संस्मरण दुनिया गोल है 7 - सोमेश शेखर चन्द्र साहू जी की तजवीज समय के हिसाब से मुझे अचूक लगी थी लेकिन मैं इसके लिए अपने को तैयार नहीं ...
संस्मरण
दुनिया गोल है 7
- सोमेश शेखर चन्द्र
साहू जी की तजवीज समय के हिसाब से मुझे अचूक लगी थी लेकिन मैं इसके लिए अपने को तैयार नहीं कर सका था। मेरे ऐसा न कर सकने के पीछे कारण यह था कि अपने भटकने के क्रम में मैं कई ऐसे लोगों से मिला जिनसे मुझे अपने काम में उनके सहयोग की उम्मीद थी और उन्हें बताया कि मैं समाज सेवा का काम करना चाहता हूँ तो इसे सुनकर कमोवेश सबकी प्रतिक्रिया, एक ही तरह की थी। ओ ऽ ऽ आप एन.जी.ओ. बनना चाहते है? जिस तरह आज लोग नेताओं को सभी अवगुणों से भरा हुआ समझते हैं, और उन्हें धूर्त, ठग, लबार और भ्रष्ट मानकर उनके कुकर्मों के चलते उनसे घृणा करते हैं, उसी तरह वे एन.जी.ओ. को भी उसी श्रेणी में रखते हैं। राँची शहर में ही कई जगह मैंने समाजसेवी संस्थाओं का बोर्ड देखकर उसके लोगों से मिलने की चेष्टा किया था लेकिन उनके बारे में मुझे कोई बताने वाला ही नहीं मिला था जबकि संस्था का नाम इतना प्रभावशाली और बोर्ड में लिखे कामों की फेहरिस्त ऐसी थी कि वहाँ सुबह से शाम तक गहमा गहमी होना चाहिए था, लेकिन संस्थान के बारे में वहाँ के बाशिंदे तक नहीं जानते थे। जब भी मैं उधर से गुजरता था मुझे उनके दरवाजों पर ताला ही पड़ा दिखा था। मैं सबके बारे में तो ऐसा नहीं कह रहा, लेकिन सरकार की तरफ से बंटने वाले पैसे और सुख सुविधाओं को हड़पने के लिए लोग जगह जगह ऐसी संस्थाएँ खोल रखे है। लोगों में एन.जी.ओ. के बारे में जो हिकारत का भाव देखा, उसके चलते मैंने तय कर लिया था कि मैं अपनी संस्था का न तो रजिस्ट्रेशन करवाऊँगा और न ही सरकार से कोई मदद ही लूँगा।
हालांकि, इतने दिनों तक भटकने तथा अपने काम को लेकर तमाम दुश्वारियाँ और लोगों की फटकार और दुत्कार झेलने के बाद मैं पूरी तरह हार चुका था, फिर भी मेरा अंतरमन, जैसा साहू जी कह रहे थे, वैसा करने के लिए गवाही नहीं दिया था। मैं जिस ध्येय को लेकर घर से निकला हूँ उसमें मैं पूरी तरह से ईमानदार रहूँगा। स्थापित होने के लिए मैं किसी भी तरह का छल कपट या फरेब नहीं करूँगा मुझे अपने पर, अपने उद्देश्य की विशुद्धता पर तथा ईश्वर पर पूरा भरोसा था। यदि वह चाहेगा कि मैं यह काम करूँ तो वह मेरे साथ वेसे, लोगों को जोड़कर सारी अनुकूल परिस्थितियाँ पैदा कर देगा और मैं अपने उद्देश्य में सफल हो जाऊँगा। यदि वह नहीं चाहेगा तो मैं समझ लूँगा कि उसकी मर्जी नहीं थी इसलिए उसने मेरा साथ नहीं दिया। ऐसी स्थिति में मैं वापस अपने घर लौट जाऊँगा, ठीक है सर मैं आपकी योजना पर थोड़ा विचार करने के बाद आपको बताऊँगा। मैं साहू जी से इतना कहकर वहाँ से चला आया था और दोबारा उनके पास नहीं गया था।
इंदिरा जी से मिलने के बाद साहू जी अपना कालेज स्थापित करने में सफल तो हो गए थे लेकिन दुर्भाग्य उनका यह रहा कि उनके कालेज के शिक्षक तथा दूसरे कई बाहरी लोग, कालेज पर कब्जा करने के लिए उनके जान के दुश्मन बन गए थे। ये लोग बाहुबली थे। साहू जी को, उन्होंने स्पष्ट शब्दों में चेतावनी दे दिया था कि अगर वे कालेज छोड़कर भाग नहीं गए तो वे उनकी हत्या कर देंगे। साहू जी अपनी जान बचाकर जो वहाँ से भगे थे तो फिर कभी कालेज नहीं गए थे और अब वे घर में बैठकर बेकारों की जिंदगी जी रहे थे।
कुछ दिन घर में बैठने के बाद यह सोचकर कि इतने महान काम में ईश्वर मेरी जरूर मदद करेगा मैं पहले की तरह घर से निकल कर यहाँ वहाँ फिर भटकने लगा था। भटकने के इसी क्रम में एक दिन एक आदमी मुझसे टकरा गया। उसने मुझे बताया कि एक आत्मानंद मिश्रा जी हैं वे आयुर्वेदिक कालेज के प्रोफेसर हैं। उनका क्लिनिक भी है कॉलेज में पढ़ाने और वैद्य की प्रैक्टिस करने के साथ वे समाज सेवा का काम भी करते हैं उनसे मिलिए तो वे आपकी जरूर मदद करेंगे। आयुर्वेदिक कालेज मेसरा जाने के रास्ते पर है। एक दिन मिश्रा जी से मिलने के लिए मैं आयुर्वेदिक कालेज गया। मिश्रा जी की उम्र मुश्किल से पैंतीस साल की रही होगी। वे बड़े सीधे सादे और सरल व्यक्ति थे। मैं उन्हें अपनी योजना और उद्देश्य बताया और इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए मैं इतने दिनों तक कहाँ कहाँ भटका हूँ और लोगों ने मेरे साथ कैसा व्यवहार किया सारी कहानी बिस्तार से उन्हें सुनाया। मिश्रा जी मेरी पूरी कथा और व्यथा सुनकर बड़ा प्रभावित हुए थे। उन्होंने मुझसे कहा कि आप बनवासी कल्याण केन्द्र, बरियातू चले जाइए वहां पर अशोक भगत जी है मैं उन्हें फोन करके आपके बारे में बता देता हूँ। भगत जी समाज सेवा में अपना जीवन अर्पित कर चुके है। वे बड़े भले और संत आदमी है वे आपकी हर तरह से मदद करेंगे। जैसा मिश्रा जीने मुझे बताया था मैं वहाँ से सीधा, बरियातू स्थित बनवासी कल्याण केन्द्र चला आया था। यह केन्द्र काफी लंबी चौड़ी जगह में बना है। इसके भीतर कई दफ्तर है। एक जगह छोटी छोटी क्यारियों में फूल, कालमेद्य, अडूसा, ब्राम्ही जैसी तमाम जड़ी बूटियो के पेड़ लगाए हुए थे। काफी साफ और सुव्यवस्थित कैंपस है वह। मिश्रा जी ने फोन करके भगत ती को मेरे बारे में बता दिया या इसलिए उनसे मिलने में मुझे कोई दिक्कत नहीं हुई थी। भगत जी के दफ्तर से थोड़ी ही दूर पर छोटा एक बंगला था जिसमें वे रहते थे।
दफ्तर में अधेड़ उम्र की एक महिला, जो भगत जी को बाबू जी कहती थीं, उन्हें अपना परिचय देकर, भगत जी से मिलने का अपना आशय बताया तो बड़ी इज्जत से वे मुझे दफ्तर में बैठाकर भगत जी के पास गई थी। भगत जी के पास उस समय कई दूसरे लोग बैठे हुए थे इसलिए उन्होंने मुझे थोड़ी देर इंतजार करने को कहा था। थोड़ी देर बाद भगत जी ने, मुझे खुद ही अपने पास बुलवा लिया था। भगत जी गाँधीजी की तरह सिर्फ एक भगई पहनते थे। इसके अलावे वे पूरी तरह निर्वस्त्र रहते थे। दरमियाना कद, गठीला शरीर आँखों से टपकता तेज, देखने से लगता था वे संत ही है। वे मुझे बड़ी इज्जत के साथ बैठाए और मेरी सारी दस्तान सुनने के बाद, मुझे अपने ही दफ्तर में, बैंक का कामकाज देखने का प्रस्ताव किए। मैंने उनसे कहा, लेकिन मैं अपने जैसे लोगों को संगठित करके समाज सेवा के साथ -साथ उनकी भी समस्याओं के हल की योजना रखता हूँ और मैं अपने इस कान में आपसे मदद की अपेक्षा रखता हूँ। इस पर उन्होंने मुझसे कहा आप एन.जी.ओ. का काम करना चाहते है लेकिन एन.जी.ओ. बनने में आपको तीन साल का समय लगेगा और इसके लिए दूसरी तमाम और औपचारिकताएँ भी पूरी करनी पड़ेग़ी तभी जाकर आपकी संस्था का रजिस्ट्रेशन हो सकेगा। उन्होंने, भद्र महिला को बुलाकर उसे हिदायत किया था कि आप एन.जी.ओ. का काम करना चाहते है, इसके लिए जो भी नियम कायदे है इन्हें अच्छी तरह समझा दीजिए। चूँकि वहाँ मेरा मूल उद्देश्य पूरा नहीं होता था और भगत जी के साथ जुड़ने से वे जैसा काम मुझसे लेना चाहते वैसा ही मुझे करना पड़ता इसलिए मैं दोबारा फिर वहाँ नहीं गया था।
बरियातू में ही राम कृष्ण मिशन का एक आश्रम है। एक दिन, मैं यह सोचकर राम कृष्ण आश्रम मिशन गया, कि शायद वहाँ से मुझे अपने काम में कुछ मदद मिल जाए। मिशन की ओर से एक वृद्धाश्रम जमशेदपुर में मानगो पुल की बगल खरकाई नदी की कछार पर चलाया जाता है। आते जाते मैं आश्रम का बोर्ड और वहाँ बेंचों पर बैठे कई वृद्ध देख चुका था इसलिए मुझे उम्मीद थी कि राँची में भी उनका इसी तरह का कोई आश्रम होगा। राम कृष्ण मिशन बड़े उच्च स्तर की संस्था है वही उच्चता मुझे उनके बरियातू आश्रम में भी दिखी। मिशन आध्यात्म के साथ-साथ, सामाजिक क्षेत्र में भी अच्छा काम करता है। आश्रम काफी बड़ा है वहाँ पर दो तरह के लोग काम करते हैं। एक तो वे लोग जो यहाँ नौकरी करते है और दूसरे सन्यासी हैं जो सन्यस्त होकर अपना सारा जीवन आश्रम को सौंप चुके हैं। इनकी दिनचर्या और कार्य क्षेत्र के बारे में विस्तार से तो नहीं बता सकता लेकिन आश्रम के दफ्तर में काम करते लोगों और सन्यासियों को किसीं प्रोजेक्ट को पूरा करने के लिए ट्रक पर पाइप और कुछ मशीनें लादते देखा था। दरअसल सरकार इनके जिम्मे कोई प्रोजेक्ट दे देती है, जिसे वे बड़ी कुशलता और ईमानदारी से पूरा करते हैं। आश्रम के भीतर मधुमक्खी, मछली, पशुपालन, तथा दूसरी तमाम तरह की वोकेशनल ट्रेनिंग देने की व्यवस्था है, जिसमें गाँव के बच्चे आकर तरह तरह की चीजें सीखकर अपने गाँव, वापस जाते हैं और अपने इच्छित कार्य में जुटकर अपनी आजीविका चलाते हैं। राम कृष्ण मिशन की व्यवस्था और इसकी गतिविधियाँ काफी प्रभावशाली और व्यवहारिक थी। मैं वहाँ के स्वामीजी से मिलकर उनसे अपनी योजना के बारे में बात करना चाहता था। लेकिन उस दिन आश्रम में कोई बड़े स्वामी जी आए हुए थे और वे उन्हीं के साथ व्यस्त थे इसलिए उनसे मुलाकात नहीं हो सकी। इसके बाद मैं दो तीन दिनों तक लगातार वहाँ गया लेकिन स्वामी जी से भेंट नहीं हो सकी। लेकिन वहाँ जाने से मुझे एक बात साफ हो गई कि अगर मैं सन्यस्त होकर आश्रम की गतिविधियों में अपना समय गुजारना चाहूँ तो हो सकता है आश्रम मुझे स्वीकार कर लेगा लेकिन अपनी योजना पर अपने हिसाब से मैं काम करूँ ऐसा कर सकना वहाँ संभव नहीं था।
मैं स्टेशन के पास योगदा सत्संग भी जाने को सोचा लेकिन वहाँ नहीं पहुँच सका।
कहाँ जाऊँ, क्या और कैसे करूँ, कि मेरा काम बने, इसी के बारे में मैं सोच विचार कर रहा था तो मुझे ध्यान आया कि पुराने जमीनदार और राजा तो यहाँ कई होंगे। वे लोग सामाजिक और देश के लिए काफी अच्छा काम कर चुके हैं, मेरे बैंक में लाल अमरनाथ साहदेव जो यहाँ के जमीनदार परिवार से थे, जब मैं राँची में था, तो वे मेसरा में अधिकारी पद पर कार्यरत थे। एक ही संस्थान में होने के नाते उनसे मेरा अच्छा परिचय था। लोगों से पता किया तो पता चला कि वे बैंक की सर्विस काफी पहले छोड़कर अब गुमला में रहते है, उनकी पत्नी डाक्टर थी, उस समय वे शिवपुरी में अपना नर्सिग होम चलाती थी। साहदेव जी के घर पर पहुँचा तो पता चला कि वे गुमला के अपने फार्म हाउस में रहते हैं हफ्ते में एकाध दिन यहाँ आते हैं। मैं लोगों से उनसे फोन पर बात करवा देने को कहा तो उन लोगों ने मुझे बताया कि वहाँ फोन नहीं है, साहदेव जी कब आएँगे, इसकी भी किसी को जानकारी नहीं थी, इसलिए मैं दोबारा वहाँ नहीं गया।
मेरे बैंक के ही एक साथी बोस बाबू थे जो बैंक की नौकरी छोड़कर पति पत्नी लालपुर में स्कूल चलाते थे, और हेल्प एज इंडिया से संबद्ध भी थे, उनसें मिला और वृद्धों के बारे में अपनी योजना बताया तो उन्होंने मुझे कोलकता की किसी बूढ़ों की संस्था का पता दिया। आप वहाँ जाकर इन लोगों से मिलिए, तो शायद आपके काम में मदद मिले। उन्होंने मुझे बताया कि हेल्प एज बूढ़ों को मदद करने की संस्था है बैंक से पैसा निकालना, बिजली और टेलीफोन के बिल जमा करना जैसी उनकी तमाम छोटी मोटी जरूरतों में, उनके घर पहुँचकर उनकी मदद करना इसका काम है। यहाँ आपके काम लायक कोई मदद नहीं मिलेगी।
किसी जमीनदार से मिलकर उनके संरक्षण और सान्निध्य में अपना काम शुरू करने और उससे अपने काम के लिए छोटा मोटा ही सही, एक जमीन का टुकड़ा मिलने की उम्मीद मुझमें प्रबल हो चली थी। उन दिनों होता यह था कि मुझे अपने काम में जरा सा भी कहीं से उम्मीद की किरण दिखती तो मैं खुशी से झूम उठता और ऐसा लगता कि अब मेरे भटकने के दिन खत्म हुए। इसी उम्मीद में मैं राजा बरियातू के यहाँ जाने की सोचा लेकिन उनके यहाँ यह सोचकर नहीं गया कि शहर में जमीन की कीमत इतनी ऊँची है ऐसे में मुझे वे जमीन का टुकड़ा कहाँ से देंगे। इसलिए जगन्नाथपुर के जमीनदार से मिलने के लिए मैं एक दिन जगन्नाथपुर गया। जगन्नाथपुर में भगवान जगन्नाथ का एक मंदिर है वहाँ जाड़े के दिनों में एक मेला लगता है। राँची में था तो मैं बच्चों के साथ इस मेले में जा चुका था। मंदिर काफी पुराना है, और देख रेख के अभाव में वह काफी जर्जर हो चुका है। जगन्नाथपुर जाकर मैं पहले जगन्नाथ जी के मंदिर में दर्शन किया। यह मंदिर यहाँ के जमीनदार ने बनवाया था और इसकी देखभाल और रखरखाव अब भी जमीनदार परिवार ही करता था। एच.ई.सी. अपना कारखाना लगाने के लिए जब बहुत बड़े भूभाग का अधिग्रहण किया तो इसमें यह मंदिर भी आ गया। इस मंदिर को बचाने के लिए तभी से शायद जमीनदार परिवार सरकार से इसका मुकदमा लड़ रहा है।
जमीनदार साहब का घर मंदिर से दक्षिण करीब एक किलोमीटर की दूरी पर है। लोगों से पूछते पाछते उनके घर पहुँचा तो संयोग से वे अपने घर के बाहर ही मुझे बैठे मिल गए थे। मैं सोचता था, दूसरे जमीनदारों की तरह इनकी भी बड़ी हवेली होगी। लेकिन वैसा वहाँ कुछ भी नहीं था। यह लंबी चौड़ी जगह में बना एक बड़ा खपरैल घर था। यहाँ के जमीनदार पहले इसी तरह की हवेली में रहते रहे होंगे। जमीनदार साहब काफी लंबे थे। एकदम गोरे भभूके, आकर्षक व्यक्तित्व, देखने से लगता था वे सचमुच के राजा हो। मैंने उन्हें बड़े आदर के साथ झुककर प्रणाम किया। उन्होंने मुझे अपनी बगल पड़ी एक कुर्सी पर बैठने को कहा। कुर्सी पर बैठने के बाद मैंने उनसे कहा राजा साहब मैं आपसे ही मिलने के लिए यहाँ आया हूँ। राजा साहब, उन्हें मैंने यह सोचकर कहा, कि वे राजा तो है ही, इस संबोधन से उनके अहम की तुष्टि होगी और वे मुझसे खुश हो जाएँगे। अपना परिचय देने के बाद मैंने उन्हें अपनी योजना बताकर उनसे कहा कि अगर मुझे आपका आश्रय मिल जाता तो यह नेक काम करने में मुझे सुविधा होती। अपनी बात कहने के दौरान मैं उन्हें कई दफा राजा साहब से संबोधित कर चुका था। वे बेचारे बड़ा साफ दिल आदमी थे, राजा साहब के संबोधन से मैं सोचता था, कि उन्हें खुशी होगी लेकिन हुआ इसका उल्टा। बोले आप मुझे राजा साहब कह रहे हैं महराज आप किस दुनिया और किस युग के आदमी है? अरे, मैं तो भिखारी से भी गया गुजरा हूँ। वे बड़े व्यथित मन से मुझे अपना दुखड़ा सुनाने लग गए थे कि हम लोग किसी जमाने में राजा हुआ करते थे लेकिन एच.ई.सी. ने हमारी सारी जमीनें छीनकर हमें भिखारी बना दिया। जो मुआवजा उसने हमारी जमीन का दिया वह बहुत कम था और उसमें भी सरकार और उसके कर्मचारी बंदरबाँट कर लिए। नौकरी दिया था उससे भी निकाल दिया। बच्चे हमारे टैक्सी और टेंपो चला कर किस तरह परिवार चला रहे है, यह मैं ही जानता हूँ। मंदिर का उनका मुकदमा चल रहा था, बोले बस जगन्नाथ की टहल में मैं जुटा हूँ जब तक उनकी मर्जी होगी, मुझे अपनी टहल में रखेंगे और उन्हीं के लिए मैं यहाँ अटका हुआ हूँ, नहीं तो मेरे जीने में अब कोई रस नहीं है। उनकी व्यथा सुनकर मैं काफी व्यथित हो उठा था। माफ करें सर मेरी आपसे पूरी सहानुभूति है आपके साथ बड़ा अन्याय हुआ है।
अजीत कच्छप मेरी बैंक में काम करते थे वे आदिवासियों के पुरोहित भी थे। इस इलाके में पुरोहित घर का, लोगों में काफी सम्मान होता है। इलाके के लोगों में उनकी अच्छी पकड़ भी होती है। अजीत का घर अपर बाजार बड़ा तालाब से पश्चिम काफी दूरी पर था। मैं उनके यहाँ यह सोचकर गया था कि वे यहाँ के लोकल और प्रतिष्ठित आदमी है, इसलिए मुझे उनसे जरूर कुछ मदद मिल जाएगी। उस समय वे बैंक की नौकरी से रिटायर होकर घर में रहते थे। उनका मकान जमीनदार साहब के मकान की ही तरह बड़ा और खपरैल था। साथ काम करने के बावजूद वे मुझे बैठने तक के लिए नहीं कहे थे, इसलिए मैं वहाँ से चला आया था।
एक दिन मेरे दिमाग में आया कि क्यों न मैं, जो लोग रिटायर होकर अपने घर में बैठ चुके हैं और अपने उन साथियों से जो मेरे साथ काम करते थे, और अब रिटायर हो चुके हैं और राँची में अपना घर बना कर रह रहे हैं, उनसे सीधा मिलूँ। अगर उनमें से एक दो लोग भी मेरा साथ देने के लिए तैयार हो जाएँ तो उनके स्थानीय होने का मुझे फायदा यह मिलेगा कि उनके माध्यम से जब मैं लोगों के बीच जाऊँगा, तो लोग जो मुझे ठग या धूर्त समझकर मुझे मारने दौड़ पड़ते हैं वैसा वे नहीं करेंगे।
लोगों का पता पूछ पूछकर उनसे संपर्क साधने लगा तो उनमें से कोई अपने बच्चों के साथ उनके बिजनेस में सहयोग कर रहा था तो कोई अपनी पत्नी तथा खुद की बीमारी से परेशान था, कोई घर पर मिला तो कोई नहीं मिला। कोई मिला तो नौकरी के दौरान यदि उनके मन में मुझसे कोई खुंदक थी तो मुझे देखते ही उसके भीतर की खुंदक फिर जाग उठी और वह मुझसे उल्टी पुल्टी बातें करने लग गया।
अपने एक पूर्व सहकर्मी भट्टो जी से, जिनका अपना मकान, बिहार क्लब के पास था, मिला तो वे मुझसे बड़ा छोहाते हुए मिले। लंबे अर्से के बाद मिले थे इसलिए उनसे तमाम तरह की व्यक्तिगत और नौकरी के दिनों के साथियों की बातें हुई, चाय पानी हुआ, इसके बाद मैं अपना उद्देश्य पूरे विस्तार से उन्हें बताया और कहा कि आप इसमें मेरा सहयोग करिए। पत्नी उनकी हम लोगों के साथ ही बैठी हुई थी, उन्होंने समझा मैं अपनी तरह उन्हें भी अपना घर बार छोड़ने के लिए प्रेरित कर रहा हूँ। वे बोली भाई साहब हम लोग सर्विस के दौरान बड़ा डहक और भटक चुके हैं अब इस उम्र में और डहकना हमारे बस में नहीं है। मैंने उनसे कहा कि मैं यह कहाँ कह रहा हूँ कि आप लोग मेरी तरह अपना घर बार छोड़कर बीराने में डहकिए। आप लोग अपनी जिंदगी पहले की ही तरह जिएँ। हाँ यदि आप अपना घंटे आध घंटे का समय परोपकार के काम में दे सकते हों तो दीजिए बस इतना ही मुझे चाहिए। मुझे अपने लिए कुछ भी नहीं चाहिए। ऊपर वाले की दया से मेरे पास सब कुछ है, महीने में पेंशन मिलती है, उससे मेरा खाने पीने से लेकर दूसरी तमाम जरूरतें पूरी हो जाती है, जो बच जाता है उसे मैं लोगों में खर्च कर देता हूँ। मुझे आपसे रुपया पैसा कुछ नहीं चाहिए। बस इतना करिए कि अपने मोहल्ले और राँची में आपके कई परिचित होंगे उनके पास चलकर उनसे मुझे मिलवा दीजिए। मेरे इतना कहने पर भट्टो बाबू ने कहा देखिए यार मुझे एक मिनट की भी फुर्सत नहीं है, सुबह जब से उठता हूँ, नाती पोतों को स्कूल पहुँचाने, ले आने और घर के लिए सौंदा सुलुफ सब्जी, भाजी लाने और आए गए से मिलने में ही इतना व्यस्त हो जाता हूँ, कि मुझे अपने लिए इतना तक समय नहीं बचता कि जाकर किसी अपने से मिल आएँ। मैं उनका आशय समझ गया और दोबारा फिर उनके पास नहीं गया।
एक दे बाबू जिनका जवाहर नगर के बगल अपनी बिजली की दुकान थी और वे हंस मार्ग में रहते थे, वे मुझसे काफी प्रभावित थे। जब मैं नौकरी में था, उन्हें अपनी एक बाइक बेचा था। वह बाइक अभी भी उनके पास थी। राँची आने पर उनसे मैं बीच बीच में मिला करता था। देखिए सर आप बहुत बड़ा काम करने की ठानें हैं मेरी भी समाज सेवा की बड़ी दिली इच्छा है, लेकिन क्या करूँ, नमक तेल लकड़ी में इतना उलझा हुआ हूँ, कि इसके अलावे दूसरा कुछ सोचने और करने का मुझे मौका ही नहीं मिलता। दे बाबू यदि फ्री होते तो, उनका क्या रवैया होता, जितना मैं इतने दिनों तक सैकड़ों लोगों से मिलकर समझ पाया था, उससे मैं यकीन के साथ कह सकता हूँ, कि उस समय उनके साथ भी कोई न कोई समस्या जरूर आ जुड़ती और मेरा साथ देने के, मेरे निवेदन पर, माकूल बहाने करके वे भी अलग हट जाते।
एक दिन जब मैं पूरी तरह हताश था तो इन्हीं दे बाबू से उनकी दुकान पर मिला। मैंने उन्हें बताया कि दे बाबू मैं अपनी तरह के रिटायर्ड लोगों की संस्था बनाकर न सिर्फ उनकी ऊर्जा और ज्ञान को समाज के जरूरत मंदों की मदद में लगाना चाहता था बल्कि इसी संस्था के माध्यम से जो बुजुर्ग अपने बच्चों से उपेक्षित होकर एकाकी जीवन जीने को अभिशप्त है, और उनकी कोई खोज खबर लेने वाला नहीं है, उनकी भी सेवा करना चाहता था, इसके लिए मैं जबसे राँची आया हूँ दौड़ ही रहा हूँ, लेकिन आज तक असफलता ही मेरे हाथ लगी। मुझे एक भी आदमी ऐसा नहीं मिला जो मेरे दाहिने खड़ा होता। अब मैं पूरी तरह निराश हो चुका हूँ। मुझे लगता है राँची से मुझे छूँछे हाथ ही लौट जाना पड़ेगा। इस पर दे बाबू मुझे अपने एक भाई से मिलवाए जो सी.सी.एल. में किसी ऊँची पोस्ट से रिटायर होकर अपने मकान में रहते थे। उनका मकान काँके रोड जवाहरनगर के सामने की कालोनी में था। सर भाई राँची के काफी प्रभावशाली व्यक्ति हैं और समाजसेवा में भी उनकी अच्छी रूचि है, चलिए मैं उनसे आपको मिलवाता हूँ, मुझे पक्का यकीन है, कि वे आपकी जरूर मदद करेंगे।
दे बाबू अपनी बाइक पर बैठाकर मुझे उनके घर ले गए और उनसे मेरा परिचय करवाकर अपनी दूकान चले आए। वे सज्जन मुझे बड़ी इज्जत से बैठाए चाय, पानी हुआ। उनसे बात होने लगी, तो मुझे उनसे अपना परिचय देने की जरूरत नहीं हुई थी। दे बाबू उन्हें मेरे बारे में विस्तार से सबकुछ बता चुके थे। साथ ही वे उन्हें यह भी बता चुके थे कि साहब अपनी शेष जिंदगी गरीबों की सेवा में लगाने के उद्देश्य से अपना घर बार छोड़कर राँची आए हैं। उन सज्जन को अपनी योजना के बारे में विस्तार से बताने के बाद मैंने उनसे निवेदन किया कि मुझे मेरे काम में आपके सार्थक सहयोग की जरूरत है। मेरी सारी बातें सुनने के बाद उन्होंने मुझसे कहा कि देखिए, आप जो कुछ भी करना चाहते हैं, अपने नाम और प्रसिद्धि के लिए करना चाहते हैं। लेकिन कोई भी काम करो उसमें पैसे की दरकार तो होती ही है, वह कौन देगा? मेरे बारे में लोग सोचते हैं, कि मैं ऊँची पोस्ट पर था, इसलिए मेरे पास काफी पैसा होगा, लेकिन लोगों का ऐसा सोचना एकदम गलत है। मैंने कहा, सर मैं आपसे पैसे कहाँ मांग रहा हूँ। आप अपने मोहल्ले में कम से कम अपने जैसे लोगों को इकट्ठा तो कर सकते है? यहीं इसी मोहल्ले में हमलोग समूह में इकट्ठा होंगे यहाँ जो दाई नौकरानियाँ काम करती हैं, और उनके बच्चे पढ़ नहीं पाते उन्हीं को घंटे आधा घंटे, पढ़ा दिया करेंगे या हम लोग मिलकर अगर दूसरा कोई काम करना चाहेंगे तो उसे भी करेगें।
फिर भी उसमें पैसा तो लगेगा ही ना?
वह मैं दूँगा सर, आप सिर्फ लोगों को संगठित करिए।
देखिए मैं मोहल्ले में किसी के यहाँ आता जाता नहीं उन्हें इकट्ठा करके संगठित करना मेरे बस की बात नहीं है।
आपकी लोगों से पहचान तो होगी सर आपन मिलिए ठीक हैं लेकिन मुझे लोगों से मिलवा दीजिए तो आपकी मेहरबानी होगी।
इतनी देर में मुझे समझ लेना चाहिए था कि उन्हें मेरे काम में कोई रूचि नहीं है। उनकी अरूचि के बावजूद जब मैं उनसे कुछ करने की अपनी बात कहता रहा तो वे तनतना उठे थे। कहा, उन्होंने कुछ नहीं लेकिन उनकी शरीर की भाषा और चेहरे का भाव देख मैं समझ गया था कि वे मुझे अब और ज्यादा बर्दाश्त नहीं कर पा रहे हैं। वे ऊँची पोस्ट पर रह चुके थे, और ऐसी स्थिति को कैसे संभाला जाता था, इसमें उन्हें महारत हासिल थी, मुझे वे क्रोधित नजरों से थोड़ी देर देखने के बाद एकदम नार्मल हो गए थे। देखिए अगर आपको यही सब करने का शौक है, तो आप भारत सेवाश्रम संघ चले जाइए वहाँ आपके करने लायक बहुत काम मिल जाएगा। वे मुझे इसके अलावे और भी कई रास्ते सुझाए थे लेकिन खुद कुछ करने के लिए तैयार नहीं हुए थे।
एक दिन एक आदमी ने मुझे सुझाव दिया कि किरन केमिकल्स के मालिक जी.सी. अग्रवाल जी हैं जिनकी दूकान अपर बाजार जैन मंदिर के सामने के कटरे के भीतर है, उनसे आप मिलिए वे राँची के प्रतिष्ठित आदमी हैं, बड़ा तालाब के पास, चिन्मय मिशन है, उसमें एक वानप्रस्थ आश्रम है, उसमें वे हमेशा जाते हैं। वे काफी भले और उम्रदराज आदमी भी हैं उनसे अपने काम में आपको जरूर मदद मिलेगी।
जैसा उस आदमी ने मुझे सुझाव दिया था मैं अग्रवाल जी से उनकी दूकान में मिला। अग्रवाल जी बी.एच.यू. से केमिकल इंजीनियरिंग पढ़े, आदमी थे। राँची में वे अपना केमिकल कारखाना लगा रखे थे। उम्र उनकी सत्तर से पचहत्तर साल के बीच रही होगी। बच्चे उनके सयाने हो चुके थे और उनका कारोबार देख रहे थे। जिस तरह अग्रवाल जी, शालीन, सुलझे हुए और सहयोगी प्रवृत्ति के व्यक्ति थे उसी तरह उनके बच्चे भी सुसंस्कारित थे। अग्रवाल जी मुझे बड़े प्यार से अपने साथ अपनी गद्दी पर बैठाए और मेरी बात सुने। मैंने उन्हें बताया कि इस काम के लिए, भटकते मुझे लंबा अर्सा गुजर गया लेकिन हर जगह से मुझे उपेक्षा और दुत्कार ही मिली। आप बताइए मैं क्या करूँ? उन्होंने मुझे ढाढ़स बंधाया कि आप निराश मत होइए। यह दुनिया ऐसे ही हैं लगे रहिए सफल हो जाइएगा।
सांसारिक जिम्मेदारियों से मुक्त लोगों की संस्था बनाने के विषय में उन्होंने मुझे बताया कि आदमी जब बच्चा होता है तो वह माटी का लोंदा होता है, उसे आप जैसा चाहें ढाल सकते हैं। जब वह बड़ा होता है तो उसमें जोश और कुछ कर गुजरने का जुनून होता है वह करता भी है लेकिन बूढ़ा होने पर वह रूढ़, जड़ और डरपोक हो जाता है। उस समय आप चाहिए कि उसे किसी तरफ मोड़ दीजिए, संभव नहीं है। बूढ़ों की जड़ता का उन्होंने दो उदाहरण दिया। आदमी जब जवान होता है तो अपना धंधा रोजगार बच्चों का पालन पोषण तथा तमाम सामाजिक दायित्वों का निर्वहन करता है। जवानी के जोश में वह कई उल्टे पुल्टे और अकरणीय काम भी कर बैठता है, लेकिन जब वह बूढ़ा हो जाता है, तो उसके बच्चे सब कुछ अच्छा कर रहे होते हैं फिर भी वह उसमें भी न मेख निकालता रहता है। बच्चों के काम से वह संतुष्ट नहीं होता। वह अतीत जीवी हो जाता है, जैसा वह अपनी जिंदगी में जिए रहता है चाहता है उसके बच्चे भी वैसी ही जिंदगी जिएँ। वह अपनी जिंदगी में ढेरों कमाया है, लेकिन खर्च नहीं किया है, तो वह चाहता है कि उसके बच्चे भी कमाएँ लेकिन नोन चाट कर अपनी जिंदगी बसर करें। ऐसा करके वह न सिर्फ अपनी बल्कि अपने बच्चों की जिंदगी नरक बना लेता है, लेकिन अपनी जड़ता छोड़ वह व्यवहारिक बनने के लिए किसी भी शर्त पर तैयार नहीं होता। आज लोग कहते हैं बूढ़ों की उपेक्षा और दुर्दशा हो रही है लेकिन क्यों? यही उनकी जड़ता और सठियप्पन इसका कारण है। उन्होंने मुझे बताया कि मैं आपको निरूत्साहित करने के लिए यह बात नहीं कह रहा हूँ, आप अपने काम में सफल हो मेरी शुभकामनाएँ आपके साथ हैं लेकिन यह जड़, और रूढ़ समुदाय अपनी जड़ता छोड़कर, आपका सहयोग करेगा मुझे इसमें संदेह है। मैंने उनसे कहा सर ऐसी जड़ता तो मैं समाज के सभी उम्र, वर्ग और समुदाय के लोगों में देखा, नहीं तो मैं शहर के पढ़े लिखे और सभ्रांत लोगों से लेकर गाँव के जाहिल और गँवारों के बीच तक पहुँचा, मेरे उद्देश्य और मिशन में किसी तरह की मिलावट और दोगलापन नहीं था, फिर भी लोग मेरा साथ देने की बजाए, मुझे ठग और धूर्त समझकर मुझे खदेड़े ही। देखिए साहब आप रोटी बनाते हैं, तो आपका हाथ जलता है, जलता है कि नहीं? तो आप यह मानकर चलिए कि आपका हाथ इस काम में भी जलेगा, इसलिए आप इसमें लगे रहिए मेरी यही सलाह है।
अग्रवाल जी ने मुझे चिन्मय मिशन जो बड़ा तालाब के दक्षिण स्थित है, उसका पता दिया और उन्होंने बताया कि यहाँ वानप्रस्थ एक संस्था चलती है, उसमें शहर के अच्छे अच्छे लोग, जिसमें डाक्टर इंजीनियर, व्यापारी शामिल हैं सब जुटते हैं। रविवार सुबह दस बजे से लेकर बारह बजे तक उनका सत्संग चलता है। आप वहाँ जाइए। जैसा आप चाहते हैं वहाँ उसी तरह के बहुत से लोग मिल जाएँगे।
अग्रवाल जी ने जैसा मुझे बताया था मैं रविवार के दिन सुबह समय से काफी पहले चिन्मय मिशन पहुँच गया था। समय हुआ था तो वानप्रस्थ से जुड़े दस बारह लोग ही सत्संग में पहुँचे थे। जब कि इसके सदस्यों की संख्या साढ़े तीन सौ से ऊपर थी। मैं वहाँ एकदम नया था। लोगों को अपना परिचय दिया और उनसे कहा कि मैं भी वानप्रस्थ का सदस्य बनना चाहता हूँ, तो लोगों ने दिल खोलकर मेरा स्वागत किया था, और मुझसे चंदा लेकर संस्था का आजीवन सदस्य बना लिया था। लोगों ने बारी बारी से अपना नाम बताने के साथ राँची में वे कहाँ रहते है, और क्या करते हैं यह भी बताया। मैं भी उन्हें अपना परिचय दिया और बताया कि मैं यूको बैंक में अधिकारी पद से स्वेच्छा सेवानिवृत्ति लेकर यहाँ राँची में समाज सेवा के उद्देश्य से आया हुआ हूँ, मैं यूको बैंक के मंडल कार्यालय में आठ वर्षों तक पोस्टेड था और इस समय मैं, अमुक जगह पर भाड़े का घर लेकर रहता हूँ। इसके आगे लोगों ने न तो मुझसे ज्यादा कुछ जानना चाहा और न ही मैंने उन्हें बताया। हाँ वहाँ उपस्थित शहर के उच्च और संभ्रांत लोगों के बीच पहुँचकर मैं बड़ा खुश हुआ था, मुझे इसी तरह के लोगों की अर्से से तलाश थी और अब मैं उनके बीच में था। उनके बीच पहुँचकर मुझे लगा था जैसे मैं महीनों का भूखा था, और अचानक ऐसी जगह पहुँच गया हूँ, जहाँ चारों तरफ मेरे खाने के लिए पकवानों की थाल सज गई हो।
उस समय मुझे जितनी खुशी हुई थी, मैं उसे बयान नहीं कर सकता। जिस तरह के प्रतिष्ठित लोग संस्था के सदस्य थे, और उनमें से वहाँ उपस्थित दस बारह लोगों में डाक्टर, इंजीनियर, व्यापारी तथा दफ्तरों से रिटायर्ड लोगों से मेरा परिचय हुआ था, उससे मुझे पक्का यकीन हो गया था कि यहाँ मैं अपने उद्देश्य में जरूर सफल होऊँगा। मैं उनके बीच रहकर उन्हें अच्छी तरह समझना चाहता था और यह भी चाहता था कि लोग मुझे भी अच्छी तरह समझ लें। मुझे अब किसी भी तरह की जल्दी नहीं थी। जब सब लोग मुझे और मैं उन्हें समझ लूँगा, इसके बाद ही मैं अपने उद्देश्य पर आना चाहता था। मैं बिना नागा हर रविवार की सुबह चिन्मय मिशन पहुँचकर वाणप्रस्थियों के कार्यक्रम में शामिल होता। आश्रम के ऊपर के तल्ले पर वाणप्रस्थियों का कार्यक्रम चलता और नीचे के तल्ले पर कभी बच्चों का वेदपाठ तो कभी किसी बाहर से आए स्वामी जी का, नवयुवकों की समस्याओं तथा उनकी दूसरी तमाम जिज्ञासाओं का व्यवहारिक हल और समाधान किया जाता। वहाँ पर जो स्वामी जी रहते थे, वे इसके पहले मानव सेवा संस्थान मथुरा के निवारमपुर आश्रम में रहते थे। जिस तरह आश्रम या किसी संस्था या पार्टी के लोगों में कोई भी काम करने के लिए शुरू शुरू में पूरा उत्साह होता है और उसी उत्साह में वे लंबी चौड़ी योजनाएँ बनाकर काम की शुरूवात तो कर देते हैं, लेकिन जब काम शुरू हो जाता है तो लोगों का उत्साह ठंडा पड़ कर उनमें शिथिलता आ जाती है। इसी तरह वानप्रस्थ आश्रम की तरफ से मिशन के परिसर में गरीबों के मुफ्त उपचार के लिए होमियोपैथिक और एलोपैथिक का दवाखाना खोला गया था। इस दवा खाना में वानप्रस्थ के एक डाक्टर साहब तथा चिन्मय मिशन के होमियोपैथिक के डाक्टर स्वेच्छा से सेवा देते थे। आश्रम की तरफ से उनकी सेवा के एवज में उन्हें कोई तनख्वाह तो नहीं दी जाती थी, लेकिन क्लिनिक आने जाने के लिए एक निश्चित राशि, किराया, भाड़ा के रूप में जरूर उन्हें दिया जाता था। लेकिन जिन लोगों से पैसे आने थे वे लोग अपने वादे के अनुसार पैसे नहीं दे रहे थे, इस लिए डाक्टर को निर्धारित राशि नहीं मिलने के चलते और क्लिनिक में पैसों के अभाव में दवाओं की किल्लत चल रही थी। इसके चलते डाक्टर असंतुष्ट थे, और यह स्कीम बंद होने के कगार पर थी।
खैर, वानप्रस्थ का कार्यक्रम करीब दो घंटे का होता था। उनके उस कार्यक्रम में सबसे पहले लोग, गीता के किसी श्लोक का गायन करते थे। इसके बाद सदस्यों के बीच से कोई एक आदमी, आध्यात्मिक शब्द देता था, उस पर वहाँ उपस्थित लोग एक एक करके उसका विश्लेषण करते थे, और उसका अर्थ और संदर्भ तलाशते थे। शब्द पर चर्चा खत्म होने के बाद भजन होता था, जिसमें बारी बारी से लोग एक भजन गाते थे। इसके बाद किसी की कोई निजी समस्या हो तो उसे वह लोगों के बीच कहता था। इस सेशन के रखने का उद्देश्य यह था कि लोग अपनी जाती जिंदगी में कई ऐसी समस्याओं से ग्रस्त होते हैं जिसे वे किसी से न तो कह पाते हैं और नहीं उसे सुनने वाला ही कोई होता है। इसके चलते वे घुटन और अवसादग्रस्त होकर न सिर्फ नारकीय जिंदगी जीने को मजबूर होते हैं, बल्कि ब्लडप्रेशर, दिल जैसी दूसरी घातक बीमारी उन्हें घेर लेती है। आदमी अपनी पीड़ा दूसरों से कहकर हल्का हो लेता है तो उसका घुटन और अवसाद काफी हद तक दूर हो जाता है, इसके पीछे की वैज्ञानिकता यही थी। लेकिन उससे सबमें अपना दर्द कहने के लिए कोई कमी आगे नहीं आता था। पूछने पर सभी का एक ही जवाब होता था भगवान की दया से मुझे ऐसी कोई समस्या नहीं है। आदमी अपनी जाती जिंदगी की मारांतक से मारांतक पीड़ा अपने घनिष्ठों तक से कहने से बचता है, तो वह उसे ऐसे लोगों के बीच कहने की हिम्मत कैसे जुटा पाएगा, जो सिर्फ एक संयोग के तहत कहीं इकट्ठा हुए हों। और सच बात तो यह है कि किसी की पीड़ा समझकर लोग उस पर हंसकर मजे लेने के सिवाए दूसरा कुछ करते नहीं इसलिए लोगों में अपनी व्यथा दूसरे से कह सकने की हिम्मत ही नहीं होती। सभा के संचालन एक झाजी करते थे। जब अपनी पीड़ा कहने का सेशन शुरू होता था तो वे एक दफा लोगों को याद दिलाकर कि अगर किसी को कोई दुख या पीड़ा हो तो बेधड़क यहाँ कह सकता है, जैसी औपचारिकता पूरी करके एक एक करके सब की तरफ देखते थे और अगले सत्र पर आ जाते थे। सबसे अंत में एक हास्य सत्र होता था। इस सत्र में लोग बड़े जोर से ठहाका लगाकर हंसते थे। हंसी का यह सत्र मुझे बड़ा दिलचस्प लगता था। वह इसलिए कि यह बड़ा बनावटी होता था। लोगों को हंसता देख मुझे लगता था जैसे कोई उन्हें पटकर कर उन पर चढ़ बैठा हो और पीट पीटकर जबर्दस्ती उनसे उनकी हंसी निकलवा रहा हो। हालांकि दिखावे के लिए कोई कोई, बड़ा उन्मुक्त होकर ठठाती हंसी हंसता था, लेकिन हकीकत में लोग अपने को पूरी तरह दाबे रखते थे कि कहीं उनकी निधि उसके पास से छिन न जाए। हालांकि हंसाने से हंसी मुझे भी नहीं छूटती थी, लेकिन जिस तरह से लोग, अलग अलग तरीके से अपनी देह हिला हिलाकर हंसने का नाटक करते थे, उन्हें देख मैं हंसते हंसते लोट पोट हो जाया करता था। कोई उसमें हा हा करके हँसता था, तो कोई ही ही करके, कोई कीं कीं, करके किकिंयाता था, तो कोई अपने दोनों बाजू अपने पेट और पांजर पर रगड़ रगड़कर ऐसा हंसने का दिखावा करता था जैसे हंसते हंसते उसका पेट फटा जा रहा हो। एकाध लोग उनमें ऐसे थे जो दरी पर बैठने में अपनी तौहीन समझते थे, उनके बैठने के लिए अलग कुर्सी डाल दी जाती थी। वे, लोगों को हंसता देख बोर होने लग जाया करते थे। कोई कोई तो उसमें ऐसा हंसता था कि उसे देखने से लगता वह हंस नहीं, बल्कि रो रहा है। कि यह रोने का सत्र हो और उसे रोने की पूरी आजादी मिल गई हो। ऐसे लोग हू हू करके विलाप सा करते लगते थे। उनकी आँखों से आँसू भी झर झर करके झरता था। सबके चुप हो जाने के बाद भी वे हू हू करते अपनी आंखें रगड़ रहे होते।
झाजी जो सभी सत्रों के संचालक थे, हँसी के सत्र की शुरूवात भी वही करते थे। अपने दोनों हाथ हवा में लहराकर, इतना जोर से हा हा हा हा करते थे कि उनका मुँह कान एकदम लाल हो उठता था। सबसे ज्यादा हँसी मुझे झा जी को हंसते, देखकर आती थी। हालांकि हँसते वे भी नहीं थे, लेकिन वे ऐसे कलाकार थे कि, उन्हें देखने से लगता था कि, उनकी सारी देह हँस रही है। हँसते हँसते कभी वे अपनी दोनों टाँगें ऊपर उठाकर हवा में तान देते थे, और कभी अपने जंघों पर दोनों हाथ पटकने लग जाते थे। उनका ठहाका इतने जोर का होता था कि उसे सुनकर सड़क पर चलते आदमी रूक कर हम लोगों की तरफ देखने लग जाया करते थे। झाजी के गाँव के या उनके पड़ोसी, एक दूसरे झाजी भी थे, दोनों एक ही भाषा भाषी थे, और दोनों में खूब पटती भी थी। वे हँसने में भी बड़े झाजी का, बड़े अजीब तरह से साथ देते थे। उन्हें हँसते देख लगता था, वे झाजी के असिस्टेंट हैं और बड़े बेमन से हँसने में, उनकी नकल कर रहे हो। वे बड़े बेसुरे होकर बड़े झाजी का साथ देते थे। उनके चेहरे पर हँसने और रोने जैसा कोई भाव नहीं होता था। बड़ा निर्विकार से वे, अपना मुँह फाड़कर, अपने दोनों हाथ की तर्जनी, और हाथ हवा में तब तक ताने रखते थे जब तक बड़े झाजी का हाथ, हवा में तना रहता था। और जब बड़े झाजी अपनी दोनों टांगें हवा में तान कर जमीन पर लेट जाते थे, तो छोटे झाजी भी जमीन पर लोट कर अपनी दोनों टांगें हवा में तान देते थे।
मुझे याद है कि काफी समझदार होने तक मुझे बात बेबात, कभी भी हँसी छूट जाया करती थी। स्कूल और कालेज के दिनों में, कई ऐसे मित्र मिले जो इस तरह किसी बात को कहते, कि सारी टोली के, हँसते हँसते पेट में बल पड़ जाते और कई लोग तो ऐसे मिले ओ अपनी बातों से लोगों को हँसाते हँसाते लोट पोट कर देते लेकिन, उनके चेहरे पर एक कतरे की हँसी कहीं नहीं दिखती थी। मैं भी लोगों को हँसाने और उन्मुक्त हँसी हँसने में माहिर था। शायद यह मेरे गँवई परिवेष में पलने और बड़ा होने के चलते था। आज हँसने हँसाने वाले कहीं दिखते नहीं लेकिन मैं अपने पुराने लोगों को महान मानता हूँ कि वे गंभीर से गंभीर मौकों पर हँसी की ऐसी फुटकियाँ और लटके दाग देते थे कि सारा माहौल हास्यमय हो जाता था। वे अनपढ़ और ठेठ थे लेकिन जहाँ भी दो तीन लोग इकट्ठा होते, रिश्ते के हिसाब से एक दूसरे को गालियाँ देकर ही सही, मनोरंजन का जरिया ढूँढ ही लेते थे। अपने चुटकुलों और व्यंग से, वे विनोद का ऐसा माहौल बना देते थे, कि गंभीर से गंभीर आदमी, उससे बच नहीं पाता था, या जो लोग गंभीर किस्म के होते थे उनको ही टारगेट करके, इस तरह उसके पीछे लग जाते थे कि वह हमेशा हमेशा के लिए गंभीर और रिजर्व होना भूल जाता था। शादी व्याह और इसी तरह के सामूहिक जमावड़ों में, जहाँ साला, बहनोई, मामा भांजे समधियों का जुटौला होता था और उसमें सभी कौमें शामिल होती थी, उनमें आपस में, विनोद की ऐसी ऐसी कटवैठियाँ होना शुरू हो जाती थी कि कोई चाहे कि तटस्थ होकर बैठ जाए यह संभव नहीं था। ऐसे मौकों पर कई, लोग तो ऐसे हुआ करते थे, जिनके पहुँचने का सारे गाँव को इन्तजार रहता था।
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क्रमशः अगले अंकों में जारी...
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रचनाकार संपर्क:
आर. ए. मिश्र,
2284/4 शास्त्री नगर,
सुलतानपुर, उप्र पिन - 228001
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