यात्रा वृत्तांत आंखन देखी (अमरीका मेरी निगाहों से) ( अनुक्रम यहाँ देखें ) - डॉ. दुर्गाप्रसाद अग्रवाल 12 रोगी की दशा उत्तम है 1 !...
यात्रा वृत्तांत
आंखन देखी (अमरीका मेरी निगाहों से)
(अनुक्रम यहाँ देखें)
- डॉ. दुर्गाप्रसाद अग्रवाल
12 रोगी की दशा उत्तम है1 !
अमरीका में मनुष्य जीवन को कितना महत्वपूर्ण माना जाता है, यह चर्चा मैं एकाधिक स्थलों पर कर चुका हूं. जहां कहीं भी आपको खतरा हो सकता है, 'सावधान' के संकेत अवश्य लगाये जाते हैं. अगर फर्श धोया गया है और आपके फिसल जाने का खतरा है तो 'सावधान' का बोर्ड न लगाया जाये, यह कल्पनातीत है. बच्चों के खिलौनों पर, दवा की शीशियों पर, घरेलू उपकरणों पर, वाहनों में, दुकानों के स्वचालित दरवाजों पर, यानी जहां ज़रा भी ज़रूरत हो, सावधान रहने की चेतावनी ज़रूर दी जाती है. ‘सावधानी हटी,दुर्घटना घटी' में यह समाज पूरा-पूरा विश्वास करता है.
ऐसे समाज में अगर कोई बीमार हो जाये तो ?
अमरीकी चिकित्सा व्यवस्था को भी नज़दीक से देखने का मौका मिल ही गया.
यहां आने के बाद से ही ऐसा लग रहा था कि मेरा रेस्टरूम जाना बढ गया है. रेस्टरूम भारतीय प्रसाधन का अमरीकी संस्करण है. पहले रात को इस निमित्त एक बार उठता था अब चार-पांच बार उठना पडता है. फिर जाने कैसे एक दिन याद आया कि कुछ ऐसे ही लक्षणों की वजह से जयपुर में मेरे मित्र डॉक्टर मनोहर प्रभाकर को प्रोस्टेट एन्लार्जमेण्ट विषयक ऑपरेशन कराना पड़ा था. यह भी याद आया कि कदाचित मुझे भी यह शिकायत कोई एक साल से है. ध्यान यहां आकर गया. चिंतित होना अस्वाभाविक नहीं था. एक दिन पत्नी से अपनी चिंता की चर्चा की. साथ-साथ इंटरनेट पर गूगल सर्च में प्रोस्टेट एन्लार्जमेण्ट के बारे में पड़ताल की.
यह इंटरनेट भी क्या चीज़ है ! सारी दुनिया का ज्ञान आपकी उंगलियों का गुलाम बना कर रख दिया गया है. सर्च एंजिन आपके लिये इतनी सारी सूचनाएं लाकर रख देते हैं कि बस ! काफी कुछ पढ़ लिया. लगा कि सारे लक्षण उसी के हैं.
उधर पत्नी ने चारु से चर्चा कर दी. और चारु, हमारी बेटी ! वैसे तो बेटियां होती ही ऐसी हैं पर हमारी बेटी तो कुछ ज्यादा ही 'ऐसी' है. अपने मां-बाप की जैसी चिंता वह करती है वैसी, मुझे तो लगता है, शायद ही कोई और बेटी करती होगी. मेरा खयाल तो यह था कि यह समस्या कोई बड़ी समस्या नहीं है, भारत लौटकर इसका उपचार करा लूंगा, लेकिन उसने चुपके-से ही (अगर मुझे बताती तो मैं मना कर देता - ऐसा उसे डर था) हम लोगों के एक डॉक्टर मित्र से चर्चा कर ली.
डॉक्टर पंकज राजवंशी और उनकी पत्नी डॉक्टर आरती राजवंशी मेरे ससुराल पक्ष की ओर से हमारे रिश्तेदार हैं. पर पहली मुलाक़ात उनसे पिछली बार यहाँ आने पर ही हुई. फिर वे लोग और चारु-मुकेश बहुत नज़दीक आ गये. पंकज और आरती बहुत मज़ेदार युगल हैं. पंकज को टेक्नोलॉजी,कला,राजनीति,भ्रमण और जाने किन-किन चीज़ों में गहरी दिलचस्पी है और आरती जैसे जीवंतता का खज़ाना है. इसी 4 जुलाई (2004) को इन दोनों को यहां की नागरिकता मिल गई है.
तो, एक शाम ये राजवंशी दम्पती घर आये, पंकज ने मेरा परीक्षण किया, लम्बी चर्चा की, कुछ रक्त परीक्षण वगैरह करवाने को कहा.
अगले ही दिन मुकेश मुझे रक्त परीक्षण के लिये ले गये. डायग्नास्टिक सेंटर वालों को पंकज ने पहले ही फोन कर दिया था. आप सीधे परीक्षण नहीं करवा सकते - जैसे भारत में लैब में जाकर करवा लिया करते हैं. डॉक्टर का निर्देश यहां ज़रूरी होता है. जहां हमें जाना था, वह जगह घर से कोई 30-40 मील दूर थी. बहुत शानदार (यह भी अल्पकथन ही है) बहुमंज़िला इमारत की पांचवीं मंज़िल पर (लिफ्ट से) पहुंचे. रिसेप्शनिस्ट को अपना नाम बताया - भारतीय नामों को समझने में इन लोगों को दिक्कत होती है इसलिये ए जी आर ए डब्ल्यू ए एल करके बताया. भद्र महिला ने कार्ड निकाला - डॉक्टर पंकज के फोन करते ही कार्ड बना दिया गया था. मुकेश ने बता दिया कि मेरा कोई इंश्योरेंस नहीं है (ज्यादातर अमरीकियों का होता है, भुगतान सीधे इंश्योरेंस कम्पनी से ही हो जाता है), अतः शुल्क का भुगतान मुकेश ने अपने क्रेडिट कार्ड से कर दिया.
मुझे परीक्षण कक्ष में ले जाया गया. पहले मूत्र परीक्षण. फिर रक्त परीक्षण. एक कुर्सी पर बिठाकर पेट के आगे लगभग वैसा ही अवरोधक लगा दिया गया जैसा हमारे यहां झूलों में सुरक्षा के लिये लगाया जाता है. सौम्य भद्र महिला (नर्स!) मीठी-मीठी बात करती जा रही थी. बांह पर पहले रबड़ की एक डोरी बांधी, फिर मुट्ठी में एक गेंद देकर उसे दबाने को कहा (ताकि नस उभर आये),फिर स्पिरिट से नस के आसपास की जगह साफ की. जब एक बड़ी-सी सिरिंज और बड़ी-सी शीशी उसने हाथ में ली, तो मैंने घबराकर पूछा कि क्या इतना सारा खून निकालेंगी, और उसने मुझे आश्वस्त किया कि नहीं, बस, थोड़ा-सा ही लेंगी. भद्र महिला वाकई भद्र थीं. सुई इतनी धीरे-से चुभाई कि बस मुझे यही पता चला कि खून लिया जा चुका है. फिर जहां सुई चुभाई थी वहां एक सुरक्षा पट्टी चिपकाई, और विदा.
निश्चय ही इस लैब ने भारी राशि ली होगी. पर जो व्यवस्था, जो सफाई, जो शालीनता, जो शिष्टाचार था वह मेरे लिये कल्पनातीत था. भारत के लिहाज़ से. मुकेश ने मुझे बताया कि अंतर महंगे-सस्ते का नहीं है. सेवा का स्तर हर जगह यही होता है.
वहां से रिपोर्ट पंकज को भेज दी गई. अगले दिन पंकज का फोन आया कि यद्यपि और कोई कॉम्प्लिकेशन नहीं है (मसलन यूरीन इंफेक्शन, डायबिटीज़, किडनी मालफंक्शन वगैरह) पर मुझे दवा तो लेनी ही होगी. और उन्होंने दवा भी भिजवा दी. इसके बाद भी हर दूसरे-तीसरे रोज़ फोन करके पंकज मेरा हाल चाल पूछते रहे.
दस बारह दिन बाद पंकज को लगा कि दवा का अपेक्षित असर नहीं हो रहा है. उन्होंने दो सलाहें दीं. एक, मैं एक और ब्लड टेस्ट करवा लूं, दो, एक यूरोलॉजिस्ट को भी दिखा लूं. दोनों की व्यवस्था भी उन्होंने कर दी. ब्लड टेस्ट पहले की ही तरह हो गया. लैब हालांकि उतनी बड़ी और भव्य इमारत में नहीं थी पर सावधानी, सफाई और सुव्यवस्था में किसी भी तरह कम नहीं थी. यानि, मैं यह मानने को बाध्य हुआ कि ये गुण यहां की व्यवस्था में ही अंतर्निहित हैं.
लैब ने दूसरे ही दिन रिपोर्ट डॉ. पंकज को भिजवा दी. बकौल पंकज, सब कुछ ठीक था. पर यूरोलॉजिस्ट से तो मिलना ही था. पंकज ने न केवल अपने एक मित्र डॉक्टर नरेंद्र सूद का नाम सुझाया, उनसे बात भी कर ली. इसी हवाले से मुकेश ने डॉक्टर सूद के दफ्तर में फोन करके अपाइंटमेंट भी ले लिया. यहां यह ज़रूरी है. यह नहीं कि जब भी आपका मन (या सुविधा) हो आप डॉक्टर के पास चले जायें. अपाइंटमेंट मिला कोई 15 दिन बाद का.
दूसरे ही दिन डॉक्टर सूद के कार्यालय से एक मोटा लिफाफा आन पहुंचा. इसमें अपाइंटमेंट की सूचना तो थी ही, उनके क्लिनिक तक पहुंचने का विस्तृत निर्देश भी था. यहां यह ज़रूरी भी है. सड़कों पर यातायात की गति तीव्र होती है - आप हर कहीं गाड़ी नहीं रोक सकते. और रोक कर होगा भी क्या? किससे पूछेंगे कि भाई साहब, गली नम्बर 13 किधर है? कोई भाई साहब (या बहन जी) पैदल तो होंगे नहीं. सड़क पर नज़र आती है बस गाड़ियां और गाड़ियां. पैदल चलते आदमी के दर्शन बड़े भाग्य से ही नसीब होते हैं. तो, विस्तृत मार्ग-निर्देश भेजना यहां की व्यवस्था का अंग है. सड़कों की नम्बर व्यवस्था, भवनों पर नम्बर का अंकन और मार्ग चिह्न सब इतने सुस्पष्ट, मानकीकृत और सुनिश्चित होते हैं कि आप प्रदत्त निर्देश के सहारे बिना भटके कहीं भी पहुंच सकते हैं. किसी गंतव्य का मार्ग ढूंढने का एक और तरीका कम्प्यूटर भी है. कम्प्यूटर में अपनी लोकेशन और गंतव्य का पता फीड कीजिये और पूरा नक्शा हाज़िर, जिसमे यह तक अंकित होगा कि आपको यह दूरी तै करने में कितना समय लगेगा. अब तो गाड़ियों में भी जी. पी. एस.(Global Positioning System)आने लगे हैं जो आपकी यात्रा को और भी सुगम बना देते हैं. डॉक्टर पंकज के घर हम पहली बार कम्प्यूटरजी से रास्ता पूछ कर ही पहुंचे थे. कम्प्यूटर ने यात्रा का समय 35 मिनिट बताया था और ठीक 35 वें मिनिट पर हम जिस घर के सामने थे वह पंकज का था. पर यह सब कम्प्यूटर का ही चमत्कार नहीं है. नगर नियोजन की भूमिका भी इतनी ही अहम है. गलियों की नम्बर व्यवस्था (यहां उनके नम्बर ही होते हैं, नाम नहीं) बहुत व्यवस्थित, योजनाबद्ध, मानकीकृत वैज्ञानिक और तर्कसंगत है. इसलिये अगर आप गली नम्बर 138 तक पहुंच गये हैं तो यह निश्चय मानिये कि अगली गली 139 ही होगी. यही हाल मकानों का भी है. कोई मकान बिना नम्बर का नहीं होता और नम्बर व्यवस्था भी उतनी ही तर्कसंगत तथा वैज्ञानिक होती है.
लेकिन फिर भी मैं तो भटक ही गया हूं! बात चिकित्सा व्यवस्था की कर रहा था, ज़िक्र रास्तों का करने लगा. फिर अपनी राह पकड़ता हूँ.
डॉक्टर सूद के मोटे लिफाफे में कुछ प्रपत्र थे जिनमें मुझे अपने बारे में, अपनी सेहत के बारे में, अपनी आदतों के बारे में सवालों के जवाब देने थे. इन प्रपत्रों को मैंने भर लिया. प्रसंगवश, फिर यह बता दूं कि यह सब भी यहां की व्यवस्था का एक अनिवार्य अंग है. कुछ ही दिनों बाद विमला को भी ऐसा ही अनुभव हुआ. हुआ यह कि उसकी एक डाढ़ का एक छोटा-सा टुकड़ा टूट गया. बचा हुआ तीखा हिस्सा गाल को भीतर से आहत करने लगा. बहुत छोटा-सा मामला था. किसी डेण्टिस्ट के पास जाकर डाढ़ के नुकीले हिस्से को थोडा-सा घिसवा लेना था. पर यहां कोई शॉर्ट-कट नहीं होता. तीन पेज भर सवालों के जवाब तो देने ही पड़े. उसके बाद एक्स-रे भी. बहरहाल.
निर्धारित तिथि को नियत समय पर चारु मुझे लेकर डॉक्टर सूद के अस्पताल पहुंची. हां,एक दिन पहले डॉक्टर सूद के कार्यालय से फोन आ गया था कि अगले दिन इतनी बजे हमारा अपाइण्टमेण्ट है. ऐसा यहां हमेशा किया जाता है. हमारा अपाइण्टमेण्ट 1.15 बजे का था. 1.15 पर जब हम रिसेप्शनिस्ट के सामने पहुंचे तो उसने प्रश्नसूचक निगाहों से देखते हुये सवाल किया- 'डूरगा एगरवाल'? यहां भारत की तरह नामों को संक्षिप्त करने (दुर्गाप्रसाद=डीपी) का रिवाज़ नहीं है इसलिये पूरे नाम का ही प्रयोग करना होता है और भारतीय नाम स्वभावत: इन लोगों को अटपटे लगते हैं.
रिसेप्शनिस्ट महिला ने भुगतान के बारे में रस्मी सवाल पूछे, हमने बता दिया कि हमारा कोई इंश्योरेंस नहीं है. वह हमें बिल थमाने को ही थी कि उसकी एक सह्कर्मी ने आकर उससे कुछ गुफ्तगू की. (उसने कहा कि डॉक्टर सूद का निर्देश है कि हमसे फीस न ली जाए). यह पंकज की करामात थी.
डेस्क की औपचारिकताओं के बाद मुझे अन्दर भेजा गया. पहले मूत्र परीक्षण. रेस्ट रूम में जाने को कहा गया. वहां सेम्पल देने के लिये एक साफ सीलबन्द शीशी, हाथ वगैरह धोने के लिये साबुन युक्त टिश्यूज़ रखे हुए थे तथा कैसे क्या करना है की बाबत विस्तृत निर्देश दीवार पर अंकित थे. शालीनता का तकाज़ा है कि मैं उन निर्देशों की चर्चा यहां न करूं, लेकिन इतना संकेत अवश्य कर दूं कि इन सारे निर्देशों का असल मक़सद यही था कि जो सेम्पल आप दें वह एकदम शुद्ध हो, यानि उसमें किसी भी तरह का बाह्य संक्रमण न हो. कहना अनावश्यक है, भारत में, आम तौर पर, ऐसी सावधानी नहीं बरती जाती है. स्टील की एक छोटी-सी खिड़की में निर्धारित स्थल पर सेम्पल रख कर बाहर आया तो मुझे रक्त परीक्षण के लिये कुर्सी पर बिठा दिया गया और वही सारी प्रक्रिया दुहराई गई जिसका वर्णन मैं पहले भी कर चुका हूं.
इसके बाद मुझे एक परीक्षण कक्ष में ले जाया गया. एक दीवार पर प्रोस्टेट विषयक चार्ट टंगे थे. एक बन्दा, थोड़े लम्बे बालों वाला, आया. हंस कर अपना परिचय दिया कि डॉक्टर सूद का सहायक हूं; मेरा रक्तचाप, नब्ज़ परीक्षण किया और चला गया. कोई दस मिनिट बाद एक अजीब-सी चीज़ पर सवार एक अधेड़ भारतीय पुरुष कमरे में आये. यह अजीब-सी चीज़ एक व्हील चेयर, स्टूल और स्कूटर का संकर अवतार थी और इस पर आरूढ़ सज्जन डॉक्टर सूद थे. दिल्ली के डॉक्टर सूद वर्षों से अमरीका में हैं और घुटने में लगी चोट की वजह से इस अजूबे का इस्तेमाल करते हैं.
यहीं फिर एक प्रसंगांतर करना पड़ रहा है.
अमरीकी समाज में विकलांग दया, सहानुभूति या हिकारत के नहीं बल्कि विशेष तवज्जोह के पात्र माने जाते हैं. हर पार्किंग स्थल पर दरवाजे के ठीक पास वाली जगह विकलांगों की गाड़ियों के लिये आरक्षित होती है और रिक्त होने पर भी अन्य लोग उसका इस्तेमाल कर ही नहीं सकते, यानि विकलांग न हो तो वह जगह खाली ही रहेगी. भारी-भरकम दरवाज़ों के निकट विकलांगों की सहायता के लिये एक बटन होता है, जिसे दबाने पर दरवाज़ा खुद-ब-खुद खुल जाता है. अन्यों को काफी ताकत लगाकर, धकेल कर यह दरवाज़ा खोलना पड़ता है. हर फुटपाथ पर व्हील चेयर के
चढ़ाने-उतारने के लिये एक डिप (dip) होता है, हर इमारत में व्हील चेयर के लिये अलहदा रैम्प होता है. एक दृश्य तो मेरी स्मृति में जैसे चिपक ही गया है. हम लोग खिलौनों की प्रसिद्ध दुकान 'टॉयज़ आर अस' (जिसे मैं मज़े में टॉय सारस कहने लगा हूं) गये थे. चारु और विमला अन्दर चले गये, मैं गाड़ी में ही बैठा रहा. देखा, एक बड़ी-सी कार आकर रुकी. आगे का दरवाज़ा खुला, दो हाथों ने पहले एक पहिया नीचे रखा, फिर फोल्डेड व्हील चेयर, फिर उसे खोला, फिर दूसरा पहिया, फिर तीनों को जोड़ा और व्हील चेयर तैयार हो गई. इसके बाद कोई पचासेक बरस का एक गोरा आहिस्ता-से कार की ड्राइविंग सीट से फिसल कर व्हील चेयर में बैठा, कार का दरवाज़ा बन्द किया. पीछे का दरवाज़ा खोला, चार-पांच साल की एक बच्ची फुदकती हुई बाहर आई. दरवाज़ा बन्द किया, रिमोट से कार को लॉक किया और व्हील चेयर पर विराजित सज्जन तथा उनके पीछे-पीछे वह बच्ची दुकान में चले गये. कोई पंद्रह मिनिट बाद यही दृश्य फिर दुहराया गया, विपरीत क्रम में. इस बार सज्जन ने गाड़ी का ट्रंक भी खोला (ट्रंक, यानि डिक्की). खरीदा हुआ सामान उसमें रखा. भरपूर आत्म विश्वास, कहीं आत्म-दया का कोई भाव नहीं, उसकी एक हल्की-सी झलक तक नहीं. वाह अमरीका!
फिर अपनी राह पर आता हूं.
डॉक्टर सूद मेरे पास आने से पहले मेरे सारे परीक्षणों की रिपोर्टों का अध्ययन कर चुके थे. इसीलिये उन्हें आने में दस मिनिट लगे. कुछ इधर-उधर की बातें की, ताकि मैं सहज हो जाऊं, और फिर मेरे रोग की चर्चा. भारत में हम होमियोपैथिक चिकित्सकों का खूब मज़ाक उड़ाते हैं कि वे सवाल पर सवाल पूछ कर ही आपको इतना तंग कर डालते हैं कि आपको अपना रोग छोटा लगने लगता है. पर ये डॉक्टर सूद तो उनके भी पिताश्री निकले. बाप रे बाप! क्या-क्या सवाल नहीं पूछ डाले. कोई आधा घण्टा. पूरी तसल्ली से. पूरी आत्मीयता से. एक दम अनौपचारिक सहजता से. कोई जल्दबाजी नहीं, बड़प्पन के आतंक का कोई बोझ नहीं. जैसे डॉक्टर न हों, बरसों पुराने दोस्त हों. फिर देह परीक्षण, फिर सवाल.
और अंत में यह कि मेरी आशंका निर्मूल है. ज्यादा सम्भावना यह है कि प्रोस्टेट में ऐसे किसी संक्रमण की वजह से, जो परीक्षणों में भी पकड़ में न आ पाता हो, थोड़ी सूजन हो. इसके लिये बहुत हल्की-सी दवा लेना पर्याप्त होगा.
डॉक्टर सूद के पास से लौटते हुए मैं बेहद आश्वस्त था. उनका व्यवहार, उनकी व्यावसायिक दक्षता, उनकी सिंसियरिटी (हिन्दी में क्या कहेंगे इसे?) ने मुझे आश्वस्त करने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी.
कुछ दिनों बाद डॉक्टर सूद के कार्यालय से एक मोटा लिफाफा आया जिसमें वह सारा विवरण अंकित था जो उन्होंने मुझसे चर्चा करके प्राप्त किया था, थे उनके निदान तथा वे अन्य सारी बातें ज़िनकी भविष्य में कभी भी इलाज़ करवाते हुए मुझे ज़रूरत पड़ सकती है. यह था चिकित्सा का पूरा प्रोफेशनल अन्दाज़ !
मैं सोच रहा था, भारत में भी मुझे ऐसा ही अनुभव हो, इसके लिये कितने वर्ष प्रतीक्षा करनी होगी ?....
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1. इस लेख का शीर्षक मिर्ज़ा गालिब के प्रसिद्ध शेर 'उनके देखे से जो आ जाती है...' के पण्डित द्वारिका प्रसाद मिश्र द्वारा किये गये हिन्दी अनुवाद के अंश से, साभार.
पूरा अनूदित शेर इस तरह है:
उनके दर्शन से जो आ जाती है मुख पर आभा
वो समझते हैं कि रोगी की दशा उत्तम है !
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(शेष अगले अंक में जारी...)
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