पढ़ोगे लिखोगे तो....

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  यात्रा वृत्तांत आंखन देखी (अमरीका मेरी निगाहों से) ( अनुक्रम यहाँ देखें ) - डॉ. दुर्गाप्रसाद अग्रवाल 17- पढ़ोगे लिखोगे तो...  ...

 

यात्रा वृत्तांत


आंखन देखी (अमरीका मेरी निगाहों से)

(अनुक्रम यहाँ देखें)

- डॉ. दुर्गाप्रसाद अग्रवाल

17- पढ़ोगे लिखोगे तो...

 

सिएटल के अपने मित्र दम्पत्ति डॉ पंकज राजवंशी और डॉ आरती की थोड़ी चर्चा मैं अपने एक लेख (रोगी की दशा उत्तम है) में कर चुका हूं. जब भी इनके घर जाना हुआ, इनके आत्मीय आतिथ्य की मीठी यादें संजो कर लौटा. पंकज की बहुविध रुचियों और आरती की बेबाक़ जीवंतता ने मुझे इस दम्पत्ति का मुरीद बना दिया है. इनके यहां जाने पर एक और बात ने मेरा ध्यान आकृष्ट किया. यों तो मैंने यह नोट किया कि यहां अमरीका में सभी लोग अपने बच्चों पर बहुत ध्यान देते हैं (यह बात मैं भारत के सन्दर्भ में, बहुत सोच-समझ कर लिख रहा हूं) पर पंकज और आरती अपने बच्चों पर जितना ध्यान देते हैं वह तो अतुलनीय है. छोटा रोहन तो लगभग सारे समय पंकज के कंधों पर ही चढ़ा रहता है, जबकि बड़की ईशा की पढ़ाई और उसके व्यक्तित्व के सर्वतोमुखी विकास के लिए दोनों जैसे पागल ही रहते हैं. यही चिंता है कि आरती ने अपनी नौकरी तक को तिलांजलि दे दी है, और पंकज भी नौकरी या काम को संतुलित समय ही देते हैं. अभी बहुत सारा खर्च कर पंकज ने अपने घर के बेसमेण्ट में नया निर्माण करवाया है ताकि ईशा को पूरा स्पेस मिल सके. जब भी इन लोगों से बात होती है, बच्चों की चिंता और उनके लिए कुछ करने का मुद्दा ज़रूर आता है. रोहन डेढ़ साल के हैं और ईशा छह बरस की. ईशा अपने घर के पास के ही एवरग्रीन स्कूल की दूसरी कक्षा की छात्रा हैं.

पंकज-आरती से अक्सर ईशा के स्कूल की और वहां की गतिविधियों की चर्चा सुन-सुन कर लगा कि ऐसे स्कूल को तो देखना ही चाहिये. अब इन लोगों के बारे में क्या कहूं? दोनों ही एक से बढ़कर एक हैं. आपके मुंह से कुछ निकलने की देर है. न भी निकले, इन्हें लग जाए कि यह आपके मन में है. बस! फिर जब तक वह काम हो न जाए, इन्हें चैन नहीं पड़ने का. ऊपर अपने जिस लेख का ज़िक्र मैंने किया, उस सन्दर्भ में भी पंकज यही करते रहे. याद मुझे दिलाना चाहिये था, पर मैं फोन करूं उससे पहले ही इनका फोन आ जाता. ज़्यादा क्या लिखूं? विस्तार में जाउंगा तो सच भी अतिशयोक्ति लगेगा. यही हाल आरती का है. मैंने तो हल्का-सा ज़िक्र किया था कि अगर स्कूल देख सकता तो... और उनका एक सूत्री कार्यक्रम हो गया अंकल को स्कूल दिखाना. यहां आपका किसी स्कूल में जाना आसान नहीं है. बाकायदा इज़ाज़त लेनी होती है. और उसके लिए कारण बताना होता है, प्रबंधन को आश्वस्त करना होता है. यह सब आरती ने किया. स्कूल प्रबंधन को बताया कि मेरे अंकल हैं, भारत में शिक्षा के काम से जुड़े रहे हैं, वगैरह. और अनुमति लेकर ही मानीं. अब आई दूसरी समस्या. वहां तक जाने की. संयोग यह पड़ा कि उन दिनों मुकेश और चारु दोनों ही अपने दफ्तर के कामों में अत्यधिक व्यस्त थे, इसलिए मैंने उनसे चर्चा नहीं की. अगर कर देता तो वे कुछ भी करते, मुझे वहां ले ही जाते. मैंने आरती को ही अपनी दिक़्क़त बताई, और एक दिन घने कोहरे को भेदती हुई, सुबह आठ बजे वे हमारे घर आ गईं. इससे पहले उन्होंने रोहन को डे केयर में और ईशा को उनके स्कूल में भी छोड़ा. रास्ते में मैं उनसे यहां की शिक्षा प्रणाली और इस स्कूल के बारे में जानकारी प्राप्त करता रहा.

जिस एवरग्रीन स्कूल में हमें जाना था वह सिएटल के दो सबसे अच्छे (और स्वभावतः महंगे भी) स्कूलों में से एक है. आरती बता रही थीं कि ईशा पर लगभग सवा हज़ार डॉलर (पचास हज़ार रूपये) प्रतिमाह खर्च होता है. यह तो फीस है. शेष अलग. दूसरे स्कूल थोड़े कम महंगे हैं. सरकारी स्कूल भी हैं. लगभग निःशुल्क. आरती ने चलती गाड़ी में से ही एक सरकारी स्कूल भी दिखाया, जो मुझे किसी भी तरह 'सरकारी' नहीं लगा. भारतीय सन्दर्भ में 'सरकारी'. एवरग्रीन स्कूल में लगभग 300 बच्चे पढ़ते हैं. स्कूल आठवीं तक का है.

पहले से फोन कर दिया गया था इसलिए स्कूल के प्रवेश द्वार पर ही इसके अपर डिवीजन के हेड कारमाइन चिकडेल प्रतीक्षारत थे. 45-50 साल के खूब लम्बे, खूब स्वस्थ अमरीकी. परिचय और स्वागत की औपचारिकता के बाद रिसेप्शन पर अपना नाम पता वगैरह दर्ज़ कर और कमीज़ पर अपने नाम का लेबल चिपका कर (ताकि सामने वाला आपको आपके सही नाम से सम्बोधित कर सके?) हम उनके सजे-धजे कक्ष में थोड़ी देर बैठे. चिकडेल की जानकारी के स्तर ने मुझे चकित किया. हम अपने स्कूलों में इस तरह के विज्ञ, वाक्पटु, समझदार, व्यावहारिक लोगों की कल्पना आम तौर पर नहीं करते. चिकडेल महोदय काफी दुनिया देखे हुए हैं. उनसे हुई चर्चा ने मुझे अमरीकी शिक्षा व्यवस्था को जानने का मौका तो दिया ही, इससे भी अधिक, एक सभ्य, सुसंस्कृत, जीवंत शिक्षाविद् से बतियाने का सुख प्रदान किया.

हम 5-6 कक्षाओं में गए. पहली से आठवीं तक. अब, यह कहना तो कोई अर्थ नहीं रखता कि स्कूल के पास साधनों की प्रचुरता है. फिर भी आर्थिक संसाधनों का अभाव यहां भी रहता है, ऐसा आरती बता रही थीं. कई तरीकों से अभिभावकों तथा अन्यों का सहयोग जुटाया जाता है. सभी कक्षाओं में दो बातों पर मेरा ध्यान गया. एक, बैठने की अनौपचारिक-सी व्यवस्था और दो, शिक्षक-शिक्षार्थी के बीच खुले, आत्मीय संवाद का माहौल. इन दोनों बातों के सूत्र आपस में जुड़ते हैं. हमारी भारतीय शिक्षा व्यवस्था में अनुशासन पर जो अत्यधिक ज़ोर रहता है (और फिर भी बेहिसाब अनुशासनहीनता होती है!) उसके एकदम उलट यहां अनुशासन जैसी कोई बात ही नहीं थी (और फिर भी किसी किस्म की कोई अव्यवस्था नहीं थी!). मुझे लगा, हमें भी यह पद्धति आजमानी चाहिये. विद्यार्थी शिक्षक को उसके नाम से पुकारते हैं, न सर, न मिस्टर. केवल जेम्स या मेरी. कक्षा में बैठने की व्यवस्था कुछ-कुछ गोलाकार, या चौकोर, और वहां भी इस बात पर कोई ध्यान या आपत्ति नहीं कि विद्यार्थी कैसे बैठा है, टांग ऊपर करके या टेढ़ा होकर. वस्तुतः इतनी आज़ादी कि आज़ादी देने का सवाल ही नहीं उठे. जितना सहज विद्यार्थी, शिक्षक भी उतना ही सहज और बेतक़ल्लुफ! क़तई तना हुआ नहीं, तनावग्रस्त नहीं. मैं सभी कक्षाओं में शिक्षकों को सुनता-देखता-परखता रहा और स्वभावतः अपने देश के शिक्षकों से मन ही मन उनकी तुलना भी करता रहा. मुझे लगा कि हमारे देश के शिक्षकों के तनाव का एक बहुत बड़ा कारण उनका ज्ञानाभाव है. यह भय कि अगर विद्यार्थी ने कहीं कुछ ऐसा पूछ लिया जो उन्हें नहीं ज्ञात, तो कलई खुल जाएगी,मुलम्मा उतर जाएगा. (कहीं इसके मूल में गुरु को महान मानने-बताने वाली परम्परा तो नहीं है? गुरु और गोविन्द में से गुरु बड़ा है. फिर भला ऐसा कैसे हो सकता है कि गुरु का अज्ञान ज़ाहिर हो जाए?) इसलिए अनुशासन का डण्डा. चुप रहो. बोलो मत. कुछ भी पूछना हो तो पहले हाथ उठा कर गुरु जी से अनुमति प्राप्त करो, वरना... और इसके विपरीत, यहां की शैली. यहां तो शिक्षक पढ़ाता ही नहीं है. उस अर्थ में जिस में भारतीय शिक्षक 'पढ़ाता' है. व्याख्यान तो मैंने होते पाया ही नहीं. बस, बातचीत ! लेकिन पूरी तैयारी के साथ. तैयारी जितनी शिक्षक की उतनी ही विद्यार्थी की भी. दरअसल यहां सारा ज़ोर चीज़ों को समझने-समझाने पर है. उसमें दोनों ही पक्षों की पूरी-पूरी तथा सक्रिय भागीदारी रहती है. इस प्रक्रिया में साधनों की विपुलता की भी भूमिका को नज़रअन्दाज़ नहीं किया जाना चाहिये. विद्यार्थी-शिक्षक का अनुपात ही देखें. किसी भी कक्षा में 20 से ज़्यादा विद्यार्थी नहीं, अक्सर तो 16 ही. इसलिये शिक्षक और विद्यार्थी के बीच संवाद कायम हो सकता है. शिक्षक तो मात्र संकेत करता है, पढ़ता विद्यार्थी खुद है. इसलिए मैंने कहा कि यहां शिक्षक पढ़ाता नहीं है. फिर अच्छी लाइब्रेरी, किसम-किसम की आधुनिकतम सहायक सामग्री- टीवी, वी सी आर, कम्प्यूटर वगैरह सब कुछ. इन सबका केवल होना ही नहीं, उदार, उन्मुक्त उपयोग भी.

अब यहीं एक विषयांतर कर लूं.

मैं साहित्य का अध्यापक रहा हूं. नौकरी के लिहाज़ से. अन्यथा तो खुद एक विद्यार्थी ही था और हूं. नौकरी करते हुए अक्सर इस सवाल से जूझता रहा हूं कि साहित्य को 'पढ़ाया' कैसे जा सकता है? वह तो रसास्वादन की चीज़ है. कम से कम पुराना साहित्य. नया साहित्य भी रस का न सही, आस्वाद का आकांक्षी तो है ही. ग्रहण तो उसे भी करना ही होता है. अब, रसास्वादन या ग्रहण तो खुद ही किया जाएगा, दूसरा कैसे करवा सकता है? रसगुल्ला आप खुद खाएंगे, तभी तो उसका स्वाद आएगा. रसगुल्ले के स्वाद के बारे में व्याख्यान तो बहुत ही बेहूदा बात है. और यही बेहूदगी मैं पूरी ज़िन्दगी करता रहा, और सोचता भी रहा कि क्या बकवास बात है ( मैं खयाल हूं किसी और का, मुझे सोचता कोई और है/ सरे-आईना कोई और है, पसे-आईना कोई और). पर इतनी मॉडेस्टी न बरतूं तो कह सकता हूं कि मैंने पारम्परिक अर्थ में कभी पढ़ाया ही नहीं. और शायद यही मेरे आत्मसंतोष का राज़ है. मेरी कोशिश ही यह रही कि मेरे विद्यार्थी खुद साहित्य से रूबरू हों. अगर उन्हें कोई मदद इसमें चाहिये, और मैं कर सकने में समर्थ हूं, तो कर दूं; समर्थ नहीं हूं तो स्वीकार कर लूं. मेरे अध्यापक का तो प्रस्थान बिन्दु ही यह रहा कि मुझे सब कुछ नहीं आता है. बहरहाल.

मूल विषय पर लौटें.

मैंने यहां प्रत्यक्ष देखा कि शिक्षक 'पढ़ाता' नहीं, अनुभव कराता है. शुरू से ही. शायद पहली कक्षा थी, या दूसरी. बात नाप-तौल की थी. दो अध्यापिकाएं और सोलह बच्चे. मैदान में ले जाकर बच्चों से कहा गया कि उनमें से हरेक एक निश्चित बिन्दु पर खड़ा होकर वहां से पेड़ की दूरी का अनुमान लगाए और उसे अपनी कापी में लिख ले. फिर उसी दूरी को फीते से नाप कर देखे, और दोनों परिणामों की तुलना करे. इसी तरह पेड़ के तने की मोटाई की नाप-जोख, और फिर एक पारम्परिक रेड इण्डियन कबीलाई तरीक़े से पेड़ की ऊंचाई नापने का प्रयोग. सब कुछ खेल के अन्दाज़ में. बच्चों को मज़ा आ रहा था, अध्यापिकाओं को भी, हमें भी. अध्यापिकाओं को देखते हुए मुझे मन्नू भण्डारी से कही राजेंद्र यादव की बात याद आ रही थी कि ‘मासटरनी’ वह जिसमें मांस न हो और जो केवल टर्र-टर्र ही करती हो! यहां भी इन मासटरनियों पर मांस तो नहीं था (अलबत्ता इसका कारण भिन्न था!) पर ये टर्रा भी नहीं रही थीं .मांस न होने वाला भारतीय कारण (कम वेतन) यहां भी है. पर जब आप कोई काम करें तो उसे पूरी निष्ठा से करें, रस लेकर करें - इस भाव के कारण इनके अध्यापन कर्म में वैसी ऊब दिखाई नहीं दे रही थी जैसी अपने देश में दिखाई देना आम है.

आठवीं कक्षा में चीन के बारे में पढ़ाया जा रहा था. पढ़ाया तो क्या जा रहा था, बात की जा रही थी. कोई पंद्रह-सोलह लड़के लड़कियां, खूब लम्ब-तड़ंग, जैसे हमारे यहां कॉलेज में होते हैं. एकदम रिलेक्स्ड मूड में. शिक्षक भी उतना ही सहज. सामने चीन का एक नक्शा लटका हुआ. शिक्षक ने कल इस कक्षा को चीन के बारे में पढकर, जान कर आने को कहा था. आज विद्यार्थी चीन के बारे में अपनी-अपनी जानकारियां प्रस्तुत कर रहे थे. बैठे ही बैठे. यह ज़ाहिर था कि विद्यार्थियों से अधिक जानकारी शिक्षक को थी. वक़्त ज़रूरत वह उनकी जानकारियों में संशोधन भी करता जा रहा था. चिकडेल महोदय ने हमें बताया था कि इस साल आठवीं के विद्यार्थियों को चीन भ्रमण पर ले जाया जाएगा. (जैसे चीन न हुआ चांदपोल हो गया.) भ्रमण के व्यय का बहुलांश स्कूल वहन करेगा. यह हुई न बात. ऐसे पढ़ा-पढ़ाया जाए तो कुछ बात है !

एक अन्य कक्षा में एक बुज़ुर्ग अध्यापिका बहुत छोटे बच्चों को किताब में से कोई कविता पढकर सुना रही थी. पूरे हाव-भाव और भरपूर अभिनय के साथ. बच्चे भी भरपूर आनन्द ले रहे थे.

लाइब्रेरी बहुत बड़ी नहीं थी, पर स्कूल के लिहाज़ से पर्याप्त थी. पुस्तकों का चयन वैविध्यपूर्ण और अद्यतन था. एकदम साफ-सुथरी, ऐसी कि बैठकर पढ़ने का मन करे. बच्चों को कुछ समय अनिवार्यतः लाइब्रेरी में बिताना होता है. स्कूल का अपना एक अच्छा मंच भी है जिस पर बच्चे समय-समय पर अपनी प्रस्तुतियां देते हैं. एक प्रस्तुति की डीवीडी हमें पंकज के सौजन्य से देखने को भी मिली. अलग-अलग देशों के महापुरुषों को पूरी मेहनत के साथ जीवंत किया गया था.

दरअसल यहां कई चीज़ों का मेल है. सोने पर केवल सुहागा ही नहीं, वगैरह-वगैरह भी है. ज़्यादातर अभिभावक अपने बच्चों की शिक्षा, उनके सर्वतोमुखी विकास तथा बेहतर भविष्य को लेकर बहुत संज़ीदा, चिंतित और सक्रिय हैं. उनके पास साधनों की कोई कमी नहीं है. समय की कमी होते हुए भी बच्चों के लिए वे समय की कमी को आड़े नहीं आने देते. स्कूल के पास साधन हैं और है उनको उपयोग करने का उत्साह व सलीका. तकनीक का पूरा-पूरा सदुपयोग है. इन सबसे अधिक महत्वपूर्ण बात यह कि पूरी व्यवस्था पर ही जनसंख्या का दबाव बहुत कम है. पूरी की पूरी अमरीकी व्यवस्था दायित्वबोध व ईमानदारी पर आधारित है. सभी स्तरों पर भरपूर आत्मानुशासन है. फिर भला तस्वीर खुशनुमा क्यों न हो?

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जिस तरह से व जिस गति से मैंने यहां शिक्षकों को पढ़ाते देखा उससे मेरे मन में तुरंत एक सवाल जागा. इस गति व शैली से कोर्स कैसे पूरा हो सकता है? सवाल के मूल में थे अपने देश के अनुभव तथा संस्कार! भारत में शिक्षकों पर बहुत बड़ा दबाव रहता है कोर्स पूरा कराने का. शिक्षा-तंत्र, विद्यार्थी, अभिभावक - सभी शिक्षक का मूल्यांकन इसी आधार पर करते हैं कि उसने समय पर कोर्स पूरा कराया या नहीं. और बेचारा शिक्षक? उस पर बोझ भारी-भरकम पाठ्यक्रम का, विविध स्तरों के विद्यार्थियों (एक कक्षा में 100-125 भी हो सकते हैं) का, कम कार्य दिवसों का, पढ़ाने के अलावा भी बहुत सारे दायित्वों का. ऐसे में कैसे पूरा कराए वह अपना कोर्स? यह उसकी फितरत नहीं मज़बूरी है कि जैसे तैसे ही सही, पाठ्यक्रम की घास काट डाले ताकि ... यहां अमरीका में स्थिति भिन्न है. एक तो कोर्स ही ज़्यादा नहीं रखा जाता. और शायद इसीलिए अमरीका में रहने वाले भारतीय कहते पाए जाते हैं कि यहां पढ़ाई का स्तर भारत की तुलना में नीचा है. हमारे देश में तीसरी कक्षा के बच्चे के मस्तिष्क में जितना ज्ञान (बल्कि सूचना, या जानकारी) ठूंस दिया जाता है, उतना यहां उसके दो-तीन साल बाद तक भी नहीं दिया जाता. लेकिन, यह कहते हुए इस अंतर को भी नज़रअन्दाज़ कर दिया जाता है कि भारत में सूचना उण्डेल देने को ही शिक्षा का पर्याय मान लिया गया है - और यह भ्रामक स्थिति शिक्षा के सर्वोच्च सोपान तक बनी रहती है. यह चेष्टा कभी नहीं की जाती कि आपको कुछ समझाया भी जाए, उसे आपके अनुभव का हिस्सा भी बनाया जाए, आपको स्वतंत्र रूप से सोचने-समझने के लिए तैयार किया जाए. ऐसा करने की न योग्यता है, न फुरसत, न साधन, न मन.

भरतीय शिक्षा व्यवस्था से, उसकी खामियों से भली-भांति वाक़िफ होने की वजह से मुझे इस अमरीकी स्कूल को देखकर ज़्यादा अच्छा लगा. यहां की पद्धति और स्कूल की तारीफ करते हुए यह बात मेरे ज़ेहन में बहुत साफ है कि जो स्थितियां यहां हैं वे फिलहाल हमारी पहुंच से परे हैं. यह तो मैं शुरू में ही कह चुका हूं कि यह स्कूल यहां के सर्वोत्तम में से है, पर अब यह और जोड़ दूं कि अमरीका में जो सर्वोत्तम नहीं होता, वह भी उत्तम तो होता ही है, निकृष्ट कदापि नहीं. भारत में अभी न तो इतनी समृद्धि है, न और न शिक्षा को इतनी अहमियत. पर जो नहीं है, उसका भी सपना तो देखा ही जा सकता है. पश्चिम से हमने बहुत कुछ लिया है, और अक्सर उसकी आलोचना -निन्दा होती है. जैसे एम टी वी, जैसे फास्ट फूड, जैसे...पर जो यहां अच्छा है वह हमारे अनुकरण का विषय नहीं बनता. शायद इसलिए कि मनुष्य स्वभाव ही कुछ ऐसा है कि वह बुराई की तरफ जल्दी खिंचता है, या शायद इसलिए कि व्यावसायिक हितों के चलते वे ही बातें और चीज़ें हम तक पहुंच पाती हैं जिनकी हमें क़तई ज़रूरत नहीं है.

जो हो, मुझे तो इस स्कूल को देखकर बहुत खुशी हुई. यह था मानो मेरे सपनों का स्कूल. थोड़ा ही सही पर भली-भांति पढ़ाने वाला स्कूल. बच्चों को सही संस्कार देने वाला स्कूल, ऐसा स्कूल जहां पढ़-लिखकर तो बच्चे नवाब बनेंगे ही, जहां खेल कूदकर भी खराब नहीं होंगे, नवाब ही बनेंगे. ज़्यादा सही तो यह कहना होगा कि यहां पढ़ाई-लिखाई और खेल-कूद के बीच इस तरह की दीवार है ही नहीं. खेल में ही पढ़ाई है और पढ़ाई में ही खेल है.

स्कूल का यह सुखद अनुभव कराने के लिए धन्यवाद, आरती !

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(क्रमशः जारी अगले अंकों में... )

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रचनाकार: पढ़ोगे लिखोगे तो....
पढ़ोगे लिखोगे तो....
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