बिस्मिल्लाह खां : संगीत ही जिनका धर्म था

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भावांजलि : (बिस्मिल्लाह खां की पहली बरसी पर विशेष आदरांजलि) -डॉ दुर्गाप्रसाद अग्रवाल "लाल क़िले पर कोई बहुत बड़ा जलसा था...


भावांजलि :

(बिस्मिल्लाह खां की पहली बरसी पर विशेष आदरांजलि)

-डॉ दुर्गाप्रसाद अग्रवाल

"लाल क़िले पर कोई बहुत बड़ा जलसा था. पण्डित नेहरु ने हमें बुलाया. बहुत मुहब्बत रखते थे वो हमसे. कहा कि इस जलसे में तुम बजाओगे. जलसे की रूपरेखा यह थी कि आगे-आगे शहनाई बजाते हुए हमें चलना था और हमारे पीछे राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री वगैरह तमाम बड़े लोगों को आना था. हम तो उखड़ गए. यह भी कोई बात हुई! हम खड़े होकर, चलते हुए कैसे बजा सकते हैं? हमने तो साफ मना कर दिया. नेहरु को भी गुस्सा आ गया. बोले - बजाना तो पड़ेगा! हमने भी उसी तैश में आकर कहा - आज़ादी क्या सिर्फ तुम्हारे ही लिए आई है? क्या हम आज़ाद नहीं हुए हैं? यह हमारी आज़ादी है कि हम इस तरह बजाने से मना कर रहे हैं. जवाहर लाल ने एकदम बात को सम्भाला. हंसते हुए बोले- बिस्मिलाह यह भी तो तुम्हारी आज़ादी है कि आगे-आगे तुम चलोगे और पीछे-पीछे हम सब! और उनकी हंसी में हमारा सारा मलाल, सारी शिकायत बह गई. और हमने बजाया."

आज एक बरस हो गया है उन्हें हम से बिछडे हुए. मुझे याद आ रही है लगभग ढ़ाई दशक पहले की वह दोपहर जो मैंने खां साहब के सान्निध्य में बनारस के बेनिया बाग इलाके में उनके सराय हड़ा स्थित निवास स्थान पर उनसे बात करते हुए गुज़ारी थी. मेरे यह पूछ्ने पर कि शादी ब्याह जैसे मौकों पर उल्लास प्रदर्शन के लिए प्रयुक्त किए जाने वाले एक मामूली से लोक वाद्य शहनाई को ही उन्होंने क्यों चुना, खां साहब ने बहुत मौज में आकर कहा था: "हमारे घर में गायकी तो पहले से थी. दादा थे, नाना थे, वालिद साहब थे. तो, हम गायकी की इस भीड़ से निकलना चाहते थे. तबला देखा, सितार देखी, मगर वहां भीड़भाड़ कम न थी. तो, एक कण्डम शहनाई दिखी जहां ज़्यादा भीड़भाड़ नहीं थी." और खां साहब ने अपनी अनवरत साधना के दम पर इस शहनाई को भारतीय शास्त्रीय संगीत परिदृश्य का एक अनिवार्य अंग बना दिया.

21 मार्च 1916 को बिहार के डुमरांव में जन्मे बिस्मिलाह ने महज़ बीस बरस की कच्ची उम्र में 1937 में कलकत्ता की आल इण्डिया म्यूज़िक कॉंफ्रेंस में शहनाई बजाकर जिस जय-यात्रा की इब्तिदा की थी उसकी इंतिहा न तो हुई है, न हो सकती है. खुद खां साहब ने अभी कुछ ही दिन पहले कहा था कि “जो बीत जाता है वो गुज़र नहीं जाता. रह जाता है कायनात में. रह जायेगा सब कुछ इस आसमान पे!" लेकिन, इस बात का मलाल रहेगा कि खां साहब की एक तमन्ना पूरी नहीं हो सकी. वे इण्डिया गेट पर शहनाई बजाने की तमन्ना मन में लिए ही चले गए!

खां साहब ने हमारे जीवन को रस सिक्त किया तो देश-दुनिया ने उन्हें हर सम्भव सम्मान से नवाज़ा. भारत सरकार ने उन्हें अपना सर्वोच्च नागरिक सम्मान भारत रत्न प्रदान किया तो देश विदेश के अनगिनत श्रोताओं ने अपनी वाह-वाह से उनका अभिषेक किया. देश का शायद ही कोई महत्वपूर्ण नगर, और दुनिया की शायद ही कोई बड़ी राजधानी हो जहां खां साहब की शहनाई न गूंजी हो. जब भारत में मनोरंजन का एकमात्र साधन 'आकाशवाणी' हुआ करता था तब तो देश के अनगिनत घरों में दिन की शुरुआत खां साहब की शहनाई के सुरों से ही हुआ करती थी. समय बीतने के साथ शहनाई की लोकप्रियता में वृद्धि ही हुई है.

खां साहब ने इस अकिंचन लोक वाद्य को शास्त्रीय वाद्य का मान तो दिलाया लेकिन कजरी, चैती, सावनी आदि लोक बंदिशों से अपना नाता कभी नहीं तोड़ा. उन्हों ने जुगलबन्दियां भी खूब कीं. सितार, वायलिन और सरोद के साथ उनकी जुगलबन्दियों को खूब सराहा गया. गिरिजा देवी के साथ उत्तर प्रदेश की लोक रचनाओं को भी बहुत मधुरता से प्रस्तुत किया. लेकिन प्रयोग के नाम पर ऊलजुलूलपन से उन्हें चिढ़ थी. उनकी की तो बस एक ही तमन्ना रहती थी : सही सुर लग जाए! उन्होंने कहा भी था,"ज़िन्दगी भर तरसता रहा कि इंशा अल्लाह एक तो सही सुर लग जाए! गर लगा है तो उसकी मेहरबानी!"

बाबा विश्वनाथ की नगरी के बिस्मिलाह खां एक अजीब किंतु अनुकरणीय अर्थ में धार्मिक थे. मुहर्रम पर वे अपनी खास चांदी की शहनाई बजाते हुए मातमी जुलूस के आगे चलते थे तो बनारस के हर मन्दिर में उन्होंने अपने वाद्य से ईश आराधना ही नहीं की बनारस छोड़ने के खयाल से ही इस कारण व्यथित होते थे कि गंगा जी और बाबा विश्वनाथ से दूर कोई कैसे रह सकता है. इस्लाम में संगीत को हराम कहा जाता है लेकिन वे इसे मानने वाले मुल्ला-मौलवियों से पूछते थे कि अगर संगीत हराम है तो यह मुझे स्वर्गिक ऊंचाइयों तक कैसे पहुंचाता है? उनका तो कहना था कि मेरी तो नमाज़ ही सात शुद्ध और पांच कोमल स्वर हैं. अपने अंतिम साक्षात्कार में उन्होंने कहा था कि धर्म कुछ नहीं है. आप जिसे धर्म कहते हैं मेरे लिए तो वह संगीत ही है. वे सही मानों में हमारी साझी संस्कृति के सशक्त प्रतीक थे. कहना गैर ज़रूरी है कि इस विकट समय में ऐसे प्रतीकों की क्या अहमियत है!

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रचनाकार संपर्क:

ई- 2/211, चित्रकूट

जयपुर-302021

0141-2440782

9829532504

dpagrawal24@gmail.com

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COMMENTS

BLOGGER: 1
  1. मैं भी अपनी आदरांजलि रेखांकित करना चाहता हूं.

    इस तरह हिन्दुस्तान के सच्चे हीरो/नायकों के बारें में जनचेतना पैदा करने के लिये मैं रचनाकर एवं रविजी का अनुमोदन भी रेंखांकित करना चाहता हूं -- शास्त्री जे सी फिलिप

    हिन्दी ही हिन्दुस्तान को एक सूत्र में पिरो सकती है
    http://www.Sarathi.info

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रचनाकार: बिस्मिल्लाह खां : संगीत ही जिनका धर्म था
बिस्मिल्लाह खां : संगीत ही जिनका धर्म था
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