आलेख - मनोज सिंह कनाडा का अति आधुनिक शहर मांट्रियल, व्यवस्थित, अनुशासित व सुंदर होते हुए भी यहां अंग्रेजी कम बोली और सुनी जाती है। फ्रें...
आलेख
- मनोज सिंह
कनाडा का अति आधुनिक शहर मांट्रियल, व्यवस्थित, अनुशासित व सुंदर होते हुए भी यहां अंग्रेजी कम बोली और सुनी जाती है। फ्रेंच भाषा व सभ्यता का अधिक बोलबाला है। नगर के मध्य स्थित सेंट कैथरीन रोड यहां का मुख्य आकर्षण है। जहां रूपसियों के अनुपम सौंदर्य को आम चलते-फिरते देखा जा सकता है। आश्चर्य वाली बात है कि इनमें गोरों के साथ-साथ काली अफ्रीकन लड़कियां भी दिखाई देती हैं। जो बराबरी से खूबसूरत, स्मार्ट व आकर्षक मानी जाती हैं और रंगभेद के द्वारा उनमें तुलना नहीं की जाती। यहां की नाइट लाइफ विश्व प्रसिद्ध है। नाइट क्लब अपेक्षाकृत सुरक्षित और वैध हैं। अधिक चौकाने वाली बात है कि अफ्रीकन नृत्यांगनाओं की मांग कई क्लबों में अधिक है और इनके दाम भी कहीं-कहीं ज्यादा बताए जाते हैं। एक पर्यटक के रूप में कई दिनों तक यहां रहने पर भी किसी कनेडियन ने मेरे देश व राज्य के बारे में न तो कोई विशेष पूछताछ की, न ही कोई अपशब्द, घृणा या नापसंद की भावना प्रकट की। परंतु हमारे ही देश से वहां गए एक टैक्सी चालक ने बिना कुछ पूछे व जाने मुझे दक्षिण भारतीय घोषित कर दिया और फिर उसके चेहरे के भाव से मेरे प्रति तिरस्कार को आसानी से पढ़ा जा सकता था। कारण था मात्र मेरी त्वचा का रंग श्याम वर्ण होना। गोरे रंग का वह अनपढ़ उत्तर भारतीय हिंदी कम टूटी-फूटी अंग्रेजी अधिक बोलकर गर्व महसूस कर रहा था और उसे मुझसे किराये के पैसे लेने में भी छोटापन महसूस हुआ था। कहने पर अहम् झलकेगा मगर असलियत में वास्तविकता थी कि वह मुझसे किसी भी तरह से बेहतर नहीं दिखाई दे रहा था। न तो शैक्षणिक, आर्थिक, शारीरिक और न ही मानसिक रूप से।
उपरोक्त उदाहरण हमारी संकीर्ण मानसिकता का एक छोटा-सा उदाहरण मात्र है। हमारे फिल्मी नायक-नायिका पश्चिमी देश में उन पर किए गए नस्लीय टिप्पणी के विरुद्ध चाहे जितना बवाल मचाएं। यह सब सहानुभूति बटोरने के लिए किया जाना प्रतीत होता है। और अगर विदेशियों के मन में हमारे प्रति ऐसा है भी तो उसकी कई वजह हो सकती है, जैसे कि हमारा दूसरे देश का वासी होना, प्रतिस्पर्धा, ऐतिहासिक तथ्य और हमारे द्वारा उनका हक छीनना। मगर अपने ही देश में अपने ही देशवासी के लिए ऐसी भावना रखना अचरज पैदा करता है जो कि हमारे समाज का नंगा सत्य है। अब अपनी फिल्मी इंडस्ट्रीज को ही देख लें, यह सबसे अधिक रंगभेद से ग्रसित है। क्या आपने किसी काले हीरो-हीरोइन को बॉलीवुड में देखा है? नहीं। और अगर गलती से कोई श्याम वर्ण आगे आ भी जाए तो उसे क्रीम लगा-लगा कर कैमरे के द्वारा पर्दे पर गोरा बनाकर दिखाया जाता है। मेकअप के द्वारा पोत-पोत कर प्राकृतिक रंग को ढक दिया जाता है। अधिकांश दक्षिण भारतीयों की त्वचा का रंग काला होने के बावजूद उनके नायक-नायिका भी गोरे होते हैं। जबकि दूसरी तरफ पश्चिमी समाज के हालीवुड में सैकड़ों काले अफ्रीकन मूल के युवक-युवतियां चर्चित नायक-नायिका हैं। और उन्हें उनके मूल रंग में ही दिखाया भी जाता है। अमेरिकन बास्केटबाल की टीम में तो अधिकांश काले खिलाड़ी हैं और कई चर्चित मशहूर गायक अफ्रीकन मिल जाएंगे। माना कि पश्चिमी समाज में आपस में भेद था और कुछ हद तक आज भी है परंतु आम जीवन में गोरे-कालों की आपस में शादी अब एक सामान्य घटना है।
ध्यान से देखें तो पश्चिम देशों की तुलना में हम शायद अधिक रंगभेद की मानसिकता से ग्रसित हैं। वहां कम से कम इसके प्रति विरोध तो होता है, हमारे यहां तो इसे स्वीकार कर लिया गया है। और हम इस कुंठा को मन से निकालने को तैयार भी नहीं। क्षेत्रवाद हम में कूट-कूट कर भरा है तो भाषा पर हम जान ले और दे सकते हैं। अगर आप उत्तर भारत में रहते हैं तो रंगभेद को अधिक महसूस कर सकते हैं। श्याम वर्ण होने पर अकसर आपको दक्षिण भारतीय समझ लिया जाएगा और फिर हेय दृष्टि से देखा जाता है। मद्रासी कहकर भी संबोधित किया जा सकता है फिर चाहे मद्रास का नामकरण वर्षों पूर्व चेन्नई हो गया है। अगर आपका रंग हिंदुस्तानी है तो उच्च पदस्थ व पैसे वाला होने के बावजूद आपको पहली नजर में छोटा माना जाएगा। वहीं दूसरी ओर किसी भी गौर वर्ण को सिर पर बिठाया जाएगा। हालात तो हर जगह खराब है। मगर पंजाब इस क्षेत्र में अपने चरम पर है। जबकि सांवले पंजाबियों की भी कमी नहीं। अन्य स्थानों पर भी स्थिति एक-सी है। भारतीयों के बीच देसी गोरे आज भी राज कर जाते हैं। अधिसंख्य भारतीय लड़कों के मां-बाप द्वारा गोरी लड़की ढूंढ़ी जाती है। गोरेपन की क्रीम में अरबों व्यवसाय करने वाले आधुनिक भारतीय समाज में आदमी के गोरे होने की क्रीम भी चल चुकी है। वो जमाना लद गया जब पुरुष की पढ़ाई, ओहदा और संस्कार से उसको देखा-परखा जाता था। अब तो बाहरी व्यक्तित्व के आकर्षण से तौला जाता है। जिसमें गोरा होना एक महत्वपूर्ण पैमाना है। यह सिद्धांत उच्च व सफल वर्ग में अधिक सख्ती से लागू है। देखने में आकर्षक व गोरे खिलाड़ी मॉडलिंग में ज्यादा चर्चित और काले खिलाड़ियों की अपेक्षा अधिक कमाते हैं।
उपरोक्त परिस्थिति दुर्भाग्यपूर्ण है। यह हमारी संकुचित विचारधारा व गुलाम प्रवृत्ति का सूचक है। हैरानी भी होती है क्योंकि हमारे अधिकांश ईश्वर श्याम वर्ण हैं। सोलह कला संपन्न भगवान श्रीकृष्ण का तो नाम ही श्याम है जिन्हें असंख्य गोपियां प्रेम करती थीं। आज के आधुनिक काल में भी उनके शिष्यों की संख्या सर्वाधिक हैं, और यह विदेशों में भी फैले हैं। भगवान शंकर तो नारी के लिए आदर्श ईष्ट देव हैं, महादेव हैं, शिव शक्ति हैं। वे भी श्याम वर्ण हैं। भारतीय संस्कृति में सबसे अधिक पूजे जाते हैं। खासकर शादी से पूर्व लड़कियों द्वारा अच्छे वर की कामना और शादी के बाद महिलाओं द्वारा सफल दाम्पत्य जीवन के लिए शिव-पार्वती के व्रत तक रखे जाते हैं। मगर फिर भी वधू को वर गोरा ही चाहिए। मां काली सर्वशक्तिमान हैं, राक्षसों का विनाश करती हैं, भक्तों की रक्षा करती हैं, दयालु हैं। मगर उसी काली की पूजा करने वाला बंगाल भी गोरे रंग के मोह से बच नहीं पाता।
प्रकृति में भी सफेद रंग का कोई अस्तित्व नहीं। यहां तो सब कुछ काला है। अनंत: ब्रह्मांड और हमारा अंतरिक्ष। आकाश नीला नहीं हकीकत में काला है। सफेद रंग तो सिर्फ किसी और के प्रकाश की किरण का मात्र परिवर्तन होता है। अर्थात एक भ्रम, एक मृगमरीचिका। वो भी ब्लैक होल के सामने पूर्णत: झूठा साबित होता है। ये तो प्रकाश भी अपने अंदर समेट लेता है। आकाशगंगा में जितने भी तारे टिमटिमाए मगर चारों ओर अंधेरा ही अंधेरा है, टोटल ब्लैक। मरने के बाद गौर वर्ण का शरीर भी काला पड़ जाता है और फिर मिट्टी में मिल जाता है। इस सत्य को भी नजरअंदाज किया जाता है कि स्वच्छ व निरोगी काले रंग की त्वचा अधिक चमकदार और मुलायम होती है। जबकि गोरे रंग की त्वचा अधिकांशत: खुरदरी, रोयेंदार व पास से देखने में दागदार होती है। काला रंग दागों को छिपाता है जबकि गोरा रंग उभारता है। और फिर भद्दा लगता है।
अगर आप एशियन देश में हैं तो विश्वास कीजिए, दो बराबरी के मनुष्य में एक के गोरे होने पर उसको प्राथमिकता दी जाएगी। यकीन नहीं आता तो आजमा लीजिए। पता नहीं, हम इस सोच के विरुद्ध कब खड़े होंगे? विदेशों के नस्लीय टिप्पणी पर हाहाकार व चिल्लाने वाला मीडिया खुद कब गोरेपन की क्रीम के विज्ञापन को दिखाना बंद करेगा? हमारे तथाकथित जागरूक विचारक, समाज सुधारक, मानवाधिकार संगठन कब इसके विरुद्ध अभियान छेड़ेंगे? क्या हम इस मानसिकता से कभी निकल पाएंगे? शायद कभी नहीं।
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रचनाकार संपर्क:
मनोज सिंह
425/3, सेक्टर 30-ए, चंडीगढ़
मनोज सिंह का आलेख भारतीयों की मानसिकता स्पष्ट करता है . पंजाब का एक गीत याद आ रहा है '' कला शाह काला, मेरा काला है सरदार गोरेयां नू दफा करो . Dr madhu sandhu
जवाब देंहटाएंरवि जी नमस्कार ,
जवाब देंहटाएंआप दुवार मनोज जी का लेख पड़ा, मुझे लगता हे मनोज जी कम समय के लिए ही कनाडा आय थे, या इन का वास्ता नही पड़ा गोरो से,रंगभेद की घटिया मानसिकता हर जगह हे इन गोरो मे तो बहुत ही जायदा हे,ओर अगर यह मानसिकता ठीक हो जाय, तो हम इन्सान ना बन जाय, अभी तो सभी ढोंग करते हे इन्सान होने का
मनोज भाई
जवाब देंहटाएंकब आये?? बिना मिले चले गये...अच्छी सज मिली यह...हमसे कनाडा में मिले बिना जाने वालों के साथ इससे भी ज्यादा कुछ हो पाये तो कम...एक ईमेल कर देते..कैसा जबलपुर में रहे हैं कि अपनों को नहीं पहचानते. फिर कब आना है जरा बताईये तो???