यात्रा वृत्तांत आंखन देखी (अमरीका मेरी निगाहों से) ( अनुक्रम यहाँ देखें ) - डॉ. दुर्गाप्रसाद अग्रवाल 3. ज़िंदगी, मेरे ...
यात्रा वृत्तांत
आंखन देखी (अमरीका मेरी निगाहों से)
(अनुक्रम यहाँ देखें)
- डॉ. दुर्गाप्रसाद अग्रवाल
3. ज़िंदगी, मेरे घर आना, ज़िंदगी ![i]
उर्फ
नई ज़िन्दगी का शानदार स्वागत !
यह हमारी दूसरी अमरीका यात्रा थी.
पहली बार 2002 के अक्टोबर में बेटी-दामाद के बुलावे पर अमरीका घूमने आए थे. अमरीका यात्रा के क्रम में सबसे मुश्क़िल होता है अमरीका का वीज़ा मिलना. उस वक़्त हमें बमुश्क़िल तीन महीने का वीज़ा मिल पाया, उसमें से भी एक महीना तो रिज़र्वेशन वगैरह मिलने में ही बीत गया. डेढ़ महीना यहां रहे, खूब घूमे-फिरे.
दो साल भी नहीं बीते कि फिर अमरीका आने का संयोग बन गया. बेटी गर्भवती थी. बेटी-दामाद ही नहीं, इनके परिवार वाले भी चाहते थे कि इस वक़्त हम लोग इनके साथ हों. हमें भी कोई खास दिक़्क़त नहीं थी. पिछली बार तो सरकारी नौकरी में था, ज्यादा छुट्टियां मिलना मुश्क़िल था. अब सेवानिवृत्त हो जाने से वह दिक़्क़त भी नहीं रही थी.
दिक़्क़त एक ही थी - वीज़ा मिलने की. अमरीकी वीज़ा मिलना इतना मुश्क़िल माना जाता है कि भारत के अखबारों में तो पेशेवर वीज़ा सलाहकारों के विज्ञापन छ्पते हैं, आपको इण्टरव्यू के लिये बाकायदा तैयार किया जाता है. लेकिन हमने तो सोच लिया था कि जो भी पूछा जाएगा, उसका सच-सच जवाब दे देंगे.
लेकिन चारु की सलाह कुछ अलग थी.
पत्नी का और मेरा खयाल था कि अमरीकी दूतावास में इण्टरव्यू में यह तो पूछा ही जायेगा कि हम इतनी जल्दी दुबारा अमरीका क्यों जाना चाहते हैं ? और हमारा सौ-टका सच जवाब होगा- "बेटी की गर्भावस्था में उसकी सहायता के लिये." लेकिन चारु ने सलाह दी थी कि हम भूलकर भी यह जवाब न दें. चौंकने की बारी हमारी थी. सच को न बताने की वजह ? चारु ने समझाया कि यह उत्तर देने पर वीज़ा अधिकारी यह कहकर हमें निरुत्तर कर देंगे कि "इस कारण जाने की कोई ज़रूरत नहीं है, इस काम के लिये तो अमरीकी चिकित्सा सेवाएं ही पर्याप्त हैं." हमारा भारतीय मन इस बात को पचा नहीं पाया. आखिर कोई भी डॉक्टर, कोई भी अस्पताल- चाहे कितना ही अच्छा क्यों न हो, मां-बाप या घर वालों का विकल्प कैसे हो सकता है. लेकिन फोन पर बहस मुमकिन नहीं थी...
क़िस्सा कोताह यह कि चारु की सलाह पर अमल किया, कहा हम सेवा निवृत्ति के बाद फुर्सत से अमरीका घूमना चाहते हैं, पिछ्ली बार ज़्यादा छुट्टियां न मिल सकने के कारण ठीक से घूम नहीं पाए थे (और यह बात मिथ्या भी नहीं थी !)-- और दस साल का वीज़ा मिल गया, मल्टीपल एण्ट्री वाला. वीज़ा मिल जाने की प्रत्याशा में हवाई जहाज में टिकिट पहले ही ब्लाक करवा रखे थे, अत: उसमें कोई समय लगा नहीं, और 28 अप्रेल 2004 की दोपहर हम अमरीका की धरती पर, अपनी प्यारी बेटी और उससे भी प्यारे दामाद के सामने थे.
चारु ने जो कहा था, उसे देखने-समझने का मौका मिला कोई पंद्रह दिन बाद.
इस बीच टुकड़ों-टुकड़ों में अमरीका की चिकित्सा सुविधाओं के बारे में हमारा ज्ञानवर्धन होता रहा.
अमरीका में चिकित्सा सुविधा बहुत ज़्यादा महंगी है. इसके अपने कारण हैं, जिनकी चर्चा कभी अलग से करूंगा. लेकिन इस समाज ने महंगी चिकित्सा प्राप्त करने का भी एक तरीका तलाश लिया है, या बना लिया है. वह है मेडिकल इंश्योरेंस. यहां अधिकांश लोग अपना मेडिकल इंश्योरेंस कराते हैं और तब इलाज़ का व्यय भार इंश्योरेंस कम्पनी वहन करती है. इंश्योरेंस की कई प्लान्स हैं, बीमित राशि भी अलग-अलग होती है, इन्हें आप अपनी प्रीमियम चुकाने की हैसियत के अनुसार चुन लेते हैं. मुकेश और चारु दोनों क्योंकि माइक्रोसॉफ्ट में काम करते हैं, माइक्रोसॉफ्ट ही इन दोनों का प्रीमियम भरता है. इस लिहाज़ से माइक्रोसॉफ्ट कार्पोरेशन अमरीका के श्रेष्ठतम नियोक्ताओं में से है कि वह अपने कर्मचारियों को सर्वश्रेष्ठ चिकित्सा बीमा का संरक्षण दिलाने का व्यय भार वहन करता है. मज़े की बात यह कि प्रसूति व्यय भी मेडिकल इंश्योरेंस से ही होता है. चारु की प्रसूति का सारा व्यय भार इनके मेडिकल इंश्योरेंस से ही वहन हुआ और उस इंश्योरेंस का प्रीमियम इनके नियोक्ता ने चुकाया. (हमने बाद में जाना कि चारु के प्रसव पर कुल 14,000 डॉलर खर्च हुआ, यानि भारतीय मुद्रा में रु. 7 लाख.)
गर्भ धारण करते ही आपको किसी अस्पताल में पंजीयन करवा लेना होता है. यहां लगभग सब कुछ निजी क्षेत्र में है. चारु ने अपना पंजीयन एवरग्रीन अस्पताल में करवाया था. प्रसंगवश, यह बता दूं कि इस अस्पताल की गणना प्रसूति के लिहाज़ से अमरीका के दस श्रेष्ठ अस्पतालों में की जाती है. बहुत नियमितता से चारु का चेक-अप होता रहा, दवाइयां मिलती रहीं. इसी दौरान चारु और मुकेश -भावी माता पिता- को उन सेमिनार्स को भी अटैण्ड करने का मौका मिला जिनमें गर्भ धारण, गर्भ विकास-उसकी प्रक्रिया, समस्याओं और सावधानियों का पूरा ज्ञान कराया गया और नवजात शिशु को पालने का बहुत सघन प्रशिक्षण दिया गया. इन लोगों से समय-समय पर हुई चर्चा से यह बात पता लगी कि जो बातें हम दादा-दादी बनकर तथा अब नाना-नानी बनने के कगार पर पहुंचकर भी नहीं जान पाये हैं वे सब बातें ये लोग वैज्ञानिक तौर पर जान-सीख चुके हैं. जब भी इनके दोस्त, जो कि स्वाभाविक रूप से इनके हम उम्र हैं, घर आते, बच्चों के बारे में ही चर्चा होती, और हम इनकी जानकारी की गहनता से चकित होते. कहना अनावश्यक है, यह सारा ज्ञान उन्ही प्रशिक्षणों की देन था जो भावी माता-पिता को अस्पताल में दिया जाता है. यहीं यह भी बता दूं कि इन में से अधिकांश प्रशिक्षण भारी फीस चुकाकर प्राप्त किये जाते हैं. और यह भी, कि यहां गोपनीयता जैसा कुछ भी नहीं होता. सब-कुछ बेबाक, दो टूक. निश्चय ही इस खुलेपन के अपने फायदे हैं, जिन्हें हम भारतीय ज्यादा अच्छी तरह समझ सकते हैं.
तेरह मई की शाम से चारु को प्रसव पीड़ा शुरू हो गई थी. हम दोनों चिंतित थे, लेकिन चारु और मुकेश अपने प्रशिक्षण की वजह से जानते थे कि नवजात के आगमन का क्षण अभी कितना दूर है. रात इन लोगों ने अपने डॉक्टर को फोन करके मशविरा किया. कहा गया कि सुबह अस्पताल आ जाएं.
रात जैसे-तैसे कटी. सुबह मुकेश चारु को लेकर अस्पताल चले गये और हम बेसब्री से उनके सन्देश की प्रतीक्षा करने लगे. कोई एक घंटे बाद मुकेश का फोन आया कि चारु को भर्ती कर लिया गया है और हम दोनों को लेने उनके मित्र राज, जो पास में ही रहते हैं, आ रहे हैं.
राज के साथ हम अस्पताल पहुंचे.
अमरीका में अस्पताल से यह हमारा पहला साक्षात्कार था. अगर हमने बाहर बोर्ड न पढ़ा होता तो यही समझते कि राज हमें किसी पाँच सितारा होटल में ले आये हैं. बहुत भव्य और एकदम साफ सुथरा. करीनेदार. ऑटोमेटिक दरवाज़ों को पार करते हुए, और जिन दरवाज़ों से आपको न गुज़रना हो, आपकी आहट से उनमें लगे सेंसर सक्रिय हो जाने से उनके भी खुलने बन्द हो जाने के खेल का आनन्द लेते हुए, कई साफ सुथरे, चमचमाते गलियारों से गुज़र कर हम उस कमरा नम्बर 2169 तक पहुंचे जहां हमारी बेटी अनेक हाई-टेक उपकरणों के बीच एक बड़े बेड पर लेटी थी. कमरे में एक छोटा फ्रिज, एक टीवी, एक वीसीडी-डीवीडी प्लेयर, एक म्यूज़िक सिस्टम, एक अतिरिक्त बेड, एक बाथरूम,जिसमें जाकुजी सुविधा तक थी, एक कम्प्यूटर वगैरह थे. यह पूरी सूची नहीं है, पर इससे वहां उपलब्ध सुविधाओं का अन्दाज़ लगाया जा सकता है. जिस बेड पर चारु लेटी थी उस पर कई तरह के स्विच थे जिनसे पलंग को ऊपर-नीचे किया जा सकता था, संगीत सुना, टीवी देखा जा सकता था, नर्स से बात की जा सकती थी या उसे बुलाया जा सकता था, वगैरह. कमरे के बाहर एक खुला-खुला बड़ा-सा प्रतीक्षालय था, जहां और एक टीवी था और थी कई सारी पत्रिकाएं. पास ही, यानि 5-6 कमरों के बीच एक साझा किचन जैसा कुछ था जहां एक माइक्रोवेव अवन, फ्रिज (जिसमें काफी माल भरा था), कॉफी के बड़े-बड़े थर्मस वगैरह थे. बहुत सारे पाउच थे जिनमें दूध, चीनी, नमक, मिर्च, कई तरह की चाय थी. इस किचन से कोई भी अपनी ज़रूरत के अनुसार सामग्री ले सकता था या अपने साथ लाई सामग्री यहां लाकर गरम कर सकता था. अस्पताल के प्रवेश द्वार के पास ही एक वेण्डिंग मशीन भी थी जिसमें सिक्के डाल कर कोल्ड ड्रिंक, चिप्स वगैरह खरीदे जा सकते थे. वहीं एक गिफ्ट शॉप भी थी जहां से गुलदस्ते और छोटे-मोटे उपहार खरीदे जा सकते थे. ज्यादा सही तो यह कहना होगा कि वहां अस्पताल में आने वालों के काम की हर चीज़ उपलब्ध थी.
चारु के कमरे में एक नर्स थी - जीना. बहुत ही सक्रिय, बहुत ही शालीन, अत्यधिक कर्मनिष्ठ. वह सारे मॉनीटर्स पर तो नज़र रख ही रही थी, साथ-साथ अस्पताल के तंत्र से जुड़े कम्प्यूटर पर सूचनाओं का प्रेषण भी करती जा रही थी. और इतना ही नहीं, चारु की हर ज़रूरत पूरी करते हुए उसकी विभिन्न जिज्ञासाओं का समाधान भी करती जा रही थी. पूरे दिन में दो-एक बार उसे बाहर जाना पड़ा तो अपनी जगह किसी और को बिठा कर ही गई. जो भी नई नर्स आती, मुस्कराकर हाय/हैलो करती, अपना नाम बताती और ऐसी तत्परता से अपने काम में लग जाती मानो कई दिनों से यहीं, इसी कमरे में काम कर रही हो. इनको देखकर जी चाहता था शब्दकोष से कामचोरी शब्द को मिटा ही दिया जाए.
हमारे लिये उस दिन खाना राज और दीपिका अपने घर से बनाकर ले आये थे. (बाद में भी मुकेश-चारु के कोई न कोई मित्र ही अपने घर से हम सबके लिये खाना-नाश्ता लाते रहे. न केवल अस्पताल में, बल्कि घर पहुंचकर भी हम दो दिन मित्रों के घर से आया भोजन ही करते रहे.) दीपिका का प्रसव भी इसी अस्पताल में होना था और डॉक्टर भी उसने वे ही चुने थे जो चारु ने चुने थे. यहां मरीज़ को हक़ है कि वह अपना डॉक्टर चुने. प्रसव की सम्भावित तिथि भी एक ही थी. मज़ाक चलता रहता था कि दीपिका भी भर्ती हो जाएं तो हम एक साथ ही दो शिशुओं को लेकर घर जाएं. चारु-मुकेश तथा राज-दीपिका को देखकर दोस्ती के नये रंगों की खुशबू का एहसास हुआ.
चारु के परीक्षण बराबर चल रहे थे. डॉक्टर चिंतित थे कि शिशु के आगमन की प्रक्रिया उनकी आशा के अनुरूप त्वरित नहीं है. उन्होंने प्रक्रिया को गति देने के प्रयास करने के साथ ही चारु की रीढ में एक इंजेक्शन (epidural) भी लगा दिया ताकि प्रसव वेदना कम से कम महसूस हो.
काफी प्रयत्नों और प्रतीक्षा के बाद अंततः शाम कोई साढ़े चार बजे डॉक्टरों ने यह निर्णय लिया कि सीज़ेरियन करके बच्चे को दुनिया में लाया जाय. अगर यह नॉर्मल डिलीवरी होती तो बच्चा उसी कमरे में दुनिया के पहले दर्शन करता जिसमें चारु अब तक थी. पर सीज़ेरियन के लिये चारु को ऑपरेशन थिएटर में ले जाया जाना था.
यहां दंपती को पहले से ही एक फॉर्म भरकर यह बता देना होता है कि प्रसव के वक़्त कौन-कौन व्यक्ति उपस्थित रहेगा. ऐन प्रसव के वक़्त पति तो उपस्थित रहता ही है, परिवार या निकट के और भी जितने लोग चाहें उपस्थित रह सकते हैं. मुकेश ने खुद के अलावा विमला का नाम दे दिया था. हमारी चारु को लगभग अर्द्ध बेहोशी में स्ट्रेचर पर लिटाकर ऑपरेशन थिएटर की तरफ ले जाया गया. मुकेश, विमला और मैं साथ थे. चारु ने थोड़ी-सी आंख खोली तो मैंने आंखों ही आंखों में उसे आशीर्वाद दिया, उसका हाथ हौले-से दबाया, और वे लोग मुझे बाहर छोड़ भारी दरवाज़ों के भीतर ऑपरेशन थिएटर में घुस गये.
अब मैं था और था लम्बा गलियारा. सामने भारी दरवाज़ा. उसके पीछे शायद और दरवाज़ा, फिर कुछ और . . .और शायद तब एक टेबल पर लेटी मेरी बेटी. . . . . .
गलियारे में कभी-कभार कोई गुज़रता. अगर दृष्टि-सम्पर्क होता, हाय/हैलो हो जाती. आम अमरीकी को किसी भी अजनबी को देखकर मुस्कुराने व उसका अभिवादन करने में ज़रा भी संकोच नहीं होता. आत्मीयता का यह अकुण्ठित विस्तार अच्छा लगता है. ज़्यादातर अमरीकियों के हाथ में कोक का कैन या कॉफी का ढक्कनदार गिलास ज़रूर होता. किसी-किसी के साथ गोरे-गोलमटोल-गदबदे बबुए जैसे शिशु भी. या कि उछलते-कूदते बच्चे. समय बीतता जा रहा था, परंतु उसकी गति जैसे धीमी हो गई थी. अन्दर न जाने क्या चल रहा होगा? कैसी होगी हमारी बेटी ? कभी दरवाज़ा खुलने की आहट होती तो मन चौकन्ना हो जाता. अन्दर से बाहर कम आ रहे थे, बाहर से अन्दर ही थोड़ी-थोड़ी देर में कोई न कोई जा रहा था. शायद दसेक लोग तो भीतर जा चुके होंगे. कहीं कोई गम्भीर संकट तो नहीं? अपना ध्यान बंटाने को बाहर ताकने लगता हूं. गलियारे के छोर तक दो चक्कर पहले ही लगा चुका हूं. बाहर साफ-सुथरा मैदान है. दूर-दूर तक फैली हरियाली और उस पर उतरती शाम की मुलायम धूप. ऐसी ही धूप के लिये तो धर्मवीर भारती ने कहा होगा- ‘जॉर्जट के पीले पल्ले-सी धूप’. दूर कहीं से आते संगीत के स्वर मानो हौले-से मुझे सहला जाते हैं, आश्वस्त कर जाते हैं. कहां से आ रहे होंगे ये स्वर? चारों तरफ तो शीशे जड़े हैं! पूरा भवन वातानुकूलित है. बाहर की कोई आवाज़ तो अन्दर आ ही नहीं सकती. फिर यह स्वर-लहरी? अपना ध्यान केंद्रित करता हूं. अच्छा ! तो यह बात है. पूरे ही भवन में म्यूज़िक सिस्टम लगा है. बहुत हल्की, थपथपाती-सी स्वर लहरी उसी से प्रवाहित होती रहती है. इतनी हल्की, मानों हो ही ना. संगीत का प्रभाव यहां महसूस होता है. उद्वेलित मन को शांति मिल रही है. पाश्चात्य शास्त्रीय संगीत जैसा कुछ है. मैने देखा है कि यहां ये लोग अपनी विरासत का बहुत खूबसूरत (वाणिज्यिक) उपयोग करते हैं. गर्भवती मां के सुनने के लिये मोत्ज़ार्ट, बाख, बीथोवेन आदि के संगीत की सीडी यहां आम है. यह प्रचारित करते हुए इन्हें बेचा जाता है कि इससे गर्भस्थ शिशु के मानसिक विकास को गति मिलती है. चारु के यहां ऐसी सीडी देखकर मुझे बहुत अच्छा लगा. मन में यह विचार भी आया कि पण्डित रविशंकर, शिव कुमार शर्मा, उस्ताद अली अकबर खां, हरि प्रसाद चौरसिया आदि के संगीत का भी तो यही प्रभाव होता होगा - अगर होता हो. असल बात तो मार्केटिंग की है, पर सच कहूं, इस मार्केटिंग से मुझे खुशी हुई. बाद में मैंने यह भी पाया कि नवजात शिशु के जो खिलौने हैं उनमें भी मोत्ज़ार्ट, बीथोवेन, बाख वगैरह के संगीत का उपयोग किया जाता है. अस्पताल में जो संगीत बज रहा था, वह चाहे जिसकी रचना हो, था बहुत प्रभावशाली. अगर भारतीय संगीत होता तो मैं उसे पहचान भी लेता.
तभी दरवाज़ा खुलने की आवाज़ हुई.
दो आकृतियां. शायद एक पुरुष, एक महिला. शायद इसलिये कि दोनों ने अस्पताल के हरे चोगों में अपने को पूरी तरह आवृत्त कर रखा है. "पापाजी" - अरे यह तो मुकेश की आवाज़ है. "कांग्रेच्युलेशंस, इट्स अ डॉटर !" एक स्त्री स्वर. मुकेश के हाथ में वीडियो कैमकॉर्डर है, डॉक्टरनी के हाथ में मेरी सद्यजात नातिन. मेरा गला रूंध-सा जाता है. डॉक्टर को धन्यवाद देता हूं पर इतने अस्पष्ट स्वर में कि शायद उन्हें सुनाई भी न पड़ा हो. सुनाई पड़ा भी होगा तो समझ नहीं आया होगा. वे लोग गलियारे के दूसरे छोर पर चले गये हैं. क्या यह सपना था? या वाकई हम नाना-नानी बन गये हैं! कुछ और चहल-पहल होती है. ऑपरेशन थिएटर से कुछ और लोग निकलते हैं. और फिर स्ट्रेचर पर मेरी लाड़ली चारु. नीम बेहोशी में. साथ-साथ विमला, जिसे हरे चोगे में पहचानने में थोड़ा ज़ोर लगाना पडा. आवाज़ पहले पहचानी, आकृति बाद में. चारु को होश नहीं है. विमला मुझे आश्वस्त करती है कि सब कुछ ठीक से हो गया है. मैं भी उनके पीछे-पीछे हो लेता हूँ. चारु को फिर से उसके कमरे में ले आया गया है.
शाम 6.02 बजे हमारी नातिन ने इस दुनिया में अपनी आंखें खोली हैं. मैं मन ही मन प्रार्थना करता हूं. भगवान इसे लम्बी उम्र देना और देना वह शक्ति कि यह अपनी दुनिया को और बेहतर बना सके. याद आने लगता है कि अपने छोटे-से शहर सिरोही में हमें लोग चारु के मां-बाप के रूप में भी जानने लगे थे. यह नई पहचान हमें अपनी बेटी की मेधा के कारण मिली थी. आज वही छोटी-सी चारु जो सात समुद्र पार आकर शान से अपनी गृहस्थी चला रही है, खुद एक बेटी की मां बन गयी है. सिरोही जैसे छोटे शहर में रहकर, सरकारी स्कूलों में पढ़कर, सॉफ्टवेयर इंजीनियर बनकर अपना और हम सबका नाम रोशन करने वाली चारु की बेटी भी इसी तरह उसका और हम सबका नाम रोशन करे - इसके सिवा और कोई भाव मन में नहीं उभरता.
चारु विमला, नर्स और डॉक्टर के साथ कमरे में ले जाई गई. थोड़ी देर में नए, गर्वित, आह्लादित पिता मुकेश भी अपनी नई-नवेली बेटी के साथ कमरे में आ गए. विमला ने दरवाज़ा खोल मुझे पुकारा- "चारु आपको बुला रही है!" भीतर गया तो चारु ने बहुत हल्के-से अपना हाथ बढ़ाकर लगभग रुंधे स्वर में कहा, " पापा, आप नाना बन गये!" नहीं याद कि मैंने जवाब में क्या कहा. कुछ कहा भी या नहीं ? न भी कहा हो तो क्या हर्ज़? मन में तो थीं मौन प्रार्थनाएं. आंखों में थे आंसू. खुशी के आंसू. शायद जीवन में ऐसे आंसू कभी नहीं आये. मां-बाप के लिये बच्चे कभी बड़े नहीं होते. चारु मेरे लिये अभी भी 'मुन्नू' ही है. लेकिन अब चारु मां है. उसके पास ही झूले में लेटी है उसकी बेटी. सामने दर्पण पर एक खूबसूरत चार्ट लगा है जिस पर दो कालमों में तीन-तीन खाने बने हैं. पहले कालम में मां, पिता और शिशु के नाम, दूसरे में अस्पताल के ऑन ड्यूटी स्टाफ के नाम. चारु, मुकेश के नीचे तीसरा नाम लिख दिया गया है- नव्या !
थोडी देर में डॉक्टर आती हैं, शायद चीनी हैं. फिर से हमें मुबारकबाद देती हैं. फिर नर्स नवजात शिशु को नहलाने की तैयारी करती है, पहले बहुत सावधानी से पानी का तापमान जांचती है, फिर कुछ रसायनों से (शायद शैम्पू हो, या कुछ और) वहीं कमरे में लगे वाश बेसिन में बिटिया की बिटिया नव्या को नहलाती है. मुकेश फोटोग्राफी में व्यस्त हैं. यहाँ बड़ी दिलचस्प बात यह है कि अस्पताल वाले फोटोग्राफी के लिये मना नहीं करते, कुछ-कुछ प्रोत्साहित भी करते हैं. नव्या भाग्यशाली है कि बड़ी होकर वह दुनिया में अपने आगमन का पूरा वृत्तांत देख पायेगी. वह यह भी देखेगी कि जब वह दुनिया में आ रही थी, उसके पिता कितने आह्लादित थे और मां ने उसे दुनिया में लाने के लिये कितनी पीड़ा सही थी. निश्चय ही ये छवियां उसे अपने मां-बाप के प्रति अधिक संलग्नता का अनुभव करायेगी. इस बीच मुकेश ने नहा-धोकर पालने में लेटी अपनी लाड़ली के साथ हमारे फोटो खींचे हैं. कुछ फोटो मैंने भी लिये हैं. मैं बाहर जाकर कॉफी ले आया हूं.
मुकेश उसी कमरे से सेलफोन से सबसे पहले अपने गांव वराड़ा अपनी मां को यह शुभ समाचार देते हैं, फिर मुम्बई अपने बड़े भाई को. फिर मैं सूरत फोन कर (अपने बेटे) विश्वास को यह सुसमाचार देता हूं कि वह मामा बन गया है.
मुकेश ने फोन कर दिया था. राज आ गये हैं. हाथ में फूलों की खूब बड़ी डलिया और उससे बंधा गैस का आकर्षक गुब्बारा जिस पर लिखा है- कॉग्रेच्युलेशंस! चारु भी बीच-बीच में आंखें खोल लेती है. थोडी देर में नव्या भी अपनी उपस्थिति का एहसास कराने लगती है. चारु को जैसे-जैसे होश आता जा रहा है, उसकी वेदना (शल्य-क्रिया जनित) बढ़ती जा रही है.
डॉक्टर बार-बार आकर मां-बेटी को सम्भाल रही है. नर्स तो वहां अनवरत सेवा में है ही.
अब जाकर मुझे समझ में आया है कि क्यों अमरीकी वीज़ा अधिकारी के सामने यह कहना बेमानी होता कि हम अपनी बेटी के प्रसव के लिये अमरीका जाना चाहते हैं. यहां हमारे लिये करने को था ही क्या ? जो कुछ करना था, बल्कि ज्यादा सही तो यह कहना होगा कि जो कुछ भी किया जा सकता था, उसके लिये तो अस्पताल ज़रूरत से ज़्यादा तत्पर और मुस्तैद था, और है.
अमरीकी समाज मनुष्य जीवन को कितना कीमती मानता है, इस बात को यहां की चिकित्सा व्यवस्था को देखे बगैर समझा ही नहीं जा सकता.
पूरे गर्भकाल में समय समय पर चारु की जांच की गई, उसे परामर्श और यथावश्यकता दवाइयां दी गईं. यहां ज़्यादा दवाइयों में विश्वास नही किया जाता. जब तक बिना दवा के काम चल सकता है, चलाया जाता है, उसके बाद कम से कम दवा से इलाज़ की कोशिश रहती है. न केवल चारु को, मुकेश को भी नए शिशु के आगमन के बारे में सब कुछ समझा-बता कर उन्हें उनकी नई ज़िम्मेदारियों का वहन करने के लिये तैयार कर दिया गया था.
यह सब तो हमने केवल सुना.
लेकिन अस्पताल में रहकर जो देखा वह हमें अभिभूत करने के लिये पर्याप्त था. डॉक्टर हो या नर्स, अपनी ज़िम्मेदारी के निर्वाह के लिये सौ नहीं बल्कि एक सौ दस प्रतिशत प्रस्तुत. अपने काम में पूरे तरह दक्ष. व्यवहार में नितांत शिष्ट, शालीन और विनम्र. दरअसल यहाँ कुछ भी चांस पर नहीं छोडा जाता. मां और नवजात शिशु के सारे परीक्षण, सारे सुरक्षा कवच, सारे रक्षा प्रयास. यही कारण है प्रसव के दौरान कुछ भी अप्रिय घटित होना यहां कल्पना से बाहर ही है. अगर सामान्य प्रसव हो, दस बारह घण्टे में अस्पताल से छुट्टी. चारु का क्योंकि सीज़ेरियन था, उसे 72 घण्टे अस्पताल में रखा गया.
एक स्वस्थ समाज में नई ज़िन्दगी के आगमन का उत्सव कितना ज़िम्मेदारी भरा और शानदार होता है, यह देखने का मौका हमें हमारे चारु-मुकेश ने दिया. बल्कि कहूं, हमारी नव्या ने दिया.
सब कुछ अपनी आंखों देखकर लगा कि अगर अमरीकी वीज़ा अधिकारी प्रसव के समय किसी परिवारजन के उपस्थित होने की ज़रूरत मह्सूस नहीं करते तो इसमें गलत क्या है? इतनी उम्दा, प्रोफेशनल और कर्टियस चिकित्सा सेवा, कि आप उस पर भरोसा कर चैन की नींद सो सकें, केवल सराहनीय ही नहीं अनुकरणीय भी है. अस्पताल में गन्दगी का नामो-निशान नहीं, कहीं कोई अव्यवस्था नहीं, कोई चीख-पुकार नहीं, शोर शराबा नहीं, झगड़ा-बहस नहीं कि यह मेरा नहीं अमुक का काम है, मैं क्यों करूं. मुझे तो बार-बार अपने मित्र सुप्रसिद्ध कथाकार स्वयं प्रकाश की कहानी 'अगले जनम' की याद आती रही. जिन्होंने भारतीय अस्पतालों में प्रसव की बेहूदा स्थितियां खुद नहीं देखी-भोगी हैं, उन्हें यह कहानी ज़रूर पढनी चाहिये. प्रसूता से नर्सें कैसी बेहूदा बातें करती हैं, गन्दगी का क्या आलम होता है, वगैरह. हालांकि कहानी का असल मक़सद कुछ और है. लगे हाथ उसकी भी चर्चा कर ही दूं. भारतीय समाज में सारी शिक्षा, सारी प्रगति, तमाम आधुनिकता के बाद भी अभी भी लड़की का जन्म उल्लास का नहीं, अवसाद का ही प्रसंग होता है. बड़े-बूढ़े तो ठीक, नौजवान पीढ़ी के लोग भी पुत्री जन्म पर "चलो लक्ष्मी आई है" कहकर सांत्वना ही देते हैं. लड़के और लड़की की बराबरी की बात केवल मंचों और किताबों तक ही सीमित है. बदलाव आ रहा है, पर इतना धीरे कि लगता है जैसे कुछ भी नहीं बदल रहा है. पाश्चात्य समाज में ऐसा नहीं है. महत्व लड़का या लड़की को नहीं, मां और संतान की सुरक्षा को दिया जाता है. लड़की का पैदा होना भी उतना ही महत्वपूर्ण और आनंददायी होता है, जितना पुत्र जन्म. यहां अमरीका में रह रहे भारतीयों ने भी इस देश से यह सीख लिया है. यह संयोग ही था कि इन दिनों चारु-मुकेश के कई दोस्त परिवारों में नए शिशु की किलकारियां गूंजी. यह भी संयोग ही था कि सभी नवजात लड़कियां ही थीं. सभी के यहां भरपूर खुशी और उल्लास का माहौल. मुझे कहीं भी, लेशमात्र भी उदासी या अवसाद, ढूंढे से भी न मिला, और इससे मुझे बेहद खुशी हुई. इस बात की, कि चलो इन्होंने पश्चिम की एक अच्छाई को आत्मसात किया.
हम अमरीकियों से और कुछ सीखें न सीखें, उनकी जीवन पद्धति और राजनीतिक सोच पर चाहे जितनी बहस कर लें, मनुष्य जीवन को वे जितना महत्वपूर्ण मानते हैं और गरिमा प्रदान करते हैं, वह तो अनुकरणीय है. मैं तो उनका मुरीद हो गया हूं.
अगर हमें वीज़ा न मिलता और इस मौके पर न आ पाये होते तब भी हमारी बेटी इसी आश्वस्ति और सुरक्षा के साथ मां बनती. उसे कोई खतरा तब भी नहीं होता. हां, इतना ज़रूर होता कि हम अमरीकी व्यवस्था के एक उजले, और फिर कहूं - अनुकरणीय पहलू को अपनी आंखों नहीं देख पाये होते.
बेटी चारु ने हमें अमरीका देखने का मौका दिया, उसकी बेटी (नव्या) ने इस अमरीका का एक बहुत प्यारा क्लोज़ अप दिखाया.
धन्यवाद नव्या !
पुनश्चः कुछ ही दिनों बाद हमारे घर डाक से एक छोटा-सा पैकेट आया. उस डॉक्टर की तरफ से जिसने चारु का प्रसव करवाया था. पैकेट में सिरेमिक का एक छोटा-सा, बहुत खूबसूरत जूता था जिस पर मुकेश, चारु, नव्या और उस डॉक्टर के नाम अंकित थे तथा अंकित थी नव्या के इस दुनिया में पदार्पण की तिथि. डॉक्टर की ओर से यह स्मृति चिह्न पाकर हम सब को बहुत खुशी हुई. व्यावसायिकता को कलात्मक आत्मीयता का रूप देने का यह अन्दाज़ बहुत प्यारा था.
*********************
[i] गुलज़ार रचित एक गीत की प्रथम पंक्ति.
------------------.
(शेष अगले अंक में जारी...)
COMMENTS