- मनोज सिंह मेरी दोनों बड़ी बहनों में छोटी वाली पढ़ाई में बचपन से ही सामान्य थी। गृहकार्य, विशेषकर रसोई में नये-नये पकवान बनाना उसका श...
- मनोज सिंह
मेरी दोनों बड़ी बहनों में छोटी वाली पढ़ाई में बचपन से ही सामान्य थी। गृहकार्य, विशेषकर रसोई में नये-नये पकवान बनाना उसका शुरू से शौक रहा है। कॉलेज तक आते-आते तो उसने नियमित रूप से मां का हाथ बंटाना शुरू कर दिया था। घर पर रहकर अपने परिवार की देखभाल करने में ही उसे आज भी अधिक खुशी मिलती है। पढ़ने-पढ़ाने के लिए उसके पास न तो अब समय है और न ही कोई विशेष दिलचस्पी। वो हिंदुस्तान के उस महिला वर्ग का प्रतिनिधित्व करती है जो बहुमत में है। इस वर्ग को कम पढ़ा-लिखा या फिर कमजोर बुद्धि का समझना मूर्खता होगी। बात यहां सिर्फ पसंद की है। घर को सुचारु रूप से चलाने में कम दिमाग नहीं लगता। खाना बनाने से लेकर, आंतरिक साज-सज्जा भी एक कला है जो सब के बस की नहीं। और इस क्षेत्र में भी विशेषज्ञ व व्यवसायी स्थापित होने लगे हैं और जो चर्चित भी हैं। वैसे भी अगर सिर्फ बड़ी-बड़ी डिग्रियां ही सफलता की निशानी है तो हमारे आज के अधिकांश लोकप्रिय नाम अनपढ़ घोषित कर दिए जाएंगे। फिर चाहे वो फिल्मी कलाकार हों या खिलाड़ी। आज की गृहिणी तो फिर भी पढ़ी-लिखी है अन्यथा पुरानी पीढ़ी की हमारी दादी-नानियां अनपढ़ होकर भी कम बुद्धिमान नहीं थी। लेकिन बात अगर पढ़ाई के शौक की आ जाए तो हिंदुस्तान में नौकरी-पेशा वर्ग की महिलाएं भी इसमें कम ही दिलचस्पी रखती हैं। फिर चाहे वो उच्च पदस्थ ही क्यूं न हो। पुरुष वर्ग को भी बेवजह खुश होने की आवश्यकता नहीं, उनका भी इस क्षेत्र में प्रतिशत कुछ ज्यादा ठीक नहीं।
उपरोक्त कटु सत्य के अलावा एक सच यह भी है कि अधिकांश लोगों द्वारा समाचारपत्र जरूर पढ़ा जाता है। फिर चाहे वो सरसरी निगाह से ही सही। और यही वजह है जो हर रविवार मेरे साप्ताहिक लेखों को मेरी बहन के घर में जरूर देखा जाता। जो उसके शहर के एक प्रतिष्ठित समाचारपत्र में साप्ताहिक कॉलम के रूप में नियमित प्रकाशित होता है। इन वर्षों में मेरी जब भी उससे बातचीत होती, कभी-कभी वह मेरे लेखों के निरंतर प्रकाशित होने का जिक्र तो करती मगर कभी कोई प्रतिक्रिया नहीं देती। एक-दो बार पूछने पर उसने टालने की कोशिश की थी। मैं भी इस घमंड को पाले हुए था कि जिसे बचपन से ही पढ़ने में दिलचस्पी नहीं उससे पूछना बेकार है। मेरी भतीजियां, जो कानवेंट स्कूल और मेडिकल कॉलेज की छात्राएं हैं। हिंदी से उनकी दूरी देख मुझे कष्ट तो होता, परंतु इस संदर्भ में कुछ भी कहना यहां व्यर्थ होगा। हां, उनके द्वारा यह जरूर सुनने को मिलता कि मामा आप बहुत कठिन लिखते हो, हमें तो आपकी हिन्दी समझ ही नहीं आती, और इसीलिए हम शीर्षक भर पढ़ लेते हैं। सुनकर अकसर हैरानी होती क्योंकि हिंदी साहित्य का छात्र न होने की वजह से मैं, मजबूरन दूसरों की अपेक्षा साधारण, व्यावहारिक व प्रायोगिक हिंदी लिखता हूं। वैसे लेख को सरल बनाने की मेरी प्रबल इच्छा के पीछे एक प्रमुख कारण और है, हिंदी शब्दकोश का मेरा अल्पज्ञान। जिसे मुझे स्वीकार करने में कभी कोई हिचकिचाहट नहीं हुई। यह जानकर जरूर प्रसन्नता होती कि जीजाजी नियमित रूप से पढ़ते हैं। मगर उनसे भी कभी कोई प्रतिक्रिया लेने की हिम्मत नहीं हुई। उम्र का फर्क और संवेदनशील रिश्तों में झिझक इसका कारण माने जा सकते हैं जो भारतीय संस्कृति की पहचान है।
विगत सप्ताह दोस्ती पर लिखे मेरे लेख को पढ़कर छोटी बहन की प्रतिक्रिया मिली थी। चूंकि यह पहली बार हुआ था, इसीलिए गौर से सुनना पढ़ा। पहले-पहल तो यह जानकर सुखद आश्चर्य हुआ कि वो अकसर मेरा पूरा लेख पढ़ती है। मगर फिर अगले ही पल यह सुनते ही झूठे अहम् को ठेस लगी कि उसे पढ़कर मजा कम ही आता है। यह पहली बार था जब उसे पढ़ना अच्छा लगा। 'ऐसे ही हलका-फुल्का लिखा कर, भारी-भारी पढ़ने में मजा नहीं आता।' और फिर अंतिम वाक्य तो सीधे-सीधे मुझ पर कटाक्ष था, 'उपदेश थोड़ा कम दिया कर, उसे कोई नहीं पढ़ना चाहता', सुनकर मैं सकते में था।
सामान्य पाठक की सहज प्रतिक्रिया अधिक उपयोगी व सटीक होती है। बात तो सही है। आम जनता उपदेश सुनना नहीं चाहती, सुनकर बोर हो जाती है। अधिकांश को क्लिष्ट भाषा पसंद नहीं। और इसीलिए साहित्य समाज से कटा और दूर रहता है। वैसे ही जीवन में बहुत-सी मुश्किलें और परेशानियां हैं फिर ऊपर से सूखा-सूखा उपदेश, पाठक देखते ही बिचक जाता है। रोजमर्रा के जीवन में, वास्तविकता के धरातल पर उपदेश का कोई स्थान नहीं। और अगर जरूरी भी हो तो हलके अंदाज में देना चाहिए। ध्यान से देखें, बच्चों को मां-बाप के उपदेश कभी अच्छे नहीं लगते। स्कूल में सख्त टीचर कभी पसंद नहीं किये जाते। जो हंसते-खेलते मनोरंजन के साथ घुल-मिलकर पढ़ते-पढ़ाते हैं वह सदा लोकप्रिय और सफल होते हैं। धर्मगुरुओं के प्रवचन झेलने भी आदमी दु:ख में ही मजबूरीवश जाता है अन्यथा गुरु भी अपनी ख्याति के लिए तरह-तरह के हथकंडे अपनाते हैं। यही कारण है कि सभी धर्मों में अधिकांश शिक्षा संगीतमय-काव्य के माध्यम से या कहानी के रूप में सुनने-सुनाने की प्रथा रही है जो कि सरल और हृदय को छू लेने वाली होती है। प्रेमचंद सिर्फ इसलिए पसंद किये गये क्योंकि वह भाषा और कथाक्रम में आम जनता के नजदीक थे। जयशंकर प्रसाद को शायद लोग जानते भी न हों। कठिन और गूढ़ साहित्य अलमारी की शोभा बढ़ाते हैं या शिक्षण संस्थाओं के उपयोग में आते हैं; सामान्य पाठक से ये दूर और कम चर्चित होते हैं। तथाकथित साहित्यकार चाहे कितनी भी आलोचना करें, अपने झूठे अहंकार को बरकरार रखें, परंतु गुलशन नंदा मेरे मतानुसार सफल उपन्यासकार थे। फिर चाहे उनकी पुस्तकों ने विश्वविद्यालय की लाइब्रेरी की धूल नहीं चाटी। अपनी भावुक कहानियों के माध्यम से उन्होंने भी समाज के दु:ख व मानवीय संबंधों के दर्द को उभारा है।
मैंने उपरोक्त परामर्श के बाद स्वयं के लेखों का विश्लेषण किया तो पाया कि कई बार चिंतन की अवस्था में चिंता और फिर समाज को उपदेश स्वाभाविक रूप से इनमें उभर आया है। जिसे कहीं-कहीं सरल बनाया जा सकता था। साथ ही पाया कि मैं स्वयं भी तो अधिक कठिन लेख पढ़कर तुरंत उकता जाता हूं। हम निबंध, कहानी, उपन्यास, कविता या धर्मोपदेश लिखते किसके लिए हैं? पहले इस बात का खुलासा हो जाना चाहिए। हमारा उद्देश्य क्या है? असल तो यही है कि रचना पाठक को पसंद आनी चाहिए। भावार्थ समझ आना चाहिए। यह बात भी सही है कि अखबार का पाठक वर्ग विशाल होता है। समाज का हर वर्ग, हर क्षेत्र, हर धर्म, हर तरह की बुध्दि वाला, गरीब से गरीब, अमीर से अमीर, हर आयु वर्ग इसे पढ़ता है। रिक्शे वाले से लेकर कॉलेज के प्रोफेसर, गृहिणी से लेकर उच्च पदस्थ महिला, गुंडे से लेकर सामाजिक व राजनीतिक कार्यकर्ता, व्यवसायी से लेकर नौकरी-पेशा, इन सभी के सोचने की क्षमता भी अलग-अलग होती है। समाज असमानताओं व विभिन्नताओं से भरा हुआ है। तो फिर लेखक को सर्वप्रथम यह सुनिश्चित तो करना ही होगा कि वो किनके लिए लिख रहा है। उसके लक्ष्य में कौन-सा वर्ग है। माना कि हरेक को खुश करना या सभी के संदर्भ के लिए लिखना तो संभव नहीं। सभी के लिए उपयोगी हो ऐसा भी नहीं किया जा सकता। परंतु यह कोशिश जरूर की जानी चाहिए है कि अधिक से अधिक लोगों द्वारा पसंद किया जाए। नहीं तो, जो किसी के काम न आ सके ऐसे सोने का कोई मूल्य नहीं।
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रचनाकार संपर्क:
मनोज सिंह
425/3, सेक्टर 30-ए, चंडीगढ़
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