संस्मरण दुनिया गोल है 6 - सोमेश शेखर चन्द्र डेरे पर आकर मैं सोमरी के बारे में बड़ी देर तक सोचता रहा था। सोमरी की यह मातृवृत्ति थी ज...
संस्मरण
दुनिया गोल है 6
- सोमेश शेखर चन्द्र
डेरे पर आकर मैं सोमरी के बारे में बड़ी देर तक सोचता रहा था। सोमरी की यह मातृवृत्ति थी जो मेरे अकेला होने की बात सुनकर उफान मार गई थी या मुझे फँसाने के लिए उसके शातिर दिमाग की साजिश थी यह। या कि सोमरी डर गई थी कि मैं इसके हाथ से कहीं फिसल न जाऊँ इसलिए उसने ऐसी साजिश रचा था। वैसे वह दूसरी आदिवासी औरतों की तरह ही निश्छल निष्कपट और सरल थी लेकिन आदमी जैसा ऊपर से दिखता है, भीतर से भी वह वैसा ही है, ऐसे लोग बिरले ही दिखाई पड़ते हैं। सोमरी के इर्द गिर्द शराबियों और जुआडियों का जमावड़ा था। यह उनकी भी चाल हो सकती थी। खैर उस दिन के बाद न तो मै, इस बात को लेकर उससे कोई चर्चा किया था न ही सोमरी अपनी तरफ से कुछ बोली थी।
अब मेरे पास करने को कुछ भी नहीं रह गया था सिवाय एक सोमरी के जिसके टपरे पर मैं पांच मिनट के लिए जाता और उसे दस पांच रुपए पकड़ाकर चला आता। बीमारों और लाचारों की तलाश में मैं रांची की सड़कों पर पहले की तरह ही भटकता लेकिन मुझे उस तरह का कोई लाचार नहीं मिला था। मैं सड़कों पर भटकने से ऊब चुका था। इस तरह मैं कितने दिन सड़कों पर भटकता रहूँ? दूसरी तरफ मैं इतने दिनों जो भी करने के लिए आया था उसमें असफलता ही मेरे हाथ लगी थी। काफी सोच विचार के बाद मैं अपनी असल योजना यानी कि अपनी तरह के उन लोगों को जो अपनी देह से दुरुस्त हैं और नौकरी में रिटायर होकर अपने घर में बैठकर दिन काट रहे हैं उन्हें इकट्ठा करके उनकी संस्था बनाने तथा शहर की झुग्गी, झोपड़ियों के बाशिंदों के बीच जाकर काम करने की सोचा था। इसके लिए मैं शर्माजी, जो काँके के बौरिया में रहते थे उनसे मिलने के लिए एक दिन उनके घर गया। शर्माजी काफी अनुभवी और सुलझे हुए व्यक्ति थे। अगर उन्होंने मुझे पहले अगाह न किया होता तो मैं उत्साह में आकर लेफसर गांव के मुंडा बस्ती वालों के खेतों में पानी पहुंचाने के लिए इंजन और पाइप की खरीद में अपनी सारी पूंजी गंवा चुका होता। शर्मा जी नौकरी से रिटायर्ड आदमी भी थे। कॉके में उनकी तरह के कई लोग और भी होंगे उनसे मिलकर और उनके सहयोग से मैं अपना काम शुरू करूँ तो मुझे काफी सहूलियत होगी। लेकिन यह सोचकर मेरा मन पीछे हट गया कि एक दफा शर्माजी से मैं मिल चुका हूँ उस समय मैं उनसे गांव के लोगों के बीच रहकर काम करने की बात कहा था तो उन्होंने मुझे जो सलाह दिया था वह तो दिया ही था मेरे काम में कुछ मासिक मानदेय के बदले मेरा कंसलटेंट बनकर सहयोग करने की बात भी उन्होंने कहा था। लेकिन उसके बाद मैं फिर उनसे नहीं मिला था। अब मैं जब नई योजना लेकर उनके सामने फिर जाऊँगा तो वे यही सोचेंगे कि मैं करता धरता कुछ नहीं सिर्फ योजनाएं ही बनाता हूँ। वे मेरे बारे में कुछ गलत भी सोच सकते हैं। इस बीच मेरे दिमाग में एक आइडिया यह आई थी कि अगर मुझे कोई रहने की शरण या एकाध कट्ठा जमीन दे देता या खुद मैं अपने पैसे से किसी जगह कोई जमीन खरीद लूँ और उसमें टीन डालकर ही सही एक दो कोठरी बना लूँ तो न सिर्फ मैं जो हर महीने डेढ़ हजार मकान के किराए का देता हूँ वह बचेगा बल्कि अपना एक स्वतंत्र ठीहा भी हो जाएगा। भाडे के मकान में मैं रह तो सकता था लेकिन लोगों को इकट्ठा करके कोई काम नहीं कर सकता था। काफी सोच विचार के बाद मैंने यह तय किया था कि चलकर शर्मा जी से कहता हूँ कि मेरे संस्थान के कुछ साथी कॉके में मकान बनाने के लिए जमीन खरीदना चाहते हैं अगर आपकी निगाह में कोई ठीक जगह हो तो बताइए। शर्माजी के घर जाकर जब मैं उनसे यह बात कहा तो उन्होंने जिस जमीन पर अपना घर बनाया हुआ था उसी में काफी जगह फादिल पड़ी थी उसे उन्होंने मुझे दिखाया। जमीन का दाम वैसे भी राँची में बहुत बढ़ गया था शर्मा जी की जमीन का दाम काफी ऊँचा था इसलिए मैं उनसे यह कहकर वहाँ से चला आया कि ठीक है शर्मा जी मैं जाकर लोगों को बताता हूँ यदि वे राजी हुए तो मैं उन्हें साथ लेकर फिर आऊंगा।
शर्मा जी के घर से निकल कर रोड पर थोड़ी दूर आया था तो वहाँ मुझे सड़क की बॉई बाजू एक बगीचा दिखा था। बगीचा काफी लंबी चौड़ी जगह में था। उसमें आम और अमरूद के काफी पेड़ लगे हुए थे और चारों तरफ ईंट की ऊँची चहार दीवारी थी। उसकी दीवार पर एक बोर्ड टंगा था जिसमें लिखा था मानव सेवा संस्थान मथुरा। इतना बड़ा बगीचा मानव सेवा संस्थान का है अगर उसमें मुझे थोड़ी सी जगह मिलजाती तो मेरा सारा काम बन जाता। यहाँ मानव सेवा संस्थान जैसी कोई संस्था भी है, चलकर उस संस्थान के लोगों से भी मिल लेता हूँ हो सकता है मुझे मेरे काम में उन लोगों की तरफ से कोई मदद मिल जाए। यही सब सोचकर मैं संस्थान की तलाश में दक्षिण जाने वाली सड़क पकड़ लिया था। बगीचे के गेट के पास एक आदमी से पता किया तो उसने मुझे बताया कि संस्थान इसी बगीचे के अंदर है।
बहुत दिनों पहले मथुरा के एक संत राँची आए थे। संत दोनों आंखों से सूर थे लेकिन वे बड़े पहुंचे हुए थे। राँची में उनके काफी शिष्य थे उन्हीं लोगों ने इस जगह पर उनका आश्रम बनवा दिया था। जमीन उस समय बहुतायत में थी जमीनदारी प्रथा थी किसी जमीनदार ने आश्रम के लिए जमीन दिया होगा या कि यहाँ के लोग ही धर्म के नाम पर उसे आश्रम को दे दिये होंगे इसलिए या आश्रम वालो ने इसे खरीदा होगा क्या बात थी यह तो मैं नहीं जानता लेकिन वर्तमान में आश्रम के चारों तरफ काफी बड़ा बगीचा लगाया हुआ था और उसकी खेती लायक अपनी काफी जमीन भी थी जिस पर खेती होती थी और इसकी पैदावार आश्रम के खाते में जाती थी। लेकिन जब राँची का विस्तार हुआ और वह यहाँ की राजधानी भी बन गई तो यहाँ जमीन काफी महँगी हो गई।
जिस तरह दूसरे प्रांतों में अपनी राजनीतिक रोटियाँ सेंकने के लिए पार्टियाँ अगड़ा पिछड़ा, हिंदू मुसलमान तथा इसी तरह के समाज को बांटने वाले दूसरे संवेदनशील मुद्दे उठाकर लोगों की भावनाएं भड़का कर अपना उल्लू सीधा करती हैं उसी तरह यहाँ भी मुद्दतों से मिलजुलकर साथ रहते कुर्मी, महतो और आदिवासियों तक को लोग आपस में भिड़ा देते हैं। बाहरी (दिक्कू) लोगों और आदिवासियों के बीच का झगड़ा भी पार्टियों की इसी संकीर्ण मानसिकता और स्वार्थ लोलुपता का नतीजा है। इसी के चलते आए दिन यहाँ पर आदिवासी और गैर आदिवासियों के बीच भी बवाल होता रहता है।
आश्रम के संरक्षक इसी सब के चलते आश्रम की जमीन को भी लेकर शंकाग्रस्त रहते थे कि किसी दिन इस जमीन को लेकर भी कोई बवाल न उठ खड़ा हो इसलिए वे उसे बेचने लग गए थे।
संत काफी पहले स्वर्गवासी हो चुके थे। इसलिए आश्रम की गतिविधियाँ प्राय: खत्म हो गई थी। संरक्षकों की समस्या अब आश्रम की सुरक्षा तक ही सीमित थी इसलिए इन लोगों ने यहाँ पर एक आदमी, आश्रम की रखवाली के लिए रख छोड़ा था। इसके रखवाले का नाम राम अधार सिंह था। राम अधार सिंह संत के शिष्य भी थे। फौज में नौकरी करते थे वहाँ से रिटायर होने के बाद वे यहीं आ गए थे। उन्होंने अपनी शादी नहीं किया था। बड़े भले, निश्छल और मिलनसार आदमी थे वे। आश्रम में उनसे मिलकर मैंने उन्हें अपनी सारी कहानी बताया और पूछा कि क्या आश्रम की तरफ से मुझे थोड़ी जगह या स्थान मिल सकेगा जहाँ रूककर मैं समाजसेवा का काम कर सकूँ? राम अधार सिंह मेरी योजना और उद्देश्य सुनकर बड़ा प्रभावित हुए थे। आप जैसे लोगों की ही तो संस्थान को जरूरत है अगर आपकी लोग मदद नहीं करेंगे तो किसकी मदद करेंगे? उन्होंने कहा। उन्होंने मुझे बताया कि इसी आश्रम का एक मकान और मंदिर निवारनपुर में है और इस समय वह एकदम खाली है सिर्फ एक लड़का उसकी रखवली करता है, लोग चाहे तो वहाँ आपको रहने और काम करने के लिए जगह दे सकते हैं। राम अधार बाबू की बात सुनकर, मुझे बड़ी उम्मीद बंध गई थी। इसके लिए किससे मिलना होगा? मैंने उनसे पूछा तो उन्होंने मुझे ज्ञान प्रकाश बुधिया जिनका मकान कॉके रोड सी.एम.पी.डी.आई. से संटा है उनका पता और फोन नंबर देकर मुझे उनसे मिल लेने को कहा। आप अपनी तरफ से इस काम में मेरी मदद नहीं करिएगा? मेरे कहने का मतलब था आप थोड़ी देर के लिए मेरे साथ ज्ञान बाबू के पास चले चलते तो मेरा काम आसान हो जाता। दरअसल वे अपने को आश्रम का वालंटियर मानते थे, लेकिन ज्ञान बाबू उन्हें इसका गार्ड समझते थे, और वे इनके साथ नौकरों जैसा व्यवहार भी करते थे, कारण इसका था कि राम अधार बाबू को वे, हजार बारह सौ रुपए हर महीने तनख्वाह देते थे। इस बात को लेकर उन्हें न सिर्फ मलाल था बल्कि ज्ञान बाबू से उनकी पटती भी नहीं थी। उन्होंने मुझसे कहा आप फोन करके उनसे मिलने का समय लेकर मिल लीजिएगा। लेकिन मैंने आपको उनके पास भेजा है यह बात उनसे मत कहिएगा।
मैं दूसरे दिन मानव सेवा संस्थान के निवारनपुर आश्रम में गया। नाले के किनारे लंबे चौड़े अहाते के भीतर एक मंदिर और चार पाँच कमरों का एक तल्ला मकान था वहाँ। अंदर में फूल पौधे लगे थे। जगह बड़ी रम्य थी एक असमी या बंगाली लड़का उसकी रखवाली करता था। वह वही रहता था उसके अलावे वहाँ और कोई नहीं रहता था।
मैं ज्ञान बाबू से फोन से समय लेकर उनसे उनके घर पर मिला और अपना परिचय देकर, उन्हें बताया कि मैं राँची में आठ वर्षों तक अपने संस्थान में काम के सिलसिले में रह चुका हूँ। ज्ञान बाबू का मेरे संस्थान के काफी लोगों से परिचय था। मैंने उन्हें अपनी सारी बातें और अपनी योजना विस्तार से बताया और उनसे निवेदन किया कि वे मुझे मानव सेवा संस्थान की तरफ से रहने लायक कोई जगह दे सकें और मेरे काम में उन जैसे प्रभावशाली लोगों का सान्निध्य और सहयोग मिले तो मुझे अपना मिशन पूरा करना बड़ा आसान हो जाएगा।
ज्ञान बाबू ने मुझे टरकाने के लिए एस.एल. गुप्ता के पास भेज दिया था। अपर बाजार बड़ा तालाब की बगल दो तल्लो पर गुप्ता जी का आफिस था। उनका शायद अपनी लोहे की फैक्टरी थी, क्या बनाते थे नहीं जानता। ज्ञान बाबू ने मुझे बताया कि गुप्ता जी समाजसेवा का काम करते हैं, उनको मैं फोन किए देता हूँ, उनसे आप मिल लीजिए। गुप्ता जी से उनके आफिस में मिला तो उन्होंने मुझे बताया कि वे एक वृद्धाश्रम चलाते हैं और राँची गोशाला का काम भी उनके जिम्मे हैं। उन्होंने मुझे वृद्धाश्रम में रहने को कहा। शुल्क के तौर पर जहाँ वे दूसरों से खाने और रहने की एक बड़ी राशि लेते थे मुझे वे सारी सुविधाएँ सिर्फ एक हजार रुपए महीने पर देने का प्रस्ताव किए। इस सुविधा के बदले में वे मेरे जिम्मे गोशाला का काम देखने का जिम्मा सौंप रहे थे। मैंने उनसे कहा, सर मैं अपना घर बार छोड़कर राँची, वृद्धाश्रम में रहने नहीं आया हूँ। मैं गरीबों की सेवा करने का व्रत लेकर घर से निकला हूँ और अपने जैसे लोगों को किसी रचनात्मक काम में जुटाकर उनका भी सदुपयोग करना चाहता हूँ। अपने इस काम में मुझे आप जैसे लोगों के सार्थक सहयोग की जरूरत हैं यही उद्देश्य लेकर मैं आपके पास आया हूँ।
हम करने के लिए तो बड़ी अच्छी और ऊँचे आदर्श की बातें करते हैं लेकिन हकीकत और व्यवहार में मुझे कही पर इसका मेल नहीं दिखा। कहीं दिखेगा भी नहीं क्योंकि दुनिया इतनी फरेबी और नकली है कि किसी के सामने भगवान या कि उसका इष्ट देवता साक्षात और अपने असल स्वरूप में आकर खड़ा हो जाए और उससे कहे कि लो तुम जिसके लिए झंखते थे मैं वही तुम्हारा भगवान तुम्हारे सामने खड़ा हूँ, तब भी आदमी को उस पर विश्वास नहीं होगा। और मजे की बात यह कि वह अपने उस भगवान को भी अपने कपट और चातुरी वृत्ति में लपेटकर अपने स्वार्थ सिद्धि में जुट जाएगा। मैं किसी की बुराई करने के लिए ऐसा नहीं कह रहा हूँ, आदमी में इतना भ्रम और असुरक्षा होती है और वह इतना स्वार्थी होता है कि अपने भगवान तक पर आजीवन द्विविधाग्रस्त रहता है, और उसकी वृत्ति उसके स्वार्थ के गिर्द ही परिक्रमा करती रहती है। आदमी की इस हकीकत से मैं भी इसके पहले इतना परिचित नहीं था और परोपकार और जनसेवा जैसी महापुरूषों और ग्रंथों में लिखी ऊँची बातों को बिना किसी मीन मेख के दुनिया का सबसे बड़ा और महान काम समझता था। और उसे करने वालों का जिस तरह महिमांमडन किया गया है उसे पढ़ सुनकर मेरे मन में उनके लिए बड़ा ऊँचा और इज्जत का भाव था, लेकिन जब हकीकत में मैं वही काम करने के लिए अपना घर बार तक छोड़कर मैदान में आ डटा तो लोग मुझे हाथों हाथ लेने और अपने कंधे पर बैठाने की बजाए जिस रूप और चेहरे के साथ मेरे सामने प्रकट हुए उसे देखकर मेरे भीतर की सारी धारणाएँ पूरी तरह टूट चुकी थी।
ज्ञान बाबू चाहते तो मुझे तौलने की गरज से ही सही महीने दो महीने के लिए निवारनपुर के आश्रम में शरण दे सकते थे। लेकिन वे अपने सिर पर आई इस बला की टालने के लिए मुझे गुप्ता जी के पास भेज दिया था। गुप्ता जी मुझे थोड़ी छूट के साथ अपने वृद्धाश्रम में जगह देकर मुझसे गौशाला का काम करवाना चाहते थे। यह सोचकर कि यह बेचारा परिस्थितियों का मारा मेरे पास आया है, इसका मैं अपने तरीके से इस्तेमाल करूँ।
जब मैंने गुप्ता जी से कहा था कि मैं वृद्धाश्रम में रहने के लिए और किसी की दया माया की तलाश में अपना घर बार नहीं छोड़ा हूँ तो वे थोड़ा संभले थे और मुझे गोमूत्र से तैयार गोलियों की कई शीशियाँ पकड़ाकर, मधुमेह, हृदय रोग, ब्लड प्रेशर जैसे रोगों में वे कितनी कारगर है सब कुछ एक कुशल एम.आर. की तरह समझाए थे, साथ ही उन्होंने यह भी बताया था कि वे खुद तथा उनकी पत्नी इन गोलियों का नियमित सेवन करते हैं और इसके सेवन से उनका सुगर और ब्लड प्रेशर तथा पत्नी के कब्ज रोग में बड़ा फायदा हुआ है। उन्होंने गोमूत्र से बनी गोलियों के साथ उसी से बनी कई पैकेट धूप बत्तियाँ भी मुझे दिया था। इसे घर में जलाने से न सिर्फ मच्छर भागते हैं बल्कि जितनी दूर इसका धुआं पहुँचता है सारे हानिकारक जीवाणु भी नष्ट हो जाते हैं। सबकी कीमत मुझसे लेकर उन्होंने मुझसे कहा था कि आप पेटरवार चले जाइए वहाँ एक वैद्य जी है जो गोमूत्र से गोलियाँ और धूप तैयार करके लोगों की सेवा करते हैं। उनके साथ काम करिएगा तो आप गोमूत्र पद्धति से न सिर्फ लोगों की सेवा कर सकिएगा बल्कि दूसरे अन्य तरह के भी जो काम करना चाहते हैं वह भी वहाँ रहकर कर सकते हैं।
गुप्ताजी ने वैद्य जी को फोन कर दिया था। मैं उनसे वैद्य जी का पता लेकर पेटरवार उनके घर गया। वैद्य जी काफी सरल और अच्छे आदमी थे। मेरे बारे में तमाम बातें गुप्ता जी ने उन्हें शायद पहले ही बता दिया था। ज्ञान बाबू की तरह ही गुप्ता जी भी अपने सिर की बला टालने के लिए मुझे वैद्य जी के पास भेज दिया था। वैद्य जी के घर पहुँचकर मैं उन्हें बताया कि राँची के गुप्ता जी ने मुझे आपके पास भेजा है तो वे बड़ी गर्मजोशी से मेरा स्वागत किए थे। गोमूत्र चिकित्सा पद्धति से लोगों की सेवा करने की बात पर जब उनसे चर्चा होने लगी तो वे बड़ा व्यथित मन से मुझे बताए कि उनके गुरूजी अपने आश्रम में इसी तरह गोमूत्र से दवा बनाकर लोगों का इलाज करते हैं। यह विद्या उन्होंने वहीं उनके आश्रम में सीखा था।
गुरू जी की प्रेरणा और प्रोत्साहन से वे भी पेटरवार में यह काम शुरू किए लेकिन हर आदमी का दुश्मन, जहाँ भी वह रहे वहाँ होता ही है। वैद्य जी के दुश्मन भी, उनके इस काम को लेकर, उनके पीछे लग गए। दूसरा कारण यहकि गाय का मूत्र उबालने पर चारों तरफ दुर्गंध फैलती थी उसके चलते भी लोग उनके विरोधी हो गए थे। इसलिए उन लोगों ने किया यह कि वैद्य जी के खिलाफ ड्रग इंस्पेक्टर से शिकायत कर दिया कि वे अवैध दवाइयाँ बनाकर बेचते हैं। वैद्य जी को ड्रग वाले पकड़ लिए। वैद्य जी इस बात को लेकर काफी दुखी थे। उन्होंने मुझे बताया कि गुरू जी प्रभावशाली व्यक्ति हैं उनको तो लोग कुछ नहीं बोलते लेकिन जब वही काम मुझ जैसा साधारण आदमी करने लग गया तो लोग मुझे जेल पहुँचा दिए । वैद्य जी सीधे सादे आदमी थे। इस विपत्ति के चलते उनके भीतर जो रंज था, वह तो था ही था सबसे ज्यादा मलाल उन्हें राँची में बैठे लोगों को लेकर था। उन्होंने मुझे बताया कि मैं राँची की सत्ता में दखल रखने वाले नेताओं तथा वहाँ के तमाम प्रतिष्ठित लोगों से, अपने ऊपर के इस संकट से मुक्ति में मदद करने के लिए मैंने बहुत कहा लेकिन कोई भी मेरा साथ देने के लिए आगे नहीं आया। वैध जी की जो मनोदषा थी उस समय, उसमें उनसे मुझे किसी भी तरह के मदद की उम्मीद करना व्यर्थ था, इसलिए मैं वहाँ से चला आया था। पेटरवार से लौटकर मैं किसी वृद्धाश्रम की तलाश में लग गया। ऐसा करने के पीछे मेरी सोच यह थी कि मैं जिस उद्देश्य को लेकर इतने दिनों से भटक रहा हूँ, उसके लिए मुझे एक ही जगह कई लोग मिल जाएँगे। चूँकि मेरा मिशन ऐसा था जिसमें जुटने से न सिर्फ वृद्ध अपनी ऊर्जा और ज्ञान को रचानात्मक कामों में उपयोग कर सकते थे बल्कि उनकी जिंदगी का शेष बचा समय गरीब दुखियों की सेवा जैसे महान और पुण्य के काम लग जाएगा, इसलिए यह उन लोगों के लिए बड़े लाभ की बात भी थी। जहाँ आदमी को किसी काम में जुटने से लाभ ही लाभ हो वह उस काम में जुटेगा ही जुटेगा। हालांकि उस समय तक मेरे साथ जितना कुछ घट चुका था, उसे लेकर मैं पूरी तरह हताश हो चुका था। लेकिन इसे मेरा पागलपन कहिए या झख कि मेरे दिमाग में कोई नई बात उठती तो मन उम्मीदों से भर उठता और मैं हारे हुए जुवाड़ी की तरह अगली बाजी जरूर जीत लूँगा, ऐसा सोचकर दाँव लगाने को तत्पर हो जाता।
एक आदमी ने मुझे बताया कि बरियातू में जोड़ा तालाब के पास एक वृद्धाश्रम है, वहाँ आप जाइए तो आपको वहाँ ढेर सारे बूढ़े मिल जाएँगे। उसी आदमी ने मुझे यह भी बताया कि वृद्धाश्रम के संरक्षक एक श्री जी.एन. मुखर्जी है। बगल में ही उनका अपना मकान है, और वे वही रहते हैं। मुखर्जी साहब को अपनी कोई संतान नहीं है वे राँची यूनिवर्सिटी में किसी ऊँचे पद पर थे वहाँ से रिटायर होने के बाद, अब कई समाजसेवी संस्थाओं के संरक्षक है। राँची के वे काफी प्रतिष्ठित व्यक्ति है उन्होंने अपना एक मकान भारत सेवा संस्थान को दे रखा है। वे बड़े भले और प्रभावशाली व्यक्ति है। उनसे मिलिए तो न सिर्फ आपकी जरूरत के लिए ठौर मिल जाएगा, बल्कि वे आपके काम में भी आपकी पूरी मदद भी करेंगे।
मुखर्जी साहब की इतनी बड़ाई सुनकर मेरे भीतर की सारी हताशा काफूर हो गई थी और मन खुशियाली से भर उठा था। मैं दूसरे ही दिन उनसे मिलने के लिए उनके घर पहुँच गया। उनके घर के नौकर ने मुझे बताया कि साहब इस समय घर पर नहीं हैं। वे दो बजे घर पर आते हैं खाते पीते और आराम करते हैं। चार बजे के बाद ही वे आपसे मिल सकेंगे। ठीक है मैं चार बजे आऊँगा, ऐसा कहकर मैं वहाँ से चला आया था। आश्रम उनके घर से थोड़ी ही दूर पर था। मेरे पास प्रचुर समय था इसलिए मैं उनका आश्रम देखने के लिए वहाँ चला गया।
आश्रम में भारत सेवा समाज के दो सन्यासी रहते थे। वे वहाँ पर एक वृद्धाश्रम चलाते थे। वृद्धाश्रम में एक बूढ़ी बंगाली औरत के सिवाए वहाँ मुझे दूसरा कोई बूढ़ा नहीं दिखा था।
इसी आश्रम में वे लोग गाँव के गरीब आदिवासी बच्चों के रहने खाने और उनकी पढ़ाई की व्यवस्था कर रखे थे। उनकी पाठशाला में उस समय करीब चालीस बच्चे रहे होंगे। उस समय वहाँ कक्षाएँ चल रही थीं और बाहर बरामदे में बच्चों के लिए दोपहर का भोजन बन रहा था। आश्रम के दोनों सन्यासी उस दिन जमशेदपुर गए हुए थे। वहीं पर बाहर मुझे एक युवक मिला जो शायद उसी पाठशाला में शिक्षक था। उससे मैं अपनी कहानी बताया और मुखर्जी साहब के बारे में पूछा तो उसने भी मुझे बताया कि मुखर्जी साहब बड़े भले और प्रभावशाली आदमी हैं उनसे आप मिलिए मुझे विश्वास है कि आपके काम में वे आपकी पूरी मदद करेंगे।
आश्रम एक बड़ी चहार दीवारी के भीतर था। उसमें दो तल्ले की एक बड़ी बिल्डिंग थी, और उसके इर्द-गिर्द काफी जमीन खाली पड़ी थी। जितनी जगह वहाँ फादिल पड़ी थी, उसे देखकर मुझे काफी उम्मीद बंधी कि मुखर्जी साहब जब समाज सेवा में इतने समर्पित आदमी है तो यहाँ मुझे थोड़ा सा ठौर तो दे ही देंगे। वे राँची के प्रतिष्ठित और प्रभावशाली आदमी भी है ऐसे में उनके प्रभाव से मुझे स्थापित होने में भी काफी मदद मिल जाएगी।
ठीक चार बजे मैं मुखर्जी साहब से मिलने उनके घर पहुँच गया। मुखर्जी साहब ने बड़ी इज्जत के साथ मुझे अपने बरामदे में पड़ी कुर्सी पर बैठाया। अपना परिचय देने के बाद राँची के अपने संस्थान का नाम, जहाँ मैं आठ सालों तक नौकरी किया था, उन्हें बताया। इसके बाद मैं अपनी सारी राम कहानी विस्तार से उन्हें सुना गया था। पहले तो मुखर्जी साहब मेरे साथ अकेले ही बैठे मुझसे बतिया रहे थे लेकिन थोड़ी ही देर में उनकी पत्नी भी उनकी बगल आकर बैठ गई थी। मैं जब अपनी सारी कहानी बता चुका तो उन्होंने मुझसे पूछा आप मुझसे किस तरह की मदद चाहते हैं? मैंने उन्हें बताया कि मैं आपसे किसी तरह की आर्थिक मदद नहीं चाहता। यदि आप मुझे खड़ा होने लायक एक ठौर देकर मेरे काम में अपना मॉरल और सार्थक सहयोग दे दें तो मेरा सारा काम बड़ा आसान हो जाएगा। मुखर्जी साहब मेरी बात सुनकर शरारती नजरों से मुझे थोड़ी देर ताकने के बाद, बगल बैठी अपनी पत्नी से मशविरा करने के लहजे में पूछा था कि इन सज्जन को मैं मास्टर साहब झा जी के पास भेज देता हूँ। इन्हीं की तरह वे भी धुरफंदिहा आदमी है। दोनों की जोड़ी ठीक बैठेगी।
झाजी वहीं पर कहीं, अपना एक स्कूल खोल रखे थे। उनके स्कूल में पढ़ाई होती थी या नहीं यह तो मैं नहीं जानता लेकिन उसी की आड़ में वे शिक्षा जगत में व्याप्त सारे उल्टे पल्टे काम किया करते रहे होंगे, और इसको लेकर वे काफी बदनाम हो चुके रहें होंगे। मुखर्जी साहब के साथ भी उन्होंने कोई घुरफंद किया होगा, जिसके चलते मदद चाहने वाले लोगों से उन्हें चिढ़ हो गई थी। मुझसे सारी कहानी सुनने के बाद वे मुझे भी झाजी की तरह ही धुरफंदिहा आदमी समझ बैठे थे, इसलिए उन्होंने पत्नी से ऐसी बात कहा था। उनकी पत्नी तो शायद मुझे देखते ही अनुमान लगा ली थी कि मैं कोई धुरफंदिहा आदमी ही हूँ इसीलिए वे हम दोनों के बीच जबर्दस्ती आकर बैठ गई थी, और हमारी बातें सुनने लग गई थी। उनका बार-बार पहलू बदलने का अंदाज, मुख मुद्रा और देह की भाषा देख, मैंने अनुमान लगा लिया था, कि उन्हें मेरी बातें कतई पसंद नहीं आ रही हैं उसे सुनकर वे भीतर ही भीतर सुलगी जा रही है। मेरा अनुमान पूरी तरह सही था, क्योंकि जैसे ही मुखर्जी साहब उनकी तरफ मुड़कर, उनसे मुझे झॉजी के साथ लगा देने की बात कहा था वे एकदम से एटम बम की तरह फूट पड़ी थी। तुमी एई मोतुन ठोग के झॉजी के दीतेजाच्छो कैनो? तुरंत फोन कोरे पुलिस के बुलाओ तुम इस तरह के ठग की झॉजी को क्यों देते हो अरे तुरंत फोनकर के पुलिस को बुलाओ, और इसे उसके हवाले कर दो। पुलिस जब इसकी गांड़ पर चार बेंत लगाएगी तो इसकी सारी धुरफंदी अपने आप झड़ जाएगी। मिसेज मुखर्जी इतना कह लेने के बाद भी शांत नहीं हुई थी, वे उसी तरह क्रोध में बड़बड़ाती वहाँ से उठी थी और अपने ड्राइंग रूम में जाकर पुलिस को बुलाने के लिए फोन घुमाने लग गई थी। दांड़ाओ तुमार दारा एटा हो बेना.... आभी निजेई पुलिस के फोन मिला छी (रूको तुमसे यह काम नहीं होगा मैं खुद जाकर पुलिस को फोन करती हूँ)
मिसेज मुखर्जी का वह रौद्र रूप देख मेरी तो जान ही सूख गई थी। पत्नी अचानक ऐसा रौद्र रूप धर लेगी इस बात का गुमान शायद मुखर्जी साहब को भी नहीं था। उसका वह रूप देख वे भी क्षणभर के लिए असहज हो उठे थे। सर देखिए आप लोग मुझे गलत आदमी समझ बैठे हैं में कैसा आदमी हूँ आप चाहे तो फोन करके मेरे बैंक के लोगों से मेरे बारे में पूछा लीजिए, सर... डर के मारे मेरी जुबान और गला उस समय पूरी तरह सूख गया था। इतना प्रभावशाली व्यक्ति जब मुझे पुलिस के हवाले कर देगा तो पुलिस भी मेरी कोई दलील क्यों सुनने लगेगी। वह मुझे मार मारकर जो मेरी कचूमड़ निकालेगी वह तो निकालेगी ही, यदि उसने मुझे जेल में ठूँस दिया तो इस उम्र में मेरी जो दुर्गति होगी उसकी कल्पना करके ही मैं अधमरा हो रहा था। सर........ मैं, वैसा आदमी नहीं हूँ, सर..... आप चाहे तो मेरे बैंक के लोग से मेरे बारे में पता कर लीजिए। मेरा गिड़गिड़ाना देख शायद मुखर्जी साहब को मुझ पर दया आ गई थी। उन्होंने पत्नी से पुलिस को फोन करने से मना करते हुए उसे अपने पास बुलाया था। थाक फोन कोरते, घोष बाबू ओई बैंके आछेन ना उनाके फोन कोरे पता कोरे नीछी..... रूको पुलिस को फोन मत करो, उसी बैंक में घोष बाबू है न मैं अभी उन्हें फोन करके इनके बारे में पता कर लेता हूँ। मुखर्जी साहब के मना करने पर उनकी पत्नी फोन का चोंगा क्रैडिल पर पटक कर अपना पाँव पटकती बरामदे में आकर खड़ी हो गई थी। ठीक आछे जाओ, पूछो, घोष बाबू थेके ठीक है जाओ घोष बाबू से पूछो। वे मुखर्जी साहब पर बुरी तरह खफा थी। पुलिस को फोन करने से उनका मनाकरना उन्हें अच्छा नहीं लगा था। हाँ सर आप जिससे चाहें बेशक मेरे बारे में पता कर सकते हैं। मुखर्जी साहब ने क्या सोचकर उस दिन मुझे छोड़ दिया था, यह तो मैंने ही जानता लेकिन उस दिन की घटना ने मुझे विमूढ़ की स्थिति में पहुँचा दिया था। वहाँ से लौट कर आया था तो कई दिनों तक मैं घर में बंद रहा था। मेरी कहीं बाहर निकलने की इच्छा ही नहीं हुई थी।
घर में बैठकर मैं सोचता रहता कि आखिर मुझसे चूक कहाँ हुई है? मैं कहाँ गलत हूँ। कभी कभी तो मुझे लगता कि यह पूरी दुनिया फरेबी है। जो कुछ यहाँ होता है सब फरेब ही होता है। परोपकार और समाज सेवा जैसी धर्मों और किताबों में कही हुई बातें सिर्फ कहने के लिए कही गई हैं। असलियत में उनका महत्व न तो लोग देते है न समाज देता है। स्वामी विवेकानंद और मदर टेरेसा जैसे लोग जिनके पीछे पूरा हुजूम था वही यह काम कर सके थे मुझ जैसे आदमी के बस का यह काम नहीं है। लेकिन उन्होंने भी यह काम कहाँ अपने बूते किया। या तो पहले वे महान बने थे उसके बाद समाजसेवा जैसा काम शुरू किए या धर्म के माध्यम से इस क्षेत्र में सफल हुए। धर्म ही एक ऐसा सशक्त माध्यम है, जिसके बल पर आदमी समाजसेवा जैसा काम कर सकता है, अन्यथा मुझ जैसा आदमी अपना कलेजा भी फाड़कर रख दे तो भी लोग उसे ठग और धूर्त ही समझते हैं।
उस समय मैं बुरी तरह निराश था।, कहाँ जाऊँ क्या करूँ, मुझे कुछ सुझाई नहीं पड़ता था। कभी कभी मैं इतना उदास हो उठता कि मुझे डिप्रेशन सा होने लगता। उदासी दूर करने के लिए मैं कॉके डैम पर धंटों बैठा रहता। जीवन मुझे एकदम रीता और निस्सार लगता। इसी तरह एक दिन जब मेरा मन बहुत उदास था, तो सोचा चलकर साहू जी से भेंट कर आता हूँ। अपनी नौकरी के सिलसिले में जब मैं, राँची ट्रांसफर होकर आया था, तो शुरू शुरू में मांडर कालेज के संस्थापक साहू जी जो वहाँ के प्रिसिंपल भी थे, उनके मकान में भाड़े का घर लेकर कुछ दिनों तक रह चुका था। उनका मकान इंद्रपुरी में है। इंदिरा गांधी जब प्रधानमंत्री थी और कार्तिक रॉव उनकी कैबिनेट में रेलमंत्री थे तो साहू जी अपने कालेज की स्थापना और उसको मान्यता दिलाने के लिए कार्तिक बाबू से जुगत् भिड़ाकर इंदिरा जी के पास तक पहुँच गए थे। उनके साथ अपनी मुलाकात का किस्सा सुनाते समय वे अब भी इतना उत्तेजित और आत्म विभोर हो उठते थे, जैसे कि वे इंदिरा जी से अभी अभी मुलाकात करके उनके चैंबर से बाहर निकले हों। साहब कहाँ राजा भोज और कहाँ गंगुवा तेली। इंदिरा जी के पास पहुँचने की मेरी कहाँ औकात थी। वह तो कार्तिक बाबू की कृपा थी कि मैं उनके पास पहुँच गया था। जिस समय मैं उनसे मिला था, उस समय वे रेल मंत्रालय में बैठी फाइलें देख रही थी। इंदिरा जी के पास जब वे पहुँचे थे तो उन्हें देखकर उनको जैसी अनुभूति हुई थी उसे सुनाते हुए वे अब भी पुलक और रोमांच से भर उठते थे। वाह कितना दिव्य चेहरा था उनका। चेहरा ही नहीं, उनका समूचा परिवेश और शरीर अलौकिक दिखता था। उन्हें देखकर लगता था जैसे उनकी शरीर से तेज बरस रहा हो। जब सेक्रेटरी ने उन्हें अंदर बुलाया और वे इंदिरा जी के सामने खड़े हुए तो उन्हें देखकर वे इतना रोमांचित हो उठे थे, कि उन्हें वे नमस्ते या प्रणाम तक करना भूल गए थे। इंदिरा जी ने इनसे पूछा बोलिए साहू जी क्या कहना चाहते है? वाह क्या आवाज थी उनकी और इतनी बड़ी पर्सनालिटी लेकिन इतनी शालीनता वाह वाह, इंदिरा जी के पूछने पर भी साहू जी के मुँह से कुछ नहीं निकला था। उन्हें ख्याल ही नहीं रहा कि वे क्या बोलें और जब उन्हें ख्याल आया कि मुझे इंदिरा जी से अपनी जो बात कहना है उसे कह देना चाहिए फिर भी, सारी कोशिशों के बावजूद उनकी जुबान से एक शब्द तक नहीं फूटा था। सेक्रेटरी उनकी हालत देख समझ गया था कि वे बोलना तो चाहते हैं लेकिन बोल नहीं पा रहे हैं, तो उसने ही इंदिरा जी को बताया था कि साहू जी अपना यही उद्देश्य लेकर आपके पास आए हैं। इंदिरा जी से मिलने के बाद न सिर्फ साहू जी का सारा काम हो गया था, बल्कि राँची के लोगों में उनकी अच्छी धाक भी जम गई थी।
मैं साहू जी से, इसके पहले, अपनी जिस योजना और उद्देश्य को लेकर राँची आया था, उस पर विस्तार से चर्चा कर चुका था। उस समय वे मेरे इस नेक काम के लिए मेरी काफी प्रशंसा किए थे। और उस दिन जब मैं सब तरफ से थक हारकर उनके पास पहुँचा था और इतने दिनों में मेरे साथ क्या गुजरी थी उसे बिस्तार से उन्हें सुनाया था तो उसे सुनकर वे बड़ी जोर से हँसे थे। साहब आप सारी जिंदगी इसी तरह दौड़ते रहिएगा लेकिन आप कुछ नहीं कर पाइएगा, और लोग आपको इसी तरह ठोंकरे मारते रहेंगे। मैं जैसा कहता हूँ आप वैसा करिए और तब देखिए कि आप चुटकियों में कहाँ से कहाँ पहुँच जाते हैं। और अगर आप में वैसा करने की हिम्मत न हो तो आप मुझे कहिए मैं करता हूँ, लेकिन जब मैं करूँगा तो आपको अपनी तरफ से कुछ नहीं बोलना है, मैं जितना कहूँगा उतना ही आपको बोलना और करना होगा देखिए महीने भर के अंदर आपका काम हो जाता है कि नहीं। साहू जी की बात सुनकर मैं बड़ा असहज सा हो उठा था। मुझे लगा था जैसे साहू जी मेरे काम में मेरी मदद करने के लिए नहीं बल्कि किसी के घर में डकैती डालने के लिए अपना साथ देने के लिए मुझसे पूछ रहे हैं। मेरे चेहरे का भाव देख साहूजी भाँप गए थे कि मैं इसके लिए तैयार नहीं हूँ। सर मैं आपको जानता हूँ आप बड़े सीधे और सरल आदमी हैं और आप उसी तरह इस दुनियाँ को भी वैसा ही सीधा और सपाट समझते हैं लेकिन स्सर यह दुनिया बड़ी अजीब है बड़ी उल्टी खोपड़ी की है यह। नाचै गावे तोरै तान तब राखै कलहू या मान, कलियुग में आप करिए कम, ढोंग आंडवर ज्यादा करिए तो लोग आपको कंधे पर बिठाएँगे। हम अच्छे हैं, बड़ा नेक काम करने के ढर्रे पर चल रहे हैं जैसी भावना लेकर आप चूतियों जैसा मुँह बनाकर लोगों के सामने खड़े होइएगा, तो लोग आपके चुत्तड़ पर लात ही मारेगें। मुझे तो ताज्जुब इस बात को लेकर है कि लोग अभी तक आपको लतियाए क्यों नहीं? साहू जी इसके बाद अपना किस्सा सुनाने लग गए थे। मांडर में उस समय कोई कालेज नहीं था सोचा यहाँ एक कालेज खोल दिया जाए तो इस आदिवासी और पिछड़े इलाके में लड़के लड़कियों का जीवन बदल जाएगा। यही उद्देश्य लेकर मैं मिनिस्टर से लेकर जिसके पास मुझे थोड़ी सी भी मदद की आस होती उसके पास पहुँच जाता। उस समय न तो मुझे खाने की फिकर होती थी, न सोने की। कभी कभी तो मैं किसी किसी के यहाँ रात दो बजे पहुँचकर उसका दरवाजा खटखटा देता। लोग मुझे देखकर हैरान हो जाते इतनी रात में यह सख्स यहाँ? मेरी वैसी हालत देखकर लोग मुझे पागल समझने लग गए थे। लेकिन मेरे दिमाग में कालेज स्थापित करने का जुनून सवार था। गाँधी जी जिस तरह एक भगई, बाँधकर भारत को स्वतंत्रता दिलाने के लिए पिले पड़े थे उसी तरह मैं अपने कालेज की स्थापना को लेकर पिला पड़ा था। उस समय मेरे पास एक भी पैसा नहीं था। कॉलेज के लिए जमीन भी नहीं थी मेरे पास। योजना मेरे दिमाग में थी और कालेज के लड़के, बिल्डिंग, शिक्षक, जगह जमीन सब मेरे झोले में थी, लोगों के पास मैं पहुँचता तो लोग मुझे अच्छा अच्छा कहकर टरका देते। जब मैं सब तरफ से निराश हो गया तो मैं कार्तिक बाबू से मिला और यह हथकंडा अपनाया। अगर मैं वैसा नहीं करता तो मैं कालेज थोड़े स्थापित कर पाता। लेकिन जैसे ही इंदिरा जी का वरदहस्त मुझ पर पड़ा, राँची युनिवर्सिटी के बी.सी. और सरकारी विभाग के बड़े से बड़े अधिकारी हाँ हुजूरी करते मेरे पीछे घूमने लग गए थे।
साहू जी से मैंने पूछा कि इसके लिए मुझे क्या करना होगा? उन्होंने कहा पहले आप हाँ तो करिए फिर देखिए मैं आपको कैसे स्थापित करता हूँ। फिर भी....? मेरे पूछने पर उन्होंने बताया कि मैं आपके काम का श्रीगणेश करने के लिए किसी हाल में उसका उद्धाटन यहाँ के मुख्यमंत्री से करवाऊँगा। चूंकि आपका काम, समाज सेवा से संबंध रखता है इसलिए मुझे पूरा भरोसा है कि मुख्यमंत्री जी इसका उद्धाटन करने के लिए जरूर तैयार हो जाएँगे। अरे यह नेतवा सब लोकप्रियता, हासिल करने के लिए इस तरह के काम में बढ़ चढ़कर हिस्सा लेता हैं उन्होंने इसके उद्धाटन में मुख्यमंत्री के शामिल होने का राज मुझे बताया। अगर मुख्यमंत्री जी इसके लिए तैयार नहीं हुए, तो मैं किसी मंत्री को इस काम के लिए पकड़ लूँगा। इस उद्धाटन अवसर पर शहर के मांनिद लोगों, सरकारी विभागों तथा व्यापारिक और औद्योगिक प्रतिष्ठानों के शीर्ष अधिकारियों और प्रेस, टी.बी. रेडियो वालों को भी आमंत्रित करूँगा। वैसे कोई मिनिस्टर या मुख्यमंत्री इस तरह के आम लोगों के हित के काम का उद्धाटन करते है तो मीडिया अपने आप वहाँ पहुँच जाता है। जब राज्य के चीफ मिनिस्टर या किसी मंत्री का हाथ आपके ऊपर आ गया तो फिर आपको पूरे झारखंड में कहीं भी अपना परिचय देने की जरूरत पड़ेगी क्या? सरकारी अमला तो आपके पीछे हाथ जोड़े घूमेगा।
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क्रमशः अगले अंकों में जारी...
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रचनाकार संपर्क:
आर. ए. मिश्र,
2284/4 शास्त्री नगर,
सुलतानपुर, उप्र पिन - 228001
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