लघुकथाएँ -सीताराम गुप्ता वादा रमेश कुमार जी ने जितेन्द्र को फोन पर बताया कि इस महीने की पच्चीस तारीख को पारुल की शादी है और उसे...
लघुकथाएँ
-सीताराम गुप्ता
वादा
रमेश कुमार जी ने जितेन्द्र को फोन पर बताया कि इस महीने की पच्चीस तारीख को पारुल की शादी है और उसे भी शादी में चलना है। रमेश कुमार जी ने ये भी कहा कि उसके नाम का कार्ड भी अलग से है जो उनके पास है और आते-जाते कभी भी दे देंगे। रमेश कुमार जी के घर से जितेन्द्र के घर की दूरी बमुश्किल डेढ़ किलोमीटर होगी। आना-जाना लगा ही रहता है। कभी-कभी तो शाम को घूमते हुए पैदल ही चले जाते हैं। जितेन्द्र ने कहा कि कार्ड की कोई बात नहीं आपका आदेश ही पर्याप्त है पर मैं क्या करुँगा पारुल की शादी में जाकर। इस पर रमेश कुमार जी ने जितेन्द्र को किंचित डाँटते हुए कहा, ''तू पागल है क्या? अरे वह हमारी बेटी के समान है और मेरा मित्र होने के नाते तुझे भी कितना सम्मान देती है वह? तुझे जरूर चलना है नहीं तो उसे बुरा लगेगा और मुझे भी।'' रमेश कुमार जी स्नेह ही इतना रखते हैं कि उनके डाँटने का भी कोई बुरा नहीं मानता।
जितेन्द्र रमेश कुमार जी के घर पर ही कई बार पारुल से मिला है। पारुल अच्छी लड़की है और जहीन भी है। कम बोलती है पर जब भी बोलती है अत्यंत विनम्रता और आदत के साथ ही बोलती है। जितेन्द्र भी पारुल की प्रशंसा करता है। शादी से कुछ दिन पहले रमेश कुमार जी जितेन्द्र के घर गए और उन्हें पारुल की शादी का कार्ड दिया तथा शादी में जरूर चलते की शिद भी की। जितेन्द्र ने कहा कि वो पारुल के घर के किसी व्यक्ति को भी नहीं जानता और पारुल को भी सिर्फ रमेश कुमार जी की वजह से ही जानता है। पारुल का कार्ड देना तो ठीक है पर क्या ऐसे में उसका जाना उचित होगा? रमेश कुमार जी ने कहा, ''तुम्हारा संकोच उचित है लेकिन तुम्हें चलना है। हम सब लोग तो जा ही रहे हैं तुम्हें साथ ही ले चलेंगे। इसी रास्ते से ही तो गुजरना है।''
बात जितेन्द्र की भी समझ में आ गई और उसने रमेश कुमार जी से कहा कि चलने से पहले मुझे फोन कर देना। मैं तैयार मिलूँगा। वास्तव में पारुल की शादी की जगह उसके घर से बहुत दूर थी और जितेन्द्र के पास जो खटारा स्कूटर था वह अड़ियल घोड़े की तरह कहीं भी रुक कर खड़ा हो जाता था और ऊपर से सर्दी का मौसम। जब रमेश कुमार जी ने उसे अपने साथ ले जाने की बात कही तो वह चिंतामुक्त हो गया और खुश भी क्योंकि रमेश कुमार जी के पास नई गाड़ी थी।
पच्चीस तारीख को पारुल की शादी में जाने के लिए जितेन्द्र तैयार होकर बैठा ही था कि रमेश कुमार जी का फोन आ गया। रमेश कुमार जी ने कहा, ''हाँ भई जितेन्द्र तुझे याद है न आज पारुल की शादी है? समय से पहुँच जाना।'' जितेन्द्र ने कहा, ''भाई साहब मुझे याद है और मैं तैयार बैठा हूँ और आपके साथ ही तो जाना है।'' ''ऐसा है जितेन्द्र तुम सीधे ही वहाँ पहुँच जाओ,'' रमेश कुमार जी ने कहा। जितेन्द्र ने मायूसी से कहा, ''पर मैं तो वहाँ किसी को जानता नहीं। आपके साथ ही चलता तो ठीक रहता।''
''दरअसल हमारे साथ शर्मा जी और जैन साहब भी जा रहे हैं। गाड़ी में इतने सारे लोग कैसे आएँगे?'' रमेश कुमार जी ने प्रश्नवाचक लहजे में अपनी बात कही। ''क्या उन सबको ले जाना जरूरी है?'' जितेन्द्र ने पूछा। ''हाँ जरूरी ही है उनको बोल जो रखा है'', रमेश कुमार जी ने स्पष्ट किया। इस पर जितेन्द्र ने थोड़ी सख्ती से कहा, ''बोल तो मुझे भी रखा है और आपने ही कहा था कि जरूर चलना है। तो फिर अब कैसे करूँ?'' ''अच्छा ऐसा कर तू रहने ही दे। तेरा जाना कोई जरूरी भी नहीं है। वो तो मेरी वजह से औपचारिकतावश कार्ड दे दिया था पारुल ने,'' इतना कहकर जितेन्द्र की प्रतिक्रिया जाने बिना ही रमेश कुमार जी ने फोन रख दिया। रमेश कुमार जी ने तो फोन रख दिया था लेकिन जितेन्द्र अब भी फोन को कान से लगाए अवाक् खड़ा था।
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मूल्यांकन
प्रिंसिपल ईश्वर प्रकाश जी ने अपने पड़ोस के स्कूल के प्रिंसिपल मल्होत्रा जी को फोन करके कहा, ''मल्होत्रा जी अपने स्कूल के तीन-चार अनुभवी अध्यापकों को कृपया हमारे स्कूल में भेज दीजिए। कुछ काम लेना है उनसे।'' मल्होत्रा जी के ये पूछने पर कि क्या काम लेना है ईश्वर प्रकाश जी ने बस इतना ही कहा, ''थोड़ा हिसाब-किताब का काम है इसलिए आप कृपया समझदार अध्यापकों को ही भेजना।''
मल्होत्रा जी ने अपने स्कूल से तीन अध्यापकों को ईश्वर प्रकाश जी के स्कूल में जाने के लिए बुलवा लिया। अध्यापकों के ये पूछने पर कि किस लिए जाना है मल्होत्रा जी ने ईश्वर प्रकाश जी से हुई बातचीत का विवरण बता दिया। समझदार अध्यापकों को ही बुलाया है यह जानकर तीनों की ही छातियाँ जरा चौड़ी हो गईं। ईश्वर प्रकाश जी के स्कूल में पहुँचने पर उन्होंने कहा, ''देखो भई कुछ ख़ास काम नहीं है। सामने बरामदे में जो किताबें रखी हैं उन्हें एक कमरे में रखना है क्लासवाइज और सब्जेक्टवाइज।''
प्रिंसिपल की बात सुनकर तीनों को ही बुरा लगा लेकिन अरुण कुमार जी कुछ ज्यादा ही तैश में आ गए और किंचित रोष भरे स्वर में पूछा, ''सर क्या समझदार अध्यापकों के लिए यही एक काम बाकी बचा है?'' इस प्रतिवाद पर ईश्वर प्रकाश जी ने कुछ दार्शनिक अंदाज में कहा कि समझदारी तो हर एक काम के लिए अपेक्षित है। ''पर क्या ये काम अध्यापकों की प्रतिष्ठा के अनुरूप है सर?'' अरुण कुमार जी ने बिना ईश्वर प्रकाश जी के रोब में आए दृढ़ता से पूछा। ''क्यों बुराई क्या है इस काम में? वैसे भी कर्म को तो पूजा माना गया है हमारे यहाँ,'' नैतिकता के अस्त्र से वार करते हुए अकड़ कर ईश्वर प्रकाश जी ने कहा।
अरुण कुमार जी ने कहा, ''सर, तो फिर आप स्वयं क्यों नहीं कर लेते ये पूजा? अपने स्टाफ से क्यों नहीं करवा लेते ये महान कार्य?'' अरुण कुमार जी की दृढ़ता के सामने ईश्वर प्रकाश जी के आयुध काम नहीं कर पा रहे थे लेकिन फिर भी उन्होंने हथियार नहीं डाले। अंतिम अस्त्र के रूप में उन्होंने अरुण कुमार जी को घूरते हुए अत्यंत विनम्रतापूर्वक कहा, ''सर, आपसे ये काम नहीं होने का। आप वापस अपने स्कूल चले जाओ।'' ''नहीं होने का ये बात नहीं लेकिन क्योंकि ये काम हमारी प्रतिष्ठा और पद के अनुरूप नहीं है इसलिए ये काम मैं तो हर्गिज नहीं करूँगा,'' इतना कहकर अरुण कुमार जी ईश्वर प्रकाश जी की प्रतिक्रिया सुने बिना ही वापस अपने स्कूल जाने के लिए चल पड़े।
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व्यस्तता
जैसे ही टेलिफोन की घंटी बजी सुरभि ने फौरन फोन उठा लिया। दूसरी तरफ़ से अनुपम की आवाज सुनाई दी, ''थैंक गॉड! कम से कम तुम्हारा फोन तो मिला सुरभि। चार लोगों को फोन कर चुका हूँ लेकिन सभी के फोन एंगेज जा रहे हैं।'' ''क्यों क्या बात है? कहाँ से बोल रहे हो इस समय?'' सुरभि ने अनुपम से पूछा। ''स्टूडियो से ही बोल रहा हूँ,'' अनुपम ने बताया और सुरभि को आवश्यक निर्देश देते हुए कहा, ''ऐसा करो पहले तो फौरन अपना चैनल वाई प्लस लगाओ। इस समय फोन इन प्रोग्राम चल रहा है जिसमें विशेषज्ञ पैनल को दर्शकों के प्रश्नों के उत्तर देने हैं। अब तक एक भी दर्शक का फोन नहीं आया। मैं लाइन चालू रखता हूँ। जब संकेत मिले तुम्हें फोन पर प्रश्न पूछते हैं। प्रश्न पूछने के लिए तीन लोगों को और तैयार रखना है।'' इतना कहने के बाद अनुपम ने भी बता दिया कि क्या-क्या पूछना है।
जैसे ही सुरभि ने चैनल वाई प्लस लगाया कार्यक्रम के समन्वयक की आवाज सुनाई दी, ''हमारे पास बहुत से दर्शकों के फोन कॉल्स आ रहे हैं।'' इस समय लाईन पर हमारे साथ हैं नई दिल्ली से रागिनी। रागिनी हमारे कार्यक्रम में आपका स्वागत है। आप हमारे विशेषज्ञ चैनल से प्रश्न पूछ सकती हैं।''
''थैंक्यू सर! पहले तो मैं इस यूजफुल प्रोग्राम के लिए आपको काँग्रेच्युलेट करना चाहूँगी,'' सुरभि ने कहा। कार्यक्रम के समन्वयक ने अत्यंत तत्परता से कहा, ''धन्यवाद रागिनी, आप जल्दी से अपना प्रश्न पूछें क्योंकि हमारे पास समय की कमी है और अन्य बहुत से दर्शक भी लाइन पर बने हुए हैं।''
नई दिल्ली से रागिनी विशेषज्ञ पैनल से जल्दी-जल्दी प्रश्न पूछ रही थी और उसकी बगल में बैठे हुए दरिया गंज से मोहित रोहिणी सैक्टर सात से स्वाति तथा वसुंधरा कॉलोनी ग़ाजियाबाद से अशरफ़ प्रश्न पूछने की तैयारी में व्यस्त थे।
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मोटा विष्णु
आनंद जैसे ही रेलगाड़ी से खरसिया स्टेशन पर उतरा एक कुलीनुमा व्यक्ति भागता हुआ आया और सामान को उठाते हुए पूछा, ''बाबू कहाँ चलना है?'' आनंद ने उस व्यक्ति को ध्यान से देखते हुए पूछा, ''बिशनसरूप जी का मकान पता है?'' ''हाँ पता है बाबू। इस्टेसन के पास वाली पहली ही गली में है न बाबू!'' उस व्यक्ति ने पुष्टि करने के लहजे में कहा। आनंद ने कहा ''हाँ, बिल्कुल ठीक। पहली गली में तीसरा या चौथा मकान होगा।'' वह व्यक्ति आनंद का सामान उठाकर चलने लगा और आनंद उसके पीछे-पीछे।
कोई दस-बारह साल बाद आना हुआ था आनंद का इस जगह पर। जिन दिनों स्कूल में पढ़ता था तब आया था एक बार पूजा की छुट्टियों में। छोटी-सी जगह है। कुली और रिक्शावाले सब जानते हैं एक-एक आदमी और मकान को। स्टेशन से बाहर आने के बाद दो मिनट के अंदर ही आनंद पहली गली के तीसरे मकान के सामने था। वह पहले भी आ चुका था बिशनसरूप जी के घर पर लेकिन वह मकान को ठीक से पहचान नहीं पा रहा था। आनंद मकान की कोई पहचान खोजने का प्रयास कर ही रहा था कि देखा सामान लाने वाला व्यक्ति इसी मकान के अंदर जा रहा है। आनंद भी अंदर चला गया।
घर के अंदर सामने ही गद्दी पर बिशनसरूप जी बैठे थे। आनंद ने बिशनसरूप जी का अभिवादन किया और बताया कि वह आनंद है। बिशनसरूप जी ने नमस्कार का उत्तार दिया और अपने पास बुलाने का इशारा करते हुए कहा, ''आओ भाई इधर आओ। यहाँ गद्दी पर बैठो उफपर।'' आनंद बिशनसरूप जी के पास गद्दी पर जाकर बैठ गया। अनंद ने कई साल बाद देखा था बिशनसरूप जी को। वे स्वस्थ तो पहले से ही थे पर लगता था अब कुछ ज्यादा ही सेहतमंद हो गए थे। पूरी गद्दी पर अकेले ही फैले हुए थे। उन्होंने आनंद के लिए पानी मँगवाया। आनंद ने पानी पीया और आराम से गद्दी पर अध्लेटा हो गया क्योंकि वह थक गया था।
जब आनंद थोड़ा प्रवृफतिस्थ हुआ तो गृहस्वामी ने पूछा, ''भैया माफ़ करना मैं आपको पहचान नहीं पाया। कहाँ से आए हो आप?'' आनंद को थोड़ा बुरा-सा लगा। उसने झटके से कहा, ''मैं आनंद हूँ। आगरा से आया हूँ।'' बिशनसरूप जी ने नकारात्मक मुद्रा में सिर हिलाते हुए कहा, ''नहीं पहचान पा रहा हूँ।'' उन्होंने फिर पूछा, ''अच्छा आपको किसके यहाँ जाना है?'' आनंद ने कहा, ''मुझे बिशनसरूप जी के यहाँ जाना है। क्या आप बिशनसरूप जी नहीं हैं?'' ''हाँ, मैं बिशनसरूप ही हूँ,'' गृहस्वामी ने कहा। आगंतुक ने कहा, ''मैं निर्मला का मौसेरा भाई हूँ।''
निर्मला बिशनसरूप जी की पत्नी हैं। बिशनसरूप थोड़े नाटकीय और अहंकारी किस्म के आदमी हैं आनंद ये जानता था पर इस वफदर न पहचानने का नाटक करते हुए अपमान करने पर आमादा हो जाएँगे ये आनंद ने नहीं सोचा था। आनंद को गुस्सा आ रहा था पर क्या करता? आनंद ने पूछा, ''निर्मला बहन कहाँ हैं?'' ''निर्मला?'' गृहस्वामी ने किंचित दुविधा में प्रश्नसूचक लहजे में दोहराया। ''हाँ, निर्मला! मैं निर्मला की मौसी का लड़का हूँ। निर्मला के भाई की शादी में आया हूँ जो परसों चंद्रपुर में है,'' आनंद ने शोर देकर कहा।
''अच्छा तो आप दीनू की शादी में आए हो,'' बिशनसरूप जी ने इस तरह कहा जैसे वह सारा माजरा समझ गए हों। ''शुक्र है पहचाना तो सही आपने,'' आनंद ने उलाहना देने के से अंदाज में गहरी सांस छोड़ते हुए कहा। बिशनसरूप जी ने कहा, ''हाँ, बिल्कुल पहचान लिया। दरअसल आपको हमारे पड़ोसी बिशनसरूप जी के यहाँ जाना है। उनकी पत्नी निर्मला के भाई दीनू की शादी है चंद्रपुर में।'' फिर उन्होंने अपने नौकर से कहा, ''भैया को जरा बराबर वाले मकान में मोटे विष्णु के यहाँ छोड़ के आ।''
नौकर आनंद का सामान उठाकर बराबर वाले मकान में पहुँचा आया। वहाँ गद्दी पर असली बिशनसरूप जी विराजमान थे जहाँ आनंद को जाना था। आनंद ने उनको नमस्कार किया। नमस्कार के बाद बिशनसरूप जी ने पूछा,'' उत्कल एक्सप्रेस से आए हो आनंद? गाड़ी शायद कुछ लेट है आज?'' ''हाँ कुछ लेट आई है पर मैं भी थोड़ा लेट हो गया। मैं ग़लती से आपके पड़ौसी बिशनसरूप के यहाँ पहुँच गया। कुली से मैंने कहा था कि बिशनसरूप जी के घर चलना है और वो आपके पड़ौसी के घर छोड़ गया। मैं घर ठीक से पहचान नहीं पाया,'' आनंद ने बताया।
आनंद अपने असली रिश्तेदार बिशनसरूप जी की सेहत देखकर भी हैरान था। अपने पड़ोसी से भी अच्छी सेहत हो गई थी उनकी और उन्हीं की तरह गद्दी पर अकेले ही फैले हुए थे। आनंद के बैठने के लिए उन्होंने कुर्सी मँगवाई। दस साल में कितना कुछ बदल गया था। आनंद बड़ा हैरान था उनकी सेहत को देखकर लेकिन आनंद को सबसे ज्यादा हैरानी तब हुई जब बिशनसरूप जी ने कहा, ''अच्छा तो मोटे विष्णु के यहाँ पहुँच गए ग़लती से!''
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आरोप
पूजा-अर्चना में तल्लीन भक्तिन कृष्ण की नयनाभिराम मूर्ति के सम्मुख एक हाथ से सुलगती हुई अगरबत्ती घुमाते हुए तथा दूसरे हाथ से घंटी बजाते हुए अत्यंत श्रद्धाभाव से हरे कृष्णा, हरे कृष्णा, हरे कृष्णा का उच्चारण कर रही थी। अचानक तेज हवा का झोंका आया और दरवाजे-खिड़कियाँ भड़भड़ा उठे। भक्तिन की तल्लीनता में विघ्न उत्पन्न हुआ। उसके माथे पर बल पड़ गए। गर्दन घुमाकर उसने पीछे दरवाजे की ओर देखा और होठों में बुदबुदाते हुए कहा, ''हे राम! ये क्या हो रहा है?''
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एक कसम और
हर्ष की राजकुमार जी के यहाँ जाने की कोई इच्छा नहीं होती फिर भी भाई का ख़याल करके वह चला जाता है क्योंकि हर्ष अपने भाई को दुखी नहीं करना चाहता। रामकुमार जी के यहाँ न जाने पर भाई को दुख होगा यही सोचकर हर्ष राजकुमार जी के यहाँ हर फंक्शन में सम्मिलित होने का प्रयास करता है और हर बार अगली बार न जाने का प्रण करके भी अंततोगत्वा पहुँच ही जाता है। भाई सब जानता है लेकिन पूछता है कि क्या किसी के यहाँ केवल खाना खाने ही जाया जाता है? अथवा क्या तुम स्वयं में इतने कमजोर हो कि कोई भी कहीं भी, तुम्हारी प्रतिष्ठा को मिट्टी में मिला देगा? भाई के तर्क अकाट्य होते हैं और सही भी इसलिए हर्ष हर बार चुपचाप रामकुमार जी के यहाँ पहुँच जाता है।
इस बार घर में ही एक कार्यक्रम रखा था रामकुमार जी ने। कार्यक्रम छोटा था या बड़ा नहीं कहा जा सकता पर न बैठने की जगह थी और न खड़े होने की ही। जगह कम थी और लोग ज्यादा। कुछ लोग छत पर चले गए थे और हलवाई की कारीगरी के नमूने देखने में व्यस्त हो गए थे तो बहुत सारे लोग गली में ही दूर-दूर तक फैल गए थे। गरमी और उमस के मारे बुरा हाल था सभी का। हर्ष दूर भागता है ऐसे माहौल से। खाना शुरु हुआ। गिद्धभोज की सी स्थिति थी। हर्ष ने किसी तरह जल्दी-जल्दी तथाकथित दालमखानी के साथ सूखे चमड़े सा कच्चा-पक्का, आध सफेद और आध कोयले सा काला एक नान तथा एक गुलाबजामुन जिसकी मिठास उसके खट्टेपन के कारण दब गई थी हलक से नीचे उतार लिए और रामकुमार जी से इजाजत माँगी।
हर्ष को देखते ही रामकुमार जी के माथे पर बल पड़ गए। हर्ष की बात को अनसुनी करते हुए उन्होंने कहा, ''कुछ खाना-वाना लिया भी या नहीं? वैसे आपका आना न आना बराबर है। सबसे बाद में आओगे और सबसे पहले भागने की कोशिश करोगे। ये नहीं चलेगा। अरे! कुछ देर तो बैठो।'' हर्ष का एक पल भी रुकने का मन नहीं था लेकिन इसके बावजूद वह रामकुमार जी की बात को रखने के लिए बैठने का स्थान ढूँढ़ने लगा। उसे पता था कि पाँच मिनट भी नहीं बैठना है फिर भी एक सोफे पर जहाँ पहले ही तीन लोग फंसे बैठे थे हर्ष किसी तरह उन्हीं के बीच जगह बनाने का प्रयास कर ही रहा था कि रामकुमार जी ने कहा, ''हर्ष जी यदि नहीं रुकना चाहते तो कोई बात नहीं लेकिन एक काम करो। कम से कम बच्चों के लिए खाना लेते जाओ।''
हर्ष जो किसी तरह सोफे पर बैठने ही वाला था ऐसी अवस्था में था जहाँ से बैठा तो जा सकता था पर वापस खड़ा होना बहुत मुश्किल होता फौरन किसी तरह सीध खड़ा हो गया। हर्ष ने खाना ले जाने से साफ़ मना कर दिया लेकिन रामकुमार जी नहीं माने और खाना पैक करवाने चले गए। हर्ष बेवकूफों की तरह दरवाजे के बाहर खड़ा था और आते-जाते लोग प्रश्नसूचक निगाहों से उसे घूर रहे थे। काफी देर बाद रामकुमार जी की पुत्रवधु बरतन माँजने वाली बाई के साथ आती दिखलाई पड़ी जिसके हाथों में एक पॉलिथीन की पारदर्शी थैली में झिलमिलाती लजीज दालमखानी थी तथा एक पुराने से पीले रंग के अख़बार में आधे लिपटे आधे बाहर झाँकते तीन श्वेत-श्याम वर्णी यिन-यांग रूपी नान। रामकुमार जी की पुत्रावध ने ये सारे व्यंजन कामवाली बाई से लेकर हर्ष को संभलवा दिये।
हर्ष ने एक बार फिर कसम खाई कि वह रामकुमार जी के यहाँ फिर कभी नहीं आएगा।
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रचनाकार संपर्क:
सीताराम गुप्ता
ए.डी.-106-सी, पीतमपुरा,
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फोन नं. 011-27313954/27313679
ईमेल : srgupta54@yahoo.com
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वाह रवि जी,
जवाब देंहटाएंएक साथ इतनी कथाएँ पढ़कर मज़ा आ गया।
हर लघुकथा एक-दूजे से बिलकुल अलग रंग लिए हुए है, अलग भाव लिए हुए। जीवन-अनुभव और यथार्थ से जुड़ी हुई है सब की सब।
''वादा'' और ''व्यस्तता'' रिश्तों और प्रतिस्पर्धा की अच्छी तस्वीर बनाती हैं।
सीताराम जी को भी बधाई।