दुनिया गोल है 3 - सोमेश शेखर चन्द्र मैंने जैविक खाद बनाने की प्रक्रिया को देखा। चार थूनियों के ऊपर मचान बनाकर उसके ऊपर उसने बोरे बिछ...
दुनिया गोल है 3
- सोमेश शेखर चन्द्र
मैंने जैविक खाद बनाने की प्रक्रिया को देखा। चार थूनियों के ऊपर मचान बनाकर उसके ऊपर उसने बोरे बिछा दिए थे। उस बोरे पर पशुओं का गोबर लादकर उसमें केंचुएँ डाल रखे थे। केंचुएँ गोबर खाकर जो बीट करते है वही जैविक खाद है। यह खाद बाजार में अच्छी कीमत पर बिकती है। उसने मुझे बताया कि गाँव में औरतों का समूह बनाकर उन्हें अचार मुरब्बा टोकरी बनाना तथा दूसरी तमाम तरह के कुटीर उद्योग के काम सिखाए जाते हैं। राँची में एक मेला लगा था। उसमें उसके समूह ने एक स्टाल लगाया था। उससे उन्हें अच्छा फायदा हुआ था। गाँव वालों की सबसे बड़ी समस्या है अपने उत्पादों की बिक्री। सामान तो वे बना लेते हैं लेकिन उसे बेचना काफी मुश्किल काम होता है। इसलिए उत्पादन के बावजूद कोई भी उद्योग उनके लिए स्थाई आय का श्रोत नहीं बन पाता। खादी ग्रामोद्योग वाले उसे खरीदते तो हैं लेकिन सामान बिकने के बाद ही उन्हें पैसा देते है। हर जगह की तरह वहाँ भी भ्रष्टाचार है इसके चलते साल छ: महीने बाद लोगों को जो मिलता है वह पूरा नहीं मिलता और उसे पाने के लिए भी उन्हें काफी दौड़ धूप और जूता घिसाई करना पड़ता है। इसलिए गाँव के लोग मजबूर होकर उसे छोड़ देते हैं। उस गाँव में भी कोई स्वयंसेवी संस्था कार्यरत थी इसलिए मैं दोबारा उस गाँव में नहीं गया। ऐसा नहीं है कि यहाँ पर हड़िया दारू सिर्फ मर्द ही पीते हैं। यहाँ की औरतें भी हंड़िया पीती है। तीन चार दिनों के बाद मैं फिर उसी क्षेत्र के एक दूसरे गाँव में गया था, तो उस गाँव के लोग अभी भी त्योहार ही मना रहे थे। हंड़िया के नशे में धुत्त झूमते नाचते और लड़खड़ाते कई औरत मर्दों से मेरा सामना हुआ था। उन्हें देखकर लगा था कि इन लोगों को दुनिया जहान से कोई मतलब नहीं है। उनके पास जो है जितना है उसी में वे मस्त हैं। उन्हें इससे ज्यादा की जरूरत भी नहीं है। उनकी दुर्दशा, गरीबी, निरक्षरता और फटे हाली की बात हम शहरी लोगों के दिमाग का महज एक फितूर है। उनको लेकर हम शहरों में जो भी राजनीति कर रहे हो उनकी फटेहाली को लेकर जितना भी अपना माथा कूट रहे हों उससे उनका कोई ताल्लुक नहीं हैं। वहाँ के लोगों को हंड़िया के नशे में धुत्त लड़खड़ाते झूमते मस्ती करते जिस बेपरवाही की हालत में देखा था मैं फिर उस गाँव में नहीं गया।
चमघट्टी में एक सरकारी वोकेशनल ट्रेनिंग सेंटर चलाया जाता है। इसमें गाँव के लोगों को आचार मुरब्बा बनाने कुटीर उद्योग लगाने की ट्रेनिंग दी जाती है। एक दिन मैं वहाँ भी गया था। वहाँ पर आस पास के गाँवों के कुछ लड़के लड़कियाँ ट्रेनिंग ले रहे थे। उनकी क्लासें चल रही थीं इसलिए अगल बगल घूमकर लौट आया था।
चमघट्टी की तरफ के जंगलों के बीच बसे गाँवों से निराश होकर मैं राँची से पूरब जमशेदपुर जाने वाली सड़क के बगल के गाँव बैंगडीह एक दिन गया। सड़क से थोड़ी दूर, किसी खास दिन गाँव की हटिया लगती है। वही पर एक गुमटी में एक आदमी मिट्टी का चूल्हा बनाकर पकौड़ियाँ, और चाय बेचता था तथा बीड़ी दिया सलाई गुटखा जैसी छोटी मोटी चीजें रखता था। मैं उसकी दुकान पर बैठकर चाय पिया। उसे बताया कि मैं गाँव में रहकर वहाँ के लोगों के बीच सेवा कार्य करना चाहता हूँ, उसी सिलसिले में यहाँ के प्रतिष्ठित लोगों से मिलना चाहता हूँ। अगर आप वैसे लोगों के नाम बता दें तो उनसे मिलने में मुझे सहूलियत होगी। उसने मुझे तीन नाम बताए। उनमें से एक नाम कुडू मुझे अभी भी याद है। बैंगडीह गाँव कई टोलों में बसा है। पहले प्रतिष्ठित आदमी का घर आगे की बस्ती में था। वे सज्जन यहाँ के अच्छे खेतिहर थे। उस समय वे तथा तीन लोग और, जूट के बड़े टुकड़े में धान रखकर उसका बड़ा गठ्ठर तैयार करने में जुटे हुए थे। मैं उनके घर पहुँचकर उन्हीं से उनका नाम बता कर उनसे मिलने की अपनी इच्छा जताई तो वे थोड़ा चौक से गए थे। वे मुझे शायद कोई सरकारी आदमी या और कुछ समझ रहे थे। वे तो अभी यहाँ नहीं है मेरे पूछने पर उन्होंने मुझे मुस्कुराते हुए जवाब दिया था। बताइए उनसे आपका क्या काम है? मैं उन्हें अपना परिचय देकर बिस्तार से अपनी योजना बताया था तो उन्होंने मुझसे कहा कि वह आदमी मैं ही हूँ लेकिन इसके लिए आप हटिया के दिन आइए। उस दिन यहाँ पर गाँव के काफी लोग इकट्ठा होते हैं उनमें आप अपनी बात रखिए लोग राजी होते हैं तो आप अपना काम शुरू कर दीजिए। वे सज्जन मुझे काफी काइयां किस्म के आदमी लगे थे। उनकी बात और हाव भाव से मैं समझ गया था कि वे मुझे टरकाने के लिए ऐसी बात कर रहे हैं। इसलिए मैं दोबारा उनके पास नहीं गया था।
दूसरे आदमी टुडू का गाँव बैंगडीह से उत्तर कुछ दूर दूसरे गाँव में था। वहाँ पहुँचने के लिए घने जंगल के बीच से होकर गुजरना पड़ता था। टुडू गाँव में अपनी खेती के साथ साथ अपने घर पर ही अनाज पीसने, धान कूटने की मशीन लगा रखा था। मैं उससे मिलने उसके घर पहुँचा तो वह अपनी चक्की पर गाँव वालों के गेहूँ पीसने में जुटा था। उस समय शाम हो गई थी। टुडू को भी अपने काम से फुर्सत नहीं थी। अंधेरा होने के पहले मुझे जंगल से निकलकर मेन रोड पर बस पकड़ लेने की मजबूरी थी इसलिए मेरी टुडू से कोई बात नहीं हो सकी थी। मैंने उससे कहा आप इस समय काफी व्यस्त हैं आपको अपने काम से देर से फुर्सत मिलेगी, उतनी देर यहाँ रूकने से काफी देर हो जाएगी। मुझे रात होने के पहले राँची पहुँच जाना है नहीं तो कोई सवारी भी नहीं मिलेगी, इसलिए मैं आपसे कल आकर मिलता हूँ। टुडू से बात करने से मुझे लगा था कि उसे मुझमें कोई दिलचस्पी नहीं है, इसलिए मैं उससे मिलने उसके गाँव दोबारा नहीं गया था।
तीसरे आदमी वहाँ के एक मास्टर जी थे। नाम उनका इस समय मुझे याद नहीं है। वे उसी गाँव के एक प्राइमरी स्कूल में पढ़ाते थे। तीन चार दिनों बाद इतवार के दिन मैं उनसे मिलने बैंगडीह गया। मास्टर जी उस समय अपने बैल, घर के बगल चरा रहे थे। वे मुंडा थे। बडे सीधे सरल और सज्जन आदमी थे वे। जहाँ वे अपने बैल चरा रहे थे वही जाकर मैं उनसे मिला और उन्हें अपनी सारी बात बताया और यह भी बताया कि मुझे यहाँ के जंगलों में पैदा होने वाली जड़ी बूटियों की अच्छी पहचान है। इससे अगर लोग चाहें तो अपने कई तरह के असाध्य रोगों का घर बैठे ही इलाज कर सकते है। आज कल बाजार में जड़ी बूटियों की काफी मांग है, इसलिए इसका व्यवसायिक उत्पादन करके अच्छी आय भी कर सकते है। जड़ी बूटियों से संबंधित कई किताबें पढ़कर तथा राँची में लालपुर में सतीश अग्रवाल जी, जो ब्रिटेन में एलोपैथी के डाक्टर थे वहाँ से अपनी प्रैक्टिस छोड़कर वे राँची आकर जड़ी बूटियों से उपचार करने की प्रैक्टिस कर रहे थे, उनके यहाँ से मुझे एक बुकलेट मिला था उसमें तेरह चौदह जड़ी बूटियों के द्वारा बुखार से लेकर तमाम तरह के साध्य और असाध्य रोगों का इलाज दिया हुआ था। डाक्टर साहब उन जड़ी बूटियों के पौधे अपने घर के अहाते में लगा रखे थे मैं उन्हें देख चुका था और कुछ जड़ी बूटियाँ जैसे सहिजन, भंगरैया पथरचटा आदि आम पौधों को मैं पहले ही जानता था इसी के बूते मैंने मास्टर साहब से यह बात कहा था।
मास्टर साहब मेरी योजना और उद्देश्य सुनकर काफी प्रभावित दिखे थे। छठ पर्व के दो तीन दिन बाद मैं उनके घर गया था। वे सरना मानते थे। (सरना मानने वाले झारखंड के आदिवासी अपने रीति रिवाजों के साथ हिंदू त्योहार जैसे छठ, दुर्गापूजा आदि आम हिंदुओं की तरह ही मनाते हैं। विपरीत इसके जो लोग सरना नहीं हैं यानी कि इन्हीं लोगों में जो क्रिचियन बन गए हैं वे इन रीति रिवाजों और त्योहारों को मनाना छोड़ दिए है)। छठ का ठेकुवा और प्रसाद अभी भी उनके यहाँ था। मास्टर जी मुझे लेकर अपने घर आए और मुझे प्रसाद खाने के लिए दिया। मैंने उसे बड़ी श्रद्धा से खाया। छठ के प्रसाद, के ठेकुआ (गेहूँ के ऑटे में चीनी तथा कुछ मेवे मिलाकर छोटी छोटी टिक्कियाँ घी में छानकर ठेकुवा बनाया जाता है) में एक अलग तरह का ही स्वाद होता है, मास्टर साहब के घर का ठेकुवा वैसा ही स्वादिष्ट था। बिहार में छठ पर्व बड़ी श्रद्धा और उल्लास से मनाया जाता है। उस दिन जो लोग छठ नहीं करते कोई कोई अपने घर में छठ प्रसाद बनाकर रास्ते में खड़े हो जाते हैं और नदी के तीर या तालाबों की तरफ जाते छठियारों की डाली में प्रसाद रखते जाते हैं। उसी तरह सुबह के अरग के बाद जब छठियार घाट से लौट रहे होते हैं तो रास्ते में अच्छे अच्छे लोग तक अंगोछा या अपनी कमीज रोपकर प्रसाद मांगने खड़े हो जाते हैं। मैं भी कई दफा छठ का प्रसाद इसी तरह माँग कर खा चुका था। छठ का प्रसाद खाने को बहुत दिनों बाद मिला था। वह बड़ा ही स्वादिष्ट था। मैंने मास्टर जी से कहा सर छठ का प्रसाद खाए बहुत दिन हो गया था बड़ा अच्छा लगा।
जिन घरों में छठ किया जाता है उनमें इसकी तैयारी बहुत पहले से ही शुरू हो जाती है। इसमें जो भी सामग्री प्रयोग की जाती है सब में सात्विकता और सफाई का बड़ा ख्याल रखा जाता है। छठ करने वाला ही नहीं बल्कि, उसके घर के सभी लोग, साफ सफाई और इसके तमाम नियमों कायदों के प्रति न सिर्फ सचेत होते हैं बल्कि उनका कड़ाई से पालन भी करते है। आज दूसरे तमाम हिंदू त्योहारों में इतना ताम झाम और हल्ला हंगामा घुस गया है कि उसकी असल आत्मा ही मर गई है। दुर्गापूजा के समय लोग भद्दे फिल्मी गीत बजाकर प्रतिमा के सामने जैसी भौंडा नाच और उछल कूद करते हैं उसे देखकर लगता है कि वह पूजा नहीं बल्कि वर्ष का पहला दिन हो और वे उसे मौज मस्ती में गुजार रहे हो। लेकिन छठ पर्व में सब कुछ आज भी वैसा ही है, जैसा पुरातन में था। उससे एक इंच इधर उधर न तो लोगों में जाने की हिम्मत होती है और न ही वे जाते है। भूलवश अगर किसी से कोई चूक हो जाती है तो लोगों को उसका दैवी दंड भी तुरंत भोगना पड़ जाता है इसलिए लोग इस पर्व में लीक से हटने में डरते हैं।
मास्टर जी मेरी योजना और उद्देश्य से काफी प्रभावित थे। वे चाहते थे कि मैं वहाँ रूकूँ। इसके लिए वे गाँव वालों को इकट्ठा करने के लिए उनके घर गए लेकिन उस गाँव और दूसरे एक पड़ोस के गाँव के बीच चौहद्दी को लेकर कोई विवाद हो गया था उसी के निपटाने के लिए दोनों गाँवों के लोगों की उस दिन पंचायत थी। उसी में गाँव वाले उस दिन गए हुए थे। मैं वापस लौट आया था।
दूसरे दिन मैं फिर मास्टर जी के घर पहुँचा। मास्टर जी गाँव के लोगों को इकट्ठा करने के लिए गए तो पता चला कि किसी के मकान बनाने के लिए लकड़ी लाने, लोग जंगल में गए हुए हैं दो तीन घंटे में लौटेंगे। यहाँ गाँव वाले अपने घरों की दीवारें, मिट्टी की बनाते हैं उसके छत खपड़े के होते हैं जो लकड़ी की छाजन पर छाए जाते है। इसलिए, उसमें लकड़ी की काफी जरूरत होती है। जंगल से लकड़ी लाने का काम गाँव वाले मिलकर करते हैं इसलिए सहयोग के तौर पर एक दूसरे के यहाँ हूँड करते है। हूँड़ का मतलब है तुम्हारे यहाँ जरूरत पड़े तो हम और हमारे यहाँ जरूरत पड़े तो तुम हमारे काम में सहयोग दोगे। गाँव वाले ऐसा करके, एक दूसरे की बिना कुछ लिए आपस में मदद करते हैं। आज की पीढ़ी हूँड प्रथा जानती ही नहीं होगी लेकिन आज से पचास साल पहले करीब करीब समूचे भारत में यह प्रथा मौजूद थी और शादी गमी से लेकर गाँव के जितने भी छोटे बड़े काम होते थे गाँव और पवस्त के लोग इसी तरह के आपसी सहयोग से सम्पन्न कर लिया करते थे।
दोपहर करीब दो बजे लोग लकड़ी लेकर वापस लौटे। यहाँ पर जिसके सहयोग में लोग अपना समय और श्रम देते है घरवाला उसे कोई मजदूरी नहीं देता लेकिन उनके लौटने पर वह उनके नाश्ते के लिए चना मटर और गेहूँ की घुघनी के साथ हंड़िया या दारू पीने को देता है। मास्टर जी वहाँ पहुँचकर लोगों को गाँव में मेरे आने का उद्देश्य और योजना के बारे में बताए और यह भी बताए कि वे आप लोगों से इसी सिलसिले में बात करना चाहते हैं तो गाँव वाले राजी हो गए थे। वहाँ पहुँचा तो देखा कि पैंतालीस पचास की संख्या में लोग जमीन पर पंगत में बैठे पत्तल पर परोसी, चने की घुघनी के चखने के साथ दारू पी रहे थे। घर वाला उन्हें उनके मांगने पर दारू और घुघरी देता जा रहा था। मास्टर जी ने लोगों को बताया कि यही साहब है जो आप लोगों से कुछ कहना चाहते हैं। लोगों ने मुझसे कहा कहिए आपको जो कहना है। लेकिन वैसी स्थिति में उसकी पंगत के बीच खड़ा होकर अपनी बात कहने में मुझे बड़ा संकोच हो रहा था। मैंने उनसे कहा कि मुझे कोई जल्दी नहीं है आप लोग इत्मीनान से नाश्ता करें मैं तब तक यही बैठता हूँ। नहीं आप को जो कहना है कहिए हम लोग सुन रहे हैं। मैं उनकी पंगत के बीच खड़ा होकर अपना परिचय देने के बाद लोगों को अपनी योजना समझाया लेकिन उस समय तक लोगों पर, दारू का नशा चढ़ चुका था वैसे में उन्हें मेरी कितनी बात समझ में आई यह तो मैं नहीं जानता लेकिन इतना मैं जरूर समझ गया कि लोग मेरी योजना में कोई रूचि नहीं ले रहे है। मेरी बातें सुनने के बाद उनमें से एक आदमी ने कहा कि इस विषय पर हम लोग सोच विचार कर लेंगे इसके बाद ही कोई निर्णय देंगे। मैं उन्हें धन्यवाद करके वहाँ से चला आया। रास्ते में मैंने मास्टर जी से कहा कि लोगों का रवैया देखकर लगता है कि उन्हें मेरी योजना में कोई रूचि नहीं है। मुझे भी ऐसा ही लगता है, मास्टर जी ने जवाब में मुझसे कहा था। ठीक है सर आपने मुझे सुना, प्रयास करके गाँव के लोगों से मिलवाया, लगता है मेरा दाना पानी इस गाँव में नहीं है इसलिए उन्हें मेरी बात समझ में नहीं आई। मेरी इतनी अच्छी योजना पर लोगों की उदासीनता देख मास्टर साहब काफी दुखी थे।
अब मैं गाँव से अपना काम शुरू करने की अपनी योजना से पूरी तरह निराश हो चुका था फिर भी बैंगडीह गाँव से गुजरने वाली सड़क के दक्षिण कुछ दूर जाने पर गेंदे के फूल का एक बगीचा था, उसके और दक्षिण काफी दूर जंगल में बसे एक गाँव में गया। वहाँ लोग मुझे देखकर समझे कि मैं सरकार की तरफ से उनके फायदे की कोई ऐसी योजना लेकर आया हूँ जिससे उन्हें तुरंत कुछ आर्थिक लाभ हो सकेगा। एक लड़का जो उम्र में सत्रह अठारह साल का रहा होगा उसके पाँव में फ्रैक्चर था। पैसे के अभाव में उसके पाँव की दवा दारू नहीं हो पा रही थी। गाँव में किसी ने उसकी मदद नहीं की थी। इसे लेकर वह बड़ा खिन्न था। उसकी माँ मुझसे गिड़गिड़ाई बाबू इसके पॉव की दवा करवाय दे भगवान तुझे आशीरवाद देगा। मुझे लगा इतना भटकने के बाद भगवान मुझे यहाँ लाकर इस लाचार के दरवाजे खड़ा किया है तो इसका मतलब है उसने मेरी सुन ली है। लड़के का पाँव काफी फूल गया था उसमें दर्द भी काफी था इसके चलते वह चल फिर भी नहीं सकता था। ठीक है माँ मैं इसकी दवा करवाकर इसे ठीक करवा दूँगा। तू अब इसकी चिन्ता छोड़ दे। मैंने लड़के की माँ को आश्वस्त किया था। मेरी तरफ से ऐसा आश्वासन पाकर लड़के की माँ रोने लग गई थी। बाबू तुझे कहाँ से भगवान ने मेरा दुख हरने भेज दिया। लड़के के चेहरे पर उस समय जो अलौकिक चमक आयी थी वह देखने ही लायक थी। मैं वहीं खड़ा उसे राँची लेजाकर किसी अच्छे डाक्टर से दिखाने तथा पूरी तरह ठीक होने तक उसे कहाँ रखा जाय जैसी तमाम बातों पर अभी सोच ही रहा था कि इसी बीच, शायद गांव में मेरे पहुँचने की खबर कुछ लड़कों को हो गई थी। वे उस क्षेत्र के दादा रहे होंगे या किसी पार्टी के कार्य कर्ता थे कौन थे वे लोग, नहीं कह सकता। जंगली क्षेत्रों में नक्सली अपनी गति विधियाँ बढ़ा रहे थे, वे लोग नक्सली भी हो सकते थे। वे तीन लड़के थे और तीनों एक ही मोटर साइकिल पर बैठ कर आये थे। गांव वालों से, उन्होने मेरे बारें में पूछा था के लागौ हौरे? जिस रौब से उन लोगों ने गांव वालों से मेरे बारे में पूछा था और उनकी उपस्थिति मात्र से ही जिस तरह लोग सकड़ गये थे उससे मुझे लगा था कि वे लोग अपराधी प्रवृत्ति के आदमी हैं जिनसे गांव वाले बेहद डरते हैं। गांव वालों ने उन्हें बताया कि बाबू हमारे गांव में भलाई का काम करवाना चाहते हैं। उनकी बात सुनकर लड़कों ने थोड़ी देर तक मुझे ऊपर से नीचे तक घूर घूरकर देखा था, बोले कुछ नहीं, इसके बाद मोटर साइकिल स्टार्ट किये और उस पर तीनों बैठ कर चले गये थे। तीनों जाते-जाते तक जिस तरह मुझे घूर-घूर कर देखते गये थे उसे देख मेरा तो खून ही सूख गया था। मैं वहाँ से चला आया था और दोबारा उस गांव में जाना ठीक नहीं समझता था।
एक दिन मैं राँची से उत्तर कैबरिन स्कूल के बाद, बस से उतर कर सड़क के पूरब के एक गांव में गया। गांव का नाम गुनरी पोखर था। वह गांव रोड से करीब एक किलो मीटर पूर्व की ओर है। उस गांव के आगे जंगल शुरू हो जाता था। मैं उसके आगे जंगल के किसी गांव तक जाना चाहता था। जाड़े का समय था। उस समय दिन के करीब एक बज रहे होंगे। एक आदमी अपने घर के बाहर खटिया डाले बैठा हुआ था। मैं उससे पूछा पूरब की तरफ के जंगल में कोई गाँव है या नही और है तो कितनी दूर पर है? वह आदमी दारू के नशे में धुत था मुझसे पूछा तुम कौन हो? मैं राँची में रहता हूँ जंगल के किसी गांव को देखने के इरादे से वहीं से आ रहा हूँ मैंने उसे बताया था।
कहाँ रहते हो.....? उसने मुझसे डपटते हुए पूछा था
राँची में।
तू राँची का आदमी फिर भी नहीं जानता कि इसके बाद कौन सा गांव है? तू साला डकैत है। वह नसे में लड़खडाता खटिया से नीचे उतरा था और जोर-जोर से चिल्लाने लग गया था। पकड़ो साले को और पीटो इसे, यह साला डकैत है। इसको पीट कर पुलिस में दे दो। उसका चिल्लाना सुनकर गांव के कई लोग दौड़ कर वहाँ पहुंच गए थे और थोडी ही देर में करीब-करीब सारे गांव के लोग ही वहाँ जुट आए थे। सब मुझे घूर-घूर कर देख रहे थे। शायद मेरी उम्र और पोषाक देख वे मुझे डकैत तो नहीं समझे लेकिन जिस कटखनी नजरो से वे मुझे घूर रहे थे उसे देख मुझे लगा था कि वे समझ रहे हैं कि मैं गांव की किसी लड़की के साथ छेड़खानी कर दिया हूँ। लेकिन संयोग कहिए कि एक औरत जो वही खड़ी मेरी बाते सुन रही थी उसने लोगों को समझाया था कि मैंने ऐसी कोई हरकत नहीं किया है। मुझे उसने इशारे किया था कि आदमी पिया हुआ है आप यहाँ से वापस लौट जाओ। वह आदमी जिस तरह से चिल्लाया था और उसकी चिल्लाहट पर गांव के लोग इकट्ठा होकर मुझे घेर लिए थे उससे तो मेरी जान ही सूख गई थी। कुशल यही हुआ था कि लोग मेरे ऊपर टूट नही पड़े थे। अगर वे कही मुझ पर टूट पड़ते तो मेरी क्या दुर्दशा करते उसे सोचकर आज भी मेरे रोंगटे खड़े हो जाते हैं।
अपनी योजना को कार्य रूप देने के लिए मैं लंबे समय तक यहाँ के जंगलों पहाड़ों के बीच बसे गांवों में घूमा। यहाँ के लोग काफी सीधे और सरल होते है। यहाँ मातृसत्तात्मक पारिवारिक व्यवस्था है। औरतें यहाँ की काफी श्रम शील होती है। घर के काम से लेकर धनोपार्जन तक, चाहे शहर आकर ईंट गारा करने का काम हो, जंगल से लकड़ी बटोर कर बेचने का काम हो, खेती का काम, बच्चों के पालन पोषण से लेकर घर का रखरखाव, सबमें औरतों की अहम भूमिका है। आदिवासी समाज में ज्यादातर मर्द, औरत हंडिया पीते हैं। मातृ सत्तात्मक पारिवारिक व्यवस्था के चलते इनके पुरूषों में काहिली और हंडिया का व्यसन ज्यादा है। कई तो सारा दिन घर में नक्कारा बैठ कर हंडिया पीते हैं और जुआ खेलते हैं। औरतें उनकी मेहनत मजदूरी या कोई धंधा रोजगार करके जो कुछ उपार्जन करके लाती हैं वे उसे उनसे मारपीटकर जबर्दस्ती छीन लेते हैं और अपने व्यसनों में उड़ा देते हैं।
राँची में सब्जी खरीद रहा था तो एक छब्बीस सत्ताइस साल की औरत, जो गाँव से सब्जी खरीदकर लाती थी और रातू के सब्जी मार्केट में बेचती थी, अपनी बगल बैठी औरत को बता रही थी कि कल शाम जब वह बाजार से सब्जी बेचकर घर लौट रही थी तो उसका मर्द उसकी ताक में कहीं छुपकर बैठा हुआ था। वह छुपकर जरूर बैठा हुआ था, लेकिन औरत ने उसे देख लिया था। इसके पहले दिन भी वह इसी तरह कहीं छुपकर बैठा हुआ था और औरत जब वहाँ पहुँची थी तो वह उसे दबोच कर उससे सारा पैसा छीन लिया था। औरत को इस बात का अंदेशा पहले से ही था, कि आज भी वह मेरे साथ ऐसा ही करेगा इसलिए वह ज्यादा रूपया अपनी देह की गुप्त जगह पर बाँध रखी थी और थोड़ा रूपया अपनी थैली में डालकर कमर में लपेट ली थी। पति इतना कम रूपया मिलने पर औरत को मारापीटा था इसलिए दूसरे दिन जब उसने मर्द को छुपा बैठा देख लिया था तो वह रास्ता बदलकर छुपती छुपाती घर भाग गई थी। मर्द जब घर पहुँचा था तो वह उसकी इस हरकत पर उसे काफी पीटा था। मैं उसके बगल खड़ा एक दूसरी सब्जी वाली से सब्जी खरीद रहा था। उसकी बातें सुनने के लिए थोड़ा सुस्त होकर सब्जी वाली से मोलभाव करने लग गया था। इतना बताने के बाद वह औरत उत्तेजित हो उठी थी- दुलहा........... जब तक शादी नहीं हुई थी दुलहा पाने की बड़ी साध लगती थी जानती होती कि दुलहा ऐसे ही होता है तो शादी ही नहीं करती। यह बात उसने मेरी तरफ कटाक्ष करते हुए कहा था।
मैंने उससे कहा दुलहा तुम्हें खराब मिला हुआ है इसीलिए ऐसा कह रही हो। बात उसकी जैसी भी रूढ़ किस्म की थी। लेकिन यह वहाँ की औरतों की असल हकीकत तो बयाँ ही करती थी। हो सकता है यह बात सब पर लागू न हो लेकिन यह यहाँ के समाज की एक मुकम्मल दास्तान तो है ही।
समाज वैसे हर जगह का रूढ़ होता है। रूढ़ का मतलब लोग दकियानूसी से निकालते हैं। रूढ़का मतलब दकियानूस होता भी होगा लेकिन यहाँ मेरे रूढ़ कहने का मतलब, पहले से मौजूद ढॉचे और बने ढर्रे पर चलने से है। बच्चा, जिस घर परिवार और समाज में जन्म लेता है उस समाज की अपनी संस्कृति, जीवनशैली, सोच, मान्यताएँ और कायदे कानून होते हैं। उसका परिवेष हवा माटी और पानी होता है। यह सब समय बढ़ने के साथ नाभिनाल की तरह उससे जुड़ते और उसमें समाए चले जाते हैं। इसे हम जीवन का मूल भी कह सकते हैं। इस मूल से मुक्त होकर उतने ही पुख्ता और रूढ़ मूल का निर्माण कर, उससे जुड़ सकना उसके बस का नहीं होता। अपने रूढ़ से उसे जो सुरक्षा मिलती है आत्मीयता और जीवन का रस मिलता है वह उसे और कहीं नहीं मिलती। किसी समाज की जो बातें दूसरों के देखने में खराब, रूढ़ और जहालत भरी लगती है उसकी हथकड़ी और बेड़ियों की तरह दिखती हैं, वहीं बातें उस समाज के लोगों के लिए, उनकी देह के हिस्से और रूह की तरह होती है। इसे काटकर इससे मुक्त हो लेने की बात वे सोच तक नहीं सकते। यही कारण है कि दुनिया का कोई भी समाज जल्दी बदलता नहीं है। यहाँ के आदिवासी समाज पर भी यही बात लागू होती है। वह पुश्तों से इसी तरह रहता आया है। मर्दों की काहिली, परंपरा से जुड़ी दारू और हंडिया और जो कुछ मोटा झोटा मिल जाए उसे खाकर अपने में मस्त रहने की उनकी प्रवृत्ति, दूसरे के देखने में जितना भी उनकी अधोगति का कारण लगे लेकिन उनके लिए यही उनकी निधि है। वे इसे छोड़ेगें कैसे? शिक्षा का इस समाज में भी प्रवेश हुआ है और इन लोगों में भी दूसरी जगहों के माँ-बाप की तरह, अपने बच्चों को पढ़ा लिखाकर सभ्य और अच्छा बनाने की ललक है। यहाँ के जो लोग शहर पहुँच चुके हैं उनकी जीवनशैली शहर की हो गई है लेकिन जो लोग गाँव में है वे जहाँ के तहाँ और जस के तस हैं। गाँव में ही नहीं शहरों में भी पुश्तो से बसे ऐसे लोग जो अपने पुश्तैनी कारोबार से जुड़े हैं उनकी सोच, जीवनशैली, सब कुछ, आज भी वैसी ही हैं जैसा उनके बाप दादो की हुआ करती थी। उनके बच्चे दिनभर झुंड बनाकर कंचे, गुल्ली डंडा और दूसरे खेल खेलते बड़े होते हैं। थोड़ा बड़ा होते ही अपने बाप के साथ अपने पुश्तैनी धंधे में जुड़ ज़ाते हैं। हम सोचते हैं कि बच्चों को पढ़ाने लिखाने से वे अच्छा शहरी बनते हैं लेकिन वे ऐसा सोचते ही नहीं हैं। वे जिस तरीके से वर्षों से रहते आए होते हैं वह उनकी पुख्ता, सुरक्षित और आजमाई जमीन होती है, इसलिए इसे छोड़ सकना उनके लिए संभव नहीं होता। हम उन्हें दकियानूस जाहिल गॅवार जो कुछ भी कहें लेकिन वे अपने में मस्त होते हैं।
गाँव के बासिंदों के बीच रहकर वहाँ से अपनी यात्रा शुरू करने की अपनी योजना में, सफल न होने पर मैंने अपना कार्य शहर से, शुरू करने का मन बनाया था। इसे शुरू करने के लिए, पहले मैंने सोचा था कि, राँची के स्थानीय अखबारों में एक बड़ा विज्ञापन देकर अपनी योजना विस्तार से, समझाते हुए अपने जैसे लोगों का आवाहन करूँ। इसके लिए मैं कचहरी के पास का क्लब हाल एक दिन के लिए बुक करके लोगों को वहीं इकट्ठा करने की सोचा था। जितनी क्रान्तिकारी मेरी योजना और उद्देश्य था, उसे गाँव वाले, जिस भी कारण से नहीं समझे हो ठीक है, लेकिन शहर के लोग तो पढ़े लिखे और समझदार होते हैं इसलिए वे मेरे आवाहन पर इस नेक काम में भागीदार बनने के लिए जरूर दौड़ पड़ेंगे।
स्वप्न देखना और अपने खयाली पुलाव पकाना एक बात है लेकिन सपने को हकीकत का जामा पहनाकर धरती पर उतारना एकदम अलग बात है। हकीकत के अनुभव पर इस समय मुझे यह बात कहने में थोड़ी सी भी झिझक नहीं हो रही है कि यह दुनिया बड़ी दो रंगी है। देखने और सुनने में जैसा यह दिखती और लगती है हकीकत में, वह इसके ठीक उलट है। अगर हम कहें कि इसकी उलट जो है वही इसका असली रूप और चेहरा है तो यह भी गलत होगा। उसका उलट भी उतना ही उलट है जितना उलट यह अपनी हकीकत के उलट है।
मदर टेरेसा अगर कुछ करने में सफल हुई तो अपने बूते पर नहीं बल्कि उनके पीछे बड़े-बड़े इन्स्टीट्यूशन, चर्च और तमाम देशों का तथा बड़ी संस्थाओं तथा लोगों का हर तरह का सहयोग था। इतनी बात मैं जानता हूँ कि कोई भी आदमी कितना भी सच्चा क्यों न हो, लोग उसे अपने अपने तरीके से अपनी कसौटी पर कसते है इसके बाद भी उनमें उसे लेकर भ्रम बना ही रहता है और यह भ्रम तब तक उनमें बना रहता है जब तक वे खुद उसे अनुभव कर पक्का नहीं हो जाते।
आदमी की प्रवृत्ति की इस हकीकत को जानने के चलते, जब अखबारों में विज्ञापन देकर लोगों को इकट्ठा करने की बात मेरे दिमाग में आई थी तो मैं खुद अपने को उस विज्ञापन के पाठक की जगह रख कर, यह जानने की कोशिश किया था कि देखे मेरे ऊपर इसकी कैसी प्रतिक्रिया होती है। नहीं, इसे पढ़कर कुछ लोग तमाशा देखने की गरज से, हो सकता है पहुँच जाएँ, लेकिन इससे उनमें, किसी तरह के विस्फोट होने की संभावना नहीं है। इसलिए मैं सबसे पहले अपने खुद, कुछ ठोस करने के बाद ही लोगों के बीच जाने की सोचा था।
मेरे साथ विडंबना यह थी कि मेरे मन में यह बात बिना किसी किंतु और परंतु के, दृढ़ता के साथ बैठी हुई थी कि मैं अपने उद्देश्य के प्रति निरछल हूँ, मेरे भीतर किसी भी तरह की कोई ऐषणा नहीं है, दुनिया के सभी धर्मों में परहित और परोपकार को सबसे महान कार्य माना जाता है, और मैं वही महान कार्य करने के लिए अपना घर बार तक छोड़ दिया हूँ तो लोगों को भला मुझ पर संदेह क्यों होने लगेगा? साथ ही मुझे इस बात का दृढ़ विश्वास था कि लोग मेरा कार्य देखकर मुझे अपने सिर आंखों पर बैठा लेगें। कोई मेरे साथ असहयोग करेगा या मेरे काम में बाधा देगा, यह बात तो मैं सपने में भी नहीं सोचा था। खासकर प्रबुद्ध वर्ग से, पढ़े लिखे और अभिजात्य वर्ग से, धार्मिक संस्थाओं और परोपकार के काम में जुड़े लोगों से। मैं नेल्सन मंडेला की बात नहीं कहता। वे अपने में एक लीजेंड है। वे जो कुछ भी कहते है और करते हैं दुनिया उसे सुनती और मानती है। सेलीब्रेटीज, इस तरह का कोई काम करेंगे तो लोग उनकी शान में कसीदे पढ़ना शुरू कर देंगे। लेकिन अपने जैसे आदमी का अनुभव मैं कह रहा हूँ कि किताबों और धर्मों में, जो भी लिखा गया है, आचार्यों और संतों के प्रवचनों और तकरीरों में परोपकार का जितना भी महिमा मंडन किया जाता हो, हकीकत में जब मुझ जैसा कोई आदमी उसी काम को लेकर लोगों के पास पहुँचता है तो कथनी और करनी की हकीकत तथा आदमी की असली प्रकृति, छल, कपट, दंभ, आशंका अविश्वास और अपने कहे से बच निकलने के लिए, दूसरों को सच लगे ऐसे प्रपंच रचकर भाग खड़ा होने की, उसकी सहज वृत्ति खुलकर सामने आ जाती है। इस क्षेत्र में उतरने के पहले अगर यही बात मुझसे दूसरा कोई कहता तो मैं उसे मारने दौड़ पड़ता। लेकिन आज जब मैं इसे भोगकर समझ लिया हूँ तो मुझे यह कहने में जरा भी हिचक नहीं है कि पुस्तकों और संतों की बातें सिर्फ पढ़ने, कहने और प्रवचन करने जैसी अकादमिक बातों तक सीमित हैं। जमीनी हकीकत से उनका कोई ताल्लुक नहीं होता। अगर उसका ताल्लुक हकीकत से होता तो आज पृथ्वी पर इतने बड़े बड़े युद्ध नहीं लड़े जाते। समाज में वैमनस्यता और हिंसा की कोई जगह नहीं होती। शैतानी ताकतें, लोगों के मन मस्तिष्क को नहीं जकड़तीं। मेरे ऐसा कहने का मतलब यह कतई नहीं निकाला जाना चाहिए कि पुस्तकों में लिखी बातें और संतों का प्रवचन एकदम व्यर्थ की बाते हैं। संत और पुस्तकों में उच्चमानव मूल्यों की बातें होती है। संतों में वे मूल्य काफी हद तक समाहित हो चुके होते हैं। उन्हें मानव मात्र की फिक्र होती हैं। वे अपने कर्मों और बातों से लोगों को शैतानी मानसिकता छोड़, सद् वृत्ति में पहुँचने के लिए प्रेरित करते है लेकिन आमजन जिसमें अनपढ़ गंवार से लेकर उच्चशिक्षित और प्रबुद्ध वर्ग शामिल है जो अपनी दुनियादारी में लिप्त हैं, उनका सारा व्यवहार युद्ध के नियमों से संचालित होता है। उसकी सोच, क्रियाकलाप और व्यवहार सब उसके स्वार्थ, सुरक्षा और लेन-देन के नियमों से शासित होते हैं। उसके लोभ, मोह जैसी जीवन की जड़ों से संचालित होते हैं। आदमी अपने से अपने परिवेश से तथा समूची दुनिया से हमेशा युद्धरत होता है इसलिए संतों और ग्रंथों की बातें उसे विस्मृत हुई रहती है।
दक्षिण अफ्रीका जब स्वतंत्र नहीं हुआ था और नेल्सन मंडेला जेल में थे तो मैं वहाँ के काले लोगों के साथ जो भी अन्याय और ज्यादतियाँ होती थी, उसे लेकर कभी-कभी बड़ा दुखी हो जाया करता था। उस समय मैं अफ्रीकी लोगों के संघर्ष पर कई कविताएँ लिखा था। अफ्रीका स्वतंत्र हुआ और नेल्सन मंडेला राष्ट्रपति पद त्याग कर सार्वजनिक जीवन में आ गए तो मैंने हिंदी में लिखी अपनी कविताओं का खुद ही अंग्रेजी में अनुवाद कर मंडेला जी के नाम एक प्रति तथा दूसरी उस समय के वहाँ के राष्ट्रपति के पास भेजा था। कविता भेजने के साथ मैंने उन्हें एक चिट्ठी दिया था और उसमें थोड़े में मैंने यह बताया था कि इस समय मैं अपनी इस योजना के माध्यम से समाजसेवा के क्षेत्र में उतरा हूँ। दरअसल उस समय मुझे अपनी धारणा के विपरीत, अपने मिशन में, लोगों का सहयोग मिलने की बजाए उनकी उदासीनता, उपेक्षा, फटकार और दुत्कार मिल रहा था। इसको लेकर मुझमें काफी फ्रस्ट्रेशन था और मैं पूरी तरह हताश हो चुका था। मंडेला जी को अपनी कविताएँ भेजने के पीछे मेरा एक उद्देश्य यह भी था कि वे इतनी बड़ी हस्ती है, और सेवा के क्षेत्र में भी उतर चुके हैं। जिस मिशन को लेकर मैं चला था इससे समाज का एक बड़ा तबका, जिसकी ऊर्जा, ज्ञान और अनुभव यूँ ही बेकार चला जाता है, जो निष्क्रिय घर में बैठकर न सिर्फ समाज के लिए बल्कि खुद अपने लिए बोझ बन जाते हैं, उन लोगों को सक्रिय करके उन्हें रचनात्मक कार्यों में लगाना छोटी बात नहीं थी। साथ ही वृद्ध आज समूचे विश्व के सामने एक बड़ी समस्या बनकर खड़े हैं और यहां समस्या दिन बदिन और विकराल होती जा रही है। ऐसे में मेरा विश्वास था कि मंडेला जी मेरे जैसे समर्पित और ऊर्जावान आदमी को अफ्रीका बुला लेंगे। मैं यहाँ पर अपने काम को अंजाम देने के लिए जितना भी हाथ पांव मार रहा था मुझे निराशा ही हाथ लग रही थी। मंडेला जी जैसे आदमी चाहेंगे तो यहीं पर मुझे अपना मिशन पूरा करने में मदद कर देंगे। या यह प्रोजेक्ट खुद अपने प्रभाव में ले लेंगे। लेकिन मंडेला जी या अफ्रीका के राष्ट्रपति की तरफ से मेरे पत्र और कविता की प्राप्ति की एक मामूली सी औपचारिकता तक नहीं निभाई गई कि उन्हें मेरा पत्र और कविता मिल गए हैं। अपना पत्र और कविता मैंने रजिस्टर्ड डाक से भेजा था। ऐसा तो हो ही नहीं सकता कि वह उन्हें नहीं मिला हो।
अपनी मिशन को साकार करने की जद्दोजहद के दौरान मैंने पढ़े लिखे और प्रबुद्ध वर्ग के लोगों का जो चेहरा देखा है उसके बूते मुझे इस समय यह बात भी कहने में जरा सा भी संकोच नहीं हो रहा है कि आदमी का जीवन किताबों में लिखित उच्च आदर्श की बातों से नहीं बल्कि युद्ध और स्वार्थ के नियमों से संचालित होता है। यद्यपि कि हम अपने बच्चों को अच्छा शहरी बनाने के लिए किताबों में लिखी ऊँची और आदर्श की बातें सिखाते हैं लेकिन जब वही आदर्श और संस्कार लेकर वह आदमी बनकर संसार में उतरता है तो वे अच्छी बातें उसे कही दूर दूर तक नहीं दिखाई पड़ती। उस समय वास्तविक जीवन के पटक पछाड़ वाले नियम बड़ी निष्ठुरता से अपना काम करना शुरू कर देते है और बचपन से अच्छा शहरी बनाने के लिए उसमें ठूंसी गई सारी ऊँची और अच्छी बातें, कही ढूँढे नहीं मिलती।
खैर जब मैं गाँव की तरफ से पूरी तरह निराश हो गया था तो राँची शहर में अपनी योजना पर काम करने का मन बनाया था। यहाँ पर गंदी बस्तियाँ थी, धुर्वा तथा ओवरब्रिज के नीचे कोढ़ियों की पूरी की पूरी बस्ती थी। शहर में झुंड के झुंड भिखारी थे। इसके अलावे कई जगहों पर देहातों से अपनी रोजी रोटी के जुगाड़ में पहुँचे लोग थे जो शहर में रिक्शा चलाने, ईंटगारा ढोने तथा औरतें घरों में झाडू पोंछा और बर्तन माजने जैसे घरेलू काम करते थे। ऐसे लोग शहर के कई जगहों पर पालिथीन की पन्नियों और घास फूस से अपना अस्थाई आशियाना बनाकर उसमें रहते थे। कई दिनों तक शहर के विभिन्न इलाकों में, घूम घूमकर मैं अपने काम लायक जगह और लोगों की तलाश करता रहा था। चारों तरफ घूम लेने के बाद मैं चर्च रोड काली मंदिर के पास बैठने वाले भिखारियों के बीच से अपने काम की शुरूआत करने का मन बनाया था। यह जगह मैं इसलिए चुना था कि यहाँ पर तथा बगल के हनुमान मंदिर के सामने सुबह से शाम तक सैकड़ों भिखारी जमा रहते हैं। उनको समझने तथा अपने काम की दिशा तय करने के लिए मैं सुबह खा पीकर काली मंदिर पहुँच जाता और एक किनारे खड़ा होकर उनकी गतिविधियों, तकलीफों और जरूरतों, के बारे में समझने की कोशिश करता। उन्हें देखने से मुझे पता चला कि उनमें से कई तो पूरी तरह अक्षम होते हैं और उनका बसर मंदिर में आने वाले लोगों के रूपए आठ आने के दान तथा समय समय पर गृहस्थ, खिचड़ी पूड़ी लाकर उनमें बाँटते हैं उससे चलता है। कुछ लोग शरीर से पूरी तरह सक्षम होते हुए भी मुफ्त का खाने और पाने के लिए, भिखारियों का वेष बनाकर लाइन में बैठे रहते है।
लगातार चार पाँच दिनों तक उनका निरीक्षण करने के बाद मैंने मन बनाया था कि ऐसे लोग, जो शरीर से सक्षम हैं और उपार्जन करके प्रतिष्ठा की जिंदगी जी सकें, उनके लिए मैं उन्हें अगरबत्ती, मोमबत्ती तथा इसी तरह के दूसरे कामों में जुटाकर भिक्षावृत्ति से मुक्ति दिला के तथा जो अक्षम और बीमार हैं उनकी बीमारी का इलाज करवाकर उन्हें रोग मुक्त करने की सोचा था। सक्षम लोगों को लेकर अपना काम शुरू करने के लिए, मैं भिखरियों के बीच बैठे, गोपीचंद, नाम के एक आदमी को तलाश लिया था। गोपीचंद अपनी देह से पूरी तरह दुरूस्त, तथा तेज तर्रार आदमी था। इसलिए वह मुझे अपने काम के लिए बड़ा फिट आदमी नजर आया था। वह आदिवासी था। उसके बाल बच्चे गाँव पर रहते थे। गाँव में जब काम नहीं होता था तो गोपीचंद शहर आकर भिक्षावृत्ति करता था।
गोपीचंद को मैंने अपने पास बुलाकर उसे समझाया कि वह अपनी देह से पूरी तरह दुरूस्त है इसलिए उसे भीख मांगने जैसा निकृष्ट काम नहीं करना चाहिए। अगर वह तथा भिखारियों के बीच जो दूसरे लोग अपनी देह से सक्षम हैं वे राजी हों, तो मैं उनके रहने खाने की व्यवस्था के साथ, उन्हें स्थाई रूप से आमदनी हो, ऐसे लाभप्रद काम में लगा सकता हूँ। मेरी बातें सुनकर गोपीचंद बहुत प्रभावित हुआ था। उसने अपनी तरह के चार पाँच लोगों को और इकट्ठा किया था। उन्हें भी मैंने, किसी धंधे में जुटा कर, उनके लिए आमदनी का पुख्ता जरिया देने की अपनी योजना बताने के साथ यह भी बताया कि, धंधा करने से, उनकी न सिर्फ जिंदगी खुशहाल होगी बल्कि अपने उस धंधे में, अपने बाल बच्चों को जुटाकर वे उनकी भी जिंदगी खुशहाल बना सकते है। उनके पास पैसा होगा तो वे अपने बच्चों तथा नाती पोतों को अच्छा पढ़ा लिखाकर बड़ा आदमी बना सकते है। मेरी बात सुनकर वे लोग भी काफी प्रभावित हुए थे और काम करने के लिए तैयार हो गए थे। उन्होंने मुझसे पूछा था, हमें काम क्या करना पड़ेगा? मैंने उन्हें बताया कि यहाँ शहर में अगरबत्ती, मोमबत्ती जैसी चीजों की अच्छी माँग है सबसे पहले यही बनाकर बेचा जाएगा। यह काम चल निकलेगा तो इसमें पापड़ बनाने, बड़ी, साबुन, जैसी चीजें जोड़ देगें। ठीक है हम करेंगे। मैंने उनसे कहा कि तुम लोग एक ऐसी जगह की तलाश करो जहाँ आराम से रहो भी और अपना काम भी करो।
उन लोगों में से एक आदमी, पहले शहर की ही एक बस्ती में भाड़े की कोठरी लेकर रहता था। साथ में उसके, उसकी पत्नी रहती थी। वह रिक्शा चलाकर अपना जीवनयापन करता था। उसकी पत्नी किसी बीमारी से मर गई तो वह अकेला पड़ गया था, और तब से वह भिखारियों के बीच बैठने लग गया था। उसने मुझे बताया कि जिस जगह वह पहले रहता था, वहाँ किराए की कोठरी, आसानी से मिल जाती है और वहाँ रहकर, जो काम करना चाहते है, वह भी आसानी से किया जा सकता है। सबको रिक्शे पर बैठाकर मैं उसको साथ लेकर वहाँ गया। जिस घर में वह रहता था वह एक खपरैल घर था उसमें कई कोठरियाँ थीं लेकिन उस समय उनमें से कोई भी कोठरी खाली नहीं थी। रिक्शे से ही वापस लौटकर उन लोगों को मंदिर के पास छोड़ा और उन्हें कहा कि मैं उनके लिए रहने की जगह की तलाश खुद करूँगा। जगह मिलते ही मैं उनके पास पहुँच जाऊँगा।
उसी दिन मैं कॉके रोड के पूरब, फातिमा बस्ती में, शाम तक घूम कर उन लोगों के रहने लायक दो कमरों वाला एक खपरैल मकान तलाश लिया। उसमें, कोठरी के सामने बड़ा ओसार था और घर के आगे काफी खुली जगह भी थी। वह जगह हमारे मसरफ के लिए आदर्श और पर्याप्त थी इसलिए मैं मकान मालिक को तीन सौ रूपए पेशगी देकर यह कह कर चला आया कि दो तीन दिनों में हमारे आदमी यहाँ पर आकर रहने लगेंगे।
दूसरे दिन, जब मैं लोगों को लाने के लिए मंदिर के बाहर, जहां वे बैठते थे वहाँ गया तो वहाँ उनमें से कोई भी मौजूद नहीं था। उन लोगों के साथ मेरी जो भी बात हुई थी, सब, वहाँ के भिखारियों के बीच फैल चुकी थी। एक भिखारी जो शायद मुझे पहचानता था, वह अपनी जगह से आकर मुझे बताया कि, वे सब तो नहीं, लेकिन उनमें से एक आदमी वहाँ बैठा हुआ है। यह वही आदमी था जो पहले रिक्शा चलाता था और मकान तलाशने के लिए मुझे बस्ती में ले गया था। वह आदमी मुझसे छुपने के लिए अपने सिर और मुंहपर गमछा लपेट रखा था। मैं उसके पास गया और उससे पूछा, क्या हुआ तुम चलोगे नहीं ? तुम्हारा घर ठीक हो गया है। नहीं बाबू मुझे यहीं ठीक है मैं इस जगह को छोड़कर कही नहीं जाऊँगा। अपनी जगह पर बैठे ही बैठे उसने मुझे जवाब दिया था।
थोड़ी ही देर में गोपीचंद मुझे आता दिखाई दिया था। मैं लपक कर उसके पास पहुंचा और उससे पूछा क्या हुआ गोपीचंद, कल तो तुम लोग बड़े उत्साह में थे। मैंने तुम लोगों के रहने का घर भी ठीक कर लिया है लेकिन आज कोई दिखाई ही नहीं पड़ रहा है। गोपीचंद ने मुझे बताया कि, लोगों को आपकी योजना में कोई रुचि नहीं है, मैं तो चलने के लिए तैयार हूं लेकिन मैं अकेला चलकर ही क्या करूंगा ?
उस समय गोपीचंद के साथ एक सात आठ साल की बड़ी चंचल और चुलबुली बच्ची थी। उसने मुझसे कहा मैं चलूंगी बाबू तेरे साथ। यह लड़की कौन है ? मेरे पूछने पर गोपीचंद ने मुझे बताया कि यह एक बेसहारा औरत की बच्ची है। वह औरत यहीं बड़ा तालाब के पास झोपड़ी में रहती है और कचरे बीनकर अपना गुजारा करती है। बच्ची मुझे प्यारी लगी थी।
तू मेरे साथ चलकर क्या करेगी ? तू पढ़ेगी क्या ? अगर तू पढ़ना चाहे तो मैं तुझे स्कूल में भर्ती करवादूँगा। तुझे खाना कपड़ा कापी किताब सब दूँगा।
हाँ पढ़ूँगी बाबू, और तुम्हारे बच्चों के साथ रहूँगी तेरे घर का सारा काम कर दिया करूँगी।
मेरे तो बच्चे ही नहीं हैं लेकिन तू पढ़ना चाहे तो मैं तुझे पढ़ाऊँगा। बोल पढ़ेगी?
हा पढ़ूँगी?
गोपीचंद से मैंने कहा कि मैं इस बच्ची को अपने साथ तो नहीं रख सकता लेकिन इसके सारे खर्च उठाकर इसे पढ़ाऊँगा। ठीक है, बाबू, लेकिन इसके बारे में, मैं कोई निर्णय नहीं ले सकता, इसके लिए इसकी माँ से पूछना होगा, गोपीचंद ने मुझसे कहा था। वह बच्ची बड़ा चंचल थी। थोड़ी ही देर में मुझसे इतनी घुल मिल गई थी जैसे वह मुझे वर्षों से जानती हो। बच्ची से मैंने पूछा तुम कुछ खाना चाहती हो तो बोलो? उसने मुझसे चाकलेट खाने की इच्छा जाहिर किया। दूकान से चाकलेट खरीदकर मैंने उसे दिया और गोपीचंद से कहा कि कल, इसकी माँ को लेकर यहीं रहना, मैं इसी समय आऊँगा और उससे मिलकर बात करूँगा।
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क्रमशः अगले अंकों में जारी...
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रचनाकार संपर्क:
आर. ए. मिश्र,
2284/4 शास्त्री नगर,
सुलतानपुर, उप्र पिन - 228001
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