छः लघुकथाएँ -डॉ 0 मधु सन्धु (1) साक्षात्कार भाषा विभाग के हिन्दी अधिकारी की एक नौकरी के लिए उसने आवेदन दिया था। आज साक्षात्...
छः लघुकथाएँ
-डॉ0 मधु सन्धु
(1)
साक्षात्कार
भाषा विभाग के हिन्दी अधिकारी की एक नौकरी के लिए उसने आवेदन दिया था। आज साक्षात्कार था। ऐसा न था कि उसने साक्षात्कार के लिए तैयारी न की हो अथवा वह विषय ज्ञाता न हो। फिर भी भय, घबराहट थरथराहट उसका साथ न छोड़ रहे थे। स्कूली शिक्षा उसकी पब्लिक स्कूल की थी, जहाँ न शब्द विन्यास की गलतियां माफ की जाती थी, न उच्चारण की त्रुटियों को नजरअंदाज किया जाता था। सबसे अधिक भय उसे साक्षात्कार सभा में उपस्थित भाषा विशेषज्ञ से लग रहा था। पता नहीं वे क्या पूछें ? लाल रंग की गद्देदार ऊंची पीठ वाली कुर्सी से टेक लगाकर गम्भीर, गर्वीली और विश्वस्त मुद्रा में उन्होंने प्रश्न किया-
'साहित के इत्तहास को करमवार बताओ।'
'नहीं आता, चलो मिट्टी पाओ।' उदार मुद्रा में उन्होंने अगला प्रश्न किया-
'मित्तर को पत्तर लिखते हुए अभिवादन के लिए कौन सा शबद इसतमाल करोगे। '
और वह कोई उत्तर देने की अपेक्षा राष्ट्रभाषा के प्रतिष्ठित कर्णाधारों को श्रद्धांजलि देते हुए उठ गया।
(2)
होली
वन्य सम्राट और वन्य रक्षक अपनी अपनी गाड़ी में जा रहे थे। रक्षक को देखते ही सम्राट ने अपनी गाड़ी रुकवाई और उसे अपनी गाड़ी में बिठा लिया। रक्षक का कद ऊंचा हो गया, स्वर विनम्रता एवं गर्व से भर आया। उसने अपनी कान्स्टीच्युएन्सी की मुश्किलों पर बातचीत की और खुश हो गया कि मिलनसार प्रजापति दैवी वरदान की तरह उससे जनता जनार्दन की समस्याएं सुनने आए हैं।
सम्राट सुनते रहे, बतिआते रहे, मंद-मंद मुस्काते रहे। खरगोशों की सुरक्षार्थ बनाए गुप्त घरों की प्रशंसा करते रहे। अगली सुबह से ही प्रभावित रक्षक ने सम्राट की सहृदयता के किस्से बताने-सुनाने शुरू कर दिए। होली के रोज उसे होली खेलने के लिए आमन्त्रित किया गया। पर यह क्या किवाड़ खोलते ही अपने प्रिय खरगोशों के रक्त सने टुकड़ों और द्वारपाल से ताजे खून की होली का आदेश सुनकर पांवों तले की जमीन निकल गई।
अब वे प्रजा ही नहीं अपनी नजरों में भी गिर गए थे। रक्षक से भक्षक का तमगा मन-मस्तिष्क को मनों बोझ सा दबोचने लगा था।
(3)
धंधा
वे तीन भाई थे। भूख, गरीबी, असुरक्षा और सर्द-गर्म हवाएं उनकी झोली में जन्मघुट्टी की तरह पड़ी थी। बड़ा परदेस में जाकर एक ठेकेदार के यहां ईंट गारे का काम यानी मजदूरी करने लगा। पेट भर भोजन, रहने को बन रही बिल्डिंग का कमरा। उसने मंझले को बुला लिया।
इस प्रांत का रहन-सहन देख मंझले का मन उखड़ गया। ठेकेदार की ऊंची बड़ी गाड़ी, मोबाइल, बंगला देख उसकी चाहत बढ़ी। जल्दी ही उसने एक गैंग की शरण ली। ट्रेनिंग के बाद वह डाके डालता, बैंक लूटता, ऐ,श करता और एक बड़ी रकम अपने घर भेजता। जल्दी ही उसने छोटे को बुला लिया।
छोटे को गैंग लीडर की लंबी दाढ़ी, काली बड़ी ऐनक, बेढंगी टोपी नहीं भा रही थी। इससे पहले कि वह मंझले से कुछ कहता मंझला मुठभेड़ में मारा गया। छोटे पर तो मानों गाज ही गिर पड़ी। निराश, हताश, एकाकी वह एक कथा-केन्द्र में जा पहुँचा। जल्दी ही वह महात्मा परमानन्द का निजी सचिव हो गया। यानी उनकी घंटों मालिश करता, खाना बनाता, बर्तन मलता। चोगा कम गंदा होने पर बाजू से और ज्यादा गंदा होने पर पूरा ही धो डालता। उन्हें पहनाए जाने वाले हारों के लिए भद्र जनों का चुनाव और हारों का हिसाब करता। वह हिसाब दूसरे भी देखता। स्वामी जी उसी के इलाके के थे। उन्हें उस पर पूरा विश्वास था। धीरे-धीरे स्वामी जी के बाहर जाने पर वह कथा करने लगा और छोटा महाराज बन गया।
वह समझ गया कि तीनों कामों में इन्वेस्टमेंट भले ही शून्य रहा हो, पर बड़े के काम में श्रम और मंझले के काम में रिस्क था। ऐसा मान-सम्मान तो इन दोनों जगहों पर कदापि नहीं था।
(4)
घरेलू गुलाम
गुरूद्वारे में प्रौढ़ दंपती ने लंगर छका। 'किरत करो वंड के छको' जपते जपते पति ने प्लेट पत्नी की ओर सरका दी। गुरु घर में पत्नी राख ले बर्तन रगड़ने लगी।
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उसकी नियुक्ति प्याऊ के पद पर हुई थी, किन्तु वह मिन्टों में ढेरों काम निपटा देता था। पानी पिलाने या चाय बनाने को वह काम मानता ही नहीं था। वह लॉन की घास काट देता। पोधौं को पानी दे देता। खुरपी से जमीन नर्म कर देता। वाटर कूलर के छोटे-छोटे नुक्स प्लंबर की तरह दुरुस्त कर देता। बस बदले में कभी-कभी हॉफ डे फरलो मार लेता।
कल वह घर आ टपका। साथ में उसकी स्टाफ नर्स पत्नी थी। बिटिया फटाफट गिलास में भर कर कोल्ड ड्रिंक ले आई। कोल्ड ड्रिंक पी प्याऊ ने पल भर पास पड़े टेबल की ओर देखा और फिर खाली गिलास स्टाफ नर्स पत्नी को पकड़ा दिया, टेबल पर रखने के लिए।
(5)
प्रिंसिपल
जिस दिन वह सरकारी कालेज का प्रिंसिपल बना, लगा भगवान के घर देर है अंधेर नहीं। रातों रात वह दोस्तों का बॉस हो गया। कुल-गोत्र बदल गया। कद ऊंचा हो गया। उम्र से दस साल पीछे चला गया। पचपन की उम्र में सिकुड़ती रीढ़ तन गई। हेयर कलर की जरूरत महसूस होने लगी। प्रेस रिपोर्टर को बुला कर उसने अपने प्लान बताए, स्टेटमेंट दी और कंधा उचकाते हुए मन ही मन सबको सीधा करने का संकल्प किया।
उसे कालेज हाउस यानी प्रिंसिपल बैंग्लो में शिफ्ट होना था और उसकी टंकी पिछले चार साल से कुछ ऐसी लीक कर रही थी कि दीवारों पर न कोई प्लास्टर टिकता था न पेंट। रिपेयर एस्टीमेट पास होने की न कोई गुंजाइश थी, न उम्मीद। प्राइवेट कालेजों के साथी प्रिंसिपल जब ए0 सी0 कारों में घूमते, फाइव स्टारों में ठहरते, वह लाइट जाने पर ए0 सी0 के अभाव में पसीना-पसीना हुआ रहता। बार-बार यही सोचता कि इससे अच्छा तो वह प्रवक्ता ही था। एक समय था कि वह चिपचिपाती गर्मी से छुटकारा पाने के लिए पीपल के नीचे क्लास लगा सकता था, खर्च का हर बिल आफिस से सैंक्शन करवा सकता था, अवांछित सर्कुलरों पर साथियों का मजमा लगा विवाद/ मजाक उड़ा सकता था।
(6)
अचूक हथियार
'ममा ! बुआ के साथ सोऊंगा, बुआ से खाना खाऊंगा, बुआ के पास बैठ कर होमवर्क करूंगा। बुआ-----'
'चुप-----बैठ यहाँ स्टडी टेबल पर---'
'ममा सम्ज़ नहीं लिकल रहे, बुआ से पूछ आऊ ?'
'सुबह स्कूल टीचर से पूछ लेना।'
लगता है बच्चे मेरे नहीं, मात्रा बुआ के हैं। सज धज में रह कर बच्चों पर अपना आभिजात्य थोपती रहती है बुआ इनकी। सुबह से रात तक घर की बेगार करते-करते हाँफ जाती हूँ और वह महारानी तैंतीस साल की उम्र में सत्रह साल की नीलम परी बनी फिरती है।
' भाभी निकलो, मुझे देर हो रही है। आज नौ बजे क्लास है।' शीत युद्ध का ऐलान हो चुका था। कुंठित भाभी ने आज टार्चर का नव्य पथ अन्वेषित कर लिया था।
'बस आई दीदी, थोड़े से कपड़े रह गए हैं।' भाभी बाथरूम से ही यथा संभव चिल्लाई।
आठ बज कर दस मिनट, बीस मिनट, तीस मिनट - ओह ! पन्द्रह मिनट का तो रास्ता है।
आठ चालीस पर भाभी जब बाथरूम से बाहर निकली तो रति का चेहरा तमतमा रहा था। मानसिक प्रताड़ना के अचूक हथियार के बाद भाभी विनम्रता का अभिनय करने लगी।
'सारी दीदी !' और वह टैरेस पर कपड़े फटकने फैलाने लगी।
सोच में पड़ गई रति- - - -क्या करे अब ? जाकर हाफ डे ले ले या छुट्टी का फोन कर दे। लगता भाभी ने आज बिना हथियारों के उसे हताहत कर दिया था। करुण आभिजात्य ही था कि उसे चुप्पी ओढ़ने पर विवश होना पड़ा।
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रचनाकार संपर्क:
डॉ0 मधु सन्धु , बी-14, गुरुनानक देव विश्वविद्यालय, अमृतसर-143005, पंजाब।
Dhanywad Madhu ji. dekhan me chote lage ghav kare gambheer.
जवाब देंहटाएंबहुत बढिया!
जवाब देंहटाएंनुकीला व्यंग्य लिए ये लघुकथाएं मारक हैं।
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