वर्ल्ड ऑफ बुक्स -डॉ दुर्गाप्रसाद अग्रवाल भारतीय पाठक मार्क टली के नाम से भली भांति परिचित हैं. 1935 में कोलकाता में जन्मे और ब्रि...
वर्ल्ड ऑफ बुक्स
-डॉ दुर्गाप्रसाद अग्रवाल
भारतीय पाठक मार्क टली के नाम से भली भांति परिचित हैं. 1935 में कोलकाता में जन्मे और ब्रिटेन में पले-पढे-बढे सर मार्क टली पूरे बाइस साल तक नई दिल्ली में बी बी सी के ब्यूरो चीफ रहे हैं. भारत और ब्रिटेन दोनों देशों के नागरिक टली को ब्रिटेन में नाइटहुड से तो भारत में पद्मभूषण से नवाज़ा जा चुका है. टली भारत विषयक कई पुस्तकें लिख चुके हैं, जिनमें प्रमुख हैं नो फुल स्टॉप्स इन इण्डिया, इण्डिया इन स्लो मोशन, और हार्ट ऑफ इण्डिया. भारत विषयक उनकी ताज़ा किताब का शीर्षक है इण्डिया ’ज़ अनएण्डिंग जर्नी : फाइंडिंग बैलेंस इन अ टाइम ऑफ चेंज.
टली महसूस करते हैं कि पश्चिमी राष्ट्र और पश्चिमी लोग भारत के नियंता बन गए हैं. इससे चिंतित होकर वे प्रश्न करते हैं कि भारत का पश्चिमी शैली के भौतिकवाद आदि को गले लगाना, वह भी अपनी विशिष्ट पहचान और संस्कृति को त्यागते हुए, कितना उचित है? वैसे तो टली विनम्रता में यह भी कहते हैं कि “मेरी किताब यह नहीं कहती कि भारत जो भी कर रहा है, सब गलत कर रहा है. मैं तो मात्र यह कहना चाहता हूं कि समायोजन और संतुलन की ज़रूरत है. हमें देखना चाहिये कि हम किधर जा रहे हैं. हमें यह भी देखना चाहिये कि पश्चिम कहां जा रहा है और क्या वह ज़रूररत से ज़्यादा दूर जा रहा है?” लेकिन इस विनम्रता के बावज़ूद टली यह कहने से नहीं चूकते कि भारत को अमरीका की फूहड नकल बनने से बचना चाहिये.
टली पिछले सालों में दुनिया में आए अनेक बदलावों की चर्चा व व्याख्या करते हैं. वे बताते हैं कि पश्चिम में जहां पहले समाजवाद को पूर्ण व अंतिम सत्य माना जाता था, अब उसके एकदम उलट यह माना जाने लगा है कि बाज़ार-पूंजीवाद से ही समृद्धि मुमकिन है. इस तरह के परिवर्तनों की चर्चा करते हुए टली जहां पश्चिम को चेतावनियां देते हैं, वे भारत को भी यह कहने से नहीं चूकते कि उसे आधुनिक पाश्चात्य संस्कृति की तरफ भागने के मोह में अपनी परम्पराओं की अनदेखी नहीं करनी चाहिये.
पश्चिम के अन्धानुकरण पर चिंता वे भूमण्डलीकरण के सन्दर्भ में भी करते हैं. उन्हें लगता है कि भूमण्डलीकरण को अपनाने के लिए जो भी समझौते किये जा रहे हैं वे पश्चिमी मॉडल के अनुरूप किये जा रहे हैं, और यह भारत की विशिष्टता के लिए घातक है. अपनी बात को आगे बढाते हुए वे एक भारतीय अर्थशास्त्री को उद्धृत करते हैं जिन्होंने टली से कहा था कि बाज़ार तो एक गधे की मानिंद होता है. अगर आप उस पर सवारी गांठ लें तो उसे मनचाही दिशा में ले जा सकते हैं, और अगर उसे खुल्ला छोड दें तो फिर वह ही आपको लात मार देता है.
टली का भारत प्रेम विख्यात है. वे तो यहां तक कहते हैं कि वे आज जो भी हैं, भारत के ही कारण हैं. लेकिन इसी सांस में वे यह भी कहते हैं कि वे कभी भारतीय नहीं हो सकते क्योंकि उनका ‘कर्म’ ब्रिटिश है. “मेरा जन्म तो भारत (कलकत्ता) में हुआ मगर मुझे लगातार यह सिखाया गया कि मैं कैसे एक भारतीय बनने से बचूं.” टली को यह भी याद आता है कि एक बार उनकी एक अंग्रेज़ नैनी ने उन्हें इसलिए चांटा मारा था कि वे ड्राइवर से हिंदी में गिनती सीख रहे थे. इस किताब में अपनी सरल, दिल को छू लेने वाली शैली में टली उन अनेक बातों का ज़िक्र करते हैं जो उन्होंने भारत से सीखी हैं. वे यह भी बतते हैं कि आर्थिक विकास, गरीबी उन्मूलन, पर्यावरणीय मुद्दों, शिक्षा, प्रबन्धन और प्रजातंत्र आदि के क्षेत्र में पश्चिम को भारत से बहुत कुछ सीखना चाहिये.
टली ने कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी में धर्मशास्त्र का अध्ययन किया जहां उन्हें यह पढाया गया कि ईश्वर तक पहुंचने का एकमात्र मार्ग ईसाई धर्म है. टली को पादरी बनना था लेकिन जब उन्हें यह लगा कि ईसाई धर्म ईश्वर तक पहुंचने का एक मार्ग है, न कि एक मात्र मार्ग, तो उन्होंने अपना इरादा बदल दिया. टली की भारत के साथ-साथ हिन्दू जीवन पद्धति में भी गहरी आस्था है. उन्होंने लिखा है, “ईश्वर तक पहुंचने के मार्गों की अनिश्चितता हिन्दुत्व को भिन्न बनाती है. दूसरों को गले लगाने की इसकी क्षमता के कारण ही यहां अनेक आस्थाएं पनप सकीं.” हिन्दू जीवन शैली के अपने सूक्ष्म अध्ययन के दम पर वे कहते हैं कि “आधुनिक समय में हिन्दू शैली तभी बची रह पाएगी जब लोग हवा के झोंकों के साथ झुकना सीख लेंगे. लोगों को नए और पुराने के बीच संतुलन साधना होगा.” टली मानते हैं कि संतुलन की वजह से ही भारतीय संस्कृति इतनी दीर्घजीवी हो सकी है. उन्हें लगता है कि आज भी भारत दो अतियों के बीच सामंजस्य कायम करने की कोशिश कर रहा है.
स्वयं टली की यह किताब कई तरह से एक संतुलन भरी मध्यमार्गी यात्रा है. पूरी किताब में वे ब्रिटेन और भारत के बीच टहलते हुए, दोनों देशों के धर्म, राजनीति और संस्कृति का विश्लेषण करते हैं. वे भारतीय संस्कृति से प्रभावित हैं, लेकिन उनका संतुलन भाव ही है जो इस किताब को अन्य बहुत सारे लेखन की तरह भारतीय संस्कृति की महानताओं का भावुकता और अतिरेकपूर्ण मूर्खताओं भरा पिटारा नहीं बनने देता. टली के लेखन की सबसे बडी विशेषता यह है कि अपने इतने व्यापक अनुभवों, अध्ययन और सामाजिक स्वीकृति के बावज़ूद कहीं भी अपने दृष्टिकोण को पाठक पर लादने की कोशिश नहीं करते. वे अपने विचारों को मात्र हमसे शेयर करते हैं. इस अर्थ में वे इस विकट असहिष्णु समय में हममें से अनेक भारतीयों से अधिक भारतीय नज़र आते हैं.
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