यात्रा वृत्तांत आंखन देखी (अमरीका मेरी निगाहों से) ( अनुक्रम यहाँ देखें ) - डॉ. दुर्गाप्रसाद अग्रवाल 18- उच्च शिक्षा : यहां औ...
यात्रा वृत्तांत
आंखन देखी (अमरीका मेरी निगाहों से)
(अनुक्रम यहाँ देखें)
- डॉ. दुर्गाप्रसाद अग्रवाल
18- उच्च शिक्षा : यहां और वहां
कभी-कभी लगने लगता है कि पूरब और पश्चिम में, भारत और अमरीका में कोई फर्क नहीं है. पर दुःख की बात यह कि इस प्रतीति से खुशी नहीं होती. अगर साम्य अच्छी बात को लेकर होता तो खुशी होती. दुर्दशा की समानता खुशी का कारण कैसे हो सकती है?
यहां यानि अमरीका के अखबार में सिएटल विश्वविद्यालय की एक छात्रा जूलिया उगार्ते की व्यथा पढ़ी तो मुझे अपना देश याद आ गया. यों, याद तो सदा ही रहता है. वह जो अज्ञेय ने लिखा है न कि हम अपने प्रिय को कभी याद नहीं करते, क्योंकि उसे कभी भूलते ही नहीं हैं. तो, देश याद तो तब आता, जब उसे भूला होता, हां, अपनी नौकरी के दिनों की स्थितियां एकदम से, चलचित्र की भांति आंखों के आगे तैर गईं.
इस लड़की जूलिया ने लिखा है कि जिस सिएटल विश्वविद्यालय में वह पढ़ती है वहां 34% स्टाफ अंशकालिक है. इस लड़की ने अमरीकी शिक्षा विभाग की जनवरी 2003 की उस रिपोर्ट का भी हवाला दिया है जिसके अनुसार पूरे देश के कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में 43 प्रतिशत शिक्षक अंशकालिक हैं.
जूलिया ने बड़ी व्यथा के साथ लिखा है कि अमरीकी विश्वविद्यालयों में पूर्णकालिक प्रोफेसर की प्रजाति अब विलुप्त होती जा रही है और इसकी जगह लेती जा रही है एक नई प्रजाति, जिसे एडजंक्ट (Adjunct) का नाम दिया गया है. इस नई प्रजाति का विवरण पढ़कर मुझे अपने देश की उस जमात की याद आ गई जिसकी अपमानजनक स्थिति को थोड़ा सहलाने के लिये हमने एक सम्मानजनक नाम दे दिया है- गैस्ट फैकल्टी. हमारे यहां, राजस्थान में कॉलेजों-विश्वविद्यालयों में कई कारणों से पूर्णकालिक शिक्षकों की जगह ऐसे युवा (और बूढ़े भी) लेते जा रहे हैं जिन्हें प्रति कालांश की दर से भुगतान किया जाता है. भुगतान की वर्तमान दर 75 रुपया प्रति कालांश है. स्नातकोत्तर स्तर की पढ़ाई पूरी कर और नेट/स्लेट की वैतरणी पार कर नौकरी की इंतज़ार में बैठे फालतू युवा भागते भूत की लंगोटी यानि इस 75 रुपया प्रति कालांश की दिहाड़ी से अपना पेट पालने की कोशिश कर रहे हैं. राजस्थान में पिछले तीनेक सालों में निजी कॉलेज खूब खुले हैं. इन कॉलेजों के संचालकों को भी यह व्यवस्था खूब रास आ रही है. स्थाई शिक्षकों को दी जाने वाली तनख्वाह और भत्ते और अन्य कई सुविधाएं न देकर दिहाड़ी पर पढ़वा लेना उनके लिये तो नफे-मुनाफे का एक और सौदा बन गया है. जो परिश्रमी और ज़रूरतमन्द युवा हैं, खास कर बड़े शहरों में, उन्होंने भी इस विषम स्थिति को अपने अनुकूल ढाल लिया है. ये लोग एक ही दिन में एकाधिक कॉलेजों में पढ़ाकर ठीक-ठाक पैसा कूट लेते हैं.
इस व्यवस्था के मूल में चाहे जो मज़बूरियां रही हों, एक बात तो यह स्पष्ट है कि इससे उच्च शिक्षा पर होने वाला राज्य सरकार का वित्तीय भार कम हुआ है, और सरकार को यह बात रास आती है. दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि इस व्यवस्था की अन्य जो परिणतियां हैं या हो सकती हैं, उन पर हमारे यहां ज्यादा विस्तार से चर्चा नहीं हुई है. केवल शिक्षक संगठनों ने कुछ आवाज़ उठाई है, पर हमारे यहां दुखद बात यह है कि शिक्षक संगठनों का ज़्यादा सरोकार शिक्षक से है, शिक्षा से बहुत कम, यानि वे ट्रेड यूनियन की तरह काम करते हैं. मुझे संतोष तब होता जब ये संगठन शिक्षक की चिंता के साथ-साथ उतनी ही चिंता शिक्षा के स्तर के उन्नयन की भी करते.
जिस टिप्पणी से मैं यह लिखने को प्रेरित हुआ हूं, उसमें छात्रा जूलिया ने कुछ बड़े सवाल उठाये हैं. वे हमारे लिये भी उतने ही प्रासंगिक हैं. जूलिया ने कहा है कि यद्यपि यह एडजंक्ट प्रोफेसर की व्यवस्था फास्ट फूड और इंस्टेण्ट मैसेज के युग के अनुरूप प्रतीत होती है, पर इससे उच्च शिक्षा के प्रासाद में दरारें पड रही हैं. छात्रा की पीड़ा है कि इस व्यवस्था के तहत काम कर रहे प्रोफेसरगण विद्यार्थियों को चर्चा और विमर्श के लिये उपलब्ध नहीं होते और इससे विश्वविद्यालयों का अकादमिक पर्यावरण नष्ट होता जा रहा है. छात्रा ने और भी कई पीड़ाएं व्यक्त की हैं, पर उनके विस्तार में जाने का यह अवसर नहीं है.
अमरीकी समाज तो सूचना प्रौद्यौगिकी का समाज है. यहां इण्टरनेट, ई-मेल जैसे साधन न केवल मौज़ूद, बल्कि लोकप्रिय भी हैं. कम्प्यूटर का प्रयोग विद्यार्थी करते ही करते हैं. पर ये सारे साधन मनुष्य के मुक़ाबले तो दोयम दर्ज़े के ही हैं. भारत में तो खैर ये दोयम दर्ज़े के विकल्प अभी दूर की कल्पना हैं.
जो बात इस छात्रा ने कही है वही बात हमारे शिक्षा नीति निर्माताओं से भी कही जानी चाहिये. इसने कहा है कि यद्यपि उच्च शिक्षा के सामने बजट की समस्याएं हैं (अमीरों के देश अमरीका में भी!) पर बजाय शिक्षकों के वेतन मद में कटौती के, बचत के अन्य उपाय सोचे और खोजे जाने चाहिये.
भारत का अर्थ संकट तो और गहरा है. राजस्थान का और भी ज़्यादा. संकट इस कारण और भी गहरा जाता है कि सारी शिक्षा सरकारी वित्त पोषण की ही मोहताज है. और सरकार के सामने कई हाथ, कई कटोरे होते हैं. शिक्षा के कटोरे में पैसा डालना उसे चुनाव के लिहाज़ से लाभदायक नहीं लगता. लेकिन, सवाल यह है कि क्या समाज को भी इस चिंताजनक अवस्था को स्वीकार कर लेना चाहिये? कोई प्रतिरोध नहीं करना चाहिये? कोई विकल्प नहीं देना चाहिये ?
हमारे यहां गैस्ट फैकल्टी के विरोध में समाज या विद्यार्थियों की कोई स्पष्ट आवाज़ सुनाई नहीं दी है. समाज में मैं शिक्षक संगठनों को भी शामिल कर रहा हूं. यदि इस छात्रा से प्रेरणा ली जा सके तो कहूंगा कि गैस्ट फैकल्टी की दोषपूर्ण, नुकसानदायक और अपमानजनक व्यवस्था के विरोध में शिक्षकों, शिक्षक संगठनों, विद्यार्थियों, विद्यार्थी संगठनों और अभिभावकों सबको एकजुट होना चाहिये.
बहस इस बात पर तो हो सकती है कि सरकार उच्च शिक्षा का कितना भार वहन करे, करे भी या न करे, पर भार उठाने की उसकी असमर्थता का खामियाज़ा समाज क्यों भुगते? पर यह बात उठानी तो समाज को ही पड़ेगी. ठीक वैसे ही जैसे अमरीका में इस लड़की ने उठाई है.
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(क्रमशः अगले अंकों में जारी...)
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यह समस्या यूँ ही सुलझने वाली नहीं है । जब तक हम शिक्षा के महत्व को नहीं समझ लेते तब तक हम शिक्षक के महत्व को भी नहीं समझेंगे । जब तक यह नहीं समझेंगे तो कुछेक को छोड़ कर शिक्षक
जवाब देंहटाएंभी गए गुजरे मिलेंगे । जब अन्य क्षेत्रों में इतना अधिक वेतन व मान मिलता है तो कोई शिक्षा के क्षेत्र में तभी आएगा जब या तो उसे किसी और क्षेत्र में नौकरी ना मिल रही हो या वह इतना आदर्शवादी हो कि जानबूझ कर कम वेतन में जीने को तैयार हो । किन्तु हमें यह याद रखना चाहिये कि 'if u offer peanuts u will get monkeys' और फिर शिक्षा के गिरते स्तर पर रोना भी नहीं चाहिये ।
घुघूती बासूती