यात्रा वृत्तांत आंखन देखी (अमरीका मेरी निगाहों से) ( अनुक्रम यहाँ देखें ) - डॉ. दुर्गाप्रसाद अग्रवाल 2 हैप्पी बर्थ डे टू यू ...
यात्रा वृत्तांत
आंखन देखी (अमरीका मेरी निगाहों से)
(अनुक्रम यहाँ देखें)
- डॉ. दुर्गाप्रसाद अग्रवाल
2 हैप्पी बर्थ डे टू यू
चारु ने सुबह ही कह दिया था कि शाम को हमें दीपिका के यहां जाना है.
दीपिका और रजनीश (राज) इन लोगों के नज़दीकी दोस्तों में हैं. नज़दीकी कई तरह की है. घर एकदम पास है. पैदल कोई 3-4 मिनिट की दूरी पर. मुकेश और राज दोनों ही माइक्रोसॉफ्ट में हैं. दोनों, बल्कि चारों बेहद मिलनसार और खुशमिज़ाज़ हैं. पिछली बार, डेढ़ेक साल पहले जब हम लोग यहां आए थे, इन परिवारों में दोस्ती नहीं थी. लेकिन इस बीच गंगा में बहुत सारा पानी बह चुका है. दोनों परिवार कई बार साथ बाहर जा चुके हैं, और अगर एक घर में कोई खास डिश बनती है तो दूसरे घर में उसके स्वाद की तारीफ होती ही है. दोनों परिवारों की नज़दीकी का एक आयाम यह भी है कि चारु और दीपिका की गर्भावस्था एक साथ आगे बढ रही है. दोनों की सम्भावित प्रसव तिथि एक ही है. अस्पताल एक है, डॉक्टर एक है. और जैसे इतना ही काफी न हो, गर्भकाल में मदद के लिये चारु के मां-बाप(यानि हम) आये हुए हैं तो दीपिका के भी मां-बाप आये हुए हैं. दोनों परिवार अग्रवाल हैं.
आज दीपिका का जन्म दिन है. प्रसवकाल निकट होने से यह संशय तो बना ही हुआ था कि शाम को दीपिका (या चारु, या दोनों) घर पर ही होंगी या प्रसूतिगृह में, पर फिर भी आयोजन कर ही लिया गया था.
मुकेश भी आज दफ्तर से जल्दी आ गये. सात बजे. रोज़ साढ़े आठ-नौ बजे तक आते हैं. जल्दी से नहा-धोकर तरोताज़ा हुए और हम चले राज के घर. पहले एक चक्कर निकट की दुकान का. चारु दीपिका के लिये कुछ लेना चाहती थी. राज ने साढ़े सात बजे बुला रखा था. इन दिनों अमरीका में सूर्यास्त बहुत देर से होता है - रात साढ़े नौ बजे के आस पास. साढ़े सात बजे तो ऐसा लग रहा था जैसा भारत में शाम चार बजे लगा करता है. पूरा, चमकता, उजास भरा दिन. जल्दी करते-करते भी हम थोडा लेट हो ही गये. राज के यहां पहुंचे तो घड़ी आठ बजा रही थी. बहुत बड़ा आयोजन नहीं था. कोई दस-बारह लोग थे. सभी सहकर्मी. सभी युवा. सभी भारतीय. यहां भारतीयों व अमरीकियों के सम्बंध काम-काज तक ही सीमित हैं. घर आने-जाने की आत्मीयता लगभग नहीं है. भारतीयों की अपनी एक अलग ही दुनिया है. सिएटल जैसे शहर में इस दुनिया का बना रहना सहज और सम्भव है भी. अकेले माइक्रोसॉफ्ट में ही लगभग चार-पांच हज़ार भारतीय हैं. कहीं भी जाएं - शॉपिंग माल में, पार्क में, रेस्टोरेण्ट में, आपको साड़ी,सलवार, चूड़ी ,बिन्दी के दर्शन हो ही जाएंगे.
तो हम भी जूते उतार कर भीतर पहुंचे. बता दूं कि यहां जूते अनिवार्यतः बाहर उतारे जाते हैं. सभी आ चुके थे. दो युवा माताएं और उनके पतिगण - अपने अपने शिशुओं में मगन. एक की संतान पिछली जून में हुई थी, एक की जुलाई में. चर्चा हुई कि मई में मां बनने वाली दो युवतियां (चारु व दीपिका) यहां हैं. इस तरह मई,जून,जुलाई,अगस्त में लगातार बर्थडे पार्टियां हुआ करेंगी. एक दोस्त इन लोगों की दो-तीन दिन बाद भारत से आने वाली हैं. उन्होंने अगस्त में शिशु को जन्म दिया था. उन्हें भी गिन लिया गया था. उनके पति पार्टी में थे. एक और दंपती थे. पत्नी गर्भवती थीं. दिखाई भी दे रहीं थी पर उनका परिचय यह कहकर कराया गया कि वे प्रैग्नेण्ट हैं. यहां गर्भावस्था को गोपनीय नहीं माना जाता. उसके बारे में जितनी खुलकर और सहज भाव से उल्लासपूर्ण चर्चा होती है उसकी भारत में कल्पना भी नहीं की जा सकती. इस खुलेपन का एक बड़ा फायदा यह है कि स्त्रियां अपनी गर्भावस्था के बारे में, उसके कष्टों के बारे में और उन कष्टों से बचने के उपायों के बारे में सब कुछ जान जाती हैं. डॉक्टर भी बहुत खुलकर और विस्तार से बात करते हैं. नए माता-पिता के लिये बाकायदा सेमिनार्स/काउंसिलिंग सेशंस होते हैं और लोग पैसा खर्च कर उनका लाभ उठाते हैं. यह है जीवन के प्रति स्वस्थ दृष्टिकोण!
सभी से परिचय हुआ. रजनीश की बहन नयनतारा भी इसी सिएटल शहर में रहती है. वह भी आई हुई थी. दीपिका के माता-पिता और हम दोनों को छोड़कर शेष सभी आपस में बहुत अच्छी तरह घुले-मिले थे. पर असहज हम भी महसूस नहीं कर रहे थे. अमरीकी जीवन और आबो-हवा में कुछ ऐसी अनौपचारिक सहजता है कि आप प्रवाह से अछूते रह ही नहीं सकते. हंसी-मज़ाक के दौर पर दौर चल रहे थे. नयनतारा से कहा गया कि वह आजकल राज के यहां बहुत आती हैं. उसने भी मज़ाक का पूरा मज़ा लेते हुए जवाब दिया कि आजकल यहां अच्छे-अच्छे पकवान जो बनते हैं. इतना सुख कि न केवल खाओ, अगले दिन के लिये पैक करके भी ले जाओ.. मैं सोच रहा था, क्या भारत में इस तरह मज़ाक किया जा सकता है? और क्या यह भी बहुत स्वाभाविक होगा कि एक ही शहर में बहन-भाई अलग-अलग घरों में रहें? बड़े शहर की दूरियों और काम की व्यस्तताओं ने अस्वाभाविक को भी स्वाभाविक बना दिया है. जब भी फुरसत मिलती है, नयनतारा भाई के यहां आ जाती है. एमबीए किया है. किसी अच्छी कम्पनी में काम करती है. छोटी-सी,प्यारी-सी,गुडिया-सी लडकी. भारत में होती तो शायद मां कहीं अकेले जाने ही नहीं देती, लेकिन यहां सात समुद्र पार पूरे दमखम से शानदार ज़िन्दगी जी रही है. यह है आज की युवती.
यहां खाने की कुछ भिन्न परम्परा है.पहले अपेटाइज़र. पर भारत में इस से जो आशय होता है(सूप वगैरह) उससे थोड़ा अलग. यहां अपेटाइज़र का आशय खाद्य से होता है, बेशक उसके साथ पेय भी हो सकता है. हमें ब्रेड रोल और कांजी बड़ा दिया गया. यहां पेपर नैपकिन (जिसे ये लोग टिश्यू पेपर कहते हैं) का भरपूर उपयोग होता है. गिलास डिस्पोज़ेबल, पर इतने सुघड़ और सुन्दर कि चाहें तो अलमारी में सजा लें. टिश्यू भी कम गरिमापूर्ण नहीं.
हंसी-मज़ाक का दौर चल रहा था. हम फेमिली रूम में ही थे. फेमिली रूम यहां एक ऐसी जगह होती है जिसमें किचन भी शामिल होता है. ओपन किचन. किचन, एक बड़ी टेबल, कुछ सोफे (जिन्हें ये लोग काउच बोलते हैं), कुछ कुर्सियां, स्टूल, टीवी, म्यूज़िक सिस्टम; यानि जहां बैठकर आप गपशप करते हुए, अनौपचारिक व सहज रूप से खा-पी सकें. टेबल पर केक लगा दिया गया था. दीपिका ने (जिन्हें डॉक्टर के अनुमान के लिहाज़ से इस समय अस्पताल में होना चाहिये था) केक काटा. सबने तालियां बजाईं, ‘हैप्पी बर्थ डे टू यू’ गाया.
राज और मुकेश ने पूछा कि मैं ड्रिंक में क्या लेना पसन्द करूंगा. राज के यहां बहुत समृद्ध बार है. मेरी पसन्द व्हिस्की थी. राज ने टीचर्स व्हिस्की की बॉटल निकाली. राकेश जी और उषा जी -दीपिका के माता पिता- लखनऊ में रहते हैं. ये गुप्ता दंपती भी हमारी ही तरह दूसरी बार अमरीका आये हैं. हम लोग यहां के जीवन के बारे में अपने अनुभव बांटना शुरू करते हैं. यहां की सुव्यवस्था, यहां की सफाई, यहां का सुगम नागरिक जीवन, वगैरह. इन लोगों ने कल 'धूप' फिल्म देखी थी और इनसे ही उसकी डीवीडी लेकर आज दोपहर हमने भी देख डाली. मेरे जेहन पर 'धूप' का कथानक छाया हुआ था. भारत में शायद यह फिल्म रिलीज़ ही नहीं हो पाई है, हालांकि इसका संगीत काफी चला है. मैं तो इस फिल्म से अभिभूत था. गुप्ता जी भी. कहानी भारत में व्याप्त भ्रष्टाचार और निकम्मेपन से एक आदमी (ओम पुरी) की लड़ाई की है. इससे मुझे सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की 'लड़ाई' भी याद आती रही. हम दोनों यह चर्चा करते रहे कि क्यों भारत में ही ऐसा होता है, अमरीका में नहीं. यहां तो जिसे जो काम करना है, पूरे मन से करता है. भारत में तो जैसे वर्क कल्चर है ही नहीं. चर्चा हस्ब-मामूल सिस्टम पर आकर अटक जाती है. हम लोग अमरीका की, उसकी पूंजीवादी संस्कृति की, मनुष्य विरोधी आचरण की, सारी दुनिया पर अपनी चौधराहट लादने की खूब लानत मलामत करते हैं. पर इसी अमरीका का दूसरा पहलू भी है, यहां का साफ-सुथरा नागरिक जीवन. इसी को देखकर समझ में आता है कि क्यों अमरीका दुनिया के सबसे समृद्ध, शानदार और जीवंत देशों में गिना जाता है. हमारी चर्चा इससे फिसलकर आम जीवन पर आ जाती है. भारत में हम कपड़ों वगैरह की खूब चिंता करते हैं. यहां उनकी बिल्कुल भी चिंता नहीं की जाती. आप जो और जैसे चाहे पहन लें. निक्कर(घुटन्ना) और घिसा हुआ बनियान जैसा टी शर्ट पहन कर तो लोग नौकरी पर चले जाते हैं. इस आयोजन में भी कोई बना-ठना नहीं था. युवतियां भी नहीं. एक अपवाद दीपिका थीं. उन्हें होना भी था. पर वे भी उस तरह सजी-संवरी नहीं थीं जैसे अपने जन्म दिन पर भारत में होतीं. शेष सब तो नितांत काम चलाऊ कपड़ों में थे. अमरीका में कपड़ों का तो यह आलम है कि पिछली बार जब हम यहां आये तो मैं जो सूट टाई वगैरह लाया था, उन्हें उसी पैक्ड अवस्था में वापस ले गया. लगा कि सूट-टाई में अजूबा लगूंगा. यहां तो शॉर्ट, टी शर्ट, जींस यही चलता है. घर में भी, दफ्तर में भी और पार्टी में भी. औपचारिक वेशभूषा तो बहुत ही कम अवसरों पर इस्तेमाल होती है.
हमारी गपशप के बीच ही पित्ज़ा भी आ गया. एक पेग खत्म हो गया, गुप्ता जी दूसरा बना लाये. उधर युवा समूह में (जिसमें श्रीमती गुप्ता और श्रीमती अग्रवाल भी थीं,बावज़ूद इसके कि उनका युवा होना सन्दिग्ध था) गपशप का उन्मुक्त दौर चल रहा था. स्त्रियों में सहज हो जाने का जन्मजात गुण होता ही है. आवाज़ों के टुकड़े हम तक भी आ रहे थे. दीपिका के पिता और मैं अपना अपना गिलास लेकर इस फेमिली रूम से सटे लिविंग रूम (जो हमारे ड्राइंग रूम के समकक्ष होता है) में जा बैठे. पूरी पार्टी में मदिरा प्रेमी हम दो ही थे. वहां से भी हमें इधर का सब कुछ दिखाई-सुनाई दे रहा था. बाद में घर आकर मैंने विमला से जाना कि सभी अपने-अपने बच्चों के जन्म का बिन्दास वर्णन कर रही थीं. विमला घर आकर भी 'हाय राम' मोड (Mode) में थी. यहां प्रसव के समय पति तो उपस्थित रहता ही है, अन्य परिवार जन भी रह सकते हैं. नयनतारा से कहा जा रहा था कि वह दीपिका के प्रसव की फोटोग्राफी करे और वह (बेचारी कुंवारी हिन्दुस्तानी लड़की) प्रसव का नाम सुनकर ही घबरा रही थी, और सब देवियां उसकी इस घबराहट का मज़ा ले रही थीं.
यहां कोई किसी से औपचारिकता नहीं बरतता. सब एक दूसरे को उसके नाम से पुकारते हैं. जी, साहब, बहनजी, भाभीजी का बोझ ये लोग भारत से यहां ढोकर नहीं लाये हैं. खाने पीने के मामले में कोई मनुहार नहीं है. यह बहुत आम है कि आप किसी के घर जाएं तो गृहस्वामी आपके खाना शुरू करने का इंतज़ार ही न करे. आपको खाना है, खाएं, न खाना है, न खाएं. अगर यह आस लगाई कि कोई दो बार आग्रह करेगा तभी खाएंगे, तो भूखे ही रह जाएंगे.
खाना खाकर झूठे बर्तन सिंक में साफ करना तथा डिश वाशर में लगाने के लिये तैयार कर देना यहां आम है. इससे गृह स्वामी/स्वामिनी को जो आसानी होती है, उसे देखकर ही समझा जा सकता है.
लोग एक एक करके विदा हो रहे थे. हम क्योंकि उनके विदा मार्ग में ही थे, सभी हमसे भी बाय-बाय करते जा रहे थे. ड्रिंक खत्म कर और पेट में स्वादिष्ट पित्ज़ा ठूंस कर (मैं तो ज़्यादा ही खा गया था!) हम लोग भीतर वाले लिविंग एरिया में आ गये. अब हम परिवारजन ही रह गये थे. राज-दीपिका, नयनतारा, मुकेश-चारु, और हम दोनों माता पिता युगल. थोड़ी देर सीक्वेंस खेला. पहली बार ही खेला पर मज़ा आया..
जब उठे तो ग्यारह बज रहे थे. इस प्रवास में हमारे लिये पहला अवसर था यह देखने समझने का कि एक भिन्न संस्कृति किस तरह आपको अपने अनुरूप ढालती है, और यदि आप विवेकशील हों तो किस तरह दोनों संस्कृतियों की अच्छाइयों को अपना लेते हैं!
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(शेष अगले अंक में जारी...)
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