संस्मरण दुनिया गोल है 4 - सोमेश शेखर चन्द्र दूसरे दिन मैं उन लोगों के इंतजार में घंटों बैठा रहा था लेकिन न तो मुझे बच्ची दिखी...
संस्मरण
दुनिया गोल है 4
- सोमेश शेखर चन्द्र
दूसरे दिन मैं उन लोगों के इंतजार में घंटों बैठा रहा था लेकिन न तो मुझे बच्ची दिखी थी न उसकी माँ और न ही गोपीचंद ही। उनके न मिलने से मैं बड़ा निराश हुआ था।
दरअसल देह से सक्षम भिखारियों को, उद्योग में लगाकर उन्हें अपने पाँव पर खड़ा करने की मेरी योजना कतई व्यवहारिक नहीं थी। वह इसलिए कि जो लोग मंदिर के सामने बैठकर मुफ्त का खाना और दिनभर में पचास सौ रुपए कमा लेते हैं वे भला काम क्यों करने लगेंगे? इसलिए मैं अपनी इस योजना को छोड़ दिया था और भिखारियों के बीच जो बीमार हैं उनकी दवा दारू करवाकर उन्हें रोग मुक्त करने की दिशा में काम करने की सोचा था। इसके लिए एक दिन मैं काली मंदिर के पास बैठे दो तीन भिखारियों से पूछा था कि आप लोगों में से, जो बीमार हैं यदि वे चाहे तो मैं उन्हें अच्छे डाक्टर से दिखलाकर उनकी दवा करवा सकता हूँ। मेरी बात सुनकर भिखारियों के बीच से एक उन्नीस बीस साल की लड़की, जिसकी दोनों आंख की पुतलियों पर सफेद माड़ा चढ़ा हुआ था अपनी आंख का इलाज करवाने के लिए मेरे पीछे पड़ गई थी। बचपन में ही उसकी दोनों आंखें रोग ग्रस्त हो गई थी। किसी कोने से उसे थोड़ा मोड़ा दिखाई पड़ता था इसी से उसका काम चलता था। उसकी दवा करवाने के लिए मैं चर्च कंपाउंड काम्प्लेक्स में, आंख के एक डाक्टर बैठते थे, उनसे मिलकर उन्हें सारी बात बताया तो उन्होंने मुझे बताया कि उसकी आंखें ठीक होने की उम्मीद कम है और उसके इलाज में खर्च भी काफी आएगा। इसलिए उसकी दवा करवाने का अपना इरादा मैंने बदल दिया था।
वहीं का एक भिखारी खुजली से बुरी तरह परेशान था। अपनी देह दिखाकर मुझसे वह घिघियाया कि बाबू मैं रात दिन इसके चलते बेचैन रहता हूँ तू इसकी दवा करवा दे भगवान तुझे आशीर्वाद देगा। मैं उसे, वहीं से थोड़ी दूर पर एक चर्म रोग विशेषज्ञ डाक्टर बैठते थे उन्हें दिखाया। डाक्टर उसे देखने के बाद एक महीने के लिए, कई तरह की खाने, देह में लगाने की दवा तथा नीको साबुन से रोज नहाने को लिखा। जैसा डाक्टर ने लिखा था मैं उसके लिए, महीने भर की दवा और नीको साबुन, दवा की दूकान से खरीद कर, उन्हें किस तरह खाना लगाना है सब कुछ समझा कर उसे दे दिया था। दूसरे दिन उसके पास उसकी हाल जानने पहुँचा था तो वह मुझसे अपना मुंह चुराने लग गया था। क्यों क्या हुआ? दवा खाया? मेरे पूछने पर उसने मुझे कोई जवाब नहीं दिया था। मेरी तरफ, एक दफा ताक कर, वह अपना मुँह दूसरी तरफ घुमा लिया था और अपनी पीठ मेरे सामने करके बैठ गया था। जिस दूकान से मैं दवा खरीदा था वह डाक्टर के क्लिनिक के बगल ही थी और वह आदमी, उस समय मेरे साथ ही था। उसका रवैया देखकर मैं समझ गया था कि यह आदमी सारी दवाएँ, वापस दूकान वाले को देकर उसका पैसा ले लिया है इसलिए वह मुझसे अपना मुंह चुरा रहा है। कोई भी काम शुरू करने पर मुझे लगता मैं इसमें जरूर सफल होऊँगा इसलिए मैं उसमें जी जान से जुट जाता लेकिन दो कदम आगे बढ़ते ही मेरा भ्रम टूट जाता। मैं पिछले कई दिनों से लगातार भिखारियों के बीच पहुँच रहा था इसलिए वहाँ बैठने वाले सारे भिखारी मुझे पहचानने के साथ, साथ यह भी जान गए थे कि मैं वहाँ किस उद्देश्य से आता हूँ। जिस समय मैं उस आदमी से पूछ रहा था कि उसने दवा खाया कि नहीं उसकी बगल बैठी एक बुढ़िया ने मुझसे कहा तू मेरी दवा करवा दे बाबू यह आदमी निकम्मा है इसने सारी दवा बेच दिया। क्या हुआ है तुझे? उसे कोढ़ था। जो भिखारी काली मंदिर के सामने बैठते थे वे कोढ़ियों को शायद अपने बीच नहीं बैठने देते थे इसलिए वह औरत अपने हाथ पांव छिपाकर वहाँ बैठती थी। मैंने कहा ठीक है चल मैं तेरी दवा करवा देता हूँ लेकिन वह मेरे साथ चलने को राजी नहीं हुई थी। बहाने कर दिया था कि मैं आज नहीं, कल तेरे साथ चलूंगी। दूसरे दिन मैं उसके पास गया तो उसने कहा कि मेरी दवा दारू में जो पैसे तू खर्च करेगा उसे मुझे इक्ट्ठे दे दे। मेरा बेटा है वह मेरी दवा करवा देगा। उसकी बात से मैं समझ गया था कि वह बड़ी चालाक औरत है समझती होगी बाबू पैसे वाला आदमी है इसलिए लोगों की दवा दारू करवाने के लिए, उनके पीछे पड़ा रहता है। वह मुझसे पैसा ऐंठने की फिराक में थी।
उस समय काश्मीर के अब्दुल गनी लोन राँची की किसी जेल में बंद थे। सी आईडी वाले शहर में घूम रहे थे। एक सी आई डी जो भिखारी के वेश में घूम रहा था मुझसे मिला और बोला बाबू मेरी दवा करवा दे। यह भिखारी भला मुझे कैसे जान गया? ठीक है, मैं आपकी दवा करवा दूँगा लेकिन आपको हुआ क्या है? मुझे दमा है बाबू, उसने मुझे बताया था। मैं जान तो गया था कि वह शख्स सी आई डी का आदमी है फिर भी मैं उसके बारे में पक्का नहीं था हो सकता है वह भिखारी ही हो। मैंने उससे कहा आज तो देर हो चुकी है दमे की दवा लालपुर में डाक्टर अग्रवाल बहुत अच्छा करते हैं आप सुबह दस बजे यही मुझसे मिलिए मैं आपको उनके पास ले चलूंगा। दूसरे दिन दस बजे से लेकर एक बजे तक मैं वहां खड़ा उसका इंतजार करता रहा था लेकिन वह नहीं लौटा था।
डाक्टर अग्रवाल, जिनके यहाँ मैं उसे ले जाना चाहता था, लालपुर बैंक आफ इंडिया के क्षेत्रीय कार्यालय के पास उनका अपना घर है। वे वही पर अपना क्लिनिक भी चलाते हैं। वे एलोपैथ के बड़े डाक्टर है। इंगलैंड में, काफी दिनों तक रहकर वहां डाक्टरी करने के बाद, वापस भारत आ गए थे। यहाँ आकर अपनी एलोपैथी की प्रैक्टिस छोड़ कर, जड़ी बूटियों से लोगों का उपचार करने लगे थे। मेरी शुरुआती योजना गांव में रह कर लोगों को दूसरे धंधों के साथ-साथ जड़ी बूटियों की खेती करवाकर उनकी आमदनी बढ़ाने की थी इसलिए मुझे किसी ऐसे आदमी की तलाश थी जिसे उसका अच्छा अनुभव और ज्ञान हो। राँची आने के बाद मैं अपनी योजना का जिकर अपने एक मित्र से किया था तो उसने मुझे डाक्टर अग्रवाल के बारे में बताया था। साथ ही उसने यह भी बताया था कि वे बड़े अच्छे आदमी हैं। उनसे आपको, जड़ी बूटियों के बारे में ढेर सारी जानकारी जो मिलेगी वह तो मिलेगी ही, राँची के वे एक प्रतिष्ठित और प्रभावशाली शख़्सियत भी हैं। उनसे आपको समाज सेवा के काम में भी बड़ी मदद मिलेगी। मित्र ने डाक्टर अग्रवाल से फोन से बात करके उसी समय उनसे मुझे मिलवाने का समय भी ले लिया था।
मैं डाक्टर अग्रवाल से उनके क्लिनिक पर मिलकर उन्हें, राँची आने का अपना उद्देश्य और अपनी योजना के बारे में विस्तार से बताया। साथ ही उनसे निवेदन किया कि वे मुझे जड़ी बूटियों के बारे में कुछ बता सकें तो मेरे काम में मुझे बड़ी मदद मिलेगी। डाक्टर साहब काफी भले, स्पष्टवादी और सुलझे हुए व्यक्ति थे। मेरी बात सुनकर वे समझे कि मैं किसी कंपनी का एजेंट हूँ। कंपनियाँ आजकल जंगलों और पहाड़ों में पैदा होने वाली जड़ी बूटियों का बेतहाशा दोहन कर रही हैं जिसके चलते उनके लुप्त होने का खतरा बढ़ गया है इसलिए डाक्टर साहब ने मुझे आगाह किया था कि आप ऐसा काम न करें, जिससे हमारी वन संपदा खत्म हो जाए। उस समय अपनी सफाई में कुछ कहने का कोई अर्थ नहीं था इसलिए मैं चुप लगा गया था। उस सी.आई.डी. दमा के रोगी का इलाज मैं इन्हीं डाक्टर साहब से करवाने की सोचा था लेकिन दूसरे दिन वह मुझे मिला ही नहीं। काली मंदिर के पास के भिखारियों के बीच जाना बंद करके मैं बीमारों की तलाश में शहर के दूसरे इलाकों में घूमने लग गया था। इसी घूमने के क्रम में एक दिन, स्टेशन के उस पार निवारनपुर की तरफ सड़क के किनारे पड़ी, मुझे एक बुढ़िया दिखी थी। एक मैला कपड़ा अपनी बगल बिछाकर वह जमीन पर पड़ी कराह रही थी। उसकी कराह सुनकर मैं उसके पास खड़ा हो गया था। मैंने उससे पूछा तुझे क्या हुआ है नानी? मेरे पूछने पर वह अपनी जगह पर उठकर बैठ गई थी और कराहते हुए मुझे बताया था कि बड़ी तकलीफ है बेट्टा ऽ ऽ लेकिन तुझे तकलीफ क्या है? बड़ा बीमार हूँ बेटा। वह तो मैं देख रहा हूँ। चल उठ तुझे मैं डाक्टर के पास ले चलता हूँ चलेगी? इस एरिया के अच्छे डाक्टर से तेरी दवा करवा देता हूँ। सुनते ही वह चौकन्नी हो गई थी। बोली तू जितना पैसा मेरी दवा में खर्च करेगा मुझे दे दे बाबू मैं अपनी दवा खुद करवा लूँगी। आदमी जैसा दिखता है वैसा होता नहीं है। चालाकी और धोखा देने की उसकी सहजवृत्ति मौका पाते ही उसमें सक्रिय हो जाती है।
बीमार भिखारियों की दवा कराने की अपनी योजना में भी वही निराशा मेरे हाथ लगी थी। उस तरफ से निराश होकर मैं सोचा था कि चलकर कोढ़ियों के बीच कुछ काम करता हूँ। डोरडा जाने के लिए ओवरब्रिज के नीचे नाले के किनारे कोढ़ियों की एक पूरी बस्ती ही है। सरकार की तरफ से उनके रहने के लिए मकान बनवाए गए हैं, जहाँ बिजली और पानी की अच्छी व्यवस्था है। अपने यहाँ कोढ़ बड़ा खराब रोग माना जाता है। पूरे भारत में लोगों की कमोबेश एक ही धारणा है कि कोढ़ बड़ी घिनौनी और छुतही बीमारी है। इसी धारणा के चलते अपने यहाँ किसी को अगर यह बीमारी पकड़ लेती है तो उस व्यक्ति का परिवार ही नहीं बल्कि गाँव और समाज, उसे अपने बीच से बहिष्कृत कर देता है। परिवार के लोगों को पता चलते ही कि इसे कोढ़ हो गया, उसे अपने घर से निकाल देते हैं। नहीं निकाले तो लोग उसके घर आना जाना, खाना पीना तक बंद कर देते हैं। उनके घरों के बेटे बेटियों का शादी व्याह तक रूक जाता है। धनबाद, पुरूलिया बोकारो, राँची क्षेत्र में कोढ़ियों की संख्या बहुत अधिक है। सभी रोगियों के अपने बाल बच्चे घर परिवार सब कुछ है लेकिन इसी मानसिकता के चलते वे लोग अपने घर से निकाल दिए गए होते हैं।
राँची के ओवरब्रिज के नीचे बहुत से ऐसे मरीज हैं जिसमें पति-पत्नी दोनों को कोढ़ हैं और उनको बच्चे भी पैदा होते हैं। इस इलाके के घरों में यदि किसी औरत को कोढ़ हो जाती है तो उसका मर्द उसे छोड़ देता है। ऐसी औरतों के अपने छोटे बच्चे होते हैं तो उन्हें भी साथ लेकर इसी तरह की जगहों पर चली जाती है। इस तरह कोढ़ियों के बच्चे जो अपनी माओं के साथ वहाँ आए हुए हैं या यहीं पैदा हुए हैं वे बड़े होकर भी यहीं रहते हैं और शादी ब्याह करके अपना घर बसा लिए हैं।
कोढ़ियों से मिलने के लिए पुल से नीचे उतर कर सड़क पर पहुँचा तो, ऊपर ही मुझे बाइस चौबीस साल का एक लड़का मिल गया था। उससे बात करने लगा तो पता चला कि वह यहीं कोढ़ियों के साथ रहता है और रिक्शा चलाता है। मैंने उससे पूछा कि यहाँ के लोगों का खाना पीना और दूसरी जरूरतें कैसे पूरी होती है? उसने बताया बस माँग जाँचकर जो मिलता है उसी में उनका किसी तरह गुजर हो जाता है। कितने लोग होंगे यहाँ ? यही करीब डेढ़ दो सौ लोग होंगे उसने मुझे बताया था।
मेरा अपना विचार था कि अगर कम लोग होंगे तो मैं उनके राशन पानी का इंतजाम कर दिया करूँगा। लेकिन आदमी ज्यादा थे और मैं इतने लोगों की व्यवस्था नहीं कर सकता था, इसलिए मैंने सोचा, अगर ए लोग कुछ काम करें, वही अगरबत्ती, मोमबत्ती और साबुन बनाने जैसा काम, तो इन्हें भीख माँगने की जरूरत नहीं पड़ेगी। मैंने लड़के को समझाया कि भीख मांगने से तो अच्छा है कि ए लोग कुछ काम करे। क्या यहाँ के लोग इस तरह के काम करने के लिए राजी होगें? मैंने उससे पूछा तो उसने कहा कि इसे जानने के लिए लोगों से पूछना होगा। ठीक है सबको बुलाओ उनसे अभी ही पूछ लेते हैं। मैं उसके साथ सड़क से नीचे उतरकर उनकी बस्ती में गया। लड़का लोगों के दरवाजे दरवाजे घूमकर उन्हें बताया कि यहाँ पर एक बाबू आए हुए हैं वे आप लोगों से कुछ कहना चाहते हैं। उसके बुलाने पर कालोनी में मौजूद करीब करीब सभी लोग वहाँ आकर इकट्ठा हो गए थे। मैंने उनको बताया कि आप लोग अपने बसर के लिए भीख मांगते हैं। इसमें से कई लोगों के बच्चे भी है। अगर आप लोग यहीं रहकर, कुछ काम करके आमदनी करना चाहें तो मैं इसकी व्यवस्था कर सकता हूँ। इससे होगा कि आप न सिर्फ इज्जत की रोटी खाइएगा बल्कि अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा भी दे सकिएगा। थोड़ी देर तक तो सब मेरी बात बड़े धीरज के साथ सुने, उसके बाद वे एक एक करके वहाँ से खिसकने लगे थे और मेरी बात खत्म होने के पहले ही सबके सब वहाँ से खिसक लिए थे। मैं यह देखकर हैरान था कि आखिर सबके सब वहाँ से भाग क्यों गए? मैंने इसका कारण, उस लड़के से पूछा था तो वह बड़ा भोला बनते हुए अपने कंधे उचकाकर इस पर अपनी अनभिज्ञता प्रकट कर दिया था।
दरअसल उनके यहाँ से भाग खड़ा होने के पीछे कारण यह था कि शहर के धनी लोग, उनके बीच साड़ी, धोती, कंबल, रुपया, अनाज, अक्सर वहाँ आकर बाँटते रहते हैं। लोगों को जब बुलाया गया तो उन्होंने समझा कि कोई दानी बाबू आया हुआ है इसलिए कुछ पाने की लालच में, सबके सब इकट्ठा हो गए थे। लेकिन जब उन्होंने देखा था कि बाबू कुछ देगा नहीं बल्कि काम करने की बात कर रहा है तो वे सबके सब भाग खड़े हुए थे। लेकिन उनमें से एक जोड़ा पति पत्नी जिनके बच्चे भी थे और उन्हीं के घर के सामने मैं खड़ा था, इसके पहले वे अपने घर में बैठकर ही मेरी बातें सुन रहे थे, सबके चले जाने के बाद, वे अपने घर से निकलकर मेरे पास चले आए थे। हम दोनों काम करेंगे बाबू, बोल हमें क्या करना होगा? उन दोनों की काम करने की इच्छा देख मैं बड़ा खुश हुआ था। सोचा पहले इन दोनों को लेकर अगरबत्ती बनाने का काम शुरू करवाता हूँ। जब इन लोगों को फायदा होने लगेगा तो उसे देखकर दूसरे लोग भी इससे जुड़ने लगेंगे और धीरे-धीरे इससे काफी लोग जुड़ जाएँगे। मैं उस लड़के से कहा कि यह काम चल निकला तो अच्छी आमदनी देगा, इसलिए तुम्हें भी यह काम कर लेना चाहिए। वह तैयार हो गया। मैंने उस लड़के से पूछा तुम लोग अगरबत्ती, मोमबत्ती, बनाई कैसे जाती है जानते हो क्या? नहीं जानता, उसने मुझे जवाब दिया था। मैं भी नहीं जानता था। इसलिए लड़के से कहा कि मैं दो तीन दिन बाद तुमसे फिर मिलूँगा। इस बीच मैं इसकी सारी जानकारी लेने की कोशिश करता हूँ।
शहीद चौक की बगल सिद्धि विनायक नाम की अगरबत्ती की एक दुकान है। सुना वे लोग खुद अपनी अगरबत्तियाँ बनाते हैं। बताने वाले ने यह भी बताया कि इसके मालिक बड़े अच्छे आदमी है। सारा कारोबार अब उनके बच्चे देखते इसलिए वे समाजसेवा का काम करते हैं। जब मैंने सुना कि वे सज्जन समाजसेवा का काम करते हैं तो मुझे अपने इस काम में उनके सहयोग की उम्मीद बढ़ गई थी। वे दुकान में कभी कभार ही आते थे। दरअसल उस समय राँची बड़ी खतरनाक जगह हो गई थी। व्यापारियों का अपहरण करके उनसे फिरौती में मोटी रकम वसूलने और उन्हें जान से मार देने जैसी घटनाएँ आए दिन होती रहती थी इसलिए इसे लेकर व्यापारी वर्ग में काफी दहशत थी। मैं कई दिनों तक उनकी दुकान पर जाकर उनसे मिलने की कोशिश किया लेकिन वे नहीं मिल सके। उनके लड़के से अपनी बात विस्तार से बताया तो उसने मुझे सुझाव दिया कि गया में बनी बनाई अगरबत्तियाँ मिलती हैं। वहाँ से थोक में खरीद कर ले आइए। उसका सेंट बाजार में मिलता है उसे काँटियों पर छिड़ककर उनका पैकिंग करवाइए बस अगरबत्ती तैयार।
कोई भी उत्पाद आदमी बना तो लेता हैं लेकिन उसे बेचना बड़ा मुश्किल काम होता है। मैं अपने लोगों से अगरबत्ती बनवाकर आपको दूँ तो आप उसे खरीदिएगा? इसके लिए वह तैयार नहीं हुआ था। किसी ने मुझे बताया कि खादी वाले कुटीर उद्योग में बनी अगरबत्तियाँ खरीदते हैं। इस बात की जानकारी लेने के लिए मैं शास्त्री मार्केट की खादी की दुकान में गया तो उन लोगों ने मुझे बताया कि खरीदने का काम दुकान वाले नहीं बल्कि इसी विभाग की एक दूसरी एजेंसी करती है। वही पर मुझे पता चला कि यहाँ पर जो भी सामान खरीदा जाता है, उसकी बिक्री होने के बाद ही एजेंसी, बनाने वाले को पैसा देती है। मैं उस खरीदी केन्द्र के अधिकारी से मिला तो सरकारी दफ्तरों के लोगों का जैसा लद्धड़ रवैया होता है बही टालू और उदासीन रवैया उस अधिकारी का भी मुझे दिखा। इसलिए मैंने सोचा कि अगर कोई सामान मैं तैयार भी करवाऊँ और वह बिकेगी नहीं तो मेरा सारा श्रम और पैसा बेकार जाएगा। बेचने को लेकर एक बार का वाकया मेरे दिमाग में अब भी ताजा था। हुआ यूँ था कि एक दिन मैं बस से भागलपुर स्टैंड पर उतरा तो एक आठ नौ साल की लड़की जो मुसाफ़िरों के बीच पापड़ बेच रही थी मेरे पास पहुँची। दरअसल उसके घर की औरतें, पापड़ अपने घर में बनाकर लड़की को पकड़ा दी थीं कि जाओ तुम इसे बाजार में बेच आओ। जब मैं बस से उतरा तो लड़की मेरे पास आकर मुझसे गिड़गिड़ाई कि बाबू पापड़ ले लो घर का बना बहुत अच्छा और ताजा पापड़ है सस्ता भी बहुत है। हम लोग पापड़ नहीं खाते, वैसे मुझे पापड़ की जरूरत भी नहीं थी इसलिए मैं उस लड़की से पापड़ खरीदने से इन्कार कर दिया था। मेरे इनकार करने पर वह दौड़कर मेरा पांव पकड़ ली थी और रूआँसी आवाज में बोली कि, बाबू मेरे धर में खाने को कुछ भी नहीं है, तू खरीद लेगा तो इससे हमें आज का खाना मिल जाएगा। उसकी बात सुनकर मुझे उस पर तरस आ गई थी और मैं उससे तीन पैकेट पापड़, खरीद लिया था। लड़की ने जैसा कहा था पापड़ ताजा था और सचमुच बड़ा स्वादिष्ट था। दरअसल कोई भी उत्पाद जब बाजार में बिकने के लिए जाता है तो उसकी बिक्री में खरीद फरोख्त के बेदर्द नियम लागू होते हैं। ''उत्पाद भिखारियों ने बनाया है इसे खरीदकर आप उन्हें इज्जत की जिंदगी जीने का अवसर देते है'' इस तरह की बातों और नारों से कोई पसीजता नहीं है। यही सब सोचकर मैं अपनी वह योजना वहीं स्थगित कर दिया था।
इसके बाद मैं सोचा कि कोढ़ियों में दस पाँच आदमी जो एकदम अक्षम है और भीख नहीं माँग सकते उनके राशन, पानी कपड़ा लत्ता दवादारू का भार अपने जिम्मे ले लूँ। यही सोच लेकर मैं फिर एक दिन कोढ़ियों के बीच गया था। वहाँ पर एक आदमी को अपनी योजना बताया और उससे कहा कि मैं ऐसे लोगों से मिलना चाहता हूँ। वह आदमी, पूरी तरह अपनी देह से अक्षम हो चुके तीन चार लोगों से मुझे मिलवाया। मैं उनके लिए सारी व्यवस्था में आने वाले खर्च का हिसाब लगाया तो हर महीने राशन का खर्च प्रति व्यक्ति छ: सात सौ रुपए के करीब आ रहा था। उसके बाद कपड़ा और दवा यानी कि चार से पाँच हजार रुपए महीने का कुल खर्च। लेकिन ए लोग अपना खाना बनाएँगे कैसे? मेरे पूछने पर लोगों ने मुझे बताया कि हमीं लोग उनका खाना पीना दवा दारू सब देखते हैं। मैंने कहा ठीक है मैं हर महीने इनका राशन साबुन तेल, सब कुछ खरीदकर रख दिया करुंगा आप लोग वैसे भी इन्हें देखते ही है आगे भी इनकी देखभाल करते रहिएगा। वे लोग इसके लिए राजी हो गए।
कोढ़ियों की बस्ती में घूमने के क्रम में मैंने देखा कि वहाँ पर कई कम उम्र की औरतें, काफी खूबसूरत और साफ सुथरी आम घरों की बहुओं की तरह थी। आदमी जो मेरे साथ था उससे मैंने पूछा ए औरतें कौन है? उसने मुझे बताया कि यह सब यहीं रहती है इनके सास ससुर और मर्द यहीं रहते हैं। क्या करती हैं ए लोग? घर का काम काज करती है और आप लोगों जैसे बड़े आदमी आते हैं तो ...... वह भी करती है। वह मेरी तरफ देख शरारती लहजे में मुसकुराया था जैसे कह रहा हो कि आपको भी जरूरत हो तो.......? लेकिन मैंने उसकी बात पर कोई तवज्जो नहीं दिया था।
वहाँ एक बात मैं और भी गौर किया था कि दिन के समय करीब करीब सभी कोढ़ी बाहर भीख मांगने चले जाते थे और सक्षम और मुस्टंड किस्म के लोग दारू पीकर ताश खेलते थे। सड़क से नीचे उतरने पर बस्ती के पहले एक छोटा सा मंदिर था। मंदिर की बगल में ही एक छोटा गिरजा था। जिसमें प्रभु ईशु की एक मूर्ति रखी हुई थी। योगदासत्संग का, एक कोठरी में बोर्ड लगा हुआ था। मैं इस सबके बारे में उससे कुछ पूछा नहीं सोचा लोग अपनी अपनी मान्यता के हिसाब से अपना पूजा स्थल बना रखे है।
दूसरे दिन मैं अक्षम लोगों के लिए राशन तथा दूसरी जरूरी चीजें खरीदने के लिए दुकान गया तो सोचा खरीदने के पहले उनसे पूछ लूँ कि उनके खाने के लिए आटा खरीदूँ या चावल? दाल में अरहर की खरीदूँ या मसूर की? क्योंकि मैं जानता था कि इस क्षेत्र के लोगों का मुख्य भोजन भात है और भात के साथ वे मसूर की दाल खाते हैं।
सड़क के नीचे उतरा तो एक आदमी, जो अपनी देह दशा से पूरी तरह दुरूस्त था लेकिन उसे भी कोढ़ हो गया था, मुझसे टकरा गया था। वह मेरे बारे में सुन चुका था। उसने मुझे कालोनी के बाहर ही रोक लिया था। वह बड़े निराले किस्म का आदमी था। उसने मुझे कोढ़ियों के बारे में बहुत सारी बातें बताया। गाँव पर उसका अपना अपना पूरा परिवार था। घर पर रहने से उसके बेटे बेटियों की शादी नहीं होती, इसी डर के चलते, वह अपना घर छोड़कर यहाँ चला आया था। उस आदमी को जंगली जड़ी बूटियों से इलाज करने का अच्छा ज्ञान था और वह जब गाँव में रहता था तो जड़ी बूटियों से लोगों की दवा भी करता था। गठिया, दमा तथा इसी तरह के दूसरे असाध्य रोगों का इलाज वह बड़ी सफलता से कर चुका था। बातचीत के दौरान उसने मुझे बताया कि यहाँ पर कोढ़ियों को न तो खाने की कमी है न कपड़े लत्ते और दवा दारू की। मिशन वाले हर आदमी को हर महीने, पन्द्रह दिनों में निर्धारित राशन और कपड़ा देते हैं और मुफ्त की उनकी दवा भी करते हैं। योगदा सत्संग तथा दूसरी कई संस्थाएँ और लोग यहाँ हमेशा कुछ न कुछ देते रहते हैं इसलिए आप इन्हें जो कुछ दीजिएगा वे उसे बेच लेंगे। इनके अपने घर परिवार हैं सबको हर महीने ए लोग रुपया भेजते हैं। बाजार से भी ए लोग माँगते हैं और वहाँ से अच्छी आमदनी कर लेते हैं। उसने मुझे बताया कि ए लोग बहुत पाते हैं। मैं उनकी तरह भीख माँगने का काम नहीं करता। भीख माँगना मुझे पसंद भी नहीं है। इनकी तरह मैं लोगों से पाने के लिए छलकपट भी नहीं करता इसलिए मेरी इनसे पटती नहीं। मुझे, इन लोगों का कोई भी काम पसंद नहीं है, इसीलिए मैं इन लोगों से अलग यहाँ पर अपनी झोपड़ी, डाल लिया हूँ। उस आदमी का टपरा सड़क से उतरते ही बॉईं तरफ था।
उस आदमी से मैं कोढ़ियों के बारे में और ढेर सारी बातें जानना चाहता था। मैं उन सक्षम और मुस्टंड लोगों के बारे में भी जानना चाहता था जो दिन भर, दारू पीकर यहाँ ताश खेलते रहते हैं। उन लोगों को देखने से मुझे लगा था कि वे आपराधिक प्रवृत्ति के लोग है। लेकिन यह सब उससे पूछने का मुझे मौका ही नहीं लगा था। मैं उससे कुछ पूछता उसके पहले ही उन्हीं मुस्टंड लोगों में से, एक आदमी, जो पूरी तरह दारू के नसे में था, मेरे पास आया और मुझ पर चिल्ला चिल्लाकर भद्दी-भद्दी गालियाँ निकालने लग गया था। यह पत्रकार है स्साला हम लोगों का भेद लेने आया है। साला तू भागता है यहाँ से कि तेरी ऐसी की तैसी करना शुरू करूँ। उस आदमी का रौद्र रूप देख मैं वहाँ रूकना या उससे उलझना ठीक नहीं समझा था। मैं वहाँ से चल पड़ा था लेकिन वह अपने हाथ में एक बड़ा गुम्मा उठाकर मुझ पर दे मारने को तत्पर तथा पहले की तरह भद्दी-भद्दी गालियाँ उंड़ेलता और भाग साले, भाग मादर-चो, भाग बहन.....चो. भागता है कि तेरी - बेटी को चो....... ऊॅ....? मुझे गरियाता ऊपर सड़क पर बड़ी दूर तक खदेड़ ले गया था।
विदेशों के लोग यहाँ आते हैं तो वे यहाँ के भिखारियों की फिल्में उतारकर भारत को अति गरीब और फटेहाल देश दिखाने की कोशिश करते हैं। लेकिन ऐसा वे अपनी किसी रणनीति के तहत करते हैं याकि वे अपने देश के मानदंडों के हिसाब से भारत को तौलते हैं। या उन्हें भारत की सामाजिक आचार संहिता के विषय में कोई ज्ञान नहीं होता। भारत की सामाजिक आचार संहिता देखकर मैं बड़ा फख्र महसूस करता हूँ। यहाँ की संहिता यह है कि अपने दरवाजे पर आया कोई जन भूखा न जाए। यहाँ पर अक्षमों, कमजोरों और लाचारों के भोजन तथा उनकी तमाम जरूरतों की जिम्मेदारी गृहस्थों के जिम्मे सौंप दी गई है। उसके लिए ज्यादा नहीं कर सकते हो तो एक मुठ्ठी अनाज तो दे ही दो और गृहस्थ एक एक मुट्ठी करके लाचार की झोली भर देते हैं। सरकार की तरफ से लोगों की, अस्पतालों में जो मुफ्त चिकित्सा की व्यवस्था है वह तो है ही कई गृहस्थ और स्वयंसेवी संस्थाएँ अनवरत इस काम में जुटी रहती हैं।
गरीबों और लाचारों से इस पृथ्वी का कोई भी कोना मुक्त नहीं है। हर देश इन लोगों की समस्या से अपने अपने तरीके से निपटते हैं लेकिन भारत में हमारे पुरखों ने इस समस्या की जिम्मेदारी, गृहस्थों के जिम्मे सौंप रखा है। अपने ही देश में, बहुत से लोगों को मैं भिखारियों को लेकर, शर्मिंदगी महसूस करते और अपना माथा कूटते देखा है। ऐसा वे अपनी संस्कृति और सामाजिक बनावट की अज्ञानता के चलते करते हैं। शारीरिक, अक्षमता और निर्धनता के चलते लाचार लोगों के भोजन, कपड़े और दवा की जरूरतें पूरी करने की जिम्मेदारी जन जन से जोड़कर हमारे पुर्खों ने इसका जैसा नायाब हल दिया है इसे समझने के बाद, उनकी गहरी सूझ-बूझ और समस्या की पकड़ पर चमत्कृत रह जाना पड़ता है।
मुसलमानों में भी जकात तथा लाचारों को भोजन कपड़ा देने जैसी व्यवस्था है। हॉ यह दीगर बात है कि इस व्यवस्था का, सक्षम लोग बीच में कूदकर इसका गलत फायदा लेते हैं लेकिन उपयोग और दुरूपयोग तो इस पृथ्वी की हर व्यवस्था का होता है। नियम लोकहित के लिए बनते हैं लेकिन परजीवी किस्म के लोग अपना मतलब हल करने के लिए, उसमें सूराख बना ही लेते हैं। भारत जैसे विशाल जनसंख्या वाले देश में गरीबों की तादाद ज्यादा हो सकती है और इस सामाजिक व्यवस्था के दुरूपयोग की संख्या भी ज्यादा होगी लेकिन इससे कितने लाचारों का जीवन बच रहा है उनकी भी तादाद कम नहीं है।
वहाँ से खदेड़ दिए जाने के बाद और कोढ़ियों को हर तरीके की इमदाद मिलती है इसे जानकर उनकी सेवा करने का अपना इरादा छोड़ दिया था। हाँ उनके बीच जाने से मेरे भीतर का यह भ्रम जरूर टूट गया था कि वे गरीब, उपेक्षित और बेसहारा लोग हैं। उनके विषय में जानकर मुझे पता चला कि वे भिखारी समुदायों के बीच, लोगों के सबसे बड़े दया और दान के पात्र हैं। इसके चलते वे दूसरे भिखारियों की तुलना में न सिर्फ सबसे ज्यादा सुविधा बटोर लेते हैं बल्कि लोगों की दयालुता का वे फायदा उठाना भी अच्छी तरह सीख लिए हैं। इंसानी काँइयाँपन और धूर्तता उनमें भी वैसे ही है जैसा दूसरे लोगों में होती है, इसलिए वे मुझ जैसे अनाड़ियों से जो भी मिले ऐंठ लिया जाए, इस कला में पूरा पारंगत हो चुके हैं। कोढ़ियों की चालबाजियाँ देख सुन और समझकर उनके प्रति मेरे भीतर की पूर्व की सारी धारणाएँ टूट गई थीं। उस आदमी के अभद्र और खूखार व्यवहार ने मुझे बड़ी चोट पहुँचाई थी और उसके चलते मैं बुरी तरह व्यथित था। लेकिन उनके बीच जाकर मैं अपने पुरखों द्वारा बनाई आचार संहिता में, लाचारों की सेवा किस तरह जन जन से जोड़ दी गई है इसे जाना।
गाँव वालों ने मुझे स्वीकार नहीं किया कोढ़ियों के बीच भी मैं गया लेकिन वहाँ भी मुझे निराशा ही हाथ लगी। इसके बाद मैं पूरी तरह हताश हो चुका था। हे ईश्वर मैं तेरी ही सेवा करने की गरज से अपना घरबार तक छोड़ दिया हूँ लेकिन तू है कि मुझे आज तक सिर्फ भटका ही रहा है। तू शायद मेरी परीक्षा ले रहा है, लेकिन मैं हार गया हूँ, प्रभु मेरी परीक्षा मत ले मैं बड़ा कमजोर आदमी हूँ। जब मुझमें हताशा बहुत बढ़ जाती तो इसी तरह ईश्वर से बातें कर करके रोने लगता। घर में खाली बैठकर दिन गुजारना मेरे लिए असंभव था इसलिए मैं हमेशा की तरह सुबह चार बजे उठता और आठ बजे तक खाना खाकर बोतल में पानी लेता और थोड़े फल, झोले में रखकर धूप हो चाहे बरसात, घर से निकल जाता। कभी पहाड़ी मंदिर के गेट के पास बरगद के पेड़ के नीचे के चबूतरे पर बैठ जाता और मंदिर में दर्शन के लिए आते जाते लोगों तथा गेट के सामने बैठे भिखारियों को देखता रहता तो कभी लालपुर की तरफ निकल जाता। कभी स्टेशन, तो कभी पुल के नीचे घूम घूम कर अपना दिन गुजारता। मैं उन दिनों बड़ा बेचैन रहने लग गया था। मेरी समझ में कुछ नहीं आता था कि करूँ तो क्या करूँ?
इसी तरह एक दिन भटककर घर वापस लौट रहा था तो काँके रोड पेट्रोल पम्प की बगल, जहाँ सुधा स्वीट है उससे दस कदम पहले, जहाँ मोहल्ले का कचरा गिराया जाता है, वहाँ देखा कि कचरे की ढेर की बगल, एक बुढ़िया बैठी कराह रही है। बुढ़िया को कराहती देख मैं उसके पास गया था। कचरे की ढेर पर, सूअर और कुत्ते अपने भोजन की तलाश में एक दूसरे से और आपस में भी लड़ते झगड़ते और काटम काट मचाए रखते हैं। बुढ़िया फातिमा बस्ती से भीख माँगकर वापस अपने टपरे पर लौट रही थी। कचरे की ढेर पर उसे अपने मतलब की कोई चीज दिखी थी। उसे उठाने के लिए जैसे ही वह कचरे पर पहुँची थी कुत्ते उस पर टूट पड़े थे और उसे चीथकर लहू लुहान कर दिए थे। कुत्तों ने उसकी पिड़लियों और जंघों की, मांस ओदार दिया था। उधड़े मांस का लोथड़ा उसकी पिंडलियों से झूल रहा था और उसमें से खून रिस रहा था। कई जगहों पर कुत्तों ने उसे इतना चीथ दिया था कि वहाँ की हड्डियाँ तक दिखाई दे रही थी।
बुढ़िया के पास गया तो देखा कि उसके सामने, जमीन पर दस और पाँच रुपए के नोट और सिक्के पड़े हुए है। उसकी जैसी हालत थी उस पर तरस खाकर लोगों ने दस पांच रूपये उसके सामने फेंककर अपना कर्तव्य निभा दिया था, लेकिन वहाँ से उठाकर कोई उसे अस्पताल या उसके घर पहुँचाने की जहमत नहीं किया था। उसकी उस समय जो दशा थी, उसे देखकर, शायद किसी की हिम्मत ही नहीं पड़ी होगी और वे दस पाँच रुपए उसके सामने फेंक कर चले गए थे। उसकी हालत देख, मेरे मन में आया था कि मैं भी उसको दस बीस रुपए पकड़ाकर वहाँ से भाग खड़ा होऊँ। उसकी देह, और कपड़े जिस तरह गंदे थे वैसे में उसे यूँ ही छूने का मन नहीं कर रहा था। फिर वह तो खून से भी तरबतर थी और उसके शरीर के उघड़े मांस के झूलते लोंदे, उस दृश्य को और भी वीभत्स बना रहे थे।
मैं अपनी जेब से बीस रुपए का एक नोट निकालकर उसकी तरफ बढ़ाया तो उसने मिमियाती और दर्द से कराहती आवाज में मुझसे कहा था रुपया लैके की करबौ रे बेट्टा आ ऽ ऽ ऽ हमैं यहि ठॉव से निकाल ऽ ऽ ऽ कुकुरा खाइ लेह लौ रे ए ऽ ऽ ऽ। ''जब बुढ़िया ने ऐसा कहा तो मुझे ख्याल आया कि मैं यही करने के लिए तो सुबह से शाम तक गलियों और सड़कों पर भटकता हूँ जब करने की बारी आई तो भाग रहा हूँ। लगता है भगवान मेरी परीक्षा ले रहा है या कि वह मुझे और ज्यादा भटकाना नहीं चाहता इसलिए उसने इस बुढ़िया को यहाँ ऐसी दुर्गति करके बैठा दिया है। मैं थोड़ी देर तक दुविधा में पड़ा वही खड़ा रहा था। जब मैं उसको उठाने की सोचता तो उसका गंदा वजूद, खून से तरबतर कपड़े और देह से झूलते माँस के लोथड़े, जैसा वीभत्स दृश्य बना रहे थे, उसे देख मेरे शरीर के रोएँ बरबराकर खड़े हो जाते और मैं वहाँ से भाग खड़ा होने की सोचने लगता लेकिन दूसरे ही क्षण मुझे अपना कर्तव्य बोध, अपना उद्देश्य और अपनी योजना का ख्याल आ जाता और मैं भागना छोड़कर बुढ़िया के बारे में सोचने लगता। खैर थोड़ी ही देर में मैं इस द्विविधा और अपने भीतर के भय और मन की गिज गिज से उबर गया था। उसकी जैसी हालत थी उसे वहाँ से उठाकर कहीं ले जाऊँ, यह काम मेरे अकेले के बस का नहीं था। इसलिए वहाँ से गुजरते कार वालों, मोटर साइकिलियों, साइकिलियों, पैदलियों और रिक्शा वालों को रोककर बुढ़िया को वहाँ से उठाने में अपनी मदद करने के लिए, लोगों को रोकने लगा तो एकाध दो लोग वहाँ रूके जरूर लेकिन बुढ़िया की हालत देख भाग खड़ा हुए थे। काफी देर के प्रयास के बाद भी जब कोई नहीं रूका तो मैं अकेले ही उसे उठाकर रिक्शा में बैठाकर उसके लोगों के पास या अस्पताल ले जाने की सोचा था। रिक्शा वालों को रोकने लगा तो वे भी उसकी हालत देख, भाग खड़ा होते। करते कराते एक रिक्शा वाले को पकड़ा। वह भी बुढ़िया की हालत देख भाग लेना चाहता था लेकिन उसके भागने के पहले ही मैं उसे पकड़कर, उसके हाथ में पचास रुपए का नोट पकड़ा दिया था। रिक्शा वाले की मदद से मैंने बुढ़िया को उठाकर रिक्शे में बैठाया और उससे पूछा कि उसका यहाँ अपना कोई है कि नहीं और है तो वह कहाँ रहता है? उसने मुझे बताया कि उसके बेटे बेटियाँ और नाती नातिनें सभी है। वह कहाँ रहती है? मेरे पूछने पर उसने बताया कि वह रियाडा के सामने काली मंदिर के पीछे रहती है। यह जानकर कि उसके अपने लोग यही पर है मुझे बड़ी राहत मिली थी। सोचा उसे ले जाकर उसके लोगों के बीच छोड़कर चला आऊँगा। अगर उसके दवा दारू के लिए पैसों की जरूरत होगी तो उन लोगों को सौ दो सौ दे भी दूँगा।
रियाडा के सामने के मैदान की बाउन्ड्री के भीतर, झारखंड राज्य का भूमि से संबंधित दो तीन दफ्तर है। यहीं पर धुर्वा और डोरंडा की तरफ आने जाने वाले विक्रम रूकते हैं। दफ्तरों के इर्द गिर्द, काफी जमीन खाली पड़ी है उसमें ठेलों पर या तिरपाल तानकर लोग, खाना, चाउमिन, लिट्टी चोखा, चाय पान की कई दूकानें लगा रखे है। किनारे की लिट्टी चोखा की दुकान की बगल, चहार दीवारों पर टूटी फूटी लकड़ियों और सड़ियल बाँस की छाजन पर काली पन्नी डालकर बुढ़िया ने अपना आशियाना बना रखा था। सात आठ फुट लंबे और पाँच छ: फुट चौड़े उसके आशियाने में एक आदमी जो लकवा ग्रस्त था वह भी बुढ़िया के साथ रहता था। बुढ़िया उसे अपना भाई कहती थी। टपरा मुश्किल से पाँच फुट ऊँचा रहा होगा। टपरे का जायजा लेने के लिए झुककर उसके भीतर झॉका था तो सडॉध लिए एक भमका मेरी नाक में घुस गया था। मैं झटके से भीतर घुसेड़ा अपना सिर पीछे खींच लिया था। बूढ़ा उस समय टपरे में नहीं था। वह ज्यादा चल फिर नहीं सकता था। इसलिए डंडे के सहारे ठेंगकर बगल के काली मंदिर के सामने जाकर बैठ जाता था। उसे वहाँ से पाँच दस रुपए रोज की आमदनी हो जाया करती थी। बुढ़िया काफी चल लेती थी इसलिए वह दूर दूर तक गृहस्थों के यहाँ घूमकर ऑटा चावल मांग लाती थी। इसी से उन दोनों का गुजारा होता था।
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क्रमशः अगले अंकों में जारी...
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रचनाकार संपर्क:
आर. ए. मिश्र,
2284/4 शास्त्री नगर,
सुलतानपुर, उप्र पिन - 228001
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