कविताएँ -चन्द्रकान्त देवताले प्रस्तुति : शिरीष कुमार मौर्य चन्द्रकान्त देवताले हिन्दी के उन वरिष्ठ कवियों में अग्रणी हैं, जिन्...
कविताएँ
-चन्द्रकान्त देवताले
प्रस्तुति : शिरीष कुमार मौर्य
चन्द्रकान्त देवताले हिन्दी के उन वरिष्ठ कवियों में अग्रणी हैं, जिन्होंने अपनी कविता में भारतीय स्त्री के विविध रूपों, दुखों और संघर्षों को सर्वाधिक पहचाना है। उनके बारे में विख्यात कवि विष्णु खरे का यह कथन ' चन्द्रकान्त देवताले ने स्त्रियों को लेकर हिन्दी शायद सबसे ज्यादा और सबसे अच्छी कविताएँ लिखी हैं' वाजिब ही है। उनकी ऐसी ही कविताओं के संचयन का काम इन दिनों प्रस्तुतकर्ता कर रहा है - यहाँ दी जा रही सभी कविताएँ इस संचयन का हिस्सा हैं। यह शायद किसी भी ब्लॉग पर चन्द्रकान्त देवताले जैसे बड़े कवि की पहली उपस्थिति है। सभी पढ़ने वालों से आग्रह है कि अपनी प्रतिक्रिया से इसे ज़रूर समृद्ध करें।
देवताले जी इन दिनों उज्जैन में रहते हैं। कुछ ही माह पूर्व उनकी पत्नी का निधन हुआ है। अत्यन्त कृतज्ञता पूर्वक यह प्रस्तुति दिवंगता श्रीमती कमल देवताले की स्मृति को समर्पित है।
-शिरीष कुमार मौर्य
औरत
वह औरत आकाश और पृथ्वी के बीच
कब से कपड़े पछीट रही है
पछीट रही है शताब्दियों से
धूप के तार पर सुखा रही है
वह औरत
आकाश और धूप और हवा से वंचित घुप्प गुफा में
कितना आटा गूँध रही है?
गूँध रही है मनों सेर आटा
असंख्य रोटियाँ सूरज की पीठ पर पका रही है
एक औरत दिशाओं के सूप में खेतों को फटक रही है
एक औरत वक्त की नदी में दोपहर के पत्थर से
शताब्दियाँ हो गई, एड़ी घिस रही है
एक औरत अनन्त पृथ्वी को अपने स्तनों में समेटे
दूध के झरने बहा रही है
एक औरत अपने सिर पर घास का गट्ठर रखे कब से
धरती को नापती ही जा रही है
एक औरत अंधेरे में खर्राटे भरते हुए आदमी के पास
निर्वसन जागती शताब्दियों से सोई है
एक औरत का धड़ भीड़ में भटक रहा है
उसके हाथ अपना चेहरा ढूँढ रहे हैं
उसके पाँव जाने कब से सबसे अपना पता पूछ रहे हैं।
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माँ जब खाना परोसती थी
वे दिन बहुत दूर हो गए हैं
जब माँ के बिना परसे पेट भरता ही नहीं था
वे दिन अथाह कुँए में छूट कर गिरी
पीतल की चमकदार बाल्टी की तरह
अभी भी दबे हैं शायद कहीं गहरे
फिर वो दिन आए जब माँ की मौजूदगी में
कौर निगलना तक दुश्वार होने लगा था
जबकि वह अपने सबसे छोटे और बेकार बेटे के लिए
घी की कटोरी लेना कभी नहीं भूलती थी
उसने कभी नहीं पूछा कि मैं दिनभर कहाँ भटकता रहता था
और अपने पान-तम्बाकू के पैसे कहाँ से जुटाता था
अकसर परोसते वक्त वह अधिक सदय होकर
मुझसे बार-बार पूछती होती
और थाली में झुकी गरदन के साथ
मैं रोटी के टुकड़े चबाने की अपनी ही आवाज़ सुनता रहता
वह मेरी भूख और प्यास को रत्ती-रत्ती पहचानती थी
और मेरे अकसर अधपेट खाए उठने पर
बाद में जूठे बरतन अबेरते
चौके में अकेले बड़बड़ाती रहती थी
बरामदे में छिपकर मेरे कान उसके हर शब्द को लपक लेते थे
और आखिर में उसका भगवान के लिए बड़बड़ाना
सबसे खौफनाक सिद्ध होता और तब मैं दरवाज़ा खोल
देर रात के लिए सड़क के एकान्त और
अंधेरे को समर्पित हो जाता
अब ये दिन भी उसी कुँए में लोहे की वज़नी
बाल्टी की तरह पड़े होंगे
अपने बीवी-बच्चों के साथ खाते हुए
अब खाने की वैसी राहत और बेचैनी
दोनों ही ग़ायब हो गई है
अब सब अपनी-अपनी ज़िम्मेदारी से खाते हैं
और दूसरे के खाने के बारे में एकदम निश्चिन्त रहते हैं
फिर भी कभी-कभार मेथी की भाजी या बेसन होने पर
मेरी भूख और प्यास को रत्ती-रत्ती टोहती उसकी दृष्टि
और आवाज़ तैरने लगती है
और फिर मैं पानी की मदद से खाना गटक कर
कुछ देर के लिए उसी कुँए में डूबी उन्हीं बाल्टियों को
ढूँढता रहता हूँ।
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दो लड़कियों का पिता होने से
पपीते के पेड़ की तरह मेरी पत्नी
मैं पिता हूँ
दो चिड़ियाओं का जो चोंच में धान के कनके दबाए
पपीते की गोद में बैठी हैं
सिर्फ़ बेटियों का पिता होने से भर से ही
कितनी हया भर जाती है
शब्दों में
मेरे देश में होता तो है ऐसा
कि फिर धरती को बाँचती हैं
पिता की कवि-आंखें.......
बेटियों को गुड़ियों की तरह गोद में खिलाते हैं हाथ
बेटियों का भविष्य सोच बादलों से भर जाता है
कवि का हृदय
एक सुबह पहाड़-सी दिखती हैं बेटियाँ
कलेजा कवि का चट्टान-सा होकर भी थर्राता है
पत्तियों की तरह
और अचानक डर जाता है कवि चिड़ियाओं से
चाहते हुए उन्हें इतना
करते हुए बेहद प्यार।
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बालम ककड़ी बेचने वाली लड़कियाँ
कोई लय नहीं थिरकती उनके होंठों पर
नहीं चमकती आंखों में
ज़रा-सी भी कोई चीज़
गठरी-सी बनी बैठी हैं सटकर
लड़कियाँ सात सयानी और कच्ची उमर की
फैलाकर चीथड़े पर
अपने-अपने आगे सैलाना वाली मशहूर
बालम ककड़ियों की ढीग
''सैलाना की बालम ककड़ियाँ केसरिया और खट्टी-मीठी नरम''
- जैसा कुछ नहीं कहती
फ़क़त भयभीत चिड़ियों-सी देखती रहती हैं
वे लड़कियाँ सात
बड़ी फ़जर से आकर बैठ गई हैं पत्थर के घोड़े के पास
बैठी होंगी डाट की पुलिया के पीछे
चौमुखी पुल के पास
होंगी अभी भी सड़क नापती बाजना वाली
चाँदी के कड़े ज़रूर कीचड़ में सने
पाँवों में पुश्तैनी चमक वाले
होंगी और भी दूर-दूर
समुद्र के किनारे पहाड़ों पर
बस्तर के शाल-वनों की छाया में
माँडू-धार की सड़क पर
झाबुआ की झोपड़ियों से निकलती हुई
पीले फूल के ख़यालों के साथ
होंगी अंधेरे के कई-कई मोड़ पर इस वक्त
मेरे देश की
कितनी ही आदिवासी बेटियाँ
शहर-क़स्बों के घरों में
पसरी है अभी तक
अन्तिम पहर के बाद की नींद
बस शुरू होने को है थोड़ी ही देर में
कप-बसी की आवाज़ों के साथ दिन
लोटा भर चाय पीकर आवेंगे धोती खोंसते
अंगोछा फटकारते
खरीदने ककड़ी
उम्रदराज़ सेठ-साहूकार
बनिया-बक्काल
आंखों से तोलते-भाँपते ककड़ियाँ
बंडी की जेबों से खनकाते रेजगी
ककड़ियों को नहीं पर लड़कियों को मुग्ध कर देगी
रेजगी की खनक आवाज़
कवि लोग अख़बार ही पढ़ते लेटे होंगे
अभी भी कुढ़ते ख़बरों पर
दुनिया पर हँसते चिलम भर रहे होंगे सन्त
शुरू हो गया होगा मस्तिष्क में हाकिमों के
दिन भर की बैठकों-मुलाक़ातों
और शाम के क्लब-डिनर का हिसाब
सनसनीख़ेज ख़बरों की दाढ़ी बनाने का कमाल
सोच विहँस रहे होंगे मुग्ध पत्रकार
धोती पकड़ फहराती कार पर चढ़ने से पहले
किधर देखते होंगे मंत्री
सर्किट हाउस के बाद दो बत्ती फिर घोड़ा
पर नहीं मुसकाकर पढ़ने लगता है मंत्री काग़ज़
काग़ज़ के बीचोंबीच गढ़ने लगता है अपना कोई फ़ोटू चिंन्तातुर
नहीं दिखती उसे कभी नहीं दिखतीं
बिजली के तार पर बैठी हुई चिड़ियाएँ सात
मैं सवारी के इन्तज़ार में खड़ा हूं
और
ये ग्राहक के इन्तज़ार में बैठी हैं
सोचता हूँ
बैठी रह सकेंगी क्या ये अंतिम ककड़ी बिकने तक भी
ये भेड़ो-सी खदेड़ी जाएंगी
थोड़ा-सा दिन चलने के बाद फोकट में ले जाएगा ककड़ी
संतरी
एक से एक नहीं सातों से एक-एक कुल सात
फिर पहुँचा देगा कहीं-कहीं कुल पाँच
बीवी खाएगी थानेदार की
हँसते हुए
छोटे थानेदार ख़ुद काटेंगे
फोकट की ककड़ी
कितना रौब गाँठेंगी
घर-भर में
आस-पड़ोस तक महकेगा सैलाना की ककड़ी का स्वाद
याद नहीं आएंगी किसी को
लड़कियाँ सात
कित्ते अंधेरे उठी होंगी
चली होंगे कित्ते कोस
ये ही ककड़ियाँ पहुँचती होंगी संभाग से भी आगे
रजधानी तक भूपाल
पीठवाले हिस्से के चमकते काँच से
कभी-कभी देख सकते हैं
इन ककड़ियों का भाग्य
जो कारों की मुसाफ़िर बन पहुँच जाती हैं कहाँ-कहाँ
राजभवन में भी पहुँची होंगी कभी न कभी
जगा होगा इनका भाग
सातों लड़कियाँ ये
सात सिर्फ़ यहाँ अभी इत्ती सुबह
दोपहर तक भिंडी, तोरू के ढीग के साथ हो जाएगी इनकी
लम्बी क़तार
कहीं गोल झुंड
ये सपने की तरह देखती रहेंगी
सब कुछ बीच-बीच में
ओढ़नी को कसती हँसती आपस में
गिनती रहेंगी खुदरा
सोचतीं मिट्टी का तेल गुड़
इनकी ज़ुबान पर नहीं आएगा कभी
शक्कर का नाम
बीस पैसे में पूरी ढीग भिंडी की
दस पैसे में तोरू की
हज़ारपती-लखपती करेंगे इनसे मोल-तोल
ककड़ी तीस से पचास पैसे के बीच ऐंठकर
ख़ुश-ख़ुश जाएंगे घर
जैसे जीता जहान
साँझ के झुटपुटे के पहले लौट चलेंगे इनके पाँव
उसी रास्ते
इतनी स्वतंत्रता में यहाँ शेष नहीं रहेगा
दुख की परछाई का झीना निशान
गंध डोचरा-ककड़ी की
देह के साथ
लय किसी गीत की के टुकड़े की होंठों पर
पहुँच मकई के आटे को गूँधेंगे इनके हाथ
आग के हिस्से जलेंगे
यहाँ-वहाँ कुछ-कुछ दूरी पर
अंधेरा फटेगा उतनी आग भर
फिर सन्नाटा गूँजेगा थोड़ी देर बाद
फिर जंगलों के झोपड़ी-भर अंधेरे में
धरती का इतना जीवन सो जाएगा गठरी बनकर
बाहर रोते रहेंगे सियार
मैं भी लौट आऊँगा देर रात तक
सोते वक्त भी
क्या काँटों की तरह मुझमें चुभती रहेंगी
अभी इत्ती सुबह की
ये लड़कियाँ सात ......
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माँ पर नहीं लिख सकता कविता
माँ के लिए सम्भव नहीं होगी मुझसे कविता
अमर चिऊँटियों का एक दस्ता मेरे मस्तिष्क में रेंगता रहता है
माँ वहाँ हर रोज़ चुटकी-दो-चुटकी आटा डाल देती है
मैं जब भी सोचना शुरू करता हूँ
यह किस तरह होता होगा
घट्टी पीसने की आवाज़ मुझे घेरने लगती है
और मैं बैठे-बैठे दूसरी दुनिया में ऊँघने लगता हूँ
जब कोई भी माँ छिलके उतार कर
चने, मूँगफली या मटर के दाने नन्हीं हथेलियों पर रख देती है
तब मेरे हाथ अपनी जगह पर थरथराने लगते हैं
माँ ने हर चीज़ के छिलके उतारे मेरे लिए
देह, आत्मा, आग और पानी तक के छिलके उतारे
और मुझे कभी भूखा नहीं सोने दिया
मैंने धरती पर कविता लिखी है
चन्द्रमा को गिटार में बदला है
समुद्र को शेर की तरह आकाश के पिंजरे में खड़ा कर दिया
सूरज पर कभी भी कविता लिख दूँगा
माँ पर नहीं लिख सकता कविता !
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प्रेम पिता का दिखाई नहीं देता
तुम्हारी निश्चल आंखें
तारों-सी चमकती हैं मेरे अकेलेपन की रात के आकाश में
प्रेम पिता का दिखाई नहीं देता
ईथर की तरह होता है
ज़रूर दिखाई देती होंगी नसीहतें
नुकीले पत्थरों-सी
दुनिया-भर के पिताओं की लम्बी कतार में
पता नहीं कौन-सा कितना करोड़वाँ नम्बर है मेरा
पर बच्चों के फूलोंवाले बग़ीचे की दुनिया में
तुम अव्वल हो पहली कतार में मेरे लिए
मुझे माफ़ करना मैं अपनी मूर्खता और प्रेम में समझा था
मेरी छाया के तले ही सुरक्षित रंग-बिरंगी दुनिया होगी तुम्हारी
अब जब तुम सचमुच की दुनिया में निकल गई हो
मैं ख़ुश हूँ सोचकर
कि मेरी भाषा के अहाते से परे है तुम्हारी परछाई
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(चित्र - रेखा की कलाकृति)
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devtaleji ki kavitaon me bahut gahrai hai .aurat aur aadivasi kanyaon ke parishram ko sacche roop me mahsoos kiya hai aur sacchai ke saath pragat kiya hai ,samaj ki aadivasiyon ke prati samvedanhinta chintajanak hai ,ek taraf fresh store ke naam par muhmangi keemat denevale log garib bhole aadivasiyo ke parishram ko nahi pahanchate
जवाब देंहटाएंkavi ko hardik badhai
rajendra aviral