वर्ल्ड ऑफ बुक्स भारत और चीन में आर्थिक उदारीकरण के पक्ष में -डॉ दुर्गाप्रसाद अग्रवाल दो बडे देश – चीन और भारत. दोनों ही एक अरब से ...
वर्ल्ड ऑफ बुक्स
भारत और चीन में आर्थिक उदारीकरण के पक्ष में
-डॉ दुर्गाप्रसाद अग्रवाल
दो बडे देश – चीन और भारत. दोनों ही एक अरब से ऊपर आबादी वाले और दोनों ही पारम्परिक. अब ये दोनों देश विश्व व्यापार जगत में पहले से जमे हुए देशों के लिए कडी चुनौती पेश कर रहे हैं. हांग कांग में रह रहीं, फॉर्ब्स पत्रिका की एशिया सम्पादक, बहु-पुरस्कृत पत्रकार रॉबिन मेरेडिथ ने अपनी 256 पन्नों की 16 जुलाई 2007 को प्रकाशित किताब ‘द एलीफेण्ट एण्ड द ड्रेगन : द राइज़ ऑफ इण्डिया एण्ड चाइना एण्ड व्हाट इट मीन्स फॉर ऑल ऑफ अस’ में इन दोनों देशों के इसी बदलाव की पश्चिमी और पूंजीवादी नज़रिये से पडताल की है.
रॉबिन मेरेडिथ कहती हैं कि अब ऐसा उत्पाद ढूंढना जो चीन में न बना हो और ऐसा तकनीकी सहयोग प्राप्त करना जिसका उद्गम भारत में न हो, क्रमश:कठिनतर होता जा रहा है. भारत में तेज़ी से पैर पसार रहे कॉल सेंटर व्यवसाय के बारे में वैसे भी बहुत कहा-लिखा जाता है. बकौल मेरेडिथ, इस बदलते परिदृश्य की परिणति कई रूपों में दिखाई देती है. वे बताती हैं कि 1978 में जहां शंघाई में मात्र 15 स्काई स्क्रेपर (गगन चुम्बी भवन) थे, अब उनकी संख्या 3800 हो गई है. इतने स्काई स्क्रेपर तो शिकागो और लॉस एंजिलस में मिलाकर भी नहीं हैं. इधर दुनिया की सबसे बडी दस सूचना प्रौद्योगिकी कम्पनियों में से तीन भारत में अवस्थित हैं. इतना ही नहीं, अकेले आई बी एम में 53 हज़ार लोग काम करते हैं जबकि 1992 तक यह कम्पनी भारत में थी ही नहीं.
लेकिन सब कुछ इतना अच्छा भी नहीं है. दुनिया के सर्वाधिक प्रदूषित शहरों में से बीस चीन में हैं. विशेषज्ञों का कहना है कि चीन इस पर्यावरणीय विभीषिका से तो बच भी जाए, आर्थिक विनाश से नहीं बच सकेगा क्योंकि वहां की सत्तर प्रतिशत सार्वजनिक कम्पनियां बेकार हैं. खुद चीनी प्रधानमंत्री स्वीकार करते हैं कि वहां की अर्थव्यवस्था अस्थिर, असंतुलित और असमन्वित है. यह भी अनुमान है कि चीन की बैंक व्यवस्था चरमरा रही है. भारत के बारे में भी कई बातें चिंताजनक हैं. यहां की चालीस प्रतिशत आबादी अभी भी निरक्षर है, यहां के साठ प्रतिशत लोग अभी भी कृषि पर निर्भर हैं और बमुश्किल दो वक़्त की रोटी जुटा पाते हैं क्योंकि खेती करने के उनके तौर-तरीके बेहद पुराने हैं. अमर्त्य सेन ने भी कहा है कि भारत के बारे में जितना अच्छा कहा जाता है, उसका उलट भी उतना ही सही होता है.
मेरेडिथ ने दोनों देशों में आये बदलाव की विवेचना करते हुए बताया है कि चीन में बाज़ार केन्द्रित आर्थिक सुधारों की शुरुआत 1978 में और भारत में 1991 में हुई. इन सुधारों का परिणाम यह हुआ कि अकेले नब्बे के दशक में दोनों देशों में कुल मिलाकर बीस करोड लोग गरीबी से निज़ात पा सके. अगर दोनों देशों की आर्थिक प्रगति की रफ्तार पर एक नज़र डालें तो पाते हैं कि 1980 में जहां चीन और भारत जीडीपी और पर केपिटा इन्कम के मामले में समान धरातल पर थे, 2000 तक आते-आते चीन का जीडीपी भारत से दुगुना हो गया और निर्यात के मामले में उसकी रफ्तार भारत से आठ गुना ज़्यादा हो गई. आखिर ऐसा कैसे हुआ? मेरेडिथ के अनुसर, चीन ने भारत से तेईस साल पहले माओवादी बन्द अर्थव्यवस्था को तिलांजलि देकर मुक्त बाज़ार केन्द्रित अर्थ व्यवस्था को अपना लिया. मेरेडिथ बताती हैं कि चीन में माओ की सामूहिक कृषि नीति की वजह से 1959 से 1962 तक तीन से चार करोड लोग भुखमरी के शिकार हुए थे. सांस्कृतिक क्रांति के दौर में वहां की लगभग सारी यूनिवर्सिटियां बन्द हो गई थीं. भारत में भी, आज़ादी के बाद के समाजवादी रुझान और केन्द्रीय योजना के कारण आर्थिक विकास की दर बहुत धीमी रही. निकम्मी, संरक्षणवादी उद्यमी नीतियों ने गरीबी का उन्मूलन नहीं, उसका संरक्षण किया. मेरेडिथ ने भारत के एक पूर्व वित्त मंत्री को यह कहते हुए उद्धृत किया है कि हमने कुछ बरस पहले प्रतिस्पर्धी एजेण्डा अपना कर गरीबों के लिए जितना कर दिया उतना तो हम कई दशकों के गरीबी हटाओ एजेण्डा के माध्यम से भी नहीं कर पाये थे.
जैसा मैंने प्रारम्भ में इंगित किया, किताब पश्चिमी नज़रिये को केन्द्र में रखती है. इसीलिए मेरेडिथ इस बात की भी चर्चा करना नहीं भूलती कि इन दोनों देशों में जो हो रहा है उससे अमरीका का रोज़गार (आउट सोर्सिंग और ऑफ शोरिंग की वजह से) इन दोनों देशों में स्थानांतरित होता जा रहा है. लेकिन, यह चर्चा करने के बाद वे अपने अमरीकी पाठकों को सांत्वना देना भी नहीं भूलतीं कि उन्हें दुखी नहीं होना चाहिये क्योंकि सस्ते उत्पाद और सस्ती सेवाओं का फायदा भी तो उन्हीं को मिल रहा है. और यही अमरीकी पक्षधरता और पूंजीवाद की एक तरफा हिमायत इस किताब की सबसे बडी सीमा है. मेरेडिथ तस्वीर का एक ही रुख सामने लाती हैं. मुक्तबाज़ार व्यवस्था कैसे इन दोनों देशों के जीवन में बहुत सारी विकृतियां ला रही हैं, अगर मेरेडिथ उन पर भी कुछ कहतीं तो मुझे ज़्यादा अच्छा लगता. लेकिन वे क्यों कहतीं? तब मुक्त बाज़ार और पूंजीवाद की तस्वीर इतनी उजली कैसे प्रस्तुत हो पाती?
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रचनाकार परिचय:
जन्म : 24 नवम्बर, 1945, उदयपुर.
शिक्षा : एम. ए., पी-एच.डी. (हिन्दी)
सेवा : 7 जुलाई, 1967 से राजस्थान सरकार की कॉलेज शिक्षा सेवा में. भीनमाल, चित्तौड़गढ़, सिरोही, आबू रोड में व्याख्याता; कोटपुतली, सिरोही में उपाचार्य; तथा सिरोही, आबूरोड, जालोर में प्राचार्य रहने के बाद 30 नवम्बर, 2003 को निदेशालय (अब आयुक्तालय) कॉलेज शिक्षा, राजस्थान, जयपुर में संयुक्त निदेशक के पद से सेवा निवृत्त.
हिन्दी कथा साहित्य की आलोचना में विशेष रुचि, साथ ही विविध सम-सामयिक विषयों पर नियमित लेखन. देश व हिन्दी की लगभग सभी प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित. इण्टरनेट पर भी अनेक रचनाएं. अंग्रेज़ी से हिन्दी में खूब अनुवाद. पूर्व विदेश मंत्री श्री नटवर सिंह की संस्मरणात्मक पुस्तक का हाल ही में प्रकाशित 'चेहरे और चिट्ठियां' शीर्षक अनुवाद प्रशंसित. अनेक सम्पादन भी. लगभग दस पुस्तकें प्रकाशित. अनेक संकलनों में लेख आदि संकलित. अमरीका यात्रा के अनुभवों पर आधारित नवीनतम पुस्तक 'आंखन देखी' खूब चर्चित. आकाशवाणी व दूरदर्शन से नियमित प्रसारण.
भरपूर अध्ययन के अतिरिक्त अध्यापन, सभी किस्म के साहित्य, फिल्म, संगीत, नृत्य, फोटोग्राफी, प्रसारण, सम्प्रेषण, संचार, टेक्नोलॉजी आदि में गहरी दिलचस्पी. सभी क्षेत्रों की नवीनतम गतिविधियों, प्रवृत्तियों और प्रविधियों की जानकारी और उनके प्रयोग की गहरी उत्कण्ठा.
तीन विदेश यात्राएं.
परिवार : पत्नी और अपने-अपने जीवन में सुस्थापित एक बेटी तथा एक बेटा.
सम्प्रति : जयपुर में निवास और अपने मन का पढ़ना-लिखना. अंतर्जाल (इण्टरनेट) पर एक पत्रिका इंद्रधनुषइण्डिया का सम्पादन.
सम्पर्क : ई-2/211, चित्रकूट, जयपुर- 302 021.
दूरभाष : +91-141-2440782
मोबाइल : 91-09829532504
ईमेल: dpagrawal24@gmail.com
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अच्छा लेख है।
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