तो लोग अपने साथ लाएँगे ही। इस तरह जो धन वे अपने साथ लाएँगे संस्था की सारी जरूरतें उसी से पूरी हो जाएंगी। इसके अलावे मैंने सुन रखा था कि, समाज सेवा के काम से जुड़ी संस्थाओं को, विदेशी एजेंसियाँ और लोग, काफी धन दान में देते हैं। ऐसे में मैं, इस बात से पूरी तरह आश्वस्त था कि मेरे इतने महान और नेक कार्य में, संस्था को विदेशों से इतना धन मिल जाया करेगा कि मुझे किसी और के सामने हाथ पसारने की जरूरत ही नहीं पड़ेगी।
इस सबके अलावे मैं जिस एक बात को लेकर सबसे ज्यादा आश्वस्त था वह यह था कि बूढ़ों की समस्या, आज किसी एक देश की समस्या नहीं है बल्कि, समूची पृथ्वी की समस्या बन चुकी है। और जिस तरह दिनोंदिन यह समस्या ज्यादा विकराल रूप धारण करती जा रही है एक दिन ऐसा आएगा कि इसका प्रबंधन सरकारों के बस के बाहर हो जाएगा। अखबारों में तो यहाँ तक पढ़ने को मिला था कि अमरीका जैसे धनी देश को, बूढ़ों की लगातार बढ़ती आबादी के चलते, अपना बजट तक संभालने में मुश्किलें आ रही है। ऐसे, में, पृथ्वी की इस विकराल समस्या को, इतने सार्थक ढंग से और चुटकियों में हल कर देने की ठोस योजना लेकर जब मैं दुनिया की सरकारों के सामने जाऊंगा, तो मेरे इस अनूठे और क्रान्तिकारी कदम के लिए वे न सिर्फ मुझे अपने सिर आंखों पर बैठा लेगी बल्कि अपना खजाना भी मेरे लिए खोल देंगी।
इस तरह जब मैं अपनी सारी योजनाओं का तानाबाना पूरी तरह तैयार कर लिया था, तो मुझमें इतनी उत्तेजना और पुलक भर उठी थी कि मुझे अपनी उम्र के इस पड़ाव पर भी, अंधेरे कुएं में छलांग लगाने जैसा घातक कदम उठाने में न तो कोई डर लगी थी न संकोच हुआ था और न ही आगा पीछा सोचने जैसी किसी तरह की कोई जरूरत ही पड़ी थी। उस समय तो मेरी हाल ऐसी हो रही थी कि मुझे अपना घर किसी कैद खाने की तरह और बीबी बच्चे स्वजन तथा मित्र, बेड़ियों सरीखे लगने लगे थे। दीन दुखियों की सेवा जैसे महान और नेक काम में मुझे जुड़ा देख, पित्र लोक में बैठे मेरे पितरों की छाती फूलकर, गरगज हुई जा रही थी। स्वर्ग में बैठे देवताओं को, मेरे पुण्य की बढ़ोत्तरी देख, मुझसे ईर्ष्या होने लग गई थी। स्वर्गाधिपति इन्द्र तो मेरे काम से इतना प्रभावित थे कि वे मेरे लिए स्वर्ग का दरवाजा खोल, मुझे सशरीर अपने पास दौड़े आने के इशारे करने लग गए थे, लेकिन उनके बुलावे पर मैं बड़ी विनम्रता से हाथ जोड़ उनसे क्षमा मांग लेता। मुझे आपका स्वर्ग नहीं चाहिए। मुझे तो दीन दुखियों के बीच ही रहना पसंद है आपका स्वर्ग आपको ही मुबारक।
दुनिया की सरकारें मुझे अपने यहाँ का सर्वोच्च नागरिक सम्मान देने के लिए मेरे सामने हाथ बांधे खड़ी दिखती लेकिन मैं उनकी मिन्नतों की उपेक्षा करके उनकी तरफ से अपना मुँह फेर लेता। नोबेल, मैग्सेसे जैसी बड़ी तथा दूसरी छोटी बड़ी पुरस्कारदायी संस्थाओं के लोग अपने पुरस्कार लिए मेरे कदमों में बिछ बिछ जाते लेकिन मैं उन्हें ऐसे लात मारता कि वे ठुनमुनिया खाते हुए दूर जा गिरते।
आज जब मैं, राँची प्रवास के चार सालों के अपने अनुभव लिखने बैठा हूँ तो मुझे उस समय की अपनी बचकानी सोच और उसकी बुनियाद पर हवाई क़िलों का निर्माण और बिना पंख के ही उड़ उड़ कर ऐसी ऐसी ऊँचाइयों पर गोते लगा आने, जहाँ पहुँच सकने की आदमी कल्पना तक न करें, पर बड़ी हंसी आती है। लेकिन उन दिनों, मैं जो भी खयाली पुलाव पकाता था, मेरी हर कल्पना और सोच, मुझे पूरी तरह ठोस लगा करती थी और मुझमें इतना आत्मविश्वास भरा होता था कि अपने मिशन में असफल होने जैसी बात मेरे सपनों तक में नहीं आती थी।
संस्था से जुड़ी तमाम बातों का विधिवत समाधान कर लेने के बाद, मेरी एक और भी अहम और बड़ी समस्या का समाधान अभी भी बचा रह जाता था। वह समस्या थी उस स्थान का चुनाव जहाँ अपना डेरा डंडा जमाकर मैं अपने मिशन को कार्यरूप दे सकूँ। इस पर जब मैं गौर करना शुरू किया था तो मुझे कभी उड़ीसा के कालाहांडी क्षेत्र के नंगे और फटेहाल, भूख से बेहाल लोग, अपनी पीठ से सटे पेट दिखा दिखा कर मुझसे अपने यहाँ आने की मिन्नतें करते तो कभी बस्तर के नंगे आदिवासी एक साथ मिलकर, अपने यहाँ आने के लिए गुहारते सुनाई पड़ते। कभी हिमालय के दुर्गम क्षेत्र के लोग मुझे पुकार रहे होते तो कभी राजस्थान के थार मरूस्थल के लोगों की गुहारें सुनाई पड़ती।
देश की सभी दिशाओं से लोगों की आरजुओं, मिन्नतों, गुहारों, चीत्कारों और चीख पुकारों से एक समय तो इतना कोलाहल मच गया था कि उसे सह सकना मेरे बर्दाश्त के बाहर हो गया था। लोगों को शांत करने के लिए मैंने उनसे कहा कि आप लोग इतना अधीर मत होइए। हो सकता है मैं आपके बीच खुद से न पहुँच सकूँ लेकिन एक दिन मेरी संस्था आप लोगों का दुख हरने आपके बीच जरूर पहुँचेगी। मेरे इस तरह के आश्वासन पर लोग शांत होने की बजाए और ज्यादा चिल्ल पों मचाने लग गए थे। नेताओं का आश्वासन खाते चबाते और ओढ़ते बिछाते हमने सांठ साल गुजार दिए, अब हमें आश्वासनों पर भरोसा नहीं है। आप खुद हमारे बीच पहुँचिए, तभी हमें भरोसा होगा। ठीक है आप लोग घबराइए नहीं मैं खुद आप लोगों के बीच पहुँच रहा हूँ। लोगों से अपनी जान छुड़ाने के लिए मुझे झूठ बोलना पड़ गया और जब मैंने उनके बीच तुरंत पहुंचने का आश्वासन दिया था तब जाकर उन्हें ढाढ़स बंधा था और वे शांत हुए थे।
मैं एक अकेला, एक साथ, और एक ही समय सभी लोगों के बीच नहीं पहुँच सकता था। अपना डेरा डंडा जमाने के लिए सबसे पहले मुझे किसी एक जगह जमना जरूरी था इसलिए मुझे इसके लिए जो सबसे माकूल जगह जँची थी, वह था झारखंड। झारखंड का चुनाव मैंने इसलिए किया था कि वहाँ न सिर्फ घने जंगल और पहाड़ हैं बल्कि उनके बीच बड़ी तादाद में मुंडा, संथाल, ओरॉव जैसी आदिवासी जातियाँ रहती है। वैसे मैं वहाँ के गाँवों में कभी नहीं गया था लेकिन वहाँ के बाशिंदों को जंगलों से लकड़ियाँ, आम, जामुन, गुड़रूपाका, घोंघे और पोटिया मछलियाँ, राँची के फुटपाथों पर बेचते देख चुका था। उनकी फटे हाली का आलम यह था कि वहाँ की औरतें, जंगल से लकड़ी का गठ्ठर, दो चार किलो जामुन, बेर, पत्तल, दातुन, सिर पर लादकर लाती थी और अपने बच्चों को पीठ पर बाँधकर, जो सुबह फुटपाथ पर बैठती थी तो शाम तक बिना खाए पिए वही बैठी रहती थीं। किसी का किलो दो किलो बिक जाता था तो वे उतने में ही संतोष करके घर वापस लौट जाती थीं। उन औरतों की दशा देख, मेरा मन द्रवित हो उठता था। मात्र पांच दस रुपए के लिए दिनभर भूखे प्यासे धूप बरसात में बैठे रहने के पीछे उनकी भूख और फटेहाली के अलावे दूसरा कोई कारण हो ही नहीं सकता था।
करीब आठ सालों तक मैं अपनी नौकरी के सिलसिले में राँची में रह चुका था। इसलिए वहाँ के काफी लोगों से मेरा परिचय था। हमारी बैंक के कईयों साथी वहाँ के बाशिंदे थे और कईयों दूसरे सहकर्मी वहीं पर जगह जमीन खरीद कर अपना घर बना लिए थे। वहाँ रहने के दौरान यदि मेरे साथ कोई दुर्घटना घट गई या मैं बीमार पड़ गया तो ऐसी हालत में मैं अपने परिचितों की मदद ले सकता था। मेरे झारखंड का चुनाव करने के पीछे एक कारण यह भी था।
राँची में सी0एम0पी0डी0आई0, मेकन, सी0सी0एल0, एच0ई0सी0 जैसे कईयों बड़े प्रतिष्ठान और उनके दफ्तर थे। सरकारी दफ्तर, मेडिकल कालेज यूनिवर्सिटी के अलावे निजी क्षेत्र के कईयों छोटे बड़े कारखाने भी वहाँ लगे हुए थे। वहाँ से रिटायर होने के बाद ज्यादातर लोग वही बस गए थे। इसलिए मेरी संस्था के लिए जिस तरह के लोगों की जरूरत थी वे भारी तादाद में, वहाँ सहज ही मिल जाते थे इसलिए भी मैंने झारखंड का चुनाव किया था।
पहाड़ों और जंगलों की प्रचुरता के चलते वहाँ की जलवायु काफी अच्छी है। अपनी इसी खासियत के चलते किसी समय यह हिल स्टेशन हुआ करता था। उन दिनों काफी लोग हवा, पानी बदलने और अपनी सेहत सुधारने के लिए यहाँ आया करते थे। इतनी ठसम ठस्स और भीड़ भड़क्के के बावजूद राँची की आबोहवा आज भी दूसरे शहरों के मुकाबले काफी अच्छी है यह बात भी राँची जाने के लिए मुझे लुभाई थी।
ऊपर बताए कारणों के चलते राँची और झारखंड मुझे सबसे माकूल जगह जंची थी, इसलिए मैं इसका चुनाव करके अपना बोरिया बिस्तर बांधा था और अपना घर छोड़ दिया था। घर में अगर मैं यह कहकर निकलता कि मैं लोगों का दुख दर्द दूर करने का उद्देश्य लेकर अपना घर बार छोड़ रहा हूँ तो लोग यही समझते कि कहीं मेरा माथा तो नहीं फिर गया है? जो इस उम्र में, जब मुझे अपने घर में सुरक्षित रहकर अपनी पेंशन, फंड और ग्रेच्युटी का पैसा खाते, अपनी जिंदगी राम का नाम लेने में काटना चाहिए उस समय मैं इतना वाहियात सा उद्देश्य लेकर पहाड़ों और जंगलों में भटकने के लिए निकल रहा हूँ। वैसे भी लोग समझने में बड़े कुशाग्रबुद्धि होते है। मेरे इस कदम के पीछे लोग ऐसी ऐसी बातें समझ लेते कि उसे सुनकर ही मैं बेहोश हो जाता। खैर लोग मेरे इस कदम को अपने तरीके से न समझें इसलिए मैं लोगों से झूठ बोल गया था कि राँची में मुझे एक नौकरी मिल गई है। अभी मैं स्वस्थ हूँ। बेकारों की तरह मैं घर में बैठ नहीं सकता इसलिए जब तक शरीर मेरा साथ देगी, तब तक मैं नौकरी करके सक्रिय रहना चाहता हूँ। पत्नी को अपने साथ चलने को कहा तो उसने यह कह कर मेरे साथ चलने से इन्कार कर दिया था कि मैं इतने दिनों तक आपके साथ बहुत भटक ली हूँ आपको भटकने का शौक चर्राया हुआ है तो आप बेशक जाइए लेकिन मैं आपके साथ नहीं जाऊँगी।
खैर, राँची पहुंचने के बाद, मैं किसी परिचित के घर नहीं रुका था। एक सस्ते होटल में रुककर पहले ही दिन से घर तलाशने में जुट गया था। घर तलाशने के क्रम में मुझे पता चला था कि झारखंड की राजधानी बनने के बाद, राँची की आबादी बेतहाशा बढ़ी है। इसके चलते, दो तीन कमरों का बढ़िया फ्लैट, जो दस साल पहने, हजार से पन्द्रह सौ में मिल जाया करता था उतने किराए में अब यहाँ एक कोठरी तक मिलनी मुश्किल थी। डोरंडा में युवराज होटल के पीछे एक मकान देखा। उसमें एक कोठरी का किराया पन्द्रह सौ रुपए था। मकान दो तल्ले का था और हर तल्ले में चार पाँच कोठरियों के बीच एक स्नानघर और संडास था। पूरे मकान में सिर्फ विद्यार्थी ही रहते थे। भाड़े की सहूलियत के लिए एक एक कोठरी में तीन तीन विद्यार्थी अपनी अपनी चौकियाँ डाल कर रह रहे थे। खाना वे कहीं बाहर होटल में खाते थे। उन्हीं कोठरियों में से एक कोठरी में एक चौकी की जगह खाली थी। विद्यार्थियों के बीच ऐसी टोचम टोच में रह सकना मेरे लिए संभव नहीं था। दूसरी बात कि होटल में एकाध दो दिन खाना हो तो ठीक है लेकिन हमेशा के लिए होटल का खाना खाकर मैं जिंदा नहीं रह सकता था इसलिए वहाँ से चला आया था। इसके बाद मैं अपने एक पूर्व परिचित जिनका कांके रोड के जयप्रकाश मार्ग में अपना मकान है उनके पास गया था, राँची ट्रांसफर होकर पहली दफा जब मैं वहाँ गया था, तो कुछ दिन उनके यहाँ किराए पर मकान लेकर रह चुका था। उनकी मदद से मुझे दो कमरों का एक फ्लैट पन्द्रह सौ रुपए महीने के किराए पर मिल गया था। मेरे लिए यह बड़े राहत की बात थी। फ्लैट टाइप का मकान, था तो पुराना ही लेकिन उसमें सारी सुविधाएँ उपलब्ध थी और उसमें किसी और का दखल भी नहीं था। राँची के हिसाब से उसका भाड़ा भी कम था इसलिए मैंने उसे ले लिया था।
तीन चार दिनों में, मैंने अपने सोने के लिए चौकी, तोषक, तकिया और खाना बनाने के लिए गैस और जरूरी सामान इकट्ठा कर लिया था। थाली, कूकर, तावा, चिमटा, चौका, बेलना जैसे खाना बनाने के बर्तन मैं घर से ही लेकर आया था। सब कुछ जुगाड़ लेने के बाद, मैं सुबह हमेशा की तरह, चार बजे उठता, नित्यकर्म से फारिग होकर खाना बनाता और आठ साढ़े आठ बजे खाना खाकर, थोड़ा फल और बोतल में पानी, एक छोटे झोले में रखता और गाँव की तरफ निकल जाता। दरअसल मैं सबसे पहले यहाँ के पहाड़ों और दूर दराज के जंगलों में बसे गाँवों को देखकर उनमें से किसी एक गाँव का चुनाव करना चाहता था। इसलिए मैं शहर से तीस चालीस किलोमीटर की परिधि में बसे गाँवों तक पहुंचने लगा था। सुबह आठ साढ़े आठ बजे घर से निकलता, बस पकता और किसी जगह उतरकर वहाँ से जंगलों के बीच बसे गाँवों की तरफ चल पड़ता। गाँव में पहुँचकर मैं वहाँ के लोगों को इकट्ठा करता। उन्हें अपना परिचय देता और उनके गाँव पहुंचने का अपना उद्देश्य बताने के बाद यह भी बताता कि जहाँ के लोग मुझे रोक लेंगे, मैं उन्हीं का होकर वहीं रूक जाऊंगा और उन्हीं के बीच अपना काम शुरू कर दूंगा।
गाँव के भ्रमण के क्रम में मैं राँची के उत्तर जोन्हाफल तक, सड़क के दोनों तरफ, काफी दूर तक जंगलों पहाड़ों घाटियों को पार करके उनके बीच बसे गाँवों तक पहुँचा था। सड़क के किनारे बसे गाँव तो फिर भी ठीक हैं लेकिन घने जंगलों में बसे गाँवों की आबादी अभी भी आदिम युग में रहती है। हालांकि पहले की तरह लोग वहाँ नंगे नहीं रहते लेकिन गरीबी उनमें चरम पर है। जंगलों के बीच जहाँ कहीं खेती लायक जमीन है वहाँ पर लोग खेती करते है। सिंचाई का कोई साधन उनके पास नहीं होता, इसलिए वे अपने खेत में बरसात के दिनों की धान मड़ुवा, मकई की एक फसल लेते हैं इसके बाद उनका खेत सालभर खाली पड़ा रहता है। खेती अभी भी वे पुराने ढंग से लकड़ी के हल में, भैंसे व बैल जोत कर करते हैं। उनके खेती के जानवर छोटे, मर गिल्ले और निहायत कमजोर होते है। वहाँ के करीब-करीब सभी आदिवासी भेड़, बकरी, सूअर और मुर्ग़ी पालते है। उनकी भेड़, बकरियाँ और सूअर अभी भी उनके बाप दादों के समय जैसी ही है। किसी का भी वजन चार पाँच किलो से ज्यादा नहीं होता। डेढ़ दो बित्ते ऊंची और उतनी ही लंबी बकरियाँ देखकर मुझे हँसी भी लगती थी और दुख भी होता था। बड़े कबूतर के आकार की उनकी मुर्गियां अपने चूज़ों के साथ घूरे और कचरे के ढेर से दिनभर कीड़े चुनकर अपने पेट भरती है। उन्हें खिलाने के लिए चुग्गे वहाँ के लोग नहीं डालते। पुरुष और औरतें छोटे कद के होते है। शरीर ढँपने के लिए पुरुष धोती बाँधते हैं और औरतें साड़ी पहनती हैं। बच्चे चड्डी बनियान पहनते हैं या नंगे रहते है। खेती लायक जमीन उनके पास बहुत थोड़ी होती है। इससे जो पैदा होता होगा उसमें उनका दो चार महीनों का भोजन जुट जाता होगा ऐसा नहीं लगता था इसलिए वहाँ के वासिंदे अपने पेट पालने तथा रोजमर्रा की जरूरतें पूरी करने के लिए, जंगलों से लकड़ियाँ, आम, जामुन, बेर करंज की दातुन, पत्तल, इकट्ठा करते हैं और बस, टेंपो, ट्रेन में लादकर राँची पहुँचाते हैं या वहाँ के स्थानीय साप्ताहिक हाटों में ले जाकर बिचौलियों को बेंच देते है। कुछ जगहों में लोग सब्जी की भी खेती करते है। लेकिन यह काम वहाँ के महतो जो राँची के करीब के गाँवों में रहते हैं ज्यादातर वही करते है। उनकी औरतें काफी मेहनती होती हैं। वे घर के काम संभालने के साथ खेतीबाड़ी से लेकर तमाम व्यवसायिक फसलें और बनउपज सिर पर रखकर या सवारी में लादकर बाजार ले जाती है और उन्हें बेचती भी हैं। यहाँ से भारी संख्या में औरत मर्द साल के छ: महीनों के लिए उत्तर भारत चले जाते हैं और वहाँ के ईंट भट्ठों में काम करते है। राँची से बीस पच्चीस किलोमीटर तक के गाँवों में लड़के लड़कियाँ औरत मर्द बस या रेल से रोज राँची पहुँचकर वहाँ पर निर्माणाधीन मकानों में ईट गारा ढोते है। शिक्षा का यहाँ काफी अभाव है।
पहले मेरी योजना, बूढ़ों की संस्था बनाकर गाँव में अपना काम शुरू करने की थी लेकिन राँची पहुंचने के बाद मैंने सोचा कि पहले मैं खुद किसी गाँव में जमकर, मेरे पास जो संसाधन है, उसके साथ उनके बीच काम शुरू करुँ। वहाँ अपने को व्यवस्थित करने के बाद, संस्था की स्थापना करुँ तो ठीक रहेगा। ऐसा मैंने इसलिए सोचा था कि मेरे काम को देखकर लोगों को प्रेरणा मिलने के साथ मेरे प्रति विश्वास जमेगा। बिना किसी ठोस बुनियाद के मैं लोगों को अपनी ऊंची और लंबी चौड़ी बातों के बूते अपने साथ चलने को कहूँगा तो उन्हें मेरी बातों पर विश्वास नहीं होगा। इसलिए, पहले मैं खुद, इस काम में जुटकर इसके लिए ठोस जमीन तैयार करने के बाद ही अपनी योजना पर आगे बढ़ने की सोचा था।
उस समय मैंने यह नहीं सोचा था कि किसी दिन मैं, अपना अनुभव भी लिखूंगा, इसलिए मैं डायरी की तरह की कोई चीज नहीं लिखा था। जिस गाँव में पहुँचता था उसके लोगों से आगे के गाँवों तथा उन गाँवों के पढ़े लिखे और रसूख वाले लोगों के नाम किसी पुर्ज़े पर लिख लिया करता था। उनसे मिलने के बाद पुरज़े अपने पास संभाल कर नहीं रखता था। पुराने कागज खंगालने लगा तो उसमें से एक नोट बुक, जिसमें मैं कुछ गाँवों और लोगों के नाम लिख रखा था वह मुझे मिल गई थी। यहाँ जो कुछ मैं लिखा हूँ कुछ तो उस नोटबुक से और कुछ अपनी याददाश्त के सहारे, इसलिए गाँवों और वहाँ के लोगों के नामों के साथ जो विवरण आएगा उसमें काफी भूलें होने की संभावना है। लेकिन इसमें वर्णित विवरण वही है जैसा मैंने देखा समझा और मेरे साथ घटित हुआ है। इसमें मैं अपनी तरफ से न तो कुछ जोड़ा हूँ न घटाया हूँ।
खैर, गाँव घूमने के क्रम में मैं राँची के उत्तर जोन्हाफल तक, सड़क से काफी दूर घने जंगलों में बसे गाँवों तक गया। राजा पड़ाव के बाद चमघट्टी, रूपडू, खेखा, रेचत कुच्चा अमरटोला, जराटोला, कुच्चा गाँवों में गया। पतरातू के रास्ते पिठौरिया के आगे कुछ दूर गया लेकिन वहाँ के गाँव काफी भीतर थे और जंगल घना था इसलिए आगे नहीं बढ़ा। पूरब में बुंडू, तमाड़ तक गया लेकिन वहाँ से मैदानी इलाका शुरू हो जाता था इसलिए वहाँ के अंगल बगल के गाँवों में न जाकर वापस जंगल के गाँवों की तरफ लौट आया था। रामपुर, बैगडीह तथा रोड से उत्तर जहाँ एक जगह गेंदें के फूल की खेती होती है उसके और दक्षिण पगडंडी पकड़कर एक गाँव में गया। राँची के पूरब ही दूसरे रास्ते पर जिलिंग सेरेंग गांव है वहाँ गया। खूटी के पहले सड़क से पश्चिम एक छोटी नदी बहती है उसे पार करके जंगल के बीच बसे एक गाँव में गया। राँची के पश्चिम गुमला सिसई तक मैं पहले ही जा चुका था। हालांकि उस तरफ जंगल न के बराबर है लेकिन वह क्षेत्र तथा लोहरदगा का एरिया नक्सल प्रभावित था और आए दिन उन इलाकों में पुलिस मुठभेड़ और नक्सलियों की मारकाट की घटनाएं होती रहती थी इसलिए उस तरफ के गाँवों में जाने से या वहाँ रुककर काम करने में मेरे जान की जोखिम था और मैं वैसा कोई जोखिम उठाना नहीं चाहता था इसलिए उस तरफ नहीं गया था।
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क्रमशः अगले अंकों में जारी...
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रचनाकार संपर्क:
आर. ए. मिश्र,
2284/4 शास्त्री नगर,
सुलतानपुर, उप्र पिन - 228001
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Yeh teeno kadiyan bahut hee dil cho lene walee hain.
जवाब देंहटाएंAajkal kee duniya main achchey iradey walon kee koi pooch nahee hai, aajkal fashion, chori, netagiri, chamchagiri ka hee jamana hai.
Apkey himmat aur iradon kee dad deta hoon aur apko salam karta hoon
Rakesh Jain