''हिन्दी साहित्य में व्यंग्य की एक सुदीर्घ परम्परा रही है। भारतेन्दु हरिश्चन्द्र से लेकर हरिशंकर परिसाई और शरद जोशी तक यह कई आयामो...
''हिन्दी साहित्य में व्यंग्य की एक सुदीर्घ परम्परा रही है। भारतेन्दु हरिश्चन्द्र से लेकर हरिशंकर परिसाई और शरद जोशी तक यह कई आयामों में जीवित रही है। इस परम्परा की मुख्य विशेषता यह रही है कि व्यंग्य जैसी तिक्त और मारक शैली को हास्य के रंग में ढालकर उसे प्रेषणीय और दिलचस्प बनाया गया, जिसकी वजह से पठनीयता की व्याकुलता पाठक में अन्त तक बरकरार रही।
वर्तमान में गोपाल चतुर्वेदी, के.पी.सक्सेना, श्रीलाल शुक्ल आदि इस विधा में पूरे मनोयोग से सक्रिय हैं। वैसे भी यह माध्यम प्रसंग के सापेक्ष साहित्य की अन्य विधाओं की अपेक्षा अधिक प्रभावकारी है। यह विश्वासपूर्वक कहा जा सकता है कि इस विधा में नयी पीढ़ी के जो रचनाकार काम कर रहे है, उनमें आर.के.भँवर का नाम पूरे भरोसे के साथ लिया जा सकता है।
व्यंग्य आज सामाजिक औजार के रूप में प्रयुक्त हो रहा है। निश्चय ही इसका पथ उत्तरोत्तर प्रशस्त हुआ है। श्री भँवर की व्यंग्य-रचनाओं की धार तीखी है : किन्तु मीठी भी। यह व्यंग्यकार की निजी विशेषता कही जा सकती है। वह विवेच्य वस्तु को कड़वी बोली की तरह नहीं : बल्कि मीठी दवा की तरह अपने पाठकों को परोसता है।
श्री भँवर अपनी व्यंग्य रचनाओं के शीर्षकों का चयन भी व्यंग्यात्मक ही करते है। जहाँ वे नयी सूक्तियों का सृजन करते हैं, वहां प्राय: अधिक प्रभावी हो जाते हैं, यथा : 'फटे लिफाफे को कोई कलेजे नहीं लगाता है।'
युवा व्यंग्यकार भँवर का व्यंग्य पारदर्शी है, पठनीय है और देर तक मन-मस्तिष्क को कुरेदता रहता है। पाठकों को व्यंग्य का यह रूप-स्वरूप बहुत भायेगा।''
दिनेश सिंह
सम्पादक
नये पुराने
रायबरेली
व्यंग्य
हाय .... मेरी प्याज
· आर.के.भंवर
क्या पता था कि प्याज के दिन ऐसे बहुरेंगे कि वह सौ फीसदी वी.आई.पी. हो जायेगा। प्याज खाना हैसियत वाले आदमी की पहचान बन गई है। '' क्यों भाई साब ... प्याज खा रहे है, वह भी सलाद में , क्या ठाठ है। सब्जी मंडी में प्याज के दुकानदार के चेहरे की रौनक के भी क्या कहने ! अब वह पहले वाला दुकानदार नहीं है कि आप गये और बैठकर छांटने लगे - प्याज । बात यहीं कोई एक हफ्ते पहले की है जब प्याज 20 रूपये किलो पर ठनठना रहा था। अपनी औकात और छुई-मुई शान के वास्ते आधा किलो प्याज ली, चलते वक्त रास्ते में एक प्याज गिर गई, मैंने गाड़ी रोककर उसे ऐसे सहेजते हुए उठाया, जैसे कोई गिन्नी गिर गयी हो। उन दिनों की वह खरीदी गई आधा किलो प्याज कितने दिन मेरे घर पर मुख्य अतिथि की तरह रही, इसकी गणना यह लिखते समय मेरे पास ठीक-ठीक उपलब्ध नहीं है।
अभी कल ही तो दिल्ली में सस्ती प्याज पाने के लिए लोगों की ऐसी लम्बी लाईन थी कि टेलीविजन का चौखटा काफी छोटा पड़ गया। ..... होटल में खाने की मेज पर यदाकदा सलाद की प्लेट में एक दो लच्छे दिख भर जाएं तो ऐसा लगता कि जैसे मै आम आदमी से तुरंत खास बन गया। लोगों की नजरें चुराकर प्याज के दो छल्लों को कपोल कवलित करने के बजाए पतलून की जेब में रख लेता हूं, घर पहुंचने पर उन छल्लों को बच्चों को दिखा कर कहता हूं कि देख लाले , यह है प्याज, हो गये न हम मोहल्ले में इनेगिने लोगों की हैसियत वाला .... । मेरा बच्चा छल्ला देखकर एक बार रोमांचित होकर बोल पड़ा था , हाय पापा, सुमित बहुत नक्शा मारता था, कि उसके पापा मार्केट से रोज प्याज लाते है। अब तो मै भी कह सकता हूं ..... कि मेरे पापा दि ग्रेट ... । मेरा मन अंदर से कह रहा था कि उससे कह दूं कि स्कूल के बैग में प्याज का छल्ला रख लें और फिर साथियों को दिखा कर वापस ले आना ..... । पर हाय मेरा मोह माया..... । मन नहीं हो रहा था कि प्याज को अपने हाथ से एक पल के लिए दरकिनार करूं । प्याज तू न गई मेरे मन से ..... यही माकूल टाईटिल होता न , यदि दिनकर जी जिंदा होते ..... । दिगम्बरी भाई लोग जो तरह तरह की रोक टोक की बिना पर प्याज को नाकारा समझते थे ...... वह भी प्याजगोषों को समझाने में लग गये है ..... अरे एक मुझे देखो प्याज खाते ही नहीं, प्याज न खाने वाले( महंगी के कारण न खरीद पाने वाले ) उनकी टोली में आ गये है।
आम आदमी के पसीने उस समय छूटने लगते है जब दुकानदार मुंहतोड़ जवाब फेंकता है, ओ बाबू साहेब ... प्याज है प्याज , घुइयां नहीं । लेना हो तो लो, वरना आगे देखो ... । प्याज जिनके यहां थोड़ी बहुत स्टॉक में थी, उनके कहने ही क्या। उनके दिन सुनहरे ही समझिये। मंडी का अपना विज्ञान है। भाव कब चढ़ेंगे और कित्ते दिन चढ़े रहेंगे ... यह उनका अपना गणित है। मेरे एक परिचित आमदनी वाले विभाग में कार्यरत है, मैने उनसे एक दिन कहा - भई कभी अपनी नजरें प्याजखोरों पर तिरछी कर लो । बोले -' क्या तिरछी नजरे करूं खाक, प्याज मिल रही है आगे से न सही पीछे से '।
40 रूपये किलो वाली प्याज में से एक प्याज लेकर आप सुबह सुबह सामने रखकर बैठ जाईए ..., धीरे-धीरे पहले ऊपर का छिलका उतारिये फिर आगे के छिलके उतारते चले जाइए । सावधान आप मन में सब्जी बनाने का इरादा न कीजियेगा। जो छिलका उतार रहे है न, समझिये वही वही प्याज है। अब आप क्या पाते है कि प्याज है और है तो वह छिलकों में । बचा सिर्फ शून्य । यही शून्य परम् तत्व है। परम् विज्ञान है। भगवत प्राप्ति का संतसम्मत साधन। छिलकों की पर्त के संगठन का नाम प्याज है और उनके बिखराव में प्याज तिरोहित हो रही है। शून्य बच रहा है। जो दिख रहा है वो है नहीं .... और जो नहीं है वो दिख रहा है। सरकार इस दिशा में किसी न किसी तरह से प्रयोग कर सकती है। एक अपील जारी कर सकती है। '' लीजिए एक प्याज और भोरहरे उठ बैठिए, प्याज साधना कीजिये ... सारे मर्ज दूर। न रहेगा बांस और न बजेगी बांसुरी । ''
जैसे एक सीढ़ी होती है, कोई चढ़ता है फिर उतरता है - यह एक सामान्य सा नियम है। चढ़ा है तो उतरेगा और उतरा है तो चढ़ेगा। यही है न दर्शन । पर जरूरत की वस्तुओं के भाव मंडी में तो ऊंचान तक बड़ी देर तक रूके रहते है। चढ़ गये तो चढ़ गये, अब लखियों मनौती मनाओं ... पर उतरेंगे नहीं । बस चढ़े है तो ... । जैसे जरूरतों के बाजार में भाव मरखैना सांड़ हो गया हो ... । और अपनी प्याज ... चढ़ी जो चढ़ती चली गयी।
कल के लिए कागज के पन्ने कोरे है सिर्फ यह लिखने के वास्ते - बेटा वह भी समय था जब 40 रूपये किलो वाली प्याज तुम्हारे दादा जी बाजार से लाते थे। और 21 वीं सदी का लल्ला बोल उठेगा .... हाऊ स्ट्रैंज! सच ममी .... तब इत्ती सस्ती थी प्याज ... ।
----------
व्यंग्य
दुविधा तू न गई मेरे मन से
· आर.के.भंवर
मेरी लेखनी की इस निसृति का राष्ट्रकवि दिनकर जी के व्यंग्यालेख से कोई लेना देना नहीं है। वे मेरे लिए आज भी परम् आदरणीय हैं। उन्होंने ईर्ष्या तू न गई मेरे मन से उस समय लिखा था जब समाज में ईर्ष्यालु मनुष्य पग पग पर रेंगते दिखते थे। इतनी भयंकर ईर्ष्या कि हरे भरे पेड़ को कोई देख ले तो वह जल जाये । तब का आदमी ईर्ष्या को किसी न किसी अंदाज में बयां जरूर कर लेता था। उस समय उनका लिखा यह आलेख बड़े काम का था। पर अब ईर्ष्या का वैश्वीकरण हो गया है। वैसे है अभी भी, आज के समय में वह बड़े-बड़े अमलों में अपने विभिन्न रूपों में चली गई है। यह अब मुकेष - अनिल अम्बानी के यहां पैर पसारने लगी है। धीरू भाई अम्बानी इसे ऊपर कितना भी मुठ्ठी में बंद कर लें, पर जो जल रहा है, उसका क्या।
उन्होंने उस समय ईर्ष्या पर काफी शोध किया था और इस माहौल में हमने दुविधा पर काफी शोध कर डाला है। दुविधा बड़ा अर्थपूर्ण शब्द है। ये एक अरबी हिन्दुस्तानी ही नहीं पूरी दुनिया के बाशिंदों के मन में अपना स्थायी स्थान बनाये हुए है। इससे सभी का पाला पड़ता है। दुविधा और सुविधा एक ही सिक्के के दो पहलू है। आज जो दुविधाग्रस्त है वह कल सुविधासम्पन्न भी होगा। हिन्दी फिल्म गोरा-काला की तरह लिंगभेद करते हुए सुविधा यदि गोरी है तो दुविधा काली, ये आप अपनी सुविधा के लिए कह सकते है। हालांकि सुविधा सात्विकी होने के साथ साथ तामसी भी होती है। चूंकि म्यान में एक तलवार की तरह एक समय में एक ही रहती है। इसलिए सुविधा को सात्विकी ही मानकर चलता हूं।
भारतीय पत्नी सदैव दुविधा में जीती है और पति सुविधा को रखैल बनाकर रखना चाहता है। भारतीय परिवारों में प्राय: छिड़े रहने वाले द्वंद्व का एक कारण है - संशय। कृष्ण ने अर्जुन से कहा संशयात्मा विनष्यति। संशय या दुविधा की वृत्ति का विनाश ही सुविधा की सीढ़ी सुलभ कराता है। इस सीढ़ी से चढ़ने के बाद व्यक्ति आरामतलबी के छज्जे पर बैठ न जाये, आगे बढ़े। समूची महाभारत में अर्जुन को श्रीकृष्ण ने विषेष रूप से यह कहते हुए मोटीवेट किया था कि शत्रु की सेना तो पहले से ही मरी है, इसे तू बाकायदे मार दे। दुविधाग्रस्त अर्जुन एक-एक कर दुविधाओं को काटता चला गया। ऐसा उसके लिए आसान था क्योंकि कृष्ण उसके सारथी थे। सारथी प्रेरक हो तो दुविधा पास नहीं फटकती। उधर सारथी अपने ध्येय से विचलित हो जाए तो कोई भी जीवन के महाभारत में हीरो क्या जीरो भी नहीं बन सकता है।
मेरे एक मित्र हैं, से बतियाकर किसी को भी यह लगेगा कि वह दुविधा में ही पैदा हुए, दुविधा में जी रहे है और जीवन की सांझ नियरायेगी तो दुविधा में ही अवसान प्राप्त करेंगे। मैं इतना कहने में बेमरौव्वत इसलिए हो गया कि उन्होंने एक नहीं अनेक सारथियों को बाहर का दरवाजा दिखाने में चूक नहीं की। होगा कि नहीं होगा, बनेगा कि नहीं बनेगा, चलेगा कि नहीं चलेगा , इससे मिलेगा कि नहीं मिलेगा .... ऐसे न जाने कितनी विचारवीथियों में ज्वार-भाटा आया करते थे। दुविधा की वजह से ही उनकी तीन-तीन लड़कियां जवानी से बुढ़ापे की ओर बढ़ने लगी हैं। वह दुविधा के कारण ही किसी काम को पूरी तन्मयता व निष्ठा से नहीं कर पाते थे। उनमें एक खास आदत यह रही है कि वे उपदेष सभी को देते है कि दुविधा में आदमी को नहीं रहना चाहिए। दुविधा आदमी के अंदर उसके साहस का सत्यानाश कर डालती है। आदि-इत्यादि। यह सब बोलकर वह अपने को समझाने की चेष्टा जरूर करते थे कि वे दुविधा में नहीं जीते है। होता ही यही है कि जूते-चप्पलें चुराने वाला सबसे ज्यादा नैतिकता पर चर्चा कर सकता है।
मेरे इन मित्र के साथ यही दिक्कत है कि वे जमीनी हकीकत से दो-दो हाथ नहीं कर पाते। अजीब किस्म के संकोची। संकोची भी इस तरह कि चलती बस में उन्हें यदि अपशिष्ट जल के विसर्जन की उत्कट इच्छा हो तो न वे बस चालक से अनुरोध करेंगे और न परिचालक से ही। सिवाय इसके कि वह अपना आसन इधर से उधर भले ही करते रहे। दुविधा में जीने वाला व्यक्ति संकोच को अपने साथ लेकर चलता है, साथ ही वह जरूरत से कुछ ज्यादा ही चिंतन में समाधिस्थ हो जाता है। दुविधा से मन में वहम जन्म लेता है। यह वहम ही है जो कुछ समय तक व्यक्ति के मन में पाल्थी लगा लेता है और उसे न्यूरो फिजीशिएन के क्लीनिक तक पहुंचा देता है। वहम और अहम दोनों यदि व्यक्ति पर अपना आधिपत्य जमा लें तो वह गया काम से।
दुविधा मनुष्य की प्रकृति में है। उससे अलग रहकर जीना कोई जीना है ! दुविधा से मन में जो अनिर्णय की स्थिति उत्पन्न होती है उसे पार पाने के लिए ध्यान का बहुत बड़ा व्यवसाय चल रहा है। सुविधा की श्यामरंगी मलाई खाने वाले बाबाओं के आश्रमों में दुविधाग्रस्त मनोरोगी ही विचरण करते मिलेंगे। इन बाबाओं की भूमिका यह है कि मनुष्यमात्र में दुविधा का संचार कराते रहें जिससे उनका व्यवसाय बढ़ता रहे। जब वे कहते थे कि इस नश्वर शरीर से मोह कैसा, तो उनकी चतुर चेलियां बाबा के सायंकालीन मेकअप का लेप तैयार कर रही होती थी। उनका जब यह कहना होता था कि दुविधा को भगाने के लिए ध्यान करना, तो उनके चेले दूसरे छोर पर सुविधा -सम्पन्नता के लिए एक नये आश्रम की जमीन पर कब्जा कर रहे होते थे।
नब्बे प्रतिशत दुविधा में जीने वाले मनुष्य 10 प्रतिशत लोगों के लिए सुविधा का कारोबार देते है या कह ले कि उन्हें पंचतारा संस्कृति में जीने का हकदार बनाते है। बाबा रहीम यदि आज होते तो दुविधा पर लिखा अपना दोहा ही पलट देते। क्योंकि दुविधा की सीढ़ी पर चढ़कर माया और राम दोनों ही मिल रहे है। नतीजन दुविधा ही सुविधा को मालामाल कर रही है। इलेक्शन में वोटर जब-जब दुविधाग्रस्त हुआ, तब-तब जमानत जब्त कराने की फिराक वाला उम्मीदवार जरूर जीतता है। इसलिए ध्यान और प्रार्थना का दर्शन यही है ' दुविधाम् शरणं गच्छामि ..।'
-----------
आर. के. भंवर
पता :
सूर्य सदन,
सी-501/सी, इंदिरा नगर,
लखनऊ(उ0प्र0)-226016
फोन नं0 - 0522-2345752
मोबाईल नं0 : 9450003746
UP me pyaz ke daam increase hai, zabardast Vyangya hai. Meri badhai.
जवाब देंहटाएंduvidha me to insan jeeta hi hai. duvidha ko vyangya ki bhasha me shabdankit kiya hai, good efforts. har insan ki soch ke mutabik hai vyangya. thanks to mr. R.K.
जवाब देंहटाएं