(टोनी मॉरीसन) आलेख -विजय शर्मा डेढ़ सौ साल पहले एक अमेरिकी लेखक ने अपने पूर्वजों के पाप का प्रायश्चित करने के लिए एक पुस्तक रची, ज...
आलेख
-विजय शर्मा
डेढ़ सौ साल पहले एक अमेरिकी लेखक ने अपने पूर्वजों के पाप का प्रायश्चित करने के लिए एक पुस्तक रची, जो आज इतने वर्षों के बाद भी इंग्लिश साहित्य में अपना विशिष्ट स्थान रखती है. पुस्तक है 'द स्कारलेट लैटर’. इसने लेखक नथैनियल हॉथर्न को स्थापित कर दिया और स्वयं भी इतने वर्षों से विश्व साहित्य में जमी हुई है, अभी भी अमेरिकी साहित्य के शीर्ष पर है. साहित्य जगत में मील का पत्थर है 'द स्कारलेट लैटर’, जिसके बारे में एक विख्यात समीक्षक ने लिखा है, 'साहित्यिक सृजनात्मकता की पराकाष्ठा पूर्णता के उतना निकट, जितना मानवीय प्रयास पहुँच सकता है’. हरमन मेल्विल नथैनियल हॉथर्न को 'अमेरिका का शेक्सपीयर कहता है. इतना ही नहीं इसने अन्य कई प्रतिभाओं को प्रोत्साहित किया इस पर 1926 से ले कर अब तक चार-पाँच बहुचर्चित फिल्में बन चुकी हैं और भविष्य में भी इससे काफी संभावनाएँ हैं. इस रचना का उत्स उससे दो सदी पहले सत्रहवीं सदी में है. स्कारलेट लैटर जैसी रचना देने के पीछे एक कारण यह था कि हॉथर्न के पूर्वजों में से एक जॉन हॉथर्न 1692 में सेलम के कुख्यात
विच-क्राफ्ट मुकदमे में जज की भूमिका में था. उसका परिवार प्योरिटन था. वे 1630 में न्यू इंग्लैंड आए थे. कहानी से उसका परिवार और वह स्वयं बहुत गहरे जुड़े हुए थे. उपन्यास में सेलम और उसके जीवन का बड़ा सूक्ष्म एवं विस्तृत विवरण है. हम अपने पूर्वजों द्वारा किए गए कुकर्मों को मिटा नहीं सकते पर किसी न किसी ढंग से उसका प्रायश्चित करके उन्हें हल्का अवश्य कर सकते हैं और नेथनियल ने उपन्यास के रूप में यही करने का प्रयास किया है.
बँटवारे के दौरान जो हिंसा हुई उसे दोनों कौमों का पागलपन मान कर भुलाने की कोशिश करें पर चौरासी के एक तरफा दंगे? उन्हें दंगे कहना उचित नहीं, वह सोची समझी रणनीति थी. फिर गुजरात का नर संहार. हमारे यहाँ भी कम अत्याचार नहीं हुए हैं परंतु अभी तक कोई ऐसी कृति मेरी नजरों से नहीं गुजरी है जिसमें रचनाकार अपने अथवा अपने पूर्वजों के पापों का प्रायश्चित करता दीखता हो. शायद कभी भविष्य में कोई अत्याचारी या उसका कोई वारिस अपराध बोध से ग्रसित हो और अपने पूर्वजों के प्रायश्चित स्वरूप स्कारलेट लैटर जैसी कोई कृति हमारे सामने आए.
मेरे मन में एक और प्रश्न उठा रहा है सेलम के जिन लोगों को विच कहकर नष्ट किया गया उनमें से किसी परिवार का कोई सदस्य यदि रचना करे तो वह कैसी होगी? स्त्रियों और दलितों पर सदियों से अत्याचार किया गया है. सताई गई स्त्रियों और दलियों द्वारा की गई रचनाएँ इसी श्रेणी में आती हैं. इस दिशा में अब हमारे यहाँ काम हो रहा है. नारी और दलित जो सदियों से अत्याचार का शिकार रहे हैं उन लोगों ने कलम उठाई है. मराठी में पहले और फिर अब हिन्दी में. हालाँकि इतना काफी नहीं है.
अमेरिका की अश्वेत जनता पर जो अत्याचार हुए उस पर उन्हीं लोगों और उनके परिवार वालों के द्वारा थोड़ा-बहुत, कुछ रचा गया है. जैसे कि एलैक्स हेली की 'द ऑटोबॉयग्राफी ऑफ मैल्कॉम एक्स’ जो अफ्रीकन-अमेरिकन साहित्य और इतिहास के विद्यार्थियों के लिए एक महत्वपूर्ण पुस्तक बन गई. फिर उन्होंने लिखा 'रूट्स’. जिसको पुलित्सर अवार्ड तथा नेशनल बुक अवार्ड सहित दर्जनों पुरस्कार मिले. इसकी लाखों प्रतियाँ बिकीं और 26 भाषाओं में जिसका अनुवाद हुआ. जिस पर 1977 में टीवी प्रोग्राम बना. इसमें उन्होंने अपने अतीत, अपनी जड़ों को अफ्रीका तक खोज निकाला है. इसने बहुत से लोगों को अपना इतिहास खोजने के लिए प्रेरित किया. अश्वेत गुलामों की एक और
वंशज हैं टोनी मॉरीसन उन्होंने अश्वेतों के दारुण दु:ख, उनकी आशा-निराशा को वाणी दी है. उन्होंने अपने उपन्यासों 'बिलवड’, 'जाज’, 'पैराडाइज’, 'सुला’, 'साँग ऑफ सोलमन’, 'लव’ आदि उपन्यास तथा अपने आलेखों के द्वारा अफ्रीकन-अमेरिकन इतिहास को नए ढंग से दुनिया के सामने प्रस्तुत किया है. जैसा कि स्वाभाविक था प्रारम्भ में उनकी उपेक्षा हुई पर कब तक उपेक्षा की जाती. अधिकार तो लेना पड़ता है और वही हुआ. पहले टोनी मॉरीसन को पुलित्सर प्राइज मिला और 1993 में साहित्य का नोबेल पुरस्कार प्राप्त हुआ. मॉरीसन ने अपनी रचनाओं में नस्ल भेदभाव वाली सभ्यता में अश्वेत स्त्री के अनुभवों को जुटा कर स्वर दिया है. इतना ही नहीं उन्होंने अपने प्रभाव का उपयोग करके अन्य अश्वेत रचनाकारों को प्रोत्साहित किया और उनके कार्यों को प्रकाशित करवाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है. वे नेशनल कौंसिल ऑन आट्र्स तथा द अमेरिकन एकेडमी एंड इंसटिटयूट ऑफ आट्र्स एंड लेटर्स की सदस्य हैं.
टोनी मॉरीसन का जन्म का नाम चोल एंथोनी वोफोर्ड था. चोल के उच्चारण में लोगों को मुश्किल होती थी अत: उन्होंने अपना नाम बदल कर टोनी कर लिया. परंतु कुछ रचनाओं के पश्चात उन्हें लगा कि जो वे लिखती हैं उसमें से अधिकाँश अनुभव चोल एंथोनी वोफोर्ड के होते हैं अत: उन्हें लगता है कि अपना नाम पुन: चोल रखना ही उचित होगा. अमेरिका का ओहिओ राज्य अपने जन्म एक मार्च 1803 से ही गुलामी के विरोध में रहा है. इसीलिए इसके शहर 'अंडरग्राउंड रेलरोड’ गुलामों के भागते समय उनकी शरणस्थली रहे हैं. यहीं सबसे पहले 1821 में बेंजामिन लुन्डी ने अश्वेतों का जीनियस ऑफ यूनिवर्सल एमान्सीपेशन नामक पहला न्यूजपेपर शुरु किया. यहीं मॉरीसन के माता-पिता भी आ कर बसे. उनका जन्म 1931 में ओहिओ में ही हुआ जहाँ उनके माता-पिता दक्षिण के नस्लवाद और पूर्वग्रह की समस्याओं से बचने के लिए आ गए थे. ऐसा नहीं था कि यहाँ अश्वेतों के लिए समस्याएँ नहीं थी, हाँ दक्षिण की बनिस्बत कम थी. अत: उसका बचपन उतना कष्टकर नहीं था. वे सोचती थी कि उनके बच्चों को उनके जितना भी कष्ट नहीं झेलना पड़ेगा पर ऐसा नहीं हुआ. उन्होंने अपने बेटों को नस्ल भेद भाव वाले समुदाय के लिए तैयार नहीं किया था. वे सोचती थीं कि अब समय बदल गया है परंतु उनके बेटों को अस्सी के दशक में अमेरिका में हुए रंगभेद और नस्लवाद का शिकार होना पड़ा. उन्होंने अश्वेत होने की पीड़ा झेली. यह पहली की गुलामी से भिन्न था. विश्व के लिए स्वतंत्रता, समानता और भाईचारे की चौधराहट का दावा करने वाले अमेरिका में भेदभाव बना हुआ है इसमें कोई दो राय नहीं है. चूँकि उनके बच्चे इसके लिए तैयार नहीं थे अत: वे मानती हैं कि उनके बच्चों को उनसे ज्यादा दु:ख मिला. अश्वेत क्रिमिनल होते हैं यह धारणा बहुत पक्की बनी हुई है. बनार्ड शॉ के अनुसार, 'अमेरिकन श्वेत चर्म वाले काले नीग्रो को जूता पॉलिश करने वाले लड़के के वर्ग में उतार लेते हैं और इसके बाद वे यह फैसला देते हैं कि अश्वेत आदमी जूता पॉलिश करने के अलावा कुछ और कर ही नहीं सकता है. हमारे अपने समाज में अस्पृश्यता कानूनन समाप्त हो चुकी है पर क्या समाज में वास्तव में ऐसा हो गया है? अंग्रेजों ने जिन समुदायों को क्रिमिनल घोषित कर दिया था आज भी वे उसका खामियाजा भुगत रहे हैं. संजीव जैसे कुछ लेखकों ने इस समस्या पर कलम उठाई है. आज भी हमारा नजरिया आदिवासियों के प्रति कैसा है?
अमर साहित्य के रचयिता, मानवता के आदिम कवियों ने कहा हैं कवि: क्रांतदृष्टि:. साहित्यकार की महानता मानव जीवन की और मनुष्य की अंतस की उसकी अचूक, गहन पहचान और इनकी सशक्त अभिव्यक्ति में है. मानव के सुख-दु:ख, आशा-निराशा, उसकी आकांक्षा, प्रेम-घृणा यही सब है महान साहित्य को ऊर्जा देने वाला, प्राण देने वाला स्रोत. साहित्य का विषय होता है मानव जीवन और उसका परिवेश. यह परिवेश बाह्य तथा आंतरिक दोनों होता है. आदिकाल से मानव के सुख-दु:ख, आशा-निराशा-हताशा, उसकी आकांक्षा, प्रेम-घृणा, स्वार्थ-परमार्थ, घमंड-विनम्रता का विश्लेषण साहित्य का कथ्य बनता आया है. टोनी मॉरीसन के पिता जॉर्ज वोफोर्ड जो एक वेल्डर थे उन्हें अश्वेतों की लोक कथाएँ सुनाया करते थे. बचपन में सुनी ये लोक कथाएँ उनके साहित्य की थाती बना. प्रत्येक व्यक्ति अपने परिवेश के द्वारा निर्मित होता है. इसी तरह प्रत्येक रचनाकार अपने परिवेश, जिसमें उसकी पृष्ठभूमि भी जुड़ी होती है, से अपनी रचना के लिए ऊर्जा पाता है. किसी रचना का वास्तविक आनन्द उठाने के लिए उसका मनन-विश्लेषण करने के लिए उसके वातावरण, इतिहास, भूगोल, उसकी संस्कृति को जानना बहुत जरूरी है. विदेशी रचनाकारों के विषय में यह और भी मायने रखता है. टोनी मॉरीसन की रचनाओं को जानने समझने के लिए, उनका विश्लेषण करने के लिए, उनका आनन्द उठाने के लिए भी उनकी पृष्ठभूमि को जानना आवश्यक है.
वे एक समय के अफ्रीकी-अमेरिकन गुलाम परिवार की संतान हैं. यह सही है कि वे गुलाम नहीं थीं और उनके माता-पिता भी गुलामी से छूट चुके थे पर अमेरिका में रंग भेद और नस्लवाद सामाजिक संरचना का अंग हैं और कौन दावे के साथ कह सकता है आज भी सामाजिक जीवन में रंग और नस्ल महत्वपूर्ण भूमिका अदा नहीं करता है. उन्होंने अपने उपन्यास पैराडाइज में एक ऐसे शहर की कल्पना की है जहाँ केवल अश्वेत लोग रहते हैं और 1980 तक अमेरिका में कई जगह ऐसा ही था. उन्होंने अमेरिका में रह रहे काले समुदाय, उसके अतीत को अपनी रचनाओं में स्वर दिया है. वे अपने देश में अफ्रीकन की उपस्थिति को अमेरिकन स्वप्न के पूर्ण होने की एक आवश्यक परंतु अव्यक्त पूर्वदशा मानती हैं, एक जरूरी शर्त मानती हैं. उन्होंने अफ्रो-अमेरिकन लोगों को उनका इतिहास दिया है. अत: टोनी मॉरीसन और उनके लेखन के विषय में बात करने से पहले यदि अफ्रीकन-अमेरिकन के विषय में थोड़ी चर्चा कर ली जाए तो बेहतर होगा. हम मॉरीसन की रचनाओं के कथानक, उनकी भाषा की विशेषताओं उनके उनकी शैली, उनके निहितार्थ को ज्यादा अच्छी तरह समझ पाएँगे.
अमेरिका में प्रारम्भ से, कोलम्बस द्वारा उसकी खोज के समय से अश्वेत गुलाम रहे हैं. 1513 में जब स्पैनिश अन्वेषक वास्को न्युनेज ड बाल्बोआ प्रशांत महासागर के तट पर पहुँचा और उसने स्पैन के लिए भूमि अधिकृत की जो आज पनामा कहलाती है तो उसके संग अश्वेत गुलाम थे. जब हरमन कोटर्स ने मैक्सिको को जीता तब भी वे उसके संग थे. 1532 में फ्रांसिस्को पिजार्नो की पेरु जीत में वे थे. स्पैनिश-अफ्रीकन को लैडिनस कहा जाता था. परंतु 1518 में अमेरिकन सीधे अफ्रीका से गुलाम लाने लगे. स्पैन के चार्ल्स प्रथम ने इसकी अनुमति दे दी थी. 1530 तक पुर्तगाली ब्राजील में अफ्रीकन गुलामों का उपयोग करने लगे थे. 1870 तक दस मिलीयन अफ्रीकी लोग जबरदस्ती गुलाम बना कर अमेरिका लाए जा चुके थे. तम्बाकू, गन्ना, कॉफी, कपास, नील, चावल की खेती के लिए मजदूरों की आवश्यकता थी, खदानों से सोना तथा अन्य धातु निकलने के लिए हाथ चाहिए थे और जंगल को जीतने, साफ करने के लिए भी लोगों की जरूरत थी. अमेरिका में आदिवासी थे पर वे अफ्रीका के लोगों की तरह मलेरिया तथा पीले बुखार के प्रतिरोध की क्षमता नहीं रखते थे, साथ ही वे आसानी से हाथ नहीं आते थे. जरूरत पड़ने पर ये बराबरी से लड़ते थे और यह उनका अपना देश था वे इसके चप्पे-चप्पे से परिचित थे अत: उनका पीछा करना अमेरिका में अवसरों की खोज में आए यूरोपियंस के लिए आसान न था. कितनी विचित्र बात है जो एक कौम के लिए अवसरों की भूमि सिद्ध हुई वही दूसरी कौम के लिए गुलामी का पट्टा लिखा लाई, वह भी पीढ़ी दर पीढ़ी के लिए.
और कैसे लाए जाते थे ये लोग? इन्हें पहले तो पश्चिमी तथा मध्य अफ्रीका से, बाद में दक्षिणी अफ्रीका से
जानवरों की तरह शिकार कर, हाँक कर लाया जाता था. अफ्रीका के अधिकांाश कबीले शांत प्रकृति के थे अत: कबीलों के सरदारों को शराब एवं हथियार दे कर गोरों ने उनमें फूट डलवाई और इस षडयंत्र का शिकार होने के बाद कुछ अपने ही देशवासियों को गुलाम बनाने के लिए बिचौलियों का काम करने लगे. एक और बात थी ये कबीले वाले यदि युद्ध के दौरान किसी को पकड़ कर गुलाम बनाते भी थे तो उनकी प्रथा के अनुसार गुलाम को परिवार का सदस्य माना जाता था और उसे शादी करने, सम्पत्ति रखने तथा अन्य अधिकार प्राप्त होते थे. काफी समय तक वे इसी भ्रम में रहे कि जिन अफ्रीकन को अमेरिकन गुलाम बना कर ले जाते हैं वे भी इन्हीं सब सुविधाओं के साथ अमेरिका में रहते होंगे. उन्हें ज्ञात नहीं था अमेरिकन अपने गुलामों को कैसे रखते हैं क्योंकि उन दिनों यातायात की सुविधाएँ नहीं थीं न संचार के साधन थे जो एक बार अमेरिका गया सो सदा के लिए गया. अमेरिकन के लिए गुलाम उसकी सम्पत्ति होते थे जिसके जितने अधिक गुलाम वह उतना सम्पत्तिशाली. और कैसे रखते थे वे अपने गुलाम? दड़बों में बन्द करके, हथकड़ी बेड़ी डाल कर सारे गुलामों को जिनकी संख्या दो चार से लेकर सैंकड़ों तक हो सकती थी एक साथ जंजीर से बाँध कर. दिन रात जिन्हें चाबुक से हाँका जाता था. बात-बात पर जिनकी चमड़ी उधेड़ डाली जाती थी. टोनी मॉरीसन के उपन्यासों में ये बातें आई हैं. सजा के तौर पर गले में लोहे का घेरा, कान में कील से ठोंक कर लकड़ी का पट्टा, मुँह में लोहे की रॉड रख कर जाबी लगाना, और बधिया करना सामान्य बात थी. सजा के लिए मालिक की शराब से एकाध घूँट पी लेना, आदेश को देर से पूरा करना, झूठ बोलना अथवा मालिक का मन करना ही काफी था. अक्सर गुलामों की पीठ का माँस और चमड़ी मार के कारण लोथों में लटकती रहती थी. बिलवड की नायिका सेथे की पीठ पर कोड़ों के इन्हीं निशानों के गर्दन से नितम्ब तक पेड़ उग आए हैं. और खाने के लिए मिलता था मात्र उबला हुआ ओल (जिमीकन्द) तथा आलू.
कोई भी स्वतंत्र चेतना अपनी इच्छा से अपनी खुशी से गुलाम बनना नहीं चाहती है. उनकी अस्मिता को नष्ट करने का, उनकी पहचान को समाप्त करने का काम अफ्रीका में ही प्रारम्भ हो जाता था. अमेरिका के लिए निकलने वाले जहाजों के पास लाकर उन्हें झुंड में रख दिया जाता. चलने से दो दिन पहले उनके सिर पूरी तरह से मूढ़ दिए जाते, उनके कपड़े पूरी तरह से उतार दिए जाते इन सबमें स्त्री पुरुष का भेद नहीं किया जाता था. और प्रत्येक को उसके खरीददार की सील के ठप्पे से गाल पर दाग दिया जाता. अब सब बराबर थे. ना उनका कोई नाम होता न कोई अन्य पहचान. वे मात्र जिंस होते, अपने मालिक की सम्पत्ति. स्त्रियों-बच्चों को डेक पर रखा जाता सब तरह का मौसम नंगे शरीर पर झेलने के लिए और पुरुष नीचे जहाज के काम में ढकेल दिए जाते. उन्हें बोलने-बतियाने की न तो हिम्मत होती, न छूट. हंटर सदा तैयार रहता. किसी व्यक्ति के आत्मसम्मान को तोड़ने के लिए उसको नष्ट करने के लिए और क्या करना होगा?
धर्म, न्याय, नीति, आर्थिक स्थिति, विज्ञान तथा राजनैतिक परिस्थितियाँ सब अश्वेतों के विरुद्ध थे. उन्हें कई स्तरों पर तोड़ा जाता था मसलन कठोर अनुशासन, उनके अपने प्रति हीन भावना, श्वेत लोगों की उच्च शक्ति में विश्वास, मालिक के स्तर की अनुकूलता और एक गहन हीन भावना कि वे बेचारे हैं, श्वेतों पर निर्भर हैं, बेसहारा है, आदि आदि. उन्हें गोरों के मूल्य कंठस्थ करा देना गुलामों की शिक्षा थी. एक गणना के अनुसार करीब 30 मिलियन लोग गुलाम व्यापार के लिए अफ्रीका से उजाड़े गए जिसमें से करीब पचास प्रतिशत अमेरिका पहुँचने के पहले ही समाप्त हो गए. स्कॉटिश दार्शनिक डेविड ह्यूम मानता था कि काले लोगों में ओराँगुटान जितनी ही बुद्धि होती है. सेंट सीमोन नस्ल की असमानता पर विश्वास करता था. कई वैज्ञानिकों का मानना था कि काले लोग जैविक रूप से गोरों से निकृष्ट होते हैं. अगस्ट काँट जो कि सेंट सीमोन का शिष्य और प्रसिद्ध समाजशात्री मानता है कि गोरों की उच्चता अवश्य उनकी दिमागी संरचना में है. बाइबिल भी गुलामी की प्रथा के पक्ष में है. हालाँकि बाद में कई स्थानों पर इंग्लैंड की भाँति ईसाइयत स्वीकार करने से गुलामी से मुक्ति मिलने लगी थी. बाद में कहीं-कहीं पर आजादी खरीद भी सकते थे. बिलवड की बेबी सग्ग का बेटा हाल अपनी माँ के लिए आजादी खरीदता है पर खुद कभी गुलामी से नहीं छूट पाता है. एक गोरा जब भी चाहे, जहाँ चाहे किसी भी गुलाम स्त्री पुरुष से यौन सम्बंध कायम कर सकता था. सेथे और बेबे सग्ग भी नहीं जानती हैं कि उनके किस बच्चे का पिता कौन है. पर कोई श्वेत स्त्री किसी गुलाम से सम्बंध नहीं बना सकती थी. इस मामले में अमेरिकन स्त्री पुरुष के लिए अलग-अलग मूल्य एवं नियम थे. गोरे अमेरिकन गुलाम के साथ अमानुषिक व्यवहार करके भी कानून के घेरे के बाहर रहते थे क्योंकि माना जाता था कि कोई भी अपनी सम्पत्ति नष्ट नहीं करना चाहता है और अफ्रीकन गुलाम गोरों की सम्पत्ति हैं अत: अमेरिकन उन्हें हानि पहुँचा ही नहीं सकते हैं. बेबी सग्ग के साठ साल की गुलामी और दस साल के स्वतंत्र जीवन का निचोड़ है,' दुनिया में गोरों के अलावा कोई दुर्भाग्य नहीं है. क्योंकि 'वे नहीं जानते हैं कब रुकना है.
मनुष्य में स्वतंत्रता के प्रति असीम लालसा होती है. अमेरिका में गुलामों को जानवर से भी बदतर जीवन जीना पड़ता था फिर भी उसकी आजादी की आकांक्षा समाप्त नहीं हुई, इच्छा मरी नहीं. छिटपुट वारदातों को छोड़ दें तो पहला विद्रोह 1661 में वर्जीनिया में हुआ. 1712 में 23 गुलामों ने न्यू यॉर्क में 9 गोरों को मार डाला पर फिर वे पकड़े गए और उन्हें फाँसी दे दी गई. 1831 का नैट टर्नर का विद्रोह इतिहास में सुरक्षित है इस काले गुलाम को इहलाम हुआ कि वह अपने बंधु-बाँधवों के उद्धार के लिए पैदा हुआ है. उसने 21 अगस्त 1831 को पाँच अन्य गुलामों के साथ मिल कर अपने मालिक और उसके परिवार को मार डाला और बगल वाले प्लांटेशंस के 60 गुलामों के संग मिलकर विद्रोह प्रारम्भ कर दिया. पर शीघ्र ही उन्हें दबोच लिया गया और सभी को फाँसी दे दी गई. कई बार विद्रोह प्रारम्भ होने के पहले ही किसी काले गुलाम की धोखेबाजी से काल कवलित हुए, परवान न चढ़ सके. विद्रोहियों अथवा भगोडों की सजा निश्चित थी. पुआल में रख कर जला देना या फिर खुले में फाँसी. जुलाई 1640 में एमैनुआल नाम के एक गुलाम ने भागने की को कोशिश की तो पकड़े जाने पर उसे 30 कोड़े लगे और 'रनअवे के लिए उसके गाल पर सदा के लिए लैटर 'आर दाग दिया गया. एक साल तक उसे बेड़ियों में रह कर काम करना पड़ा. भगोड़ों को शरण देने वालों को भी जुर्माना भरना पड़ता था पर अगर सरकारी तौर पर कोड़े लगाए जा रहें हैं तो कोड़े लगाने वाले काँसटेबल को, प्रति कोड़ा 50 सेंट मिलते थे. यहाँ न्यायाधीश ही अपराधी थे, अपराधी ही न्यायाधीश.
अमेरिका में गुलाम व्यापार कानून द्वारा मान्यता प्राप्त था और जब 1808 में इस व्यापार को कानूनन रोकने की बात हुई तब भी यह मजे में चलता रहा. 1870 में 15 वें संशोधन के द्वारा अमेरिकी संविधान ने अश्वेतों को अमेरिकी नागरिकता दी, तब भी रंग भेद और नस्लवाद कायम रहा. 1955 में एक स्त्री रोजा पार्कर ने एक श्वेत आदमी को अपनी सीट देने से इंकार कर दिया जिसको लेकर मार्टिन लूथर किंग जूनियर ने आन्दोलन चलाया तब जाकर ऐसी घटनाएँ कम हुई. पिछली सदी के आठवें दशक में वे फिर उखड़ पड़ी. 1980-90 में टोनी मॉरीसन के बेटों को यह भेदभाव झेलना पड़ा. 1832 में विलियम लॉयोड गैरीसन ने एंटी स्लेवरी सोसाईटी की स्थापना की. गुलामी के खिलाफ आवाज उठाने वालों थियोडोर ड्वयट बेल्ड, आर्दर टैपन तथा लुइस टैपन आदि को दक्षिण अमेरिका में लोग फैनेटिक कहते थे. वैसे तो जब से मानव इस धरती पर आया है गुलामी की प्रथा भी उसी समय से है परंतु अमेरिका में गुलामी अन्य देशों और अन्य समाजों से तनिक भिन्न है. एक समय था जब यहाँ 'प्रत्येक गुलाम अफ्रीकन था और हर अफ्रीकन गुलाम था. नई दुनिया या संभावनाओं के देश अमेरिका में गुलामों का जीवन जानवरों से भी बदतर था.
वाशिंगटन में काले बच्चों के लिए पहला स्कूल 1807 के आसपास बना था. 1949 में मॉरीसन वॉशिंगटन डी सी के अश्वेतों के लिए विशिष्ट कॉलेज हॉर्वर्ड यूनिवर्सिटी गई. उन्होंने न्यू यॉर्क के इथाका में कॉर्नेल यूनिवर्सिटी से 1955 में एम ए किया. उनकी थीसिस का विषय था 'विलियम फॉक्नर तथा वर्जीनिया वूल्फ के कार्यों में आत्महत्या. वे कई वर्षों से रैन्डम हाऊस की एडीटर हैं. साथ ही प्रिंसटन यूनिवर्सिटी में फिक्शन राइटिंग पढ़ाती हैं. वे मानती हैं कि लेखन के कुछ पक्षों का शिक्षण किया जा सकता है पर दृष्टि या प्रतिभा जैसी बातें नहीं सिखाई जा सकती हैं हाँ आप सीखने वाले की सहायता कर सकते हैं वे अपने छात्रों के साथ बहुत कठोर व्यवहार करती हैं बहाने नहीं सुनती हैं उनसे खूब मेहनत करवाती हैं. क्योंकि वे एक कुशल और कड़ाई से संपादन करने वाली संपादक हैं. वे लेखक, शिक्षक, संपादक तथा माँ कई भूमिकाएँ एक साथ बखूबी निबाहती हैं.
अश्वेत लोग प्रतिभावान होते हैं यह आज सिद्ध हो चुका है परंतु इसे स्वीकार ने में बहुत समय लगा. 1721 में वनसीमेस ने स्मॉल पॉक्स की दवा खोज निकाली थी और 1809 के आसपास पॉल जेनिंग्स पहला अश्वेत लेखक हुआ था. पिछली सदी में अमेरिकन अश्वेतों ने संगीत, विज्ञान तथा खेलकूद में अभूतपूर्व सफलता दिखाई इसने अश्वेतों के प्रति लोगों का नजरिया बदलने में मदद की. पिछली सदी के दूसरे दशक से ही अश्वेत अमेरिकन अपनी सभ्यता संस्कृति के प्रति रूचि दिखाने लगे थे. 1960 के पहले उपन्यासकार राल्फ एलीसन तथा जेम्स बॉल्डविन और नाटककार लोरीयन हैंसबरी ने नई दिशा दिखाई थी. वे नस्लवाद के विवादास्पद मुद्दों का सामना करने को तैयार थे परंतु साठ के अंत में नाटककार एवं कवि एमिरी बराका ने वास्तव में श्वेत लोगों के मूल्यों का विरोध किया. सातवें और आठवें दशक में एलेक्स हेली, पॉल मार्शल, एलिस वॉकर, ग्लोरिया नेलोर तथा टोनी मॉरिसन ने अश्वेतों के अनुभवों को परिभाषित और विश्लेषित करने का काम प्रारम्भ किया. पुलित्सर प्राइज प्राप्त नाटककार चाल्स फुलर का 'ए सोल्जर्स प्ले’ (1982) तथा अगस्त विल्सन का 'फेन्सेस’ (1985) इन्हीं कथानकों पर आधारित हैं. गेंडोलिन ब्रूक्स, माया एंजलो, निक्की गिओवानी जैसे कवियों ने अश्वेतों की भावनाओं को वाणी दी. इसी तरह ऑपेरा स्टार लिओनटिन प्राइज, डाँस कोरिओग्राफ एल्विन ऐली, फिल्म निर्माता गोर्डन पर्क्स, मेल्विन वान पीबल, स्पाइक ली, चित्रकार रोमरे बीयर्डन, जैकब लॉरेंस एवं बेंनी एंड्रूज आदि ने अपने-अपने ढंग से अश्वेत सांस्कृतिक दाय को प्रदशत करने की कोशिश की है.
1987 में लिखे 'बिलवड’ के लिए मॉरीसन को 1988 में पुलित्जर पुरस्कार मिला. परंतु आसानी से नहीं यह तब मिला जब इसके लिए अड़तालिस अश्वेत लेखकों ने हस्ताक्षर के साथ एक खुला पत्र द न्यू यॉर्क टाइम बुक रिव्यू में प्रकाशित करवाया. उन लोगों ने प्रतिरोध जताया कि मॉरीसन को कभी भी पुलित्जर अथवा नेशनल बुक अवॉर्ड से नहीं नवाजा गया है. फिर भी इसे 1987 का नेशनल बुक एवॉर्ड नहीं मिला. गुलामों के साथ इतना अमानुषिक अत्याचार होता था कि वे आत्महत्या करने का प्रयास करते और कभी-कभी अपनों की हत्या भी. सोचा जा सकता है कि क्या हुआ होगा जब एक गुलाम स्त्री ने कूद कर जान देनी चाही पर मरी नहीं केवल उसकी कमर और हाथ-पैर टूट गए. बिलवड की कहानी एक अश्वेत अमेरिकन गुलाम स्त्री की सच्ची कहानी से प्रेरित है. यह स्त्री मार्ग्रेट गार्नर गुलाम थी और वह केनटकी प्लांटेशन में अपने पति के साथ काम करती थी वहाँ से वह अपने पति रॉबर्ट के साथ भाग निकलती है और ओहिओ में शरण लेती है. 1850 के कुख्यात फ्युजिटिव स्लेव एक्ट के तहत गुलामों का मालिक उन्हें पकड़ लेता है तब मार्ग्रेट अपनी संतान को गुलामी से बचाने के लिए स्वयं उन्हें मार डालती है. यही अपने बच्चे की हत्या 'बिलवड’ कहानी का मुख्य बिन्दु है. मॉरीसन को पहले लगता था कि यह कहानी लिखी ही नहीं जा सकती है पर वे इस बात से परेशान और चिढ़ी हुई तथा चिंतित थी कि ऐसी कहानी कला की पहुँच के बाहर कैसे रह सकती है. बिलवड की नायिका सेथे अपने चारों बच्चों को मारने का प्रयास करती है परंतु असफल रहती है. वह मात्र अपने एक शिशु को जिसका अभी नामकरण भी नहीं हुआ था को ही मार पाती है. बाद में वह शिशु के कब्र के पत्थर पर मात्र बिलवड ही लिखवा पाती है डीयर शब्द लिखवाने के लिए उसके पास पैसे नहीं होते हैं. बाद में वह जिस घर में रहती है उसका यही शिशु उसकी किशोर बेटी बिलवड के रूप में उसके पास रहने आती है और उसके घर को भूत के उत्पात से भर देती है. वे लिखती हैं ''कौन सोच सकता था कि एक छोटा बच्चा इतना उत्पात मचा सकता है? 1998 में इसी पुस्तक के आधार पर जोनाथन डेम ने स्पेशल इफेक्ट का बड़ी खूबसूरती से प्रयोग करते हुए इसी नाम से एक फिल्म बनाई. टीवी पर प्रसिद्ध ओपरा विनफ्रे ने नायिका सेथे की भूमिका निभाई. फिल्म की कहानी लिखने में अकोसुआ बुसिया, रिचर्ड लाग्रेवेंस तथा एडम ब्रूक्स तीन-तीन लेखकों ने मेहनत की. पूरी फिल्म में संगीतकार रेचल पोर्टमैन ने एकाकी रुदन का स्वर भर कर फिल्म को विशिष्ट बना दिया है. पूरी फिल्म में बिलवड छाई हुई है. ओपरा विनफ्रे के लिए अभिनय का यह खास अनुभव रहा और उन्होंने फिल्म के प्रचार-प्रसार में अपना पूरा प्रभाव लगा दिया था.
पॉल डी जिसे सेथे गुलामी के दिनों से जानती थी उससे मिलता है और वह बिलवड के भूत को कुछ समय के लिए भगा पाने में सफलता है. वह मानता है कि जो औरत कभी गुलाम थी उसके लिए किसी भी चीज को इतना ज्यादा प्यार करना ठीक नहीं है. सबसे अच्छा है बस थोड़ा-सा प्यार करना, सब कुछ बस जरा-सा, अत: जब कमर तोड़ दी जाए तब भी अगले के लिए थोड़ा-सा प्रेम बच जाए. पर समय बीतने के साथ बिलवड पॉल डी को लुभाती है वह बहुत उग्र हो जाती है. सेथे की जीवित बेटी किशोर डेनवर घर छोड़ देती है. सेथे नंगी गर्भवती बिलवड के साथ खेत में मिलती है. इसी समय जादू टूटता है और बिलवड गायब हो जाती है. पॉल डी सेथे की देखभाल करने लगता है. कहानी का अंत विशिष्ट है. घटनाओं की आवृति मॉरीसन की विशेषता है यहाँ भी वह होता है पर उनके उपन्यासों में आवृति कभी भी ज्यों-कि-त्यों नहीं होती है. कहानी के अंत की ओर जब फिर से सेथे को श्वेत आदमी का सामना करना है तो इस बार वह अपने बच्चों को नहीं मार कर उस श्वेत के प्रति आक्रामक हो उठती है. जो उसके बच्चों को हानि पहुँचाने आ रहा था.
इस आलेख की सीमा है इस कारण इसमें टोनी मॉरीसन के दो उपन्यासों 'बिलवड’ तथा 'पैराडाइज’ को खास तौर पर लेकर अफ्रीकन-अमेरिकन उपन्यास साहित्य को समझने का प्रयास किया गया है. आलोचकों और लेखकों का रिश्ता बड़ा अजीब-सा होता है यदि आलोचक लेखक के कैलीबर का है तो दोनों को एक दूसरे के विकास में योगदान कर सकते हैं अन्यथा नुकसान होने की गुंजाइश ज्यादा रहती है. मॉरीसन नहीं सोचती हैं कि वे आलोचकों से बच सकती हैं, वे मानती हैं कि उनकी बातें सुननी चाहिए. वे जानती हैं कि कुछ लेखकों को आलोचकों की बात सुनना नहीं जँचता है. अगर वे आलोचकों को सुनते भी हैं तो छान कर. अच्छा-अच्छा गप, कडुआ-कडुआ थू. मॉरीसन इस प्रकार की चुनी हुई आलोचना में विश्वास नहीं करना चाहती हैं. वे जानना चाहती हैं कि उनका देश अफ्रीकन-अमेरिकन साहित्य के विषय में क्या सोचता है, उसे किस दृष्टि से देखता है. वे इसमें रूचि रखती हैं कि अश्वेत लेखन के विषय में आलोचक क्या लिखते-कहते हैं इसे कैसे देखते हैं. अफ्रीकन-अमेरिकन लेखन एक लम्बा संघर्ष रहा है बहुत कठिन है और अभी बहुत और काम होना बाकी है. वे खास तौर से जानना चाहती हैं कि स्त्रियों के द्वारा रचा साहित्य किस नजर से देखा, परखा, समझा जाता है. और इसको जानने का सर्वोत्तम तरीका उन्हें अपने काम की आलोचना पढ़ना लगता है. वे अपने काम की समीक्षा इसलिए नहीं पढ़ती हैं कि उन्हें उससे लिखने का गुर मिलेगा, वे दूसरों के दृष्टिकोण से नहीं लिखना चाहती हैं पर इसलिए पढ़ती हैं क्योंकि वे जानना चाहती हैं कि वे जो कहना चाहती थीं उसमें उन्हें कितनी सफलता मिली है. वे अपने काम का जवाब जानना चाहती हैं और आलोचकों ने उन्हें निराश नहीं किया है. यू एस ए टुडे के डेड्रे डोनाहु के अनुसार ''कोई इतना समृद्ध नहीं लिखता है जितना टोनी मॉरीसन ... और कोई इतनी जादूई तरीके से अश्वेत समुदायों का आवाहन करती है लोगों, सम्बंधों, बातों, गढ़े हुए अमर्षों और गुप्त इतिहासों को. एक और आलोचक उनकी प्रशंसा करते हुए कहते हैं ''साँस रोकने वाला, जोखिम उठाने वाला प्रमुख कार्य पाठक जिसका उत्तेजना, व्यग्रता और भयभीत हो कर पन्ने पलटेगा. बहुत कौतुकपूर्ण और मजेदार बातें भी उन्हें अपनी समीक्षा के बारे में पढ़ने को मिलती हैं. अफ्रीकन-अमेरिकन साहित्य की समीक्षा के लिए एक अलग सौंदर्य-शास्त्र की आवश्यकता है. अलग औजार, भिन्न उपकरण चाहिए. उसे अलग मानदंड से ही परखा जाना चाहिए तभी उसके संग न्याय हो सकेगा.
सब प्रकार के साहित्य की आलोचना एक तरह से नहीं की जा सकती है. सब को एक लाठी से नहीं हाँका जा सकता है. जैसे नारी और दलित के लिए अलग समीक्षा शास्त्र की आवश्यकता है, वैसे ही अमेरिकी साहित्य की समीक्षा के लिए भी अन्य उपकरण चाहिए. जिन उपादानों से अमेरिकी साहित्य की समीक्षा हो सकती हैं उन्हीं औजारों, उन्हीं कसौटियों, उपकरणों पर अफ्रीकन-अमेरिकन साहित्य को नहीं कसा जाना चाहिए है. इसीलिए कई बार मॉरीसन के साहित्य की उचित समीक्षा नहीं हो पाती है और वे इससे परेशान हो जाती हैं. उनकी बिलवड के समय उनकी पुस्तक की तुलना एक टीवी सीरियल से की गई थी जो कि एक अश्वेत परिवार के विषय में था. इसी तरह से एक बार उनकी तुलना दो अन्य अश्वेत लेखकों से कर दी गई. उन्हें समीक्षक की बुद्धि पर तरस आया, गुस्सा भी क्योंकि ये तीनों लेखक एक दूसरे से बिल्कुल अलग तरह के लेखन की शैली और विधा के थे. आलोचक ने बिना सोचे समझे जाने बिना उन्हें एक ही लाठी से हाँक दिया. केवल इसलिए कि वे सभी अश्वेत लेखक थे. और समीक्षक वहीं नहीं रुका उसने तीनों किताबों में से एक को सर्वोत्तम साबित कर दिया केवल इसलिए क्योंकि उसमें उस समीक्षक को 'वास्तविक अश्वेत लोग नजर आए. उपन्यास सदा से उनके लिए जिज्ञासा का विषय रहे हैं. जब उनके एक उपन्यास की द न्यू यॉर्क टाइम्स में समीक्षा हुई तो उन्हें बड़ी निराशा हुई क्योंकि समीक्षक ने बिना पुस्तक पढ़े समीक्षा की थी. इसे मॉरीसन अपने लिए अपमान मानती हैं. यह उन्हें गहराई तक व्यथित करता है. ज्यों-ज्यों मॉरीसन लिखती गई आलोचकों का नजरिया उनके प्रति बदलता गया. अब वे अधिक बौद्धिक ढंग से उनकी समीक्षा करते हैं, शुरुआत में ऐसा नहीं था. वे समलिंगी साहित्य, अश्वेत साहित्य, अश्वेत महिला साहित्य सबके प्रति बहुत आशावान हैं. धीरे-धीरे यह बात समीक्षकों की समझ में भी आने लगी है. नई कसौटियाँ बनने लगीं हैं. उनकी एक और विशेषता है, एक रचनाकार के रूप में वे अपने लेखन से कभी भी संतुष्ट नहीं हैं हमेशा लगता है कुछ और सुधारा जा सकता है यहाँ ऐसे लिखना चाहिए था वहाँ यह जोड़ना-घटाना चाहिए था.
वाद व्यक्ति को संकुचित कर देता है उसके नजरिए को तंग करके रंग देता है, यदि वह लेखक है तो वाद का माउथपीस बन कर रह जाता है. मॉरीसन किसी वाद में विश्वास नहीं करती हैं खास तौर पर नारीवादी लेखन के ठप्पे को तो बिल्कुल भी नहीं स्वीकारती हैं. जब उनके उपन्यास पैराडाइज पर समीक्षकों ने नारीवाद की मुहर लगाई तो उन्होंने बड़े जोर से इसका प्रतिवाद किया. इसका खंडन करते हुए उन्होंने एक साक्षात्कार में कहा, ''बिल्कुल नहीं. मैं कभी भी किसी 'वाद में नहीं लिखुँगी. मैं 'वाद के उपन्यास नहीं लिखती हूँ. उन्हें लगता है कि वाद बाँधते हैं, बन्द करते हैं और वे स्वतंत्र रहना चाहती हैं. उनका कहना है कि अब तक जो भी मैंने लिखा है वह विस्तार के लिए लिखा है. अक्सर द्वार खोलने के लिए लिखा है. यहाँ तक कि वे किताब का अंत भी ऐसा रखती हैं कि उसमें पुनर्व्याख्या, पुनरागमन की गुंजाइश रहती है. वे जानबूझ कर थोड़ी-सी जगह, तनिक-सी अस्पष्टता छोड़ती हैं. मॉरीसन का कहना है कि वे 'पितृसत्तात्मकता को मान्यता नहीं देती है इसका मतलब यह नहीं कि मातृसत्तात्मकता को माना जाए. मातृसत्तात्मकता उसका स्थानापन्न नहीं हो सकता है. बहुत से आलोचक चाहते हैं कि मॉरीसन अश्वेतों के बारे में वही लिखें जो उन लोगों ने सुन रखा है 'मसलन सब ठीक हो जाएगा. किसी को दोष नहीं दिया जा सकता है, आदि, आदि. पर वे एक अन्वेषी हैं, वे किसी को दोष नहीं देती हैं मात्र अपलक देखना चाहती हैं कि चीजें अतीत में कैसी थीं, वे लोग जैसे अब रह रहें हैं उसमें अतीत की उन सब बातों, उन सब चीजों का कितना हाथ है. उपन्यास उनके लिए सदा एक खोजबीन का विषय रहा हैं. मॉरीसन को अफसोस है कि अधिकांश लोग कहानियों को सरल रेखीय देखना चाहते हैं जैसा कि अब बहुत से टीवी सीरियल में दिखाया जाता है. जबकि वे मानती हैं कि जीवन सरल रेखीय नहीं होता है. हम जीवन को वर्तमान के क्षण में, भविष्य के अनुमान लगाने में और बहुत कुछ अतीत के टुकड़ों में अनुभव करते हैं. उन्होंने अपने लेखन के द्वारा अमेरिका के काले अतीत को स्वर देने का प्रयास किया है.
वे स्वयं को नारीवादी नहीं मानती हैं क्योंकि जब वे सयानी हो रहीं थीं लगातार अश्वेत औरतों से घिरी हुई रहती थीं औरतें जो बहुत मजबूत थीं, बहुत आक्रामक थीं और जो सदा सोचती थी कि उन्हें बहुत काम करने हैं, बच्चे पालने हैं और घर चलाना है. ये औरतें अपनी बेटियों से बहुत अपेक्षाएँ रखती थी. इन औरतों का काम मॉरीसन को कभी भी नारीवादी नहीं लगा. उनकी माँ वहाँ के थियेटर में जाती थी खासतौर पर देखने कि श्वेत और अश्वेतों को अलग अलग तो नहीं बैठाया जा रहा है. यह भेदभाव वे औरत या मर्द किसी के संग नहीं होने देती थीं. न अपनी बेटियों के संग न अपने बेटों के संग. ऐसी माँ की बेटी केवल औरतों के लिए कैसे काम कर सकती है? वे कहती हैं कि इसी को बाद में नारीवाद कहा गया. उन्हें नारीवादी परिभाषा से भी परेशानी है. उनका सुला उपन्यास इसी नए विचार पर आधारित है. उनके बचपन में औरतें पुरुष की अपेक्षा औरतों का साथ ज्यादा खोजती थीं. उनकी कुछ महिला लेखक दोस्त हैं पर वे दोस्त हैं इसलिए नहीं कि वे महिला हैं या लेखक है बल्कि इसलिए क्योंकि वे विशिष्ट मनुष्य हैं. उनकी पुस्तकों में नारी पात्र बहुतायत से होते हैं फिर भी वे स्वयं को नारीवादी लेखक मानने से इंकार करती हैं. उनका तर्क है कि कोई सोल्सनिस्त्न पर आरोप नहीं लगाता है कि वे मात्र रूसियों के बारे में क्यों लिखते हैं कोई हेमिंग्वे पर कटाक्ष नहीं करता है, उन्हें पुरुषवादी नहीं कहता है तो स्त्रियों पर लिखने के कारण वे कैसे नारीवादी हो गई.
मॉरीसन का उपन्यास सुला (1973) ओहिओ शहर में रहने वाली दो अश्वेत दोस्तों की कहानी है. शैशव, बचपन किशोरावस्था तथा बाद में भी वे संग रहती हैं परंतु दोनों ने बिल्कुल अलग राह चुनी है. नेल राइट ओहिओ में ही रह जाती है शादी करती है उसके बच्चे होते हैं वह अपने अश्वेत समुदाय की रीढ़ बन जाती है, दूसरी ओर सुला पीस विद्रोह में इन सबको त्याग देती है. वह कॉलेज जाती है और शहर के जीवन में खुद को डूबो देती है. एक विद्रोही, अपने समुदाय का मखौल उड़ाने वाली, बिना नैतिकता के सैक्स का प्रयोग करने वाली के रूप में वह अपनी जड़ों की ओर लौटती है. दोनों के अपने दु:ख हैं, संघर्ष और परेशानियाँ हैं. दोनों अपनी विपरीत जीवन शैली के बावजूद एक- दूसरे से बेहद प्रेम करती हैं. इसमें मॉरीसन दिखाती हैं कि अमेरिकी समाज में एक अश्वेत स्त्री के लिए अस्तित्व बचाए रखने के क्या अर्थ है और उसे इसके लिए कौन-कौन से मूल्य चुकाने पड़ते हैं. इस उपन्यास के लिए उनको नैशनल बुक क्रिटिक्स अवॉर्ड मिला.
शादी के छ: सालों के बाद उनका जमैइकन वास्तुकार हेरॉल्ड मोरीसन से तलाक हो गया. वे दोबारा शादी नहीं करना चाहती हैं पर वे मानती हैं कि विवाह का विचार अच्छा है उन्हें शादी अच्छी लगती है. उनके अनुसार बच्चों के लिए दोनों अभिभावक होने चाहिए. अकेला रह जाना भयानक है वे भरे-पूरे संयुक्त परिवार की पक्षधर हैं. हर अनुभव व्यक्ति को कुछ न कुछ सिखा जाता है. उन्होंने शादी से भी सीखा पर तलाक ने भी उन्हें बहुत कुछ सिखाया, मसलन वे क्या-क्या कर सकती हैं, कौन-कौन-सी जिम्मेदारी उठा सकती हैं. इससे उनके व्यक्तित्व में कटुता नहीं आई है. तलाक उन्हें हार नहीं लगता है. एक बार यही बात उन्होंने अन्य तलाक शुदा औरतों से कही और एक-एक करके वे बताने लगीं कि उन्होंने क्या-क्या सीखा है. किसी को इसने बोलना सिखा दिया, किसी को इससे संगठन की कुशलता प्राप्त हुई तो किसी अन्य को घर, बच्चे और जिन्दगी सँवारनी आ गई. खुद टोनी मॉरीसन ने तलाक के कारण ढेर सारा आत्म-गौरव सीखा-पाया. वे मानती हैं कि उन्होंने इसके कारण अपने अधिकारों के प्रति सजग होना सीखा. सो मॉरीसन के अनुसार तलाक का मायने हारना नहीं है इससे कुछ प्राप्त भी होता है. विवाह उन्हें पसन्द है विवाह के विचार को वे मान्यता देती हैं उन्होंने तलाक के बाद भी कभी अपने बच्चों के सामने उनके पिता की निन्दा नहीं की क्योंकि वे मानती हैं कि यह उनका आपसी सम्बंध है.
उनकी पुस्तक 'द ब्लूएस्ट आई (1970) एक छोटे से समुदाय की कहानी है इसके सारे पात्र अश्वेत हैं उन्होंने 1966 में लेखकों की एक ग्रुप के लिए एक कहानी लिखी थी यह उसी का विस्तार है. इस समूह से वे तब जुड़ी थी जब छ: साल के बाद उनका विवाह टूट गया था. इस उपन्यास की मुख्य पात्र अश्वेत पेकोला ब्रीडलव रोज रात को अभिनेत्री शिर्ली टेम्पल की नीली ऑंखे पाने के लिए प्रार्थना करती है. उसका विश्वास है कि यदि उसे नीली ऑंखें मिल जाएँ तो उसके साथ सब कुछ ठीक हो जाएगा. उसके ग्यारह बरसों के जीवन में किसी ने उसकी ओर ध्यान नहीं दिया है वह सोचती है यदि उसे नीली ऑंखें मिल जाएँ तो सब बदल जाएगा. वह इतनी सुन्दर बन जाएगी कि उसके माता-पिता आपस में लड़ना बन्द कर देंगे, पिता पीना बन्द कर देगा, उसका भाई घर छोड़ कर भागना बन्द कर देगा. बस वह सुन्दर हो जाए नीली ऑंखों के साथ और सब उसकी ओर देखने लगें. कथावाचक क्लॉडिया मैक्टीर पेकोला के नष्ट होते जाने की प्रक्रिया समझने का प्रयास करती है.
1977 में एक परिवार की गाथा 'साँग ऑफ सोलमन आया जिसकी तुलना अलैक्स हेली के 'द रूट्स से की जाती है. इसके साथ ही मॉरीसन अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रसिद्ध हो गई. क्षह 1949 में अश्वेत लेखक रिचर्ड राइट के नेटिव सन के बाद बुक ऑफ द मंथ क्लब के लिए इतने वर्षों के बाद चुनी जाने वाली किसी अश्वेत लेखक की रचना थी. यह कहानी उन्होंने पुरुष के दृष्टिकोण से लिखी है कहानी मिल्कमैन डेड के प्रयास का वर्णन है जो अपनी प्राचीन की सम्पत्ति थैली में छिपे सोने को वापस प्राप्त करने का संघर्ष है. सॉँग ऑफ सोलोमन उनकी सबसे सरल पुस्तक मानी जाती है पर वह भी कुछ लोगों को कठिन लगती है. साँग ऑफ सोलमन में मैकन डेड जो अब उत्तर में एक उच्च श्रेणी का व्यापारी है अपने दक्षिणी मजदूर वर्ग के अतीत को छिपाने और अपने परिवार को खतरों एवं हताशा से बचाने के लिए अपने पड़ोसी से दूर-दूर रहता है. परंतु उसका बेटा मिल्कमैन डेड उसकी आशा के ठीक विपरीत हथियारों, निम्न वर्ग की स्त्रियों के साथ रहता है.
जिस कथानक को लेकर बिलवड रचा गया है उसके लिए उपन्यास की परम्परागत शैली काफी नहीं है. अत: इसे इस ढंग से लिखा गया है मानो 'एक आईना गिर कर चूर-चूर हो गया हो और हर टुकड़ा और हर आकृति पाठक को उठा कर जोड़नी है. इसमें बेबी सग्ग है जिसके पैर, पीठ, सिर, ऑंखें और हाथ, किडनी, गर्भ तथा जीभ सबको गुलामी ने कुचल डाला है, नष्ट कर दिया है, अत: वह मात्र अपने हृदय के सहारे जीती है. पॉल डी सेथे को जो बताना चाहता है वह बता नहीं पाता है क्योंकि उसके मुँह में लोहा भरा हुआ था. गुलामों के साथ इतना अमानुषिक व्यवहार होता था कि वे हताशा में आत्महत्या पर उतारू हो जाते थे. अपने आप और अपनों को मार कर मुक्ति की राह पाना चाहते थे सेथे भी अपने बच्चों को गुलामी से बचाने के लिए मार डालने की कोशिश करती है यह दीगर है कि अपने चार बच्चों में से वह केवल एक शिशु की हत्या कर पाती है. इतिहास के ऐसे क्रूर अनुभवों के लिए उपन्यास की एक विशिष्ट शैली ईजाद करना आवश्यक था और मॉरीसन ने यही किया है.
1992 में लिखा गया 'जाज’ मॉरीसन का ऐसा उपन्यास है जिसमें वियोलेट का अविश्वासी पति जो अपने आवेग के हाथों मजबूर हो कर डोरकास को मर डालता है. पूरे उपन्यास में टुकड़ों में हत्या के क्रम और कारण को वर्णित किया गया है. अपने नोबेल प्राइज के बाद 1998 में मॉरीसन ने पैराडाइज लिखा. यह कहानी है ओक्लाहोमा के रूबी नामक शहर की, 360 जनसंख्या वाले एक छोटे से समुदाय की. जिसका इतिहास बड़ा जटिल है गुलामी, शिकार, पूर्वाग्रह आदि से भरा हुआ. पूर्व गुलाम स्वयं शिकार में जुटे हैं. यह उन वास्तविक शहरों की कहानी है जहाँ केवल और केवल अश्वेत लोग रहते हैं पिछली सदी के आठवें दशक तक ऐसे शहर अमेरिका में अस्तित्व में थे. शायद आज भी हैं. एक समय का 'द कॉन्वेंट’ के नाम से जाना जाने वाला लड़कियों का स्कूल अब अत्याचारी पतियों, प्रेमियों तथा सताए गए विगत से भागी हुई स्त्रियों की शरणस्थली है. इस शरणगाह पर नौ पुरुष आक्रमण करते हैं. इसमें मॉरीसन बड़ी सहजता से कई युगों में आती जाती हैं और अश्वेत की पृष्ठभूमि, उनकी आपसी लड़ाई, आर्थिक झगड़ों, पूर्वजों की शत्रुता आदि का अन्वेषण करते हुए केवल अश्वेत के नगर रूबी और मात्र औरतों के कॉन्वेंट का विश्लेषण करती हैं. वे जानना चाहती हैं कि पुरुष क्यों अपने पितृसत्तात्मक स्वर्ग से स्त्रियों (डायनों) को जड़ से समाप्त कर देना चाहते हैं. अमेरिका के सेलम में यही हुआ था जिसने नथैनियल हॉथर्न को स्कारलेट लैटर लिखने को प्रेरित किया. हमारे देश में खासतौर पर छोटानागपुर में तथाकथित डायन के नाम पर स्त्रियों को समाप्त करने के विषय में भी यह प्रश्न बड़ा महत्वपूर्ण है. क्यों किया जाता है ऐसा?
स्वर्ग कहाँ है? और कौन इसका निवासी होता है? आदि बातों के उत्तर खोजता यह पूरा उपन्यास पैराडाइज इसी विचार के इर्द-गिर्द बुना गया है. द न्यू यॉर्क टाइम्स को दिए एक साक्षात्कार में उनका कहना है कि 'सभी स्वर्गों का वर्णन पुरुष परिक्षेत्र के रूप में होता है जबकि स्त्री बिना सुरक्षा के और खतरा तथा हस्तक्षेप करने वाली, दखलन्दाजी करने वाली होती है. ऐसी मानी जाती है और जब हम एक जुट हो कर शक्तिशाली होती हैं तब हम पर आक्रमण होते हैं. उन्होंने यह खूब रिसर्च करके, इतिहास का अध्ययन करके यह उपन्यास लिखा है. अमेरिका में गुलामों की लूसीयाना और मिसीसिपी से ओक्लाहोमा की यात्रा एक ऐतिहासिक सत्य है. जहाँ उन लोगों ने पूरे-पूरे शहर बसाए, चर्च, बैंक दुकानें खोलीं. इस कथा में कोई भी पात्र कहानी के अंत तक नहीं मरता है. मॉरीसन मानती हैं कि सारे स्वर्ग, सारे यूटोपिया उन लोगों के द्वारा निर्मित होते हैं जो वहाँ रहते नहीं हैं. ऐसे लोग जिन्हें वहाँ प्रवेश की इजाजत नहीं होती है. एकाकीपन, अलगाव सदा से यूटोपिया का हिस्सा रहा है. यह मॉरीसन का अपना विशिष्ट तरीका है स्वर्ग के विचार को जानने-समझने का, सुरक्षित स्थान, जहाँ सब कुछ इफरात में है, जहाँ कोई आपको हानि नहीं पहुँचा सकता है, इसकी खोजबीन करने का. इसे वे अपना तप मानती हैं. पर इन सबके साथ यह स्थान सबसे विलग है. सबसे अलग-थलग है. वे यह भी मानती हैं कि पृथकता में स्वयं को नष्ट करने के बीज भी छुपे होते हैं क्योंकि समय के साथ अन्य बातें इसमें छन कर आती जाती हैं, वे समय के साथ बदलने से इंकार कर देते हैं. वे सब चीजों को दूर रखना चाहते हैं और इसी कारण स्वर्ग का नाश होता है.
रूबी एक ऐसा स्वर्ग है जिसे प्रवास के लिए केवल अमेरिकन केवल अफ्रीकन अमेरिकन ही नहीं खोज रहें हैं. अफ्रीकन ने, उन्होंने अपना देश अपना घर छोड़ा है सो वे दूसरा घर खोज रहे हैं. दूसरे, अमेरिकन भी यही कर रहे हैं. मगर दूसरों ने अपना घर छोड़ा है क्योंकि अब वे वहाँ नहीं रहना चाहते हैं या वहाँ अब वे रह नहीं पा रहे हैं. अफ्रीकन-अमेरिकन के घर खोजने में फर्क है वे ऐसा स्थान खोज रहे हैं जहाँ उनके अपने ही लोग हों, अपनी आदतें हों, अपनी सभ्यता संस्कृति हो. जहाँ वे अपने आप में परिपूर्ण हों. इस दृष्टि से उनका स्वर्ग खोजने का उद्देश्य तनिक अलग है. रूबी के बाहर का कॉन्वेंट एक अलग स्वर्ग है. रूबी का पूरा शासन पुरुषों द्वारा चलाया जाता है जबकि कॉन्वेंट का शासन स्त्रियाँ चलाती हैं स्त्रियाँ जो सताई गई स्त्रियों के द्वारा शसित है. मॉरीसन ने रूबी की पूरी व्यवस्था ओल्ड टेस्टामेंट के आधार पर की है. जो पितृसत्तात्मक है जहाँ पुरुष अपनी स्त्रियों की सुरक्षा के प्रति बड़े सतर्क हैं. कॉन्वेंट की स्त्रियाँ पुरुषों का साथ नहीं चाहती हैं यहाँ वे आपस में लड़ती झगड़ती हैं पर उन्हें भय नहीं है कि कोई उनका शिकार करेगा. रूबी में प्रोटेस्टेंट धर्म है जबकि कॉन्वेंट में धर्म संगठन पर आधारित नहीं है वह तकरीबन जादू के कगार पर है. दोनों के मूल्यों में आधारभूत भिन्नता है. यहाँ स्त्रियाँ सातवें दशक की हैं जिन्हें परम्परावादी अश्वेत भयंकर मानते थे.
इस उपन्यास का एक पात्र रेवरेंड मैस्नर मॉरीसन के लिए बहुत विशिष्ट है, बहुत अपना है, क्योंकि वह अपने धर्म के सिद्धांतों, नागरिकों के अधिकारों, नागरिकों के अधिकारों के विलय को लेकर बड़े धर्म संकट में है. वह युवाओं के सब कुछ से कट जाने को लेकर भी बड़ा परेशान है, उनके अलग-थलग पड़ जाने से चिंतित है. वह अन्ना केरेनीना के लेव की तरह है, वह भी वैसे ही नैतिकता से उलझा हुआ जैसे लेव. वह बहस के लिए तैयार है. तर्क को महत्व देता है. वह बच्चों की बात सुनने को राजी है. चूँकि यह कहानी धर्म के बारे में है इसलिए वे मानती हैं कि इसका सही ढंग से नहीं अध्ययन किया जाएगा. क्योंकि लोग इन बातों की चर्चा नहीं करना चाहते हैं वे वही पढ़ना चाहते हैं जिसे वे मानते आए हैं खासकर अश्वेत लेखन के बारे में. वे नहीं चाहती हैं कि उनकी पुस्तकें मात्र बिस्तर के सिरहाने की शोभा बन कर रहें वे इन पर लगातार विचार-विमर्श चाहती हैं और उन्हें इंटरनेट पर यह देख कर खुशी हुई कि पाठक इनमें रूचि ले रहें हैं वे इस पर गम्भीर बहस चला रहें हैं. विनफ्रे अपने बुक क्लब में मॉरीसन की पुस्तक की चर्चा करती हैं. वाशिंगटन पोस्ट में 1998 में मॉरीसन ने कहा, ''केवल हम (मनुष्य) स्वर्ग की कल्पना कर सकते हैं, अत: चलो इसकी सटीक कल्पना करें, यह केवल मेरा तरीका, मेरा स्वामी, मेरी सीमाएँ, मेरे मूल्य, और आपको, आपको, आपको दूर रखना नहीं है. केवल हमीं यह कर सकते हैं . अत: इसके बारे में सोचें ... हाँ, स्वर्ग का अवसर बहुत क्षीण है. तो क्या?
मॉरीसन अपने उपन्यास पैराडाइज को वार (युद्ध) नाम देना चाहती थीं परंतु उनके प्रकाशकों नॉफ (Knopf) ने उन्हें ऐसा नहीं करने दिया प्रकाशकों को डर था कि इस नाम से मॉरीसन के पाठक उनसे विनुख हो जाएँगे. आज भी मॉरीसन को लगता है उपन्यास को वार के स्थान पर पैराडाइज नाम देना ठीक नहीं हुआ. मॉरीसन के लेखन पर मार्केस के जादूई यथार्थ और फॉक्नर के परत-दर-परत कथानक की शैली का गहरा प्रभाव है. उन पर राजनीति से प्रेरित होने का आरोप लगाया गया, जब कि वे स्वयं ही इस बात को मानती हैं कि प्रत्येक कलाकार राजनैतिक होता ही है. वाशिंग्टन पोस्ट में जोनाथन यार्डली ने पैराडाइज पर आरोप लगाया कि पूरे उपन्यास पर मेजर स्टेटमेंट स्पष्ट लिखा हुआ है उसके उत्तर में मॉरीसन ने कहा कि ''मैं विश्वास नहीं करती हूँ कि सच्चा कलाकार कभी भी अराजनैतिक होता है. वे सब भले ही इस उस खास प्रतिज्ञा के प्रति असंवेदनशील रहे हों पर वे सब राजनैतिक थे क्योंकि यही एक कलाकार होता है एक राजनैतिक.
पैराडाइज की भाँति ही 2003 में आया उनका उपन्यास 'लव भी समय में स्वतंत्र रूप से घूमता है. यह बिल कोसी की कहानी है. एक आकर्षक होटल मालिक है जो बरसों पहले मर चुका है परंतु भुलाया नहीं गया है उसकी विधवा और उसकी पोती जो कि उसके महल में रहती हैं वे उसे बराबर याद करती हैं. पूरी कहानी गोथिक शैली में रची गई है. लोग जो षणयंत्र रचते रहते हैं कटु और स्वार्थी स्त्रियाँ, शिकारी पुरुष.
मॉरीसन की एक खास शैली है. 'बिलवड’, 'जाज’ तथा 'पैराडाइज’ अपनी उपन्यास त्रयी में मॉरीसन कहानियों की कई स्तर पर आवृति करती हैं और इस तरह वे इतिहास के आधिपत्य को पुनर्व्याख्यायित करती हैं इस तरह वे बदलाव स्वस्थ होने और सूझ की प्रक्रिया को प्रस्तुत करती हैं. बिलवड में गुलाम सेथे की आजादी मात्र ओहिओ नदी पार करने से नहीं आती है, तब भी नहीं जब वह हताशा में हत्या जैसा जघन्य कार्य करती है. आजादी आती है जब हादसे की आवृति होती है और इस बार एक विशिष्ट बदलाव के साथ. इस बार वह अपने बच्चों के खिलाफ हथियार नहीं उठाती है बल्कि हथियार उठाती है उस गोरे के खिलाफ जो उसके बच्चों के लिए खतरा बन कर आता है. जाज में भी सारा कथानक जाज संगीत की संरचना की तरह दोहराया जाता है यहाँ भी परिवर्तन है और यह परिवर्तन वियोलेट तथा फेलिस का प्रेम, वियोलेट और डोरकास के हत्यारे त्रिकोण से उभरता है. पैराडाइज में फिर हत्या के दृश्य की आवृति होती है. दृश्यों, चरित्रों, और विचार बिन्दुओं की आवृति हर बार एक नए परिवर्तन के साथ पाठक को सारी प्रक्रिया को नए आलोक में देखने के लिए प्रेरित करती है. यदि परिवर्तन के बिना आवृति की जाए तो पूरा वर्णन कितना अर्थहीन हो जाएगा.
पत्रकार एलीजाबेथ फरंसवर्थ मानती हैं कि पैराडाइज में दिखाए गए स्थल कुछ मायनों में बहुत खूबसूरत हैं और कुछ मायनों में बहुत खतरनाक. पैराडाइज की कथावस्तु 1970 में ओक्लाहोमा में काले लोगों के समूह द्वारा बहुत सारी अपनी औरतों को अपने सम्मान को बचाने के लिए मार देने की घटना पर आधारित है. वे सोचते थे कि ये स्त्रियाँ बुरी हैं और इसका असर उनकी नैतिकता पर पड़ता है. यह एक भीतर तक हिला देने वाली मार्मिक कथा है निसन्देह मॉरीसन की रचनाओं में यह एक विशिष्ट स्थान रखती है.
'टार बेबी कहानी है गोरों की संस्कृति द्वारा रची गई एक अश्वेत मॉडल की, उसके और एक काले आदमी के प्रेम की. काला आदमी उन सब बातों का प्रतिनिधित्व करता है जिसे यह मॉडल चाहती भी है और जिससे वह खौफ भी खाती है. इसमें एक अमेरिकन मिलीनितर की ऐय्याशी, से लेकर मैनहट्टन की शालीनता से ले कर दक्षिण अमेरिका की कटु सच्चाइयाँ सब समेटा गया है. इसमें लयात्मक सौंदर्य, अपूर्व आकर्षण के साथ साथ सभी प्रकार अनुभूतियों की छटा है और है अमेरिका में श्वेत अश्वेत सभी के समक्ष विकल्प के खुले बिम्ब प्रतिबिम्ब.
अमेरिकन फुटबॉलर, कई विज्ञपनों में मॉडल, ब्रोडकास्टर और द टावरिंग इनफर्नो, कसाम्डा क्रॉसिंग, तथा द नेकेड गन जैसी फिल्मों का एक्टर ओ जे सिमसन जिस पर 1994 में अपनी पत्नी और एक दोस्त की हत्या का सनसनीखेज केस चला उसके बारे में, उस पर लिखने के बारे में जब मॉरीसन से पूछा गया तो वे कहती हैं कि काले लोगों को सदा से बिना सिर पैर की बातें करने वाला, चालाक, धूर्त, स्टुपिड, परभक्षी, लुटेरा और पागल माना जाता है. वे मानती हैं कि इस केस में बहुत लोगों का स्वार्थ निहित था इसकी सच्चाई कभी बाहर नहीं आई और न कभी आएगी. उन्हें सिमसन का सारा केस एक साजिश लगता है. लोगों के लिए चटखारे ले कर मजा उठाने की कहानी लगता है.
कैसे और कब लिखती हैं टोनी मॉरीसन? जब उनके बच्चे छोटे थे वे एक साथ कई काम कर रहीं थीं. रोज ऑफिस जाना, घर संभालना और लिखना. अब उन्हें लौट कर सोचने पर यह सब थोड़ा पागलपन जैसा लगता है. पर उस समय उन्होंने यह सब एक साथ किया. वे इसे विचित्र नहीं मानती हैं क्योंकि प्रत्येक सामान्य स्त्री यह करती है. कई काम एक साथ. वे भोर में बहुत सुबह और लोगों के उठने के पहले लिखती. रात को वे ज्यादा नहीं लिख पाती. उनकी सृजनात्मकता सुबह अपने चरम पर होती. और वे सप्ताहांत में भी खूब लिखती. इसी तरह जब गर्मी की छुट्टियों में उनके बच्चे उनके अभिभावकों के पास ओहिओ जहाँ उनकी बहन भी रहती है चले जाते तब वे भरपूर लिखतीं. उनके अनुसार यदि समय का संयोजन कर लिया जाए तो यह सम्भव है. समय का उपयोग करना सीखना पड़ता है. बहुत सारे काम करते हुए आप लिखने की योजना बना सकते हैं. कई काम ऐसे होते हैं जिनमें दिमाग लगाने की जरूरत नहीं होती है. अब बच्चे बड़े हो गए हैं जीवन का तरीका बदल गया है, आज भी वे बहुत व्यस्त हैं मगर दूसरी तरह के कार्यों में.
नोबेल पुरस्कार मिलने के ठीक बाद उनके घर में आग लग गई जिसमें उनकी पहले की किताबों की (जब वे हाथ से लिखती थीं) सारी पांडुलिपियाँ जल गई वे सोचती हैं कि उन पांडुलिपियों का उनके लिए कोई महत्व नहीं है क्योंकि वे पुस्तक के रूप में आ चुकी हैं पर शायद औरों के लिए उसका महत्व है. पर उन्हें अपने बच्चों के विभिन्न उम्र के फोटोग्राफ्स, उनके रिपोर्ट कार्डस जल जाने का बड़ा अफसोस है. कुछ पोशाकों कुछ पौधों के जलने का दु:ख है और याद करती हैं एमिली डिकेंसन, फॉक्नरा के प्रथम संस्करण की अपनी कॉपियों अपने ढेर सारे पत्रों के जो इस आग में खाक हो गए. करीब 40 ऐसी किताबें जो उन्हें खासतौर पर प्रिय थीं. इस आग में उनका बहुत कुछ स्वाहा हो गया. पर वे इससे निराश नहीं हुईं.
मॉरीसन ने नोबेल भोज के समय दिए गए अपने वक्तव्य में अपने पूर्ववर्ती और समकालीन लेखकों को याद किया है. कौन-कौन हैं मॉरीसन के प्रेरक व्यक्ति? किन-किन लोगों को वे पढ़ती हैं? किनकी ओर आशा भरी नजरों से देखती हैं? मार्केस का लिखा हुआ सब वे पढ़ती हैं और वे पढ़ती हैं पीटर कैरी, पैन्चोन, जमैइका किन्काइड को. वे ये सब किताबें खरीद कर पढ़ती हैं. वे नेल्सन मन्डेला को बहुत इज्जत देती हैं उनके अनुसार वे एक महान राजनैतिक हैं. वे अफ्रीका जाने को भी बहुत ज्यादा उत्सुक हैं उन्हें दक्षिण अफ्रीका से अनगिनत निमंत्रण मिले हैं. अब तक हो भी आई होंगी मेरे पास इसकी जानकारी उपलब्ध नहीं है. आज की विनी मन्डेला के विषय में वे कुछ नहीं कहना चाहती हैं परंतु पहले की विनी के लिए मॉरीसन के मन में अपार श्रद्धा है. क्योंकि वे पूरी सच्चाई नहीं जानती हैं क्यों लोगों के विचार विनी के विषय में इतने विरोधी हो गए हैं उन्हें विनी के विषय में सच्चाई जानने की उत्सुकता है. वे वास्तविक विनी को जानना चाहती हैं.
मॉरीसन अपना जादू भाषा-प्रेम के द्वारा दिखाती हैं. उनकी शैली पाठक को नदी की तरह बहा कर ले जाती है, सारे भ्रम और अविश्वास को बहाते हुए और पाठक धीरे-धीरे उनके इरादे की गम्भीरता से परिचित होता है. नोबेल पुरस्कार ने उनकी जीवन शैली को बदल दिया उन्होंने एक घर ले लिया पर उनकी कला नहीं बदली. बचपन से ही पढ़ने की आदत थी जिसने अमेरिका के इतिहास से परिचित कराया और कई रचनाएँ इसी इतिहास से निकली. वे जब नोबेल भोज के लिए गई तो उन्होंने अपने से पहले आने वालों को स्मरण किया साथ ही अपने बाद आने वालों को भी वे नहीं भूलीं. जिन लोगों को उनसे पहले नोबेल मिल चुका था उनके कार्यों से उन्हें दुनिया की जानकारी मिली है वे उनके साहस और स्पष्टता की कायल हैं इन लोगों का लेखन मॉरीसन के लिए चुनौती रहा है साथ ही इससे उन्हें सत्त भी मिला है. पुरस्कार की घोषणा पर उनकी एक मित्र ने उनके लिए सन्देश छोड़ा था, 'यह प्राइज जो तुम्हारा है हमारा भी है और इससे बेहतर हाथों में नहीं दिया जा सकता था’. जिसमें आशा और विश्वास छिपा है अपनी दोस्त के इस सन्देश का महत्व वे जानती हैं. उन्हें मालूम है कि कितनी बड़ी जिम्मेदारी उन पर है. उनके लोगों को उनसे कितनी ज्यादा अपेक्षाएँ हैं. वे इस अवसर पर उन सबको याद करती हैं जो इस समय अपनी भाषा अपने लेखन को चमका रहे हैं यह बात दीगर है कि सब इस भोज तक नहीं पहुँचेँगे. नोबेल समिति के अनुसार 'जो अपनी दिव्यद्रष्टा की शक्ति से और काव्यात्मक विशेषता वाले उपन्यासों में अमेरिकन सच्चाई के एक आवश्यक आयाम को जीवन प्रदान करती हैं. वे कहती हैं कि मेरे कार्य की यह जरूरत है कि मैं सोचूँ 'एक अफ्रीकन-अमेरिकन स्त्री लेखक अपने लिंगवादी समाज में, पूरे तौर पर नस्लवादी दुनिया में कितनी स्वतंत्र हो सकती है.
नोबेल भाषण एक खुला और महत्वपूर्ण मंच है पुरस्कार प्राप्तकर्ता जहाँ से अपने लेखन का सार दुनिया तक
पहुँचता है. यहाँ वह सन्देश सूत्र के रूप में दुनिया को थमाता है जो वह अपनी रचनाओं में प्रस्तुत करता आया है. इसमें उस रचनाकार के समस्त मूल्य, उसकी धारणाएँ, उसके विश्वास मुखरित होते हैं इस सम्बोधन में वह लोगों से सीधा जुड़ता है साहित्य में जो कार्य वह अपने पात्रों के माध्यम से करता है वही कार्य वह इसमें प्रत्यक्ष रूप से करता है. अपने नोबेल भाषण में भी वे बचपन में सुनी एक काली गुलाम अमेरिकन स्त्री की कहानी सुनाती हैं यह भाषण भी बहुअर्थी है. वे कहती हैं कि एक बूढ़ी औरत थी. अंधी. बुद्धिमान. उसकी बुद्धिमानी बेजोड़ और बिना शक की थी. अपने लोगों के बीच वह कानून थी और कानून के पार जाने वाली भी. जो सम्मान और विस्मय उसे मिलता था उसकी ख्याति दूर-दूर तक थी. दूर शहरों तक जहाँ ग्रामीण भविष्यवक्ता मनोरंजन का वायस होता है. एक दिन उसके पास कुछ जवान लोग आते हैं. बूढ़ी औरत उनके शक्ति प्रदर्शन और उसकी असहायता के लिए उनकी भर्त्सना करती है वह उन्हें बता देती है कि वे न केवल मखौल उड़ाने के लिए जिम्मेदार है बल्कि अपने उद्देश्य की पूत के लिए उन्होंने नन्हीं-सी जान की बलि भी ले ली है. अंधी स्त्री ने शक्ति के हठधर्मिता से शक्ति के उस औजार की ओर ध्यान खींचा है जिससे शक्ति का प्रयोग होता है. वे कहती हैं कि वह हाथ की चिड़िया किस बात की ओर इंगित करती है यह विचारना मुझे सदा से आकर्षित करता रहा है.
वे उस चिड़िया को भाषा के रूप में और उस स्त्री को एक लिखने वाले के रूप में लेती हैं वे चिंतित हैं कि जिस भाषा में वे सपने देखती हैं जो उन्हें जन्म से मिली है उसका कैसा उपयोग होता है, कैसे उससे सेवा ली जाती है यहाँ तक कि कैसे वह उनसे खास पाप पूर्ण जुगुप्सित उद्देश्यों के लिए रोक ली जाती है. लेखक होने के कारण वे सोचती हैं कि भाषा एक सिस्टम है, आंशिक रूप से जीवित चीज जिस पर व्यक्ति का नियंत्रण होता है, परंतु अधिकतर एक एजेंसी की तरह एक कार्य परिणाम के साथ. अत: बच्चे उससे प्रश्न करते हैं: ''यह जीवित है या मृत है? यह अवास्तविक नहीं है क्योंकि वह भाषा को मृत्यु के लिए सम्भाव्य, मिटाने योग्य, पक्के तौर पर खतरे में और केवल इच्छा से ही जिसे बचाया जा सकता है. वह विश्वास करती है कि यदि उसके आगंतुओं के हाथ की चिडिया मृत है तो उसके शव के जिम्मेदार उसके अभिरक्षक हैं. उसके लिए एक मृत भाषा वही है जो अब बोली या लिखी नहीं जाती है.
मॉरीसन अपने नोबेल भाषण में भाषा के उत्सव का गान करती हैं. मनुष्य के हाथ में भाषा एक बहुमूल्य, विरासत है. टोनी मॉरीसन जिनकी खुद की भाषा अति सुन्दर और अति सशक्त है अपने नोबेल पुरस्कार भाषण को भाषा पर एक गीत बना लेती हैं एक सौंदर्य गीत, एक शक्ति गीत. उनके अनुसार भाषा को उन्मुक्त छोड़ना उसे जीवंत और अर्थपूर्ण रखना बहुत आवश्यक है उन्हें दु:ख है कि आज भाषा राजनेताओं, धर्माचार्यों, सम्प्रदायवादियों, राष्ट्राध्यक्षों, तानाशाहों और सरकारों तथा अन्य आजादी के जल्लादों के हाथ में आदमी को अपने काबू में रखने का, उसे सोचने और महसूस करने से रोकने का, एक औजार मात्र बन कर रह गया है. यह भाषा के लिए और मानवता के लिए महान विनष्टि की बात है. भाषा की भूमिका है सृजन, न कि हिंसा, जिसके लिए वो आज बहुतायत से प्रयोग की जा रही है. भाषा का कार्य है नए ज्ञान और नई संवेदनाओं को जन्म देना न कि ज्ञान और संवेदनाओं को सीमाओं के बंधन में कैद करना. आज भाषा की स्थिति बहुत दु:खद हो गई है. भाषा का आज बलात्कार हो रहा है, चारों तरफ उसकी इज्जत लूटी जा रही है और उसकी महत्ता और आत्मसम्मान को समाप्त करके उसको कचरे का ढेर बनाया जा रहा है. मॉरीसन का नोबेल भाषण भाषा की आज की दुर्गति और उस पर हो रहे अत्याचार के खिलाफ अपना विरोध प्रकटन है, साथ ही साथ उनके हृदय की गहराइयों से उत्सृत एक शोक गीत भी है. कौंच मिथुनों में से एक का निर्मम वध पर वाल्मिकी का दु:ख, रुदन और आक्रोश आदि श्लोक बन कर उदगीर्ण हुआ. भाषा के साथ जो अन्याय हो रहा है अत्याचार हो रहा है वह दु:ख, रुदन और आक्रोश बन कर इस भाषण में नि:सृत हुआ है. आज की दुनिया में भाषा आराधना की चीज न रह कर उसके मांत्रिक जादूई पंखों को बाजारीकरण, सम्पत्ति और अधिकार के प्रति मनुष्य की अंतहीन लालसा ने बेदर्दी से कतर दिया है. मॉरीसन का भाषण भाषा को चाहने वाले, उसे अत्यंत प्यार करने वाले, उसकी असीम क्षमताओं को पहचानने वाले एक व्यक्ति का आक्रोश है जिसने उसे अपना माध्यम बनाया है. मॉरीसन चाहती हैं कि भाषा फिर जीवंत हो जाए, जिन्दगी के उत्स से पुनर्जन्म ले. जीवन की अजस्र धाराओं से शक्ति अर्जित करे और जीवन की कथा, आनन्द की, उन्माद की दु:ख की उपलब्धियों की, हानियों की कथा कहे.
उनका लेखन अमेरिका के काले इतिहास की आवाज है. अमेरिका के इतिहास का यह काला हिस्सा मानवता के इतिहास का काला शर्मनाक हिस्सा है. इतिहास को मिटाया नहीं जा सकता है (हालाँकि कुछ लोग लिखित इतिहास से छेड़छाड़ का निष्फल प्रयास करते रहते हैं), उसके जघन्य कृत्यों को वाणी दे कर उससे सीख ली जा सकती है. लोगों को संवेदनशील बनाया जा सकता है ताकि भविष्य में ऐसे अमानुषीय कार्य मनुष्य न करे. यह एक तरह से कैथारसिस का काम भी है. इतनी सदियों के दबी-कुचली अस्मिता को साहित्य स्वर प्रदान कर सकता है. मॉरीसन यही कर रहीं हैं. भाषा पर उनका गजब का नियंत्रण है वे कहीं भी लोगों को उकसाती नहीं हैं वे चीजों को सामने रख देती हैं. उनकी भाषा की प्रशंसा करते हुए नोबेल एकेडमी ने अपनी प्रेस रिलीज में टोनी मॉरीसन को 'प्रथम श्रेणी का साहित्यिक कलाकार’ कहा है. और कहा है कि 'वे स्वयं भाषा में गहन प्रवेश करती हैं, भाषा जिसे वे नस्ल की बेड़ियों से स्वतंत्र कराना चाहती हैं और वे हमें काव्य की द्युति से संबोधित करती हैं. वे स्वयं स्वतंत्र जीना चाहती हैं और अपने पूरे समुदाय को स्वतंत्रता से जीवन व्यतीत करते हुए देखना चाहती हैं. वे अतीत, वर्तमान और भविष्य को जोड़ते हुए सारी दुनिया से जुड़ना चाहती हैं’. साहित्य लिबरेट करता है, सबलीमेट करता है, उदात्तीकरण करता है. अफ्रीकन-अमेरिकन का अतीत दु:ख तकलीफों से पटा पड़ा है. गुलामों का मुँह लोहे से बन्द कर दिया जाता था. कई बार उनकी जबान काट ली जाती थी. इन्हीं गुलामों की संतानों में से एक संतान टोनी मॉरीसन ने अपने पूर्वजों के मौन को साहित्य में स्वर दिया है. अपने पूर्वजों का श्राद्ध किया है. उनके और अपने अतीत को आवाज दी है. पर वे अपने कार्य को आह्लाद से उत्पन्न मानती है, निराशा से उत्पन्न नहीं.
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रचनाकार संपर्क:
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चित्र - साभार आईटीमाइंड.ऑर्ग
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