गणेश चतुर्थी के अवसर पर विशेष सिद्धि विनायक गणेश - प्रो. अश्विनी केशरवानी श्री गणेश जी की पूजा प्रत्येक शुभकार्य करने के पूर्...
गणेश चतुर्थी के अवसर पर विशेष
सिद्धि विनायक गणेश
- प्रो. अश्विनी केशरवानी
श्री गणेश जी की पूजा प्रत्येक शुभकार्य करने के पूर्व ''श्रीगणेशायनम:'' का उच्चारण किया जाता है। क्योंकि गणेश जी की आराधना हर प्रकार के विघ्नों के निवारण करने के लिए किया जाता है। क्योंकि गणेश जी विघ्नेश्वर हैं :-
वक्रतुण्ड महाकाय कोटि समप्रभा।
निर्विघ्नं कुरू में देव, सर्व कार्येषु सर्वदा॥
गोस्वामी तुलसीदास ने श्रीरामचरितमानस के मंगलाचरण में गणेश जी की वंदना करते हुए लिखा है:-
जो सुमिरन सिधि होई गन नायक करिवर वदन।
करउ अनुग्रह सोई बुधि रासि शुभ गुण सदन॥
भगवान गणेश सत, रज और तम तीनों गुणों के ईश हैं। गणों का ईश ही प्रणव स्वरूप 'ऊँ' है। अत: प्रणव स्वरूप ओंकार ही भगवान की मूर्ति है जो वेद मंत्रों के प्रारंभ में प्रतिष्ठित है। ऊँकार रूपी भगवान को ही गणेश कहा गया है :-
ओंकार रूपी भगवानुक्तसत गणनायक:।
यथा कार्येषु सर्वेषु पूज्यते औ विनायक:॥
ऋग्वेद में भी कहा गया है:- ''न ऋतेत्वतकियते किं चन्तरे'' अर्थात् हे गणेश जी तुम्हारे बिना कोई भी कार्य प्रारंभ नहीं किया जाता। पुराणों में पंचदेवों की उपासना कही गयी है.। ऌस उपासना का रहस्य स्थल पंचभूतों से सम्बंधित है। ये स्थूल तत्व हैं- पुथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश। इनके अधिपति क्रमश: शिव, गणेश, भगवती, सूर्य और विष्णु हैं। गणेश जी के जल तत्व के अधिपति होने के कारण उनकी सर्वप्रथम पूजा का विधान है। नारद पुराण के अनुसार- ''गणेशादि पंचदेव ताभ्यो नम:'' गणेश जी ब्रह्मांड और उसके विशिष्ट तत्वों के प्रतीक होने के कारण दार्शनिक दृष्टि से भी अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। गणेश जी बल, बुद्धि और पराक्रम के धनी हैं। संसार की परिक्रमा में प्रथम आने की शर्त जब सब देवताओं ने रखी और पृथ्वी की परिक्रमा शुरू की तो उन्होंने अपना बुद्धि चातुर्य दिखाया। उन्होंने सोचा कि जीव तो चर-अचर में रमा है- 'रमन्ते चराचरेषु संसारे' और उन्होंने अपने माता-पिता की परिक्रमा करके रूक गये। जब समस्त देवता पृथ्वी का चक्कर लगाकर लौटे तो उनकी वुद्धि और चतुरता की बात सुनकर स्तब्ध रह गये और अपनी हार स्वीकार कर लिये। तब से वे देवताओं के अग्रगण्य बने और अग्र पूजा के अधिकारी हुए।
विघ्ननाशक और सिद्धि विनायक गणेश या गणपति की विनायक के रूप में पूजन की परंपरा प्राचीन है किंतु पार्वती अथवा गौरीनंदन गणेश का पूजन बाद में प्रारंभ हुआ। ब्राह्मण धर्म के पांच प्रमुख सम्प्रदायों में गणेश जी के उपासकों का एक स्वतंत्र गणपत्य सम्प्रदाय भी था जिसका विकास पांचवीं से आठवीं शताब्दी के बीच हुआ। वर्तमान में सभी शुभाशुभ कार्यों के प्रारंभ में गणेश जी की पूजा की जाती है। लक्ष्मी जी के साथ गणेश जी की पूजन चंचला लक्ष्मी पर बुद्धि के देवता गणेश जी के नियंत्रण के प्रतीक स्वरूप की जाती है। दूसरी ओर समृद्धि के देवता कुबेर के साथ उनके पूजन की परंपरा सिद्धि दायक देवता के रूप में मिलती है। गणेश जी के अनेक नाम निम्नानुसार हैं :- सुमुख, एकदंत, कपिल, गजकर्ण, लंबोदर, विकट, विघ्न विनाशक, विनायक, धुम्रकेतु, गणेशाध्यक्ष, भालचन्द्र और गजानन। सिद्धि सदन एवं गजवदन विनायक के उद्भव का प्रसंग ब्रह्मवैवर्त्य पुराण के गणेश खंड में मिलता है। इसके अनुसार पार्वती जी ने पुत्र प्राप्ति का यज्ञ किया। उस यज्ञ में देवता और ऋषिगण आये और पार्वती जी की प्रार्थना को स्वीकार कर भगवान विष्णु ने व्रतादि का उपदेश दिया। जब पार्वती जी को पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई तब त्रिदेव ब्रह्मा, विष्णु और महेश के साथ अनेक देवता उन्हें आशीर्वाद देने पहुंचे। सूर्य पुत्र शनिदेव भी वहां पहुंचे। लेकिन उनका मस्तक झुका हुआ था। क्योंकि एक बार ध्यानस्थ शनिदेव ने अपनी पत्नी के शाप का उल्लेख करते हुए अपना सिर उठाकर बालक को देखने में अपनी असमर्थता व्यक्त की थी। लेकिन पार्वती जी ने नि:शंक होकर गणेश जी को देखने की अनुमति दे दी। शनिदेव की दृष्टि बालक पर पड़ते ही बालक का सिर धड़ से अलग हो गया :-
सत्य लोचन कोणेन ददर्शच शिशोर्मुखम्।
शनिश्वर मस्तकं कृष्णे गत्वा गोलोकमीप्सितम्॥
..और कटा हुआ सिर भगवान विष्णु में प्रविष्ट हो गया। तब पार्वती जी पुत्र शोक में विह्वल हो उठीं। भगवान विष्णु ने तब सुदर्शन चक्र से पुष्पभद्रा नदी के तट पर सोती हुई हथनी के बच्चे का सिर काटकर बालक के धड़ से जोड़कर उसे जीवित कर दिया। तब से उन्हें ''गणेश'' के रूप में जाना जाता है।
गणेश जी के सम्बंध में एक दूसरी कथा भी प्रचलित है। उसके अनुसार एक बार पार्वती जी ने अपने शरीर में उबटन लगाकर शरीर से मैल निकालने लगी। शरीर के मैल से उसने मानव आकृति बनाया और उसमें जान डालकर जीवित कर दिया और उसे दरवाजे पर बिठाकर किसी को अंदर आने नहीं देने का आदेश दिया। कुछ देर बाद शिवजी आये। जब वे अंदर जाने लगे तब उसने शिव जी अंदर जाने से रोका फलस्वरूप दोनों में भीषण संघर्ष हुआ और क्रोध में आकर शिवजी ने उसका सिर काट दिया। जब पार्वती जी को इस घटना का पता चला तो वह विलाप करने लगी। उन्हें मनाने के लिये शंकर जी ने अपने गणों को आदेश दिया कि जो प्राणी अपने संतान से विमुख हो उसका सिर काटकर ले आओ। गणों को एक हथनी अपने बच्चे की ओर पीठ करके सोयी मिल गया और गण उसका सिर काटकर ले आये और बालक के धड़ से जोड़कर उसे जीवित कर दिया। यही बालक ''गणेश जी'' के नाम से प्रतिष्ठित हुआ। भारत में जब मूर्ति पूजन का प्रचलन हुआ तो देवताओं के पांच वर्ग बने जो सम्प्रदाय के रूप में जाने गये। इसमें गणपति जी का ''गणपत्य सम्प्रदाय'' भी सम्मिलित था। प्रत्येक सम्प्रदाय अपने अधिष्ठाता देव को सृष्टिकर्त्ता मानता है। ऋग्वेद में कहा गया है - ''एक: सद्विप्रा बहुधा वदंति'' ईश्वर तो एक ही है, आप उसे चाहे जिस रूप में स्वीकार करो और उसकी उपासना करो। परवर्ती कथा के अनुसार एक बार क्षमता से अधिक मोदक खा लेने के कारण गणेश के मुख से मोदक बाहर निकलने लगा जिसे रोकने के लिए समीप से जाते हुए सर्प को पकड़कर गणेश जी ने अपने पेट में लपेट लिया। सर्प के सरकने से गणेश जी का वाहन मूषक भयवश पीछे हटने लगा जिससे गणेश असंतुलित होकर गिर पड़े। इस दृश्य को देखकर चंद्रमा को हंसी आ गयी। उनकी हंसी सुनकर गणेश जी को गुस्सा आ गया और उन्होंने अपना एक दांत तोड़कर चंद्रमा पर प्रहार किया आगे चलकर उसे आयुध के रूप में उन्होंने ग्रहण किया। एक दांत होने के कारण वे एकदंत के रूप में भी जाने गये। यह कथा गणेश के गजमुख, शूर्पकर्ण, एकदंत तथा नाग यज्ञोपवीतधारी, मूषकारूढ़ होने तथा करों में मोदक पात्र एवं स्वदंत धारण करने की पारंपरिक पृष्ठभूमि का स्पष्ट संकेत देती है।
स्वतंत्र मूर्तियों के साथ गणेश जी को शिव परिवार के सदस्य के रूप में लगभग 8 वीं से 13 वीं शताब्दी के बीच शिव और शक्ति की मूर्तियों में उत्कीर्ण किया गया। भुवनेश्वर के सभी शिव मंदिरों की वाह्य भित्ति पर दोनों ओर कार्तिकेय और पार्वती तथा एक ओर गणेश का रूपायन हुआ है। शिव की नटराज (कांचीपुरम् और भुवनेश्वर), त्रिपुरान्तक, उमा-महेश्वर (खजुराहो, वाराणसी) और कल्याण-सुंदर (भुवनेश्वर, वाराणसी) मूर्तियों में भी गणेश के शिल्पांकन की परंपरा रही है। इसके अतिरिक्त सप्तमातृका फलकों पर एक ओर वीरभद्र और दूसरी ओर गणेश का अंकन हुआ है। मध्यकाल में एलोरा, भुवनेश्वर, कन्नौज, ओसियां, खजुराहो, भेड़ाघाट आदि स्थानों पर गणेश की प्रभूत मूर्तियां दर्शनीय है। इनमें प्रमुख रूप से गणेश को अकेले, नृत्यरत या शक्ति सहित दिखाया गया है। नेपाल, चीन, तिब्बत और इन्डोनेशिया में भी गणेश जी की प्रचुर मात्रा में मूर्तियां उत्कीर्ण की गयी हैं। गणेश की नृत्ता मूर्तियां कन्नौज, पहाड़पुर, सुहागपुर, रींवा, भेड़ाघाट, खजुराहो, भुवनेश्वर और ओसियां में प्राप्त हुआ है।
शैव सम्प्रदाय का मुख्य केंद्र होने के कारण भुवनेश्वर में गणेश जी की मूर्तियां शिव परिवार के सदस्य के रूप में उत्कीर्ण हैं। प्राय: प्रत्येक शिव मंदिर में वाह्य भित्ति की रथिकाओं में गणेश, कार्तिकेय और पार्वती का रूपायन हुआ है। यहां गणेश जी की कुल 75 मूर्तियां मिली हैं। यहां की गणेश मूर्तियों में विविधता का अभाव है। इसीप्रकार एलोरा में गणेश जी की 20 मूर्तियां हैं जिनमें स्वतंत्र मूर्तियों के साथ कल्याण-सुंदर एवं सप्तमातृका फलकों पर निरूपित मूर्तियां भी हैं। गणेश जी की अनेक मूर्तियां मथुरा और लखनऊ में संग्रहित हैं। बैजनाथ (कांगड़ा, हिमाचल प्रदेश) के शिव मंदिर की नृत्य मूर्ति में पीठिका में गणेश जी को नृत्यरत दिखाये गये हैं और पीठिका के नीचे दुन्दुभिवादकों की आकृतियां भी उकेरी गयी हैं। षड्भुज गणेश का वाहन सिंह और उनके हाथों में अभयाक्ष, परशु, पुष्प और मोदक स्पष्ट हैं।
भाद्र पक्ष शुक्ल चतुर्थी को दोपहर में गणेश जी का जन्म हुआ था। पूरे देश में गणेश चतुर्थी को गणेश जी का जन्मोत्सव मनाया जाता है। मोदक उन्हें बहुत प्रिय है। अत: मोदक का भोग लगाकर उनसे प्रार्थना की जाती है कि वे हमारे घर, समाज और राष्ट्र को धन धान्य से परिपूर्ण करें। गणेश जी की पूजा सम्पूर्ण भारत में राष्ट्रीय सांस्कृतिक और धार्मिक पर्व के रूप में मनाया जाता है। अनंत चतुर्दशी को गणेश जी का विसर्जन होता है। इस बीच धार्मिक और सांस्कृतिक आयोजन से राष्ट्र की एकता, अखंडता और सम्प्रभुता में अभिवृद्धि की प्रेरणा मिलती है। ऐसे देवाधिदेव को हमारा शत् शत् नमन...।
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रचना, लेखन और प्रस्तुति:
प्रो. अश्विनी केशरवानी
राघव डागा कालोनी,
चाम्पा-495671 ( छत्तीसगढ़ )
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श्रीगणेश जी का चित्र साभार - संजय पटेल
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