यात्रा वृत्तांत आंखन देखी (अमरीका मेरी निगाहों से) ( अनुक्रम यहाँ देखें ) - डॉ. दुर्गाप्रसाद अग्रवाल 20 सोनमछ्ली पिछले कुछ वर्ष...
यात्रा वृत्तांत
आंखन देखी (अमरीका मेरी निगाहों से)
(अनुक्रम यहाँ देखें)
- डॉ. दुर्गाप्रसाद अग्रवाल
20 सोनमछ्ली
पिछले कुछ वर्षों में सूचना प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में जो क्रांतिकारी विस्तार हुआ है उसकी वजह से भारत की युवा पीढ़ी के लिए अमरीका और भी नज़दीक का तथा सम्भावनापूर्ण देश बन गया है. भारत से कम्प्यूटर में कोई डिप्लोमा या डिग्री, या अन्य कोई दक्षता प्राप्त की जाए और फिर अमरीका आकर उसे बढ़ाया जाए तथा यहीं नौकरी कर ली जाए. अपने देश के संसाधनों से पढ़ लिखकर, अमरीका आकर, यहां नौकरी कर 'अपने देश की सेवा' करने का स्वप्न देखने वालों की तादाद दिन दूनी रात चौगुनी बढ़ती जा रही है. यह कहना अनुचित होगा कि इस स्वप्न के मूल में केवल डॉलर की चमक और खनक है . तकनीक के क्षेत्र में काम करने वालों के लिए लगभग इतना ही या इससे भी बड़ा आकर्षण अद्यतन के सजीव सम्पर्क का भी है. यह कहना इसलिए भी ज़रूरी है कि अच्छा वेतन अब भारत में भी मिलने लगा है. दृश्य माध्यमों के विस्तार ने अमरीका की चमक-दमक भरी ज़िन्दगी की जो अगणित छवियां घर-घर पहुंचाई हैं वे भी युवा पीढ़ी के लिए अमरीका को आकर्षण का केंद्र बनाती हैं. और इस कारण वे लोग भी, जिनके पास इस तरह की तकनीकी योग्यता नहीं है, मेहनत मज़दूरी के बल पर भी अमरीका में रह कर अपना जीवन संवारने का सपना पालने लगे हैं.
पिछले कुछ वर्षों में भारत से अमरीका आने वालों की संख्या में काफी इज़ाफा हुआ है. इनमें पढ़ने आने वाले और काम करने आने वाले दोनों ही शरीक हैं. वृद्धि तो पर्यटकों की संख्या में भी कम नहीं हुई है, लेकिन उनकी चर्चा यहां प्रासंगिक नहीं है.
कम्प्यूटर प्रोफेशनल्स को अमरीका सर्वाधिक आकृष्ट करता है. अमरीका में भी सिलिकन वैली या माइक्रोसॉफ्ट. अपने छह माह के अमरीका प्रवास में मुझे एक ऐसे शहर रेडमण्ड (सिएटल) में रहने का अवसर मिला जहां भारतीय बहुत बड़ी संख्या में हैं. इनके माध्यम से मुझे भी सपनों के इस देश में रहने के यथार्थ को देखने परखने का अवसर मिला. उसी देखे परखे की चर्चा इस लेख में कर रहा हूं.
कम्प्यूटर के क्षेत्र में अमरीका आने वाले ज़्यादातर युवा हैं. पच्चीस-तीस के आस पास. पति-पत्नी दोनों काम करें - यह भी आम है. बल्कि, एकल कामकाजी कम ही हैं. स्वाभाविक हैं कि इनमें से अधिकांश के या तो अभी बच्चे नहीं हैं, या बहुत छोटे हैं. हमारे राजस्थान के युवा यहां बहुत अधिक नहीं हैं. शायद इसका एक कारण शिक्षा के क्षेत्र में हमारा पिछड़ापन हो, पर ‘गेहूं छोड़कर मक्की खाना, मेवाड़/मारवाड़ छोड़ कर कहीं नहीं जाना’ वाली मानसिकता की भूमिका को भी अनदेखा नहीं किया जाना चाहिये.
भारत में रहते हुए अमरीका आना और यहां रहना जितना आकर्षक लगता है, दरअसल उतना है नहीं. बल्कि कुछ अधिक ही कठिनाइयों, संघर्षों और चुनौतियों से भरा है. अलहदा संस्कृति, भिन्न खान-पान, आचार व्यवहार, भिन्न वेशभूषा संस्कार और भिन्न भाषा! बावज़ूद अंग्रेज़ी के, अमरीकी अंग्रेज़ी बहुत अलग है. एक भिन्न भाषा उसे कहना गलत न होगा. इन सबका आदी होने में वक़्त तो लगता ही है. प्रयत्नसाध्य भी कम नहीं है यह सब. कुछ चीज़ों को आप अपना लेते हैं, कुछ को स्वीकार करना मुश्किल लगता है. शायद कभी-कभी ‘न उगलते बने, न निगलते’ वाली स्थिति भी आ जाती हो. मैं सोचता हूं, भारत से, खासकर किसी छोटे कस्बे से आने वाली युवती जिसने अपने देश में सलवार सूट के सिवा शायद ही कुछ पहना हो, और जो अगर नव विवाहिता भी हो तो ढेरों चूड़ियों, बिन्दी, बिछुए, पायल, चमचमाते सिन्दूर के बिना अपने अस्तित्व की कल्पना भी नहीं कर पाती हो, जब जीन्स और टी शर्ट जैसी अपेक्षाकृत सम्मानजनक (अन्यथा आम तौर पर तो शॉर्ट और बनियान नुमा कुछ) वेशभूषा को अपनाने को तथा अपने बहुत सारे प्रसाधनों – सुहाग चिह्नों को छोड़ने को विवश होती होगी तो उसे कैसा लगता होगा? यह ठीक है कि अमरीका में कोई आपके कपड़ों की चिंता नही करता, कोई उस पर टिप्पणी भी नहीं करता, लेकिन आप अजूबा बन कर तो काम पर नहीं जा सकते. काम की छोड़ें, बाज़ार भी नहीं जा सकते. आप खुद ही अपने को असहज महसूस करने लगेंगे. ‘जैसा देश वैसा भेस’ यूं ही नहीं कह दिया गया था. इस कथन की ताकत यहीं आकर समझ में आती है. फिर, खानपान का मामला. जो लोग घोर शाकाहारी हैं, उनकी तो खैर मुसीबत है ही. बाहर, बाज़ार में ऐसा बहुत कम मिल पाता है जो हमारे मानदण्ड के अनुसार शाकाहारी हो. वस्तुत: शाकाहार की हमारी और इनकी अवधारणा में ज़मीन आसमान का फर्क़ है. यही कारण है कि इनका बहुत सारा शाकाहारी खाना भी भारतीय शाकाहारी के लिए अभक्ष्य होता है. अगर बाहर खाना ही पड़ जाए (और नौकरी में तो ऐसे अवसर आते ही रहते हैं) तो आपके विकल्प अत्यधिक सीमित हो जाते हैं. अगर आप घोर शाकाहारी न भी हों, सर्वभक्षी भी हों तो स्वाद और पाक विधी की भिन्नता को स्वीकार करना भी आसान नहीं होता. तन्दूरी या मुगलई सामिष भोजन के आदी को अमरीकी भोजन लगभग अग्राह्य ही लगता है. और जहां तक घर पर खाना पकाने की बात है, उन शहरों में जहां भारतीय बहुतायत में हैं, जैसे इस रेडमण्ड/सिएटल में, यहां तो सारी भारतीय खाद्य सामग्री मिल जाती है, लेकिन जिन स्थानों पर भारतीयों का ऐसा जमावड़ा नहीं है वहां तो आप दाल, घी, आटा तक के लिए तरस जाते हैं. यह ठीक है कि धीरे-धीरे आप ‘जो है जैसा है’ के आदी होते जाते हैं, पर कमी तो खटकती ही है.
अमरीका में वैसी आपसदारी, मुहल्लेदारी नहीं है जिसके कि हम भारतीय अभ्यस्त हैं. कुछ तो व्यस्तताएं और कुछ जीवन शैली तथा सोच. अमरीका में हर व्यक्ति अपनी निजता (Privacy)को इतना महत्वपूर्ण मानता है कि भारत जैसी आपसदारी कल्पनातीत हो जाती है. व्यस्तताएं तो हैं ही. काम के प्रति इनका दृष्टिकोण हमसे बहुत भिन्न है. हर आदमी वाकई अपनी पूरी क्षमता भर, बल्कि उससे भी कुछ अधिक ही, काम करता है. एक देश के रूप में अमरीका की सफलता का राज़ भी इसी में छिपा है. पर इस बात पर कम ही ध्यान जाता है कि काम के प्रति यह जुनून आदमी के साथ नाइंसाफी भी करता है . हम लोग अपनी पिछली यात्रा में करीब डेढ़ महीना यहां रह कर गए. उस दौरान अपने एक पड़ोसी दम्पती की तो एक बार भी शक्ल नहीं देखी. बस, उनके घर की चिमनी से निकलते धुएं से यह एहसास होता कि इस घर में कोई रहता है. दूसरे पड़ोसी दम्पती को कभी-कभार आते-जाते देख लेते. एक दूसरे के घर आना-जाना दूर की बात है, दुआ सलाम तक नहीं. यह बाद में पता चला कि हमारे बेटी-दामाद और उनके बांये-दांये वाले पड़ोसी - तीनों एक ही दफ्तर, माइक्रोसॉफ्ट में काम करते हैं. निश्चय ही भारतीय परिवारों में खूब आना-जाना तथा सुख-दुख में भरपूर सहभागिता है, पर जिस आपसदारी के संस्कार हममें घुले मिले हैं उसका अभाव न खटके यह असम्भव है. सिएटल में हो सकता है यह अभाव न भी खटकता हो, क्योंकि सम्बंध रखने के लिये भारतीय खूब हैं, पर जिन शहरों में भारतीय नहीं या नहीं के बराबर हैं वहां क्या होता होगा? अमरीकी लोगों का भारतीयों के यहां आना-जाना नहीं जैसा ही है. इसे रंग भेद से जोड़ कर न देखें. यह उनकी जीवन शैली ही है. वैसे में यह लगता होगा कि चचा गालिब की पुकार यहां सात समुद्र पार सुन ली गई है :
रहिये अब ऐसी जगह चलकर, जहां कोई न हो
हम सुखन कोई न हो और हम ज़बां कोई न हो.
बेदर-ओ-दीवार सा इक घर बनाया चाहिये
कोई हमसाय: न हो और पासबां कोई न हो.
पड़िये गर बीमार, तो कोई न हो तीमारदार
और अगर मर जाइये, तो नौह:ख्वां कोई न हो.
तीज-त्यौहार पर अपना देश याद न आए, ऐसा हो ही नहीं सकता. क्रिसमस और नया साल यहां के सबसे बड़े पर्व-त्यौहार हैं. अन्य भी अनेक त्यौहार हैं. खूब धूम-धड़ाका, मौज-मस्ती रहती है. क्रिसमस का उल्लास लगभग नवम्बर से ही प्रारम्भ हो जाता है. इस सबसे आप अछूते क्यों रहें? खुशियां बांटने में हर्ज़ ही क्या है? हैलोवीन पर भारतीय भी अपने घरों के बाहर कद्दू रखते हैं, 4 जुलाई (अमरीकी स्वाधीनता दिवस) को पूरे उल्लास से मनाते हैं और क्रिसमस पर रोशनी की झालर सजाते हैं. लेकिन जब दिवाली आम दिनों की तरह आकर निकल जाए तो? या होली पर कोई आप पर रंग का एक छींटा भी न डाले तो? या राखी पर आपकी कलाई सूनी रह जाए तो? या ईद पर घर से सेवईयों की महक न उठे तो? मैं कुछ ज़्यादा ही भावुक तो नहीं हो रहा? जब देश से बाहर हों तो सेण्टीमेंटल हो जाना अस्वाभाविक नहीं. जो चीज़ें और बातें अपने देश में बेमानी, बल्कि उबाऊ लगती हैं उन तक का अभाव यहां खटकने लगता है.
दोनों देशों के मध्य सांस्कृतिक भिन्नता बहुत अधिक है. एक उदाहरण काफी होगा. जब हमारे दामाद ने अपने किसी सहकर्मी को यह बताया कि उसके सास-ससुर (यानि हम) तीन महीने के लिए उनके यहां आए हैं (पहले हमारा प्रवास कार्यक्रम तीन महीने का ही था. बाद में बढ़ते-बढ़ते छह महीने का हो गया!) तो उसने बहुत गम्भीरता से उसके प्रति अपने हमदर्दी ज़ाहिर की. इस देश में मां-बाप का आपके साथ आकर रहना आनन्द का नहीं अपितु कष्ट और चिंता का विषय होता है. सास-ससुर का तो और भी अधिक. यहीं आकर समझ में आता है कि क्यों अंग्रेज़ी में सास-ससुर पर इतने लतीफे होते हैं. यह समाज निजता और वैयक्तिक स्वाधीनता पर इतना अधिक ज़ोर देता है कि ‘या में दो ना समाय’ याद आने लगता है. शायद वैवाहिक सम्बंधों के दरकने-टूटने के मूल में एक बात यह भी है. लेकिन इस सांस्कृतिक वैभिन्य को पचा पाना आसान तो नहीं. कुछ बातों को आप हंस कर टाल सकते हैं. जैसे दामाद के सहकर्मी की सहानुभूति को, लेकिन बहुत सारी भिन्नताएं आप पर भारी भी पड़ती हैं. अब यही बात लें कि यहां की कार्य-संस्कृति भारत की कार्य-संस्कृति से भिन्न है. वैसे, क्या भारत में कोई कार्य संस्कृति है भी? यहां तो जब आपको काम करना है तो सब कुछ को भूलकर काम ही करना है. अधिकतर कम्प्यूटर प्रोफेशनल सुबह आठ बजे दफ्तर जाते हैं और रात नौ बजे भी लौट आएं तो गनीमत है. फिर, घर आकर भी दफ्तर का काम, जो कई बार सुबह के दो-तीन बजे तक भी चलता रहता है. यह अपवाद नहीं, आम है. छुट्टियां बहुत ही कम. बावज़ूद इस बात के कि यहां सप्ताह में पांच दिन ही काम होता है, काम का यह आधिक्य और दबाव मारक नहीं लगता? पति-पत्नी दोनों ही काम करते हों तो और भी अधिक. अपना जीवन स्तर बनाये रखने के लिए दोनों का काम करना ज़रूरी भी है. वेतन डॉलर में मिलता है. एक अमरीकी डॉलर करीब पचास रुपये का होता है. अमरीकी वेतन को भारतीय मुद्रा में रूपांतरित करने पर सुखद आश्चर्य तथा गर्व होता है, लेकिन जब उस बहुत बड़ी राशि को यहां के खर्चों के सामने रख कर देखते हैं तो गुब्बारे की हवा निकलने लगती है. कामकाजी युवा दम्पती की यह विवशता होती है कि वे अपनी संतान को डे केयर सेंटर में छोड़ कर काम पर जाएं. डे केयर सेंटर यहां बहुत अच्छे हैं. एक डे केयर सेंटर हमने देखा. अच्छा था. लेकिन उसकी फीस? न ही पूछें तो बेहतर. मात्र 1800 डॉलर प्रति माह. यानि कोई एक लाख रुपये प्रति माह. भले ही पति पत्नी दोनों काम करते हों, और उनकी तनख्वाह भी लाखों में हो, इस तरह के खर्चे जो आपको अर्श से फर्श पर उतार लाएं, कम नहीं हैं. हर चीज़ महंगी है. किसी ठीक-ठाक रेस्तरां में एक वक़्त का खाना : 50 डॉलर. सिनेमा का एक टिकिट : 10 डॉलर. घण्टे दो घण्टे का कार पार्किंग शुल्क : 10 डॉलर. एक कप कॉफी : 5 डॉलर. हेयर कटिंग : 15 डॉलर. एक बार घर की सफाई : 80 डॉलर. क्या-क्या गिनाऊं? तो, यह सब खर्च करने के लिए काम तो करना ही है. दोनों को. लेकिन तब पारिवारिक जीवन? हम लोग जब पिछली बार यहां थे तो एक दिन बातों-बातों में मैंने बेटी से कहा कि तुम लोग इतना थक-पच कर दफ्तर से आते हो और फिर रात ग्यारह बजे डीवीडी लगाकर फिल्म देखने बैठ जाते हो. सो क्यों नहीं जाते? बेटी ने जो जवाब दिया वह मुझे अब भी हॉण्ट करता है. बोली, पापा, अगर सो जाएं तो फिर साथ कब रहें? सही भी है. काम-काज, नौकरी की व्यस्तता और तनाव. इनके बीच रिश्तों की ऊष्मा को बनाये रखना भी खासा प्रयत्न साध्य हो जाता है. दरअसल यह पूंजीवाद का चरित्र ही है कि वह पहले आपको वैभव की चमक-दमक दिखाकर अपनी तरफ आकृष्ट करता है, आपकी जीवन शैली को अपने सांचे में ढालता है, आपको बहुत सारी सुख सुविधाओं का अभ्यस्त बनाता है. फिर तो आप खुद ही उसके व्यूह में ऐसे फंस जाते हैं कि उस 'स्तर' का निर्वाह करने के लिए निरंतर अधिक खपने-पचने को (अनचाहे भी) विवश होते हैं. यानि तब कम्बल ही बाबाजी को नहीं छोड़ता है.
तो, भारत से लोग जिस वैभव की चमक-दमक से खिंच कर अमरीका आते हैं, धीरे-धीरे वह उनकी एक ऐसी ज़रूरत बन जाता है उसे चाह कर भी छोड़ पाना मुश्किल होता है. ‘चाह कर’ पर मैं जान-बूझ कर बल दे रहा हूं. आप क्यों कमाते हैं? इसलिए कि अपने कमाये का सुख ले सकें - या कि महज़ इसलिए कि और अधिक खर्च कर सकें? धीरे-धीरे खर्च करना ही आपकी ज़रूरत बनता जाता है. खर्च का सुख उठाने की तो फुर्सत ही कहां बचती है?
यहां अमरीका में नौकरी का अर्थ भारत से बहुत अलग है. आप खुद नौकरी न कर रहे हों तब तो यह देखकर बहुत अच्छा लगता है कि लोग बहुत निष्ठा से काम करते हैं. लेकिन, कोल्हू में पिलने का दर्द तो बैल ही जानता है. काम आपसे ज़िन्दगी का सारा रस ही खींच ले, यह किसे पसन्द आएगा? पर, वरण की स्वतंत्रता तो आप पीछे ही छोड़ आते हैं. यह समाज तो Hire or Fire में विश्वास करता है. और, यहां Fire हो जाने का मतलब बहुत गहरा है. बहुतों के लिए काम न होने का एक अर्थ अमरीका में रहने के अधिकार का खत्म हो जाना भी होता है. कोई भी Fire नहीं होना चाहेगा. और इसलिए, प्रसन्न होने का अभिनय करते हुए काम में पिले रहना पड़ता है.
अमरीका में लम्बे समय तक गोरे और काले के बीच गहरा भेदभाव बरता जाता रहा है. अब स्थितियां बहुत बेहतर हैं. लेकिन मनुष्य स्वभाव का क्या करेंगे आप? इस अनुभूति का क्या करेंगे कि ये विदेशी (आप पढ़ें : हिन्दुस्तानी) यहां आकर हमारे रोज़गार के अवसर कम कर रहे हैं. यह कोई नहीं देखता, या जान बूझकर अनदेखा करता है कि अपने देश के संसाधनों का उपयोग कर वहां पढ़ लिख कर ये लोग इस देश (अमरीका) की समृद्धि में योगदान कर रहे हैं. नज़र आता है तो बस यह कि इनके कारण हमारे यहां बेरोज़गारी बढ़ रही है. बड़े स्थानों व पदों पर क्योंकि शालीन, अभिनय पटु लोग होते हैं, यह अनुभूति सतह के नीचे दबी रहती है, किंतु छोटे काम करने वालों के समक्ष प्रकट हो जाती है. प्रकट न भी हो, अनुभव तो होती ही है. देव आनन्द ने कभी 'देस परदेस' बनाई थी और महेंद्र भल्ला ने 'दूसरी तरफ' लिखा था.
एक पराये देश में रहना क्या होता है, इसका अनुभव दस-पंद्रह दिन के विदेश भ्रमण से नहीं हो सकता. तब तो केवल चमक-दमक-खनक और सुख-सुविधाएं ही नज़र आती हैं. यही दिखता है कि यह देश कितना विकसित है. सब कुछ हरा ही हरा दिखता है. लेकिन जब आप तसल्ली से इन लोगों की ज़िन्दगी देखते हैं तब यह समझ में आता है कि बिना घरेलू नौकर के घर को साफ-सुथरा रखना कितना मुश्किल और प्रयत्न-साध्य होता है, या पूरे पांच दिन दफ्तर में खटने के बाद जब छठे-सातवें दिन घर में खटना पड़ता है तो कैसा लगता है! सुबह जाकर देर रात लौटने पर खाना बनाने की बात तो छोड़िये, फ्रिज में जो बचा खुचा है उसे खाना भी दुश्वार लगता है. आप कभी-कभार रेस्तरां में जाएं यह आपका सुख है, पर जब मज़बूरी में जाएं तो खाना स्वादिष्ट होते हुए भी स्वादिष्ट नहीं लगता. अबोध शिशु को डे केयर या नैनी के भरोसे छोड़कर काम पर जाना कोई सुखद अनुभूति नहीं दे सकता. एक बहुत शिष्ट, शालीन, शानदार समाज में रहने का तमाम सुख इन अनुभवों के कारण एकदम शून्य हो जाता है. तब यह महसूस होता है कि यह समाज चाहे कितना भी अच्छा क्यों न हो, आपका अपना नहीं है. कमलेश्वर और नई कहानी के शुरुआती दौर के उनके साथी अनेक कथाकारों ने अजनबीपन के जिस दंश का चित्रण अपनी अनेकानेक कहानियों में किया था, वह यहां कई गुना ज़्यादा महसूस होने लगता है. उन लोगों ने तो गांव से शहर आकर खो जाने की ही पीड़ा व्यक्त की थी , यहां तो पीड़ा अपने देश से बहुत दूर चले आने की तथा नानाविध होती है.
यहां रहकर तथा यहां रह रहे भारतीयों के जीवन को निकट से देखकर मुझे बार-बार अज्ञेय की प्रसिद्ध कविता 'सोनमछली' याद आती रही. कविता बहुत छोटी है :
हम निहारते रूप
कांच के पीछे
हांफ रही है मछली
रूप तृषा भी
(और कांच के पीछे)
है जिजीविषा.
पर विकल्प क्या है?
जो लोग उच्च शिक्षा प्राप्त कर अमरीका चले आए हैं, यहां कुछ साल रह गए हैं, उनका देश लौटना भी उतना आसान नहीं है जितना आम तौर पर मान लिया जाता है. यहां रहकर आप उन बहुत सारी बातों, सुविधाओं तथा अच्छाइयों के अभ्यस्त हो चलते हैं जो अपने देश में अभी कल्पनातीत ही हैं. चलिये, उनकी बात छोड़िये. अपना देश, जैसा भी हो, अपना है. पर आपने जो दक्षता यहां अर्जित की है, उसके प्रयोग का अवसर भी अगर अपने देश में न मिल पाये तो? काम करने के लिए जिस तरह का वातावरण अमरीका में है, उस तरह का न तो भारत में है, न निकट भविष्य में होने की कोई उम्मीद है. मेरा स्वर बहुत निराशावादी लग सकता है, और मेरे ‘देशभक्त’ पाठकों को इस बात पर गहरी आपत्ति भी हो सकती है, पर यथार्थ यही है.
ऐसा नहीं है कि लोग अमरीका से लौटे नहीं हैं. लौटे भी हैं और लौटकर उन्होंने देश में अपनी जगह भी बनाई है. लेकिन वह लौटना भी बहुत सहज और सुखद शायद ही रहा हो. जिसे रिवर्स कल्चरल शॉक कहा जाता है, वह तथा अन्य बहुत सारी व्यथाएं इस वापसी के साथ खुद-ब-खुद जुड़ जाती हैं. मुझे तो इस सन्दर्भ में फिर से अज्ञेय ही याद आते हैं. उनकी एक और कविता है, 'नहीं यूलिसिस'1. आप भी पढ़िये :
नहीं यूलिसिस
न तुम्हें कभी मिलेगी इथाका
न कभी मुझे मिलेगी द्वारका !
वापसी में यों भी
कोई नगर नहीं मिलते :
प्रवासी लौटते तो हैं
पर उनकी घर वापसी नहीं होती
जहां वापसी होती है वहां उनके घर नहीं होते :
उन्हें कोई नहीं पहचानता.
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1. यूनानी पुराकथा के अनुसार यूलिसिस उर्फ ओडीसियस इथाका का सम्राट था. ट्रोजन युद्ध के कारण उसे दस बरस अपने घर से दूर रहना पड़ा था. महाकवि होमर ने 'ओडेसी' में इसी की कथा कही है.
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(शेष अगले अंक में जारी...)
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