यात्रा वृत्तांत आंखन देखी (अमरीका मेरी निगाहों से) ( अनुक्रम यहाँ देखें ) - डॉ. दुर्गाप्रसाद अग्रवाल 7 पूंजीवाद के देश में समाजव...
यात्रा वृत्तांत
आंखन देखी (अमरीका मेरी निगाहों से)
(अनुक्रम यहाँ देखें)
- डॉ. दुर्गाप्रसाद अग्रवाल
7 पूंजीवाद के देश में समाजवाद की घुसपैठ
भारत के बारे में पश्चिम के अज्ञान की अक्सर चर्चा होती है. मसलन पश्चिम में भारत को अभी भी सपेरों-हाथियों वाले आदिम देश के रूप में जाना जाता है. मज़े की बात यह कि पश्चिम के बारे में भारत के अज्ञान का भी कमोबेश यही हाल है. जैसे कि पेरिस में कांच की सड़कें हैं या अमरीका में इतनी अमीरी और इफरात है कि लोग अपनी कारें सीधे समुद्र में ही डाल देते हैं. इधर सूचना क्रांति और चाक्षुष माध्यमों के त्वरित विकास से इस तरह के आधारहीन मिथक टूटते जा रहे हैं.
निश्चय ही अमरीका बाहुल्य का देश है. खासी अमीरी है इस देश में. डॉलर की भी, मन की भी. लोगों को उपभोग का और नवीनतम को अपनाने का जैसे जुनून ही है. नए का क्रेज़ इतना है कि महंगी से महंगी ड्रेस एक डेढ़ महीने बाद ही सेल पर चली जाती है. लेकिन जो सामान आपने खरीद लिया है और अब आप जिसका इस्तेमाल नहीं करना चाहते हैं, उसका क्या हो? समुद्र में फेंका जाए? अगर ऐसा ही हो रहा होता तो समुद्र कब का कचरे के ढेर में तब्दील हो चुका होता. समुद्र में फेंकने की बात महज़ अतिशयोक्तिपूर्ण कल्पना है.
तो फिर होता क्या है?
वैसे तो अमरीका में गेराज सेल की अवधारणा काफी लोकप्रिय है. वस्तुतः यहां के गेराज हमारे स्टोर का अमरीकी संस्करण भी होते हैं. वहां न केवल कार/कारें खड़ी की जाती हैं, घर का वह सारा सामान भी रखा जाता है जो एक हद तक गैर या कम ज़रूरी होता है. तो, अगर किसी को कुछ भी सामान अनुपयोगी लगता है, वह उसे अलग छांट, गेराज सेल के बोर्ड के साथ गेराज में रख देता है. अखबार या इण्टरनेट पर विज्ञापन दे दिया जाता है. मूल्य भी प्रचारित कर दिया जाता है. ज़रूरतमन्द आते हैं, सामान पसन्द करते हैं, कभी-कभार मोल-भाव भी होता है, और बस!
लेकिन हर चीज़ के साथ तो यह व्यवस्था कारगर नहीं हो पाती है. अगर आपके सामान का कोई खरीददार न मिले तो? आप खुद ही उसे बेचना न चाहें(पर उससे मुक्ति अवश्य पाना चाहें)तो? जैसे-जैसे पर्यावरण के प्रति जागरूकता बढती जा रही है, चीज़ों को फेंकने (और इस तरह पर्यावरण को बिगाड़ने) का चलन घटता जा रहा है. ऐसे अनेक संगठन बन गये हैं जो विज्ञापन देकर आपसे आपका बेकार सामान लेते हैं (कभी-कभी कुछ शुल्क भी) और उसे री-साइकल करते हैं.
पर इधर हाल ही में कुछ और भी तेज़ दिमाग लोगों ने एक और अच्छी पहल की है. लगता है पूंजीवादी देश में भी समाजवाद आ रहा है. आपके पास ज़्यादा है तो उसे दे दें जिसे उसकी ज़रूरत है.
कैसे होता है यह?
एक संगठन बन गया है - फ्री साइकल(Free cycle). इस संगठन की एक वेब साइट है : www. recycle.org. आप इस साइट पर जाएं और अपने इलाके के संगठन को ढूंढ लें. एक छोटा-सा पंजीकरण फॉर्म भरें - वह भी ऑनलाइन, और बस ! कोई सदस्यता शुल्क नहीं. संगठन का मूल सोच यह है कि कोई चीज़ कबाड़ नहीं होती. हो सकता है जो चीज़ आपके लिये अनुपयोगी हो गई है उसकी ज़रूरत किसी और को हो. संगठन दोनों के बीच आदान-प्रदान को सुगम बनाता है. हमारे इलाके में जो समूह है उसका नाम फ्री साइकल सिएटल है. इस समूह की साइट पर दो तरह के विज्ञापन दिये जाते हैं : ऑफर्ड, और वाण्टेड, यानि देना है और चाहिये. अब आपने ऐसा कोई सन्देश देखा जिसमें ऑफर की गई वस्तु आपको चाहिये, तो आप विज्ञापन दाता को ई-मेल कर दें. क्या होगा, अगर उस चीज़ को चाहने वाले एक से अधिक हों? जिसने सबसे पहले आग्रह किया, उसका हक़ है. सम्वाद से समय तै कर लिया जाएगा, और आपकी ज़रूरत की चीज़ आपको मिल जायेगी. दोनों ही पक्ष कम्प्यूटर पर यह सन्देश प्रसारित कर देंगे कि उनकी तमन्ना पूरी हो गई है.कुछ नियमों-सिद्धांतों का कड़ाई से पालन किया जाता है. जैसे, सारा लेन-देन निशुल्क होगा, जो चीज़ें ली-दी जाएंगी, वे अवैध नहीं होंगी, वगैरह.
फ्री साइकल संगठन इतना लोकप्रिय होता जा रहा है कि लोग गेराज सेल से विमुख होते जा रहे हैं. लोगों को लगता है कि यह संगठन अपने पड़ौसी को जानने व उससे आत्मीय होने का उम्दा माध्यम है. संगठन की लोकप्रियता बढ़ने के साथ-साथ इसके शिष्टाचार नियम भी गढ़े जाने लगे हैं. लोगों को सलाह दी जाती है कि वे उतना ही लें जितना उन्हें वांछित हो, और यह भी कि उन्हें ज़्यादा खुश देकर होना चाहिये, न कि लेकर.
इस संगठन की सफलता ने कुछ मतलबियों को भी अपना उल्लू सीधा करने का मौका दे दिया है. लोग यहां से प्राप्त ई-मेल पतों को स्पाम (Spam, अवांछित ई-डाक) भेजने के लिये इस्तेमाल करने लगे हैं. अमरीका में स्पाम एक बड़ा सरदर्द है. जब भी आप अपना ई-मेल का इन बॉक्स खोलते हैं, उसमें इतनी अवांछित डाक होती है कि आपकी काम की डाक मानो खो ही जाती है. यह अवांछित डाक प्राय: विज्ञापन होती है, लेकिन इसमें कभी-कभी वायरस भी होते हैं.
अच्छी बात यह है कि चीज़ों के आदान-प्रदान की इस पहल की सफलता ने कुछ और संगठन भी बनवा दिये हैं. ऐसा ही एक संगठन है : टाइमबक्स (Timebucks). यह संगठन लोगों को वस्तु की बजाय समय और सेवाओं के आदान-प्रदान का मौका देता है. मैं आधा घण्टा निकाल सकता हूं, आपको ज़रूरत है, आपके काम आ जाऊं. मैं पढ़ा सकता हूं, आपको पढ़ना है, मिल लें.
इन संगठनों के बारे में जाना-पढ़ा तो लगा कि समाजवाद कभी मर नहीं सकता.
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(शेष अगले अंक में जारी...)
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अब यह सब भी अमरीका से सीखना पड़ेगा. काश यह आधुनिकता के कुछ पैरोकार पढ़ते. उन्हें भी समझ में आता कि एक सच्चा भारतीय कितना वैज्ञानिक जीवन जीता है जिसे हम पोंगापंथी और दकियानूसी कहकर खारिज कर देते हैं असल में उसमें एक जीवन दर्शन छिपा है.
जवाब देंहटाएंलेख बहुत ज्ञान वर्धक है.
जवाब देंहटाएंदीपक भारतदीप