जोड़ने वाला पुल

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यात्रा वृत्तांत आंखन देखी (अमरीका मेरी निगाहों से) ( अनुक्रम यहाँ देखें ) - डॉ. दुर्गाप्रसाद अग्रवाल   19 -जोड़ने वाला पुल भारत मे...

यात्रा वृत्तांत


आंखन देखी (अमरीका मेरी निगाहों से)

(अनुक्रम यहाँ देखें)

- डॉ. दुर्गाप्रसाद अग्रवाल

 

19 -जोड़ने वाला पुल

भारत में रहकर इतना पता नहीं चलता कि तकनीक किस तरह और किस हद तक आपके जीवन को बदल रही है, जबकि परिवर्तन वहां भी कम नहीं हुए हैं. मेरी पीढ़ी के लोगों की स्मृति में वह ज़माना ताज़ा ही है जब टेलीफोन एक विलासिता की चीज़ हुआ करता था और उसके बदसूरत काले चोगे को उठाकर दूसरी तरफ से आने वाली ऑपरेटर की ऊबी हुई, कर्कश आवाज़ में 'नम्बर प्लीज़' की प्रतीक्षा करनी होती थी. प्रतीक्षा इसलिए कि यह क़तई ज़रूरी नहीं था कि ड्यूटी के समय भी ऑपरेटर महोदय/महोदया अपनी सीट पर हों ही. उनका चायपान या गप्प गोष्टी में व्यस्त होना अपवाद से अधिक नियम ही हुआ करता था, और तब बन्दा कर भी क्या सकता था इंतज़ार करने के सिवा. उस ज़माने में, जो अभी भी ज़्यादा पुराना नहीं हुआ है, यह भी आम ही था कि आप डाकतार विभाग के पीसीओ में जाकर ट्रंक काल बुक करवाते थे और आपका कॉल 6-8-10-20 घण्टे में लगता था, नहीं भी लगता था. तब संचार का मुख्य माध्यम चिट्ठियां हुआ करती थीं. टेलीग्राम तो किसी इमर्जेंसी में ही दिया जाता था. 'तार वाला' सुनते ही कलेजा धक्क से बैठ जाया करता था, कहीं कोई बुरी खबर न हो! और इस बात को भी कितने दिन बीते हैं कि टीवी का केवल एक ही चैनल हुआ करता था, वह भी श्वेत-श्याम, और उस पर कृषि दर्शन जैसे विकासात्मक कार्यक्रमों के बीच एकमात्र आकर्षण हुआ करता था सप्ताह में एक या दो बार आने वाला चित्रहार. और ऐसी ही कितनी ही बातें. कितनी तेज़ी से बदला है हमारा चतुर्दिक !

लेकिन भारत से अमरीका आकर, यहां की ज़िन्दगी देख कर लगा कि अभी तो बहुत कुछ बदलना शेष है हमारे यहां. ऐसा नहीं है कि हम पिछड़े हुए हैं, हमने तरक्की नहीं की है. मैं तो मात्र यह कहना चाह रहा हूं यहां बहुत कुछ ऐसा है जो अभी हमारे यहां नहीं है. चाहें तो यह समझ लें कि तकनीक के लिहाज़ से हमारी तरक्की की रफ्तार धीमी है. यह अमरीका में ही पता चलता है कि तकनीक ने किस तरह लोगों की ज़िन्दगी को बदला है.

इस लेख में मेरा लक्ष्य सारे तकनीकी परिवर्तनों को चिह्नित या सूचीबद्ध करना नहीं है. न तो यह सम्भव है और न मैं इसके लिए योग्य हूं. मैं तो केवल इतना कर रहा हूं कि अमरीका में तकनीक के क्षेत्र में जो मुझे अच्छा व नया लगा, उसका वर्णन कर रहा हूं. तकनीक के साथ जो दूसरे बहुत सारे मुद्दे जुड़े हुए हैं उनके विस्तार में जाने का का यह उपयुक्त स्थान नहीं है, इसलिये उन पर चर्चा फिर कभी.

पिछले तीन-चार दशकों में कम्प्यूटर ने सारी दुनिया में बड़े और क्रांतिकारी बदलाव किए हैं. अब यही देखिये कि भारत में ही यह किसने सोचा था कि आप जैसलमेर में बैठकर जमशेदपुर से कन्याकुमारी तक का रेल आरक्षण करवा सकेंगे? यह कल्पना अब एक ऐसी हक़ीक़त बन गई है कि किसी का इस पर ध्यान तक नहीं जाता. यह कमाल कम्प्यूटर और इण्टरनेट का है. बावज़ूद इसके कि भारत में अभी भी कम्प्यूटर आम नहीं खास ही है और इण्टरनेट की गति अभी भी बैलगाड़ी वाली ही है. यहां अमरीका में और वह भी माइक्रोसॉफ्ट के मुख्यालय वाले शहर रेडमंड (सिएटल) में और यहां भी सॉफ्टवेयर इंजीनियर्स के साथ रहते हुए कम्प्यूटर और इण्टरनेट के जो उपयोग देखे उनसे मैं एक साथ ही चकित और आह्लादित दोनों ही हुआ. यह जैसे हमारे आने वाले कल की एक झलक थी मेरे लिये.

यहां कागज़-कलम तो जैसे अब अजायबघर की चीज़ हो गए हैं. सारा ही काम कम्प्यूटर पर हो जाता है. अगर कभी लिखने की तलब भी हो तो डिजी पेन (Digi-pen) से कम्प्यूटर के स्क्रीन पर ही लिख लिया जाता है. आपको दफ्तर छुट्टी की अर्जी भेजनी है, ई-मेल कर दिया. पार्टी का निमंत्रण देना, उस निमंत्रण को स्वीकार-अस्वीकार करना है, ई मेल सेवा चौबीसों घण्टे हाज़िर है. डाकिये की प्रतीक्षा बीते ज़माने की बात हो गई है. घर का सारा हिसाब-किताब, सारा रिकार्ड, सारे दस्तावेज़ों की शरणगाह कम्प्यूटर है. इस कम्प्यूटर ने आपकी स्मृति से बहुत सारा दायित्व लेकर अपने ऊपर ओढ़ लिया है. मित्रों-रिश्तेदारों के जन्म-दिन वगैरह आप क्यों याद रखें? कम्प्यूटर जी हैं न आपकी इस सेवा के लिये. बल्कि, आप अगर चाहें तो साल-छह महीने पहले ही, जब भी आपको फुर्सत हो, ई-कार्ड ही कम्प्यूटर में फीड करके रख दें. कम्प्यूटर स्वतः यथासमय उन्हें प्रेषित कर देगा. वह आपको यह भी बता देगा कि आपका कार्ड कब देखा गया.

दरअसल अमरीका में कम्प्यूटर विलासिता या सुविधा की चीज़ न रहकर ज़रूरत की चीज़ बन गया है. नित नए शोध और त्वरित विकास के कारण उसकी कीमत भी अब आम आदमी की पहुंच से बाहर नहीं रह गई है. ऊपर से इंटरनेट की सुलभता व तेज़ गति. वस्तुतः इण्टरनेट की जितनी तेज़ गति यहां है उसकी भारत में रहकर कल्पना भी नहीं होती. सोने पर सुहागा, वायरलेस कनेक्टिविटी (Wireless connectivity) यानि बिना तार के ही इण्टरनेट से जुड़ जाने की सुविधा. यह पूरा सिएटल शहर ही वायरलेस इण्टरनेट युक्त है. यानि आप अपना लैप टॉप लेकर शहर में कहीं भी इण्टरनेट का इस्तेमाल कर सकते हैं. अलबत्ता इसकी कीमत चुकानी पड़ती है. कीमत क्रेडिट कार्ड के माध्यम से ऑन लाइन चुकाई जा सकती है. परिणाम यह कि पार्कों में, रेस्तराओं में, शॉपिंग मॉल्स में, पिकनिक स्थलों पर, हवाई अड्डों पर - हर कहीं लोग अपने-अपने लैप टॉप्स पर काम करते नज़र आते हैं. यहां का काफी कुछ, कहें तो सब कुछ, इण्टरनेट पर है. आपको सिनेमा जाना है, नेट पर देख लें शो कितनी बजे शुरू होता है. यह भी कि थिएटर तक पहुंचने का रास्ता क्या है. टिकिट भी नेट पर ही खरीद लें. यहां ज़्यादातर चीज़ों के टिकिट नेट पर खरीदे जा सकते हैं. हम सिएटल से लास वेगस गए-आए. वायुयान टिकिट खरीदने कहीं जाना नहीं पड़ा. इण्टरनेट पर ही काम हो गया. वहां के होटल की बुकिंग भी घर बैठे ही नेट से करवा ली. वैंकुवर (कनाडा) में भारतीय फिल्मी सितारों शाहरुख, रानी मुखर्जी, प्रीति ज़िण्टा, अर्जुन रामपाल वगैरह का एक शो देखने गए. टिकिट घर बैठे इण्टरनेट पर खरीदे और प्रिण्टर पर उनके प्रिण्ट निकाल लिए. इतना ही नहीं, घर पर ही यह भी देख लिया पचास हज़ार दर्शकों की क्षमता वाले उस कोलीज़ियम (थिएटर) में हमारी सीटें कहां होंगी. पूरा नक्शा नेट पर था. कनाडा की सड़कों वगैरह के भी विस्तृत मान-चित्र नेट पर थे. हम अपने घर, सिएटल, से कनाडा की सड़कों का पूरा मानचित्र नेट से उतारकर ले चले थे और उसी के सहारे बगैर एक भी जगह किसी से पूछे सीधे आयोजन स्थल पर ही पहुंचे.

दुकानों वगैरह में कम्प्यूटर का इस्तेमाल बहुत आम है. बल्कि इस कारण व्यापार-कर्म बहुत सुगम हो गया है. वैसे यह भारत में भी थोड़ा-बहुत हुआ है, खास तौर पर बड़े स्टोर्स में. पर यहां तो बहुत सारी खरीद-फरोख्त इण्टरनेट पर ही हो जाती है. इसमें दो-तीन बातों की बड़ी भूमिका को अनदेखा नहीं किया जाना चाहिए. व्यापार यहां एकदम साफ-सुथरा है. यानि जो माल बताया या प्रचारित किया गया है, हू-ब-हू वही आपको मिलेगा. कोई धोखा-धड़ी नहीं होगी. कोई झूठ-फरेब नहीं. मोल-भाव होता नहीं. और इसके बाद भी, पसन्द न आने पर माल वापस लौटाने की खुली सुविधा तो है ही. लोगों के पास समय की भी कमी है. फलतः इण्टरनेट पर व्यापार खूब फल-फूल रहा है. दुकानों में ग्राहकों की सुविधा के लिए भी अनेक कम्प्यूटर लगे रहते हैं.

अमरीका में कम्प्यूटर व इण्टरनेट की सफलता व लोकप्रियता में बहुत बड़ी भूमिका भाषा की भी है. पश्चिम में तकनीक की भाषा अंग्रेज़ी ही है, इसलिए यहां के लोगों को कोई असुविधा नहीं होती. भारत जैसे बहु भाषा-भाषी देश में, जहां अभी शिक्षा का भी ज़्यादा प्रसार नहीं हो पाया है, अंग्रेज़ी का कम्प्यूटर कैसे आम हो सकता है? ऐसा नहीं है कि कम्प्यूटर पर हिन्दीकरण के प्रयास ही नहीं हुए हैं. विश्व की सबसे बड़ी सॉफ्टवेयर कम्पनी माइक्रोसॉफ्ट ने अपने बहुत सारे लोकप्रिय सॉफ्टवेयर्स के हिन्दी तथा अन्य भारतीय भाषाओं के संस्करण भी बाज़ार में उतारे हैं. पर वे अभी अधिक लोकप्रिय नहीं हो पाए हैं. अलावा इसके कि खुद भारत के सरकारी तंत्र की कोई गहन रुचि भारतीय भाषाओं के प्रयोग को बढ़ावा देने में नहीं है, और इस कारण बाहर की दुनिया भी हमारी भाषाओं को तवज्जोह नहीं देती है, अन्य कई कारण भी हैं कि कम्प्यूटर पर भारतीय भाषाएं आम नहीं हो पा रही हैं. हिन्दी की ही बात लें. अभी तो हिन्दी का कोई मानक तथा सर्वमान्य कुंजी पटल ही नहीं है, तकनीकी शब्दों के एकरूप हिन्दी पर्याय सुलभ नहीं हैं, आदि. फिर जो आदमी ज़रा-सा भी पढ़ा लिखा है वह भारतीय भाषा की बजाय अंग्रेज़ी का प्रयोग कर अपने 'शिक्षित' होने का परिचय देना चाहता है. ऐसे में कोई भी व्यावसायिक सॉफ्टवेयर कम्पनी भारतीय भाषाओं में सॉफ्टवेयर क्यों बनाए? इस तरह एक दुश्चक्र बन जाता है. अमरीका में इस तरह की दिक्कतें नहीं हैं. और भी बातें हैं. लोगों में परिष्कृत नागरिक बोध है. वे चीज़ों को तोड़ते-फोड़ते या विकृत नहीं करते. इसलिए तकनीक की जन-सुलभता भी सम्भव हो जाती है. लेकिन इसी के साथ यह भी कि यहां चीज़ों का रख-रखाव बहुत नियमितता से होता है. अगर सार्वजनिक टेलीफोन या कम्प्यूटर है तो वह चालू तो होगा ही. भारत में यह ज़रा कम देखने को मिलता है. टेलीफोन होता है पर अक्सर खराब. इससे लोगों में खीझ होती है और वह खीझ तोड़फोड़ के रूप में व्यक्त होती है. अमरीका में व्यवस्था का काम करना अपवाद नहीं नियम है. अगर कोई साइट है तो वह अद्यतन तो होगी ही. भारत में अभी यह संस्कृति नहीं है. बहुत सारे विभागों ने अपनी साइट्स तो बना दी है पर सूचनाओं को ताज़ा करने में वे कोई दिलचस्पी नहीं लेते. जन संचार से जुड़े एक बड़े प्रतिष्ठान की साइट देख रहा था. पाया कि सर्वोच्च अधिकारी के रूप में उन भद्र महिला का नाम ही चल रहा है जो छह माह पहले स्थानांतरित होकर जा चुकी हैं. मैंने चाहा कि संस्थान को ई-मेल कर यह संशोधन करवा दूं, तो पता चला कि संस्थान का ई-मेल अकाउण्ट ही सक्रिय नहीं है. यह तो एक नमूना है. वस्तुतः हमने अभी तकनोलॉजी को अपने जीवन का भाग बनाया ही नहीं है. यहां तक कि आप आम तौर पर यह भी उम्मीद नहीं कर सकते कि टेलीफोन करने से ही आपका काम हो जाएगा. आपसे यह अपेक्षा की जाएगी कि आप खुद हाज़िर हों. लुत्फे-मै तुझ से क्या कहूं? हाय कमबख्त तूने पी ही नहीं ! इसी के साथ एक और बात. बहुत मामलों में अमरीकी समाज एक नैतिक समाज है. है या बना दिया गया है. जो हो, इसके सुफल दिखाई देते हैं. यहां पाइरेटेड सॉफ्टवेयर (Pirated Software) का प्रयोग करीब-करीब नहीं होता. सॉफ्टवेयर बनाने वालों को अपने किये का पूरा-पूरा प्रतिफल मिलता है, परिणामतः नए-नए सॉफ्टवेयर विकसित होते हैं, इससे प्रयोक्ता को काम करने में आसानी होती है. एक सुचक्र बनता है.

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इसी कम्प्यूटर तथा इण्टरनेट ने और भी अनेक रोचक तथा उपयोगी बदलाव किए हैं. मुझे यहां यह देखकर बहुत आश्चर्य हुआ कि फिल्म रोल वाले कैमरे अब पूरी तरह लुप्त हो गए हैं. उनकी जगह ले ली है डिजिटल कैमरों ने. न फिल्म खरीदने, लोड करने का झंझट, न उसे डेवलप और प्रिण्ट कराने का. बटन दबाओ और फोटो तैयार. इससे भी आगे, आप खुद कलाकार बन जाएं अगर आपके पास कम्प्यूटर हो. अपने कैमरे से सीधे कम्प्यूटर पर फोटो अपलोड (upload) करें और फिर उस फोटो में मन चाहे सुधार, संशोधन, परिवर्तन कर लें. बहुत ज़्यादा कलात्मक निपुणता होनी भी ज़रूरी नहीं. यह दायित्व सॉफ्टवेयर ही वहन कर लेता है. घर में अगर प्रिण्टर भी हो तो फोटो का प्रिण्ट भी निकाल लें अन्यथा कैमरा या केवल उसकी मेमोरी (माचिस की लम्बाई-चौड़ाई के आकार की एकदम पतली पट्टी) या किसी और माध्यम पर अपनी छवियां ले जाकर प्रिण्ट बनवा लें , बल्कि खुद ही बना लें . अमरीका में तो ऐसी मशीनें जगह-जगह लगी हैं जिन पर आप खुद अपने प्रिण्ट बना सकते हैं. इस डिजिटल तकनीक ने फिल्म रोल वगैरह का झंझट तो खत्म किया ही है, इससे एक बड़ा क्रांतिकारी परिवर्तन यह हुआ है कि बेहतर फोटोग्राफी के लिए आप जितने चाहें उतने फोटो खींच सकते हैं, बिना यह चिंता किए कि फिल्म खर्च हो रही है. जो फोटो अच्छा लगे उसे रख लें, शेष को मिटा दें. परिणाम तत्क्षण देखे जा सकते हैं (कैमरे के पीछे ही छोटा-सा स्क्रीन होता है) इसलिए यह तै करना भी सम्भव है कि एक ही दृश्य को और शूट किया जाए या नहीं.

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कुछ ऐसा ही बदलाव संगीत के क्षेत्र में भी आया है. चलते-फिरते संगीत सुनने की सुविधा वॉकमेन ने सुलभ कराई थी. जब संगीत डिजिटल हुआ तो सीडी बजाने वाले डिस्कमैन आ गए. सीडी की ध्वनि निश्चय ही कैसेट की ध्वनि से बेहतर होती है. इस बीच 78 आरपीएम(RPM) के रिकार्ड, तथा ईपी(EP), एलपी(LP) तो गायब ही हो गए. अब आई एक नई तकनीक ने कैसेट या सीडी को भी अप्रासंगिक कर दिया है. आप इण्टरनेट से सीधे ही संगीत खरीद कर उसे अपने प्लेयर या कम्प्यूटर पर सुन तथा सुरक्षित रख सकते हैं. यानि संगीत का संग्रह आपके उपकरण की स्मृति में ही. अलग से कैसेट, सीडी, डीवीडी रखने की आवश्यकता नहीं. फिलहाल तो इससे पायरेसी पर भी नियंत्रण हुआ है. सभी जानते हैं कि पायरेसी संगीत को किस तरह तबाह करने लगी थी. इस नई तकनीक में जो भी संगीत आप डाउनलोड करते हैं उसका मूल्य चुकाना ही होता है. इस तकनीक में संगीत की क्वालिटी बेहतर होती है और उसे संग्रह करने में जगह प्रयुक्त नहीं होती. एक और बड़ी बात यह कि नवीनतम संगीत सारी दुनिया में एकसाथ सुलभ हो जाता है. यह नहीं कि आप प्रतीक्षा करें कि आपके म्यूज़िक स्टोर पर नया सीडी आया है या नहीं. और यह भी कि आप केवल अपना मनचाहा संगीत खरीदते हैं. पसन्द का एक गीत खरीदने के लिए पूरा सीडी नहीं खरीदनी पड़ती.

इसी किताब में एक अन्य लेख में एक और बदलाव की चर्चा मैंने की है. वह है पेपर करेंसी (भारतीय भाषा में नोट, अमरीकी अंग्रेज़ी में बिल) का लगभग पूरी तरह विस्थापन. अमरीका में क्रेडिट कार्ड का चलन बहुत अधिक है. दुकानों, सेवाओं, यहां तक कि सरकारी संस्थानों तक में क्रेडिट कार्ड स्वीकार्य हैं. आपको जेब में पैसे रखने की ज़रूरत ही नहीं. दुकानदार को हिसाब-किताब करने की ज़रूरत नहीं. सारा काम कम्प्यूटर कर लेता है. इसी वजह से कर चोरी भी नहीं होती.

परिवर्तन और भी बहुतेरे हो रहे हैं. पर अभी वे बहुत लोकप्रिय नहीं हुए हैं. लेकिन एक बात पक्की है. इन सभी परिवर्तनों से मनुष्य का जीवन अधिक सुगम होता जा रहा है. द ग्रेट डिजिटल डिवाइड (The great digital divide) की सारी चर्चाओं तथा इस बात के बावज़ूद कि यह तकनोलॉजी नए सिरे से दुनिया को ‘हैव्स और हैव नॉट्स’ (Haves and have-nots) में बांट रही है, मुझे यह लगता है कि इन परिवर्तनों का लाभ अब जल्दी जल्दी नीचे तक पहुंचने लगा है. तकनोलॉजी अब विलासिता की वस्तु नहीं रह गई है. टेलीफोन करते हुए, मनीऑर्डर भेजते हुए, रेल का आरक्षण कराते हुए, और ऐसे ही बहुत सारे कामों में कतार का आखिरी आदमी भी तकनोलॉजी से लाभान्वित होता है. इस तरह एक अर्थ में तो तकनोलॉजी गरीब-अमीर, विकसित-अविकसित, पूर्व-पश्चिम की खाई को पाट भी रही है. भला ऐसी सकारात्मक और जोड़ने वाली तकनीक का स्वागत कौन न करना चाहेगा?

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(क्रमशः अगले अंक में...)

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